जब महाराणा सांगा ने देखा कि बाबर ने देखते ही देखते दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया तो सांगा को भारत के भाग्य की चिंता हुई उसने भारत भूमि से म्लेच्छों को मार भगाने का संकल्प ले रखा था और वह कई वर्षों से इब्राहीम लोदी को उखाड़ फैंकने की तैयारियां कर रहा था। जब उसने सुना कि बाबर मध्य एशिया से अपनी सेना लेकर भारत की ओर आ रहा है तो सांगा चुप होकर बैठ गया और बाबर तथा इब्राहीम लोदी के युद्ध का परिणाम आने की प्रतीक्षा करने लगा।
उधर इब्राहीम लोदी से निबट कर बाबर की दृष्टि भी चित्तौड़ नरेश राणा सांगा की ओर गयी। वह जानता था कि सांगा ने इब्राहीम लोदी के विरुद्ध एक बड़ा लश्कर एकत्र कर रखा है। यह भी निश्चित था कि सांगा इस लश्कर का उपयोग बाबर के खिलाफ करेगा। वैसे भी इब्राहीम लोदी का साम्राज्य हाथ में आते ही बाबर के साम्राज्य की सीमायें सांगा के साम्राज्य से आ मिलीं थीं। इसलिये स्वाभाविक ही था कि अब दोनों ही अपनी-अपनी शक्ति का परिचय एक दूसरे से करवाते।
यद्यपि चित्तौड़ में कुछ घटना चक्र ऐसा घूम गया था कि राणा का चित्तौड़ छोड़कर जाना उचित नहीं था। दुष्ट विक्रम राणा के गले की हड्डी बन गया था। कुंअर भोजराज के वीर गति प्राप्त कर लेने के बाद से तो विक्रम के हौंसले और भी बुलंद हो गये थे। विक्रम का मामा बूंदी का कुंअर सूरजमल भी उसके दुष्चक्रों में शामिल हो गया था। वह विक्रम को महाराणा का उत्तराधिकारी बनाने के लिये राजकुमार रतनसिंह को मारने की फिराक में रहता था जो कि भोजराज के बाद चित्तौड़ का उत्तराधिकारी था। दुर्भाग्य से विक्रम की माँ भी इन दुष्चक्रों में सम्मिलित हो गयी थी। इतना सब होने पर भी राणा ने राष्ट्र पर आयी विपत्ति को अपने घर की विपत्ति से बड़ा जानकर बाबर से दो-दो हाथ करना ही उचित समझा।
महाराणा ने अपने अस्सी हजार[1] सैनिकों के साथ गंभीरी नदी के तट पर स्थित खानुआ[2] के मैदान में बाबर का मार्ग रोकने का निश्चय किया।
एक दिन बहुत सवेरे ही महाराणी ने महाराणा के विस्तृत भाल पर केशर और कुमकुम का तिलक अंकित किया। महाराणा नंगी तलवार हाथ में लेकर अपने नीले घोड़े पर सवार हुआ। सैंकड़ों कण्ठ महाराणा की जय, मेवाड़ भूमि की जय, एकलिंगनाथ की जय बोलने लगे।
– ‘राणीसा।’ अचानक ही राणा को कुछ याद हो आया। वह घोड़े से नीचे उतर गया।
– ‘हुकुम राणाजू।’ राणा को घोड़े से नीचे उतरता देखकर महाराणी का कलेजा काँप गया। युद्ध पर जाते समय विदा लेकर भी अश्व पर से उतर जाना मंगल शगुन नहीं।
– ‘हम चाहते हैं कि आज युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय कुंवराणी मीरां भी हमारा तिलक करें। जाने क्यों हमारा मन उनके लिये भर-भर आता है।’
– ‘लेकिन युद्ध पर जाते समय विधवाओं का मुख नहीं देखा जाता राणाजू।’
-‘राणीसा!’ राणा ने रुष्ट होकर कहा।
– ‘क्षमा करें राणाजू। आप कुंवराणी के हाथों से तिलक करवा कर ही रण भूमि में पधारें।’
जब श्वेत वस्त्र पहने और हाथ में तानपूरा लिये कुंवराणी मीरां राणाजू के सम्मुख उपस्थित हुई तो राणा के नेत्रों से जल की धारा बह निकली। मीरां चीख मारकर श्वसुर के पैरों में गिर गयी।
– ‘महाराणीसा।’ राणा ने अश्रुओं से भीग आये अपने श्वेत श्मश्रुओं को पौंछते हुए कहा।
– ‘हुकुम राणाजू।’ महाराणी की आँखें भी आज पुत्र भोजराज को स्मरण कर भर आयी थीं। यदि आज वह होता तो पिता के अश्व की वल्गा पकड़ कर उनके आगे-आगे चलता।
– ‘कुंअर भोजराज नहीं रहे। हम भी मोर्चे पर जाते हैं। कुंअर रतनसिंह भी हमारे साथ हैं। कौन जाने हम लोगों का फिर लौटना हो या न हो। इस चित्तौड़ को हम मीरां के भरोसे छोड़े जाते हैं और मीरां को तुम्हारे। मीरां के चरणों की धूल से मेवाड़ भूमि धन्य हो गयी है। हमारा पूरा कुल पवित्र हो गया है। यह मेड़तनी हमारी धरोहर है। इसका प्राणों से भी अधिक ध्यान रखना। दुष्ट विक्रम इसे त्रास न दे। नहीं तो हम जहाँ कहीं भी होगें हमारी आत्मा को कष्ट पहुँचेगा।’
युद्ध पर जाते हुए वृद्ध पति की यह मनोभावना देखकर महाराणी का मन पिघल गया। उसने श्वसुर के कदमों में पड़ी मीरां को उठाकर छाती से लगा लिया।
– ‘अपने प्राण देकर भी इसकी रक्षा करूंगी नाथ।’ महाराणी ने आँखों में आँसू भर कर कहा।
महाराणी के वचनों से आश्वस्त होकर महाराणा फिर से अश्वारूढ़ हुआ।
[1] बाबरनामा में बाबर ने अपने सैनिकों की संख्या का कहीं उल्लेख नहीं किया है किंतु राणा सांगा के सैनिकों की संख्या 2 लाख 22 हजार बताई है।
[2] अब यह धौलपुर जिले में है।