अन्ततः वही हुआ जिसका प्रतनु को भय था। उसने कभी नहीं चाहा था इन आकृतियों को देखना किंतु वही भयावह आकृतियाँ सामने से तेज गति से चली आ रही थीं। प्रतनु ने चाहा भले ही हो किंतु चाहने भर से क्या होता है ? होता तो वही है जो नेत्रों के समक्ष घटित होता हुआ दिखाई देता है। प्रतनु की रक्तवाहिनियों में भय की रेखा सी दौड़ पड़ी। जाने अब क्या हो ? एक साथ कई सारे प्रश्न उसके मन में सर्प की भांति फण उठाकर खड़े हो गये। क्या अब तक का समस्त उपक्रम व्यर्थ चला जायेगा ? क्या यह यात्रा यहीं आकर समाप्त हो जायेगी ? क्या उसके स्वप्न बिना साकार हुए ही सदा-सदा के लिये समाप्त हो जायेंगे ? क्या मोहेन-जो-दड़ो [1] और उसका पशुपति महालय अनदेखे ही रह जायेंगे ? क्या अनदेखी ही रह जायेगी सैंधव सभ्यता की महान नृत्यांगना रोमा और उसकी नृत्यकला ?
जैसे ही शकट [2] ने घनी झाड़ियों का झुरमुट पार किया कि पूर्व दिशा से आती हुई भयावह आकृतियाँ दिखाई दीं। चंद्रमा अभी आकाश में उदित नहीं हुआ था किंतु नक्षत्रों के क्षीण प्रकाश में ही वे भयावह आकृतियाँ प्रतनु को पर्याप्त दूरी होने पर भी दिखाई देने लगीं थीं। रात्रि के गहन अंधकार में धुंधली छायाओं की तरह आने वाली उन आकृतियों को देखकर सिहर उठा प्रतनु। कौन हो सकते हैं ये लोग ? दानव, दैत्य, असुर, नाग, आर्य या फिर इन सबसे विलग किसी अन्य प्रजा से सम्बन्ध रखने वाले! संख्या में ये लगभग दस-ग्यारह प्रतीत होते हैं। जो भी हों वे किंतु इतना तो निश्चित है कि उन काली आकृतियों ने प्रतनु के शकट को देख लिया है और वे प्रतनु की ओर ही आ रही हैं। उनकी चाल-ढाल उनके कठोर कर्मा होने घोषणा कर रही है। संभवतः असुर ही हों, क्योंकि इस क्षेत्र में उन्हीं के मिलने की संभावना सर्वाधिक है।
पणि-सार्थों [3] के साथ विचरण करने वाले अनुभवी सैंधवों ने तो बताया था कि इस भीषण ग्रीष्म में असुरों के दल मरुस्थल में विचरण नहीं करते। इन दिनों में वे या तो समुद्र तट पर स्थित असुर बस्तियों में और या फिर सैंधव क्षेत्र के उस पार पर्वतीय शंखला को पार करके वहाँ के उपजाऊ मैदानों में बने अपने पुरों[4] में ही निवास करते हैं। शीत में जब पणियों के सार्थ मरुस्थल को पार करके पूर्व अथवा पश्चिम की ओर जा रहे होते हैं तभी असुर दल मरूस्थल में सक्रिय होते हैं और घात लगाकर पणि-सार्थो पर हमला करते हैं। इन दिनों में मरूस्थल के मार्ग अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित रहते हैं किंतु ग्रीष्म के कारण मरूस्थल ‘रेत के भीषण समुद्र’ की भांति गर्जन करता रहता है जिसके कारण मरूस्थल को पार करना सुगम नहीं है।
शीघ्र ही उन काली आकृतियों ने प्रतनु का शकट आ घेरा। कुल मिलाकर आठ प्राणी हैं वे। अंधेरे में उनके चेहरे तो दिखाई नहीं दिये किंतु प्रतनु ने अनुमान लगाया कि वे असुर हैं। आसुरी भाषा में ही आदेश दिया उन्होंने- ‘इस शकट पर जो कोई भी है शकट छोड़कर नीचे आ जाये तत्काल।’
– ‘इस शकट पर केवल मैं अकेला ही हूँ।’ प्रतनु ने आसुरी भाषा में ही प्रत्युत्तर दिया। असुरों की भाषा का कुछ-कुछ ज्ञान है प्रतनु को।
– ‘तू तुरंत शकट छोड़कर नीचे आ जा।’ शकट पर बैठे व्यक्ति द्वारा आसुरी भाषा में प्रत्युत्तर देने के कारण असुरों को आश्चर्य हुआ। असुर तो इस प्रकार के शकटों पर यात्रा करते नहीं। फिर कौन हो सकता है शकट पर बैठा हुआ व्यक्ति! एक असुर ने शकट पर लगे मेष-चर्म को अपने काष्ठ अस्त्र से हटाकर देखा। उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा था कि शकट पर केवल एक ही व्यक्ति है। मेष-चर्म के हट जाने से असुरों की प्रसन्नता का पार न रहा। नक्षत्रों के क्षीण प्रकाश में भुने हुए यव[5] और मधुघट [6] को देखकर वे अपने स्थूल [7] होठों पर जिह्वा घुमाने लगे। असुरों का ध्यान उधर से हटाना आवश्यक हो गया प्रतनु के लिये।
– ‘किंतु क्यों ? क्यों आ जाऊँ मैं शकट छोड़ कर नीचे ?’ प्रश्न करने का साहस जुटाया प्रतनु ने। प्रतनु कुछ समय चाहता था ताकि वह समझ सके कि इस विपत्ति से कैसे निबटा जा सकता है। असुरों को लगा कि शकट में बैठा व्यक्ति असुर ही है इसीलिये इस तरह निश्शंक होकर बैठा है और निस्संकोच प्रश्न कर रहा है।
– ‘कौन है तू।’ नायक दिखाई देने वाले असुर ने प्रश्न किया।
– ‘पथिक हूँ।’
– ‘असुर, दैत्य या द्रविड़ ?
– ‘द्रविड़।’
– ‘आसुरि भाषा क्योंकर जानता है ?’
– ‘कुछ सम्बन्ध रहा है मेरा असुरों से।’
– ‘कैसा सम्बन्ध ? रक्त सम्बन्ध ?
– ‘नहीं। रक्त सम्बन्ध नहीं, मैत्री का सम्बन्ध।’
– ‘कहाँ ?’
– ‘अपने पुर में।’
– ‘पुर कहाँ है तेरा ?’
– ‘मरूस्थल के पूर्वी छोर पर शर्करा के तट पर।’
– ‘यहाँ क्या कर रहा है ?’
– ‘मोहेन-जो-दड़ो जा रहा हूँ।’
– ‘पण्य के लिये ?’
– ‘मैं पणि नहीं, शिल्पी हूँ।’
– ‘तो फिर किस लिये ?’
– ‘पशुपति के वार्षिकोत्सव में सम्मिलित होने के लिये।’
पशुपति का नाम सुनते ही सारे असुर अपने अस्त्र फैंककर पृथ्वी पर लेट गये और ईशान-कोण [8] की ओर मुँह करके प्रणिपात किया उन्होंने। प्रतनु ने राहत की सांस ली। उसे लगा अब वे उतने घातक सिद्ध नहीं होंगे। प्रणिपात के बाद उठ खड़े हुए वे।
– ‘सच कहता है ?’ नायक दिखाई देने वाले असुर ने फिर से प्रश्न आरंभ कर दिये।
– ‘मिथ्या भाषण से क्या लाभ ?’
– ‘भय नहीं लगता तुझे ?’
– ‘किससे ?’
– ‘इस तरह निर्जन मरूस्थल में एकाकी यात्रा करते हुए!’
– ‘नहीं। मुझे भय नहीं लगता।’ प्रतनु का साहस पूरे विश्वास के साथ लौट आया था।
– ‘असुरों से भी नहीं!’
– ‘असुरों से क्यों लगेगा भय ? वे मेरे मित्र हैं।’
संकोच में पड़ गये असुर। पशुपति के निमित्त की जा रही यात्रा में बाधा उत्पन्न करना उचित होगा क्या ? फिर यह युवक तो स्वयं को असुरों का मित्र बता रहा है और आसुरि भाषा भी जानता है। कुछ देर के लिये विवाद उत्पन्न हुआ असुरों के दल में। इस बात पर तो सारे असुर सहमत थे कि पशुपति के निमित्त जा रहा यह द्रविड़ वध के योग्य नहीं है किंतु इस बात पर विवाद था कि द्रविड़ के शकट पर उपस्थित अन्न, जल और मधु छीनना उचित होगा या नहीं। नायक का कहना था कि इस द्रविड़ की हत्या करना अथवा अन्न, जल और मधु छीनकर मरूस्थल में जीवित छोड़ देना एक जैसा ही है। अंत में उन्होंने निश्चित किया कि द्रविड़ का स्वर्ण छीनकर उसे जाने दिया जाये।
प्रतनु अब भी शकट पर तन कर बैठा था और असुरों के वार्तालाप को सुनता हुआ आगे की रणनीति बना रहा था।
– ‘तेरे पास जो स्वर्ण है उसे हमें सौंपकर तू जा सकता है द्रविड़।’ असुरों के नायक ने आदेश दिया।
– ‘मैं कह तो चुका कि मैं पणि नहीं हूँ, शिल्पी हूँ। मेरे पास स्वर्ण नहीं है।’
– ‘सच कहता है ?’
– ‘तुम स्वयं देख सकते हो।’
– ‘ठीक है तू ऐसे ही जा।’
असुरों की इस अप्रत्याशित भलमनसाहत से प्रसन्न होकर प्रतनु ने शकट पर उपस्थित मधुघट उन्हें उपहार में देना चाहा जिसे असुरों ने अस्वीकार कर दिया। आसुरि भाषा में ही उनके प्रति आभार प्रदर्शन कर प्रतनु ने मुक्ति की सांस ली और अपने उष्ट्र [9] को फिर से चलने का संकेत किया। विपुल समय असुरों ने व्यर्थ कर दिया। सोचा तो प्रतनु ने यह था कि आज रात्रि में पर्याप्त दूरी पार कर लेगा क्योंकि पिछली कुछ रात्रियों की अपेक्षा वायु आज असाधारण रूप से शांत थी तथा संध्याकाल से ही वातावरण का ताप भी कम था किंतु प्रतनु के साथ तो ठीक उसका विपरीत होता है जो वह पहले सोच लेता है।
कई रात्रियों से निर्जन[10] मरुवन में निरंतर चल रही इस दीर्घ यात्रा के समापन में अब भी कम से कम तीन रात्रियाँ शेष हैं। मरुस्थल की यात्रा भी कितनी विचित्र है। दिन में सूर्य रश्मियों [11] से बचने के लिये किसी मरूस्थलीय झाड़ी अथवा उष्ट्र-शकट की ओट में विश्राम करो और रात्रि भर नक्षत्रों की गणना करते हुए यात्रा करो।
नक्षत्रों की गणना के साथ-साथ कई तरह की गणनायें करता है शिल्पी प्रतनु। कहीं उष्ट्र-शकट पर विद्यमान जल अगले जलाशय के मिलने से पहले ही तो समाप्त नहीं हो जायेगा! भुना हुआ यव, सिंधु तट पहुँचने से पहले ही तो नहीं चुक जायेगा! कहीं रात्रि में झपकी आ जाने से वह मार्ग तो नहीं भटक जायेगा! कहीं वायु के कुपित होने से आकाश को आच्छादित करने वाली[12] मृत्तिका[13] नक्षत्रों को तो नहीं ढंक लेगी जिससे रात्रि में उसके लिये दिशा निर्धारण करना कठिन हो जाये। कहीं उसके मोहेन-जो-दड़ो पहुँचने से पहले ही तो वरुण[14] सिंधु के तट पर नहीं पहुँच जायेगा! कहीं मार्ग में असुरों का कोई ऐसा दल तो उसे नहीं मिल जायेगा जो उससे जल, यव और शकट छीन कर इस भीषण मरूस्थल में भूख-प्यास से मरने के लिये तड़पता हुआ छोड़ दे। कितनी-कितनी आशंकाओं ने घेर रखा है उसे! बाहर से पूरी तरह आश्वस्त दिखाई देने पर भी भीतर से आशंकित है प्रतनु।
इन आशंकाओं के चलते प्रतनु कई उन चिंताओं से मुक्त है जिनसे कि उसे ग्रस्त होना चाहिये था। उसे ज्ञात ही नहीं कि इस कष्टप्रद यात्रा के कारण उसकी देह कितनी क्षीण हो चुकी है। उसे यह भी ज्ञात नहीं कि सूर्य की प्रखर रश्मियों ने उसकी देह के चर्म को झुलसा कर असुरों जितना काला बना दिया है। उसे यह भी ज्ञात नहीं कि जीवन के सबसे कठिन झंझावातों [15] की ओर वह स्वयं ही तेजी से बढ़ता चला जा रहा है। उसे यह भी ज्ञात नहीं कि फिर कभी वह अपने पुर को लौटेगा भी अथवा नहीं।
प्रतनु को तो इस समय केवल एक ही बात ज्ञात है- यात्रा और यात्रा। एक ऐसी यात्रा जिसका स्वप्न वह बचपन से देखता आ रहा है। एक ऐसी यात्रा जो उसे बहुत पहले कर लेनी चाहिये थी। नहीं जानता था प्रतनु कि इस यात्रा को इसी रूप में होना लिखा था उसके भाग्य में।
विचित्र यात्रा है यह भी। भला ऐसे भी कोई यात्रा करता है मरुस्थल की! यह ठीक है कि विस्तृत मरूस्थल को पार करके पणि-सार्थ पूरे सैंधव प्रदेश में पणिकर्म [16] हेतु विचरण करते हैं जिनके कारण मरूस्थल में कुछ मार्ग बन गये हैं और अब वह पहले की भांति अलंघनीय [17]नहीं रहा है। असुरों के दल भी बिना किसी विघ्न के मरूस्थलों में विचरण करते हैं किंतु पणियों और असुरों का आवागमन शीतकाल में ही होता है। वरुण तो मरूस्थल में आता ही नहीं। विकट ग्रीष्म में मरुस्थल पार करने का निश्चय तो साक्षात् मृत्यु को ही आमंत्रित करने जैसा है। कौन करना चाहेगा भला ऐसा!
अनुभवी सैंधवों ने प्रतनु का निषेध किया और कहा कि वह अपने इस विचार को त्याग दे किंतु शिल्पी प्रतनु ने सलाह देने वालों की किंचित् मात्र भी चिंता नहीं की। उसे तो इसी भीषण ग्रीष्म में मरुस्थल पार करना है और वह भी सिंधु के तट पर वरुण के आगमन से पहले। प्रतनु ने असुर-दलों और पणि-सार्थों के साथ कई बार मरूस्थल पार कर चुके अनुभवी व्यक्तियों से आग्रह किया कि वे उसके साथ चलें और मरुस्थल में उसका मार्ग प्रशस्त करें। प्रतनु इस कार्य के लिये उन्हें पर्याप्त स्वर्ण चुकायेगा किंतु कोई भी सैंधव इतना बड़ा खतरा उठाने को तैयार नहीं हुआ। इस पर भी प्रतनु निराश नहीं हुआ। निराश होना तो उसने जैसे जाना ही नहीं। कोई साथ नहीं चलना चाहता तो न चले। शिल्पी प्रतनु अकेला ही जायेगा मरुस्थल के पार, मोहेन-जो-दड़ो नगर तक। युवा प्रतनु ने निश्चय किया।
कई वर्षों से एक संकल्प ‘स्वप्न’ बनकर प्रतनु की आंखों में समाया हुआ है। उसे ही साकार होता हुआ देखता है वह दिन रात। प्रतनु चाहता है कि वह विशाल मरुस्थल के उस पार सप्त सैंधवों की उत्तरी राजधानी मोहेन-जो-दड़ो के पशुपति महालय में आयोजित होने वाले वार्षिक समारोह में भाग ले। मोहेन-जो-दड़ो के उस विख्यात महालय को देखे जिसके निर्माण में प्रतनु के प्रपितामह ने मुख्य शिल्पी के रूप में कार्य किया था। प्रतनु चाहता है कि वह मोहेन-जो-दड़ो के महालय में लगी उन श्रेष्ठ प्रतिमाओं को देखे जिनके निर्माण में सैंधव सभ्यता के श्रेष्ठ शिल्पियों का वर्षों का श्रम छिपा हुआ है।
पिछले दो वर्षों में तो उसका यह संकल्प दृढ़ से दृढ़तर होता चला गया है जब से उसने मोहेन-जो-दड़ो महालय की प्रमुख नृत्यांगना रोमा के अद्भुत सौंदर्य और उसके अनिर्वचनीय नृत्य के बारे में सुना है।
उष्ट्र के वेग के साथ-साथ प्रतनु के मस्तिष्क में गतिमान विचारों में भी तीव्रता आ जाती है। शीत में ही निकलने वाला था प्रतनु मोहेन-जो-दड़ो के लिये किंतु कुछ प्रतिमायें थीं जिन्हें वह लम्बी यात्रा पर जाने से पहले पूरी करना चाहता था। इसी कारण विलम्ब हो गया और ग्रीष्म आ गया। जब तक प्रतनु अधूरी प्रतिमायें पूरी कर पाया, तब तक अंतिम पणि-सार्थ भी जा चुका था। प्रतनु ने पूर्व में कई बार मरूस्थल पार कर चुके अनुभवी सैंधवों से मोहेन-जो-दड़ो के सही मार्ग की जानकारी प्राप्त की तथा मार्ग में आने वाली संभावित कठिनाइयों का पता लगाया। उनके आधार पर उसने दीर्घ यात्रा की तैयारी की और चल पड़ा ।
सैंधव प्रतनु का पुर पहले मरूस्थल के छोर पर नहीं था। बड़े-बूढ़े बताते हैं कि पहले उनका पुर सरस्वती नदी के किनारे था और कालीबंगा [18] के नाम से विख्यात था। दूर-दूर तक उस नगर की ख्याति थी। सरस्वती के उपजाऊ तटों पर उन्होंने यव,[19] धान्य,[20] कर्पास[21] और इक्षु [22] के विशाल खेतों का निर्माण किया था। कालीबंगा के शिल्पी मृत्तिका के सुंदर आभूषण, खिलौने, गुरिया,[23] चूड़ियाँ और घरेलू उपयोग की विविध सामग्री का निर्माण करते थे जिन्हें पणियों [24] के सार्थ खरीद कर ले जाया करते थे। सप्तसैंधव क्षे़त्र में दूर-दूर बसे सैंधव-पुरों में ही नहीं अपितु नागों, दैत्यों और असुरों की बस्तियों में भी कालीबंगा की सामग्री की बड़ी प्रतिष्ठा थी।
उसने अपने माता-पिता और अन्य व्यक्यिों से सुना है कि पर्वत प्रदेशों से आये युद्ध-प्रिय आर्यों ने सैंधवों के कई पुरों को तोड़ा। उन्होंने कालीबंगा के विशाल पुर को भी तोड़ डाला। बड़े-बड़े अश्वों पर बैठ कर आये थे वे-‘कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम्’ का उद्घोष करते हुए। लम्बे भालों और धनुषों से छोड़े जाने वाले तीरों के बल पर द्रविड़ों को बहुत ही सरलता से परास्त कर दिया उन्होंने। शांतिप्रिय द्रविड़ उनका प्रतिरोध नहीं कर सके। करते भी कैसे! द्रविड़ों के पास न तो अश्व थे और न अस्त्र-शस्त्र। [25] द्रविड़ों ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि कभी कोई उन पर आक्रमण भी कर सकता है। बात की बात में सैंधवों का कालीबंगा आर्यों के ब्रह्मावर्त में विलीन हो गया।
यव और धान्य खाकर संतुष्ट रहने वाले कला के उपासक द्रविड़ों में युद्ध के प्रति कभी अनुराग ही नहीं रहा। युद्ध तो असुरों और दैत्यों के लिये प्रिय हो सकता है, द्रविड़ों के लिये नहीं। नागों में भी युद्ध-अभियान की परम्परा है किंतु द्रविड़ों ने कभी युद्ध की इच्छा नहीं की। इसी कारण परस्पर युद्धरत रहने वाले असुर, दैत्य और नाग भी कभी द्रविड़ों के पुर पर आक्रमण नहीं करते।
पुर टूट जाने पर प्रतनु के शांति-प्रिय पूर्वज कालीबंगा छोड़कर ऐलाना[26] में आ बसे थे, मरूस्थल के पूर्वी छोर पर जहाँ शर्करा नाम की छोटी सी नदी बहती है। शर्करा के तट पर भी धान्य, यव, कर्पास और इक्षु के विशाल खेत खड़े कर लिये थे चतुर सैंधवों ने। कहते हैं शर्करा सरस्वती की ही छोटी धारा है। अपने पिता से ही जाना प्रतनु ने कि सरस्वती के ऊपरी छोर पर अब आर्यों की बस्तियों का प्रसार हो गया है और द्रविड़ों के पुर नदी के निचले भाग में खिसक आये हैं।
– ‘इसका अर्थ यह हुआ कि हम आर्यों की ओर से बहकर आने वाला जल पी रहे हैं। अर्थात् हम आर्यों का उच्छिष्ट [27] पी रहे हैं। क्यों पीयें हम उच्छिष्ट!’ प्रतनु के मन में विद्रोह जागता।
– ‘नदियाँ कभी उच्छिष्ट नहीं होतीं पुत्र! उनमें तो वरुण निवास करता है। वरुण को कौन उच्छिष्ट कर सकता है!’ पिता हँस देते थे प्रतनु की उत्तेजना पर।
– ‘किंतु वे उस स्थान पर बैठे हैं जहाँ कभी हम रहते थे। हमें प्रतिकार करना चाहिये उनका।’
– ‘प्रतिकार का अर्थ है रक्तपात और रक्तपात कभी शांति नहीं ला सकता। इससे मातृदेवी कुपित होती हैं।’ पिता स्नेह से समझाते थे किंतु प्रतनु को अच्छी नहीं लगती थी उनकी शांति की बातें।
पुर-वासी बताते हैं कि जिन दिनों उनका पुर कालीबंगा के किनारे स्थित था, उन दिनों प्रतिवर्ष बहुत से नागरिक कालीबंगा से मोहेन-जो-दड़ो जाया करते थे पशुपति का वार्षिकोत्सव देखने। कालीबंगा से मोहेन-जो-दड़ो की दूरी बहुत अधिक थी। फिर भी प्रतिवर्ष बहुत से सैंधव वहाँ जाते थे। वार्षिकोत्सव के बहुत से रोचक प्रसंग वे वर्ष भर कहते-सुनते थे। जिन्हें सुन-सुनकर प्रतनु के मन में यह संकल्प बचपन से ही बन गया कि एक बार वह भी अवश्य ही मोहेन-जो-दड़ो जायेगा और पशुपति महालय का वार्षिक समारोह देखेगा।
शकट का एक पहिया छोटे से गढ़े में चले जाने से एक झटका सा लगा जिससे प्रतनु अपने विचारों के प्रवाह से बाहर आया। वातावरण में शीत बढ़ जाने से एक कंपकंपाहट सी दौड़ गयी उसकी देह में। अपनी देह पर पड़े उत्तरीयक [28] को अच्छी तरह से लपेटा उसने। विचित्र है मरूस्थल का मौसम भी! दिन भर देह को झुलसा देने वाला ताप अपने चरम तक बढ़ता ही जाता है और रात्रि में यही तापक्रम इतना कम हो जाता है कि दांत कड़कड़ा ने लगते हैं। दोनों की ही चिंता किये बिना ठीक पश्चिम में चलते जाना है उसे। उसने आँख उठाकर उत्तर दिशा में आकाश की ओर देखा, सप्त नक्षत्रों का खटोला[29] उत्तर में चमक रहा है। सप्त सिंधुओं के प्रतीक यही सप्त नक्षत्र रात्रि में एकमात्र अवलम्ब हैं इस मरुस्थल में दिशा जानने के लिये। ठीक दिशा में जा रहा है वह। आश्वस्त होता है प्रतनु और फिर से उसके विचारों का प्रवाह आरंभ हो जाता है।
प्रतनु के पिता ने प्रतनु को आश्वासन दे रखा था कि कभी अवसर मिला तो वह प्रतनु को इस समारोह में ले जायेंगे किंतु कठिन काल का निर्णय कुछ और ही था। प्रतनु के पिता अचानक एक दिन सर्प-दंश के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गये और बालक प्रतनु की साध मन में ही रह गयी। वर्ष पर वर्ष व्यतीत होते रहे और शैशव का वह संकल्प युवा प्रतनु के मन में स्वप्न बनकर स्थिर हो गया। कई वर्ष तो उसे उष्ट्र क्रय करने के लिये पर्याप्त स्वर्ण-भार [30] एकत्र करने में लग गये। एक उष्ट्र योग्य स्वर्ण जुटाने की चाह में रात-रात भर छैनी चलाता रहा है प्रतनु। इसी अभ्यास के कारण प्रतनु की अंगुलियों में जैसे जादू आ बैठा। उसकी छैनी प्रस्तर को छूती भर ही है और एक सुन्दर शिल्प स्वमेय उपस्थित हो जाता है। कैसे कोई प्रस्तर देखते ही देखते प्रतिमा में बदल जाता है, स्वयं प्रतनु भी नहीं जानता।
लोग कहते हैं प्रतनु जैसा शिल्पी द्रविड़ों में अब से पहले कभी नहीं हुआ। इसी ख्याति के कारण दूर-दूर तक जाने वाले पणियों के सार्थ बड़ी संख्या में प्रतनु से प्रतिमायें क्रय करने लगे। इससे एक साथ दो लाभ हुए प्रतनु को। एक तो उसे उष्ट्र क्रय करने के लिये स्वर्ण-भार जुटाने में कम समय लगा और दूसरी ओर उसकी ख्याति विशाल मरुस्थल को पार करके सिंधु के तटों तक पहुँच गयी।
पणियों के साथ विचरण करने वाले सैंधव बताते हैं कि सिंधु के तट पर बसे पुरों में इन दिनों दो ही बातों की धूम है- एक तो मोहेन-जो-दड़ो के पशुपति महालय की प्रधान नृत्यांगना रोमा की नृत्यकला की और दूसरी ऐलाना के शिल्पी प्रतनु की शिल्पकला की।
विचारों के प्रवाह को अब भी विराम नहीं मिलता यदि पूर्व में सूर्य देव के आगमन के चिह्न न प्रकट होने लगते। प्रतनु ने आज दिन में भी विश्राम नहीं करने का निर्णय लिया। वह शीघ्र से शीघ्र असुरों से दूर हो जाना चाहता है। कौन जाने उनका मन कब बदल जाये। दिन के उजाले में उसने देखा कि बालुका स्तूपों का आकार छोटा हो चला है। ऐसा प्रतीत होता है कि मरूस्थल की सीमा समाप्त होने को है। वनस्पतियों और पक्षियों की आकृतियों में भी काफी परिवर्तन अनुभव कर रहा है वह।
[1] सिंधु प्रदेश की दक्षिणी राजधानी जो सिंधु नदी के तट पर स्थित थी। अब यह सिंधु नदी से लगभग साढ़े तीन मील की दूरी पर स्थित है।
[2] पुरातत्ववेत्ता मैके को चहुन्दड़ो में छकड़े के दो खिलौने मिले थे। हड़प्पा में भी पीतल का एक छकड़ा पाया गया। मोहेन-जोदड़ो तथा हड़प्पा से छकड़े के पहिये और तख्ते भी मिले हैं। कुछ ऐसी गाडि़यां भी मिली हैं जिनमें पहिये लगे हुए हैं तथा जानवर जुते हुए हैं।
[3] वाणिज्य कर्म करने वालों के समूह
[4] नगरों।
[5] जौ
[6] शहद का घड़ा
[7] मोटे
[8] उत्तर-पूर्व दिशा। इस स्थान से कैलास पर्वत ईशान-कोण में ही स्थित है।
[9] सैंधव सभ्यता के स्थलों से प्राप्त खिलौनों में ऊँटों की मूर्तियाँ भी हैं।
[10] मनुष्य विहीन
[11] सूर्य किरणों
[12] ढकने वाली
[13] मिट्टी
[14] जल का देवता
[15] आंधियों
[16] व्यापार
[17] जिसे लांघा न जा सके
[18] कालीबंगा का अर्थ होता है काली चूडि़याँ। किसी समय यह नगर सरस्वती के किनारे स्थित था जहाँ सैंधव सभ्यता के पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं। पुरातात्विक खुदाई में सभ्यता के तीन स्तर निकले हैं, जो एक दूसरे के ऊपर स्थित हैं। सबसे नीचे का स्तर आज से साढ़े सात हजार वर्ष पूर्व का बताया जाता है। मध्य स्तर आज से पाँच हजार वर्ष पुराना है तथा सबसे ऊपर का स्तर ढाई से तीन हजार वर्ष पुराना है। यहाँ से मिली पुरातात्विक वस्तुओं में मिट्टी से बनी सामग्री की बहुलता है। कालीबंगा के अवशेष उत्तरी राजस्थान में पीलीबंगा के निकट देखे जा सकते हैं। इस नगर के निकट से एक प्राचीन कालीन नदी के प्रवाहित होने के संकेत भी प्राप्त होते हैं। यहाँ से सिंधु कालीन खेत भी मिले हैं जिनमें हल चला हुआ है।
[19] जौ।
[20] चावल।
[21] कपास।
[22] गन्ना।
[23] मिट्टी के मनके ।
[24] पण शब्द से पण्य और पणि शब्दों की व्युत्पत्ति हुई है। पण का अर्थ होता है मुद्रा, पण्य का व्यापार और पणि का अर्थ होता है मुद्रा से व्यापार करने वाला। पणि से ही पणिया और बनिया शब्दों की व्युत्पत्ति हुई।
[25] सिंधु सभ्यता के समस्त प्रमुख स्थलों की खुदाई से अस्त्र-शस्त्र अत्यंत नगण्य मात्रा में प्राप्तहुए हैं। हड़प्पा में ताम्बे की कटारें, भाले, बर्छी, तथा धनुष बाण प्राप्त हुए हैं। अनुमान होता है कि ये हथियार शिकार करने तथा आंतरिक सुरक्षा के काम आते होंगे। अस्त्र-शस्त्रों की न्यूनतम उपस्थिति इस ओर संकेत करती है कि उन्हें अपने शत्रुओं से युद्ध करने की आवश्यकता नहीं थी। ऐसा अनुमान होता है कि पर्वतों की उत्तुंग श्रेणियों, समुद्र की उत्ताल तरंगों और मरूस्थल की दहकती हुई बालू के कारण सिंधु प्रदेश आक्रमणकारियों के भय मुक्त था। इतिहासविदों का अनुमान है कि सिंधुघाटी सभ्यता और मैसोपोटामिया के बीच व्यापारिक सम्बंध थे। बहरीन वस्तुओं के विनिमय का एक बड़ा केन्द्र था। व्यापारी मिट्टी के बर्तन, अनाज, सूती कपड़े, मसाले, पत्थर की मणियाँ, मोती और सुर्मा भारत से ले जाते थे और वहाँ से धातु का सामान लाते थे।
[26] ऐलाना से भी तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थल जोधपुर संभाग के जालोर जिले में स्थित है। जालोर जिले का यह क्षेत्र मध्यकाल तक सारस्वत क्षेत्र कहलाता था।
[27] झूठन।
[28] शरीर पर ओढ़ने की चद्दर
[29] जिस प्रकार आर्य आकाश के इन सात नक्षत्रों को सप्त ऋषि मण्डल कहकर पुकारते थे, उसी प्रकार सप्त सैंधव प्रदेश में इन सात नक्षत्रों को सप्त सिंधुओं के प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा हो, ऐसा मानने में कोई अतिश्योक्ति नहीं हेागी।
[30] सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ वस्तु विनिमय का तो प्रचलन तो हुआ ही, साथ ही स्वर्ण की एक निश्चित मात्रा देकर भी मूल्यवान वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता रहा। सैंधव सभ्यता से मिट्टी की बनीं मोहरें बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। अनुमान होता है कि ये मोहरें मुद्रा के रूप में प्रचलित रही होंगी। बड़ी संख्या में बाट भी प्राप्त हुए हैं। अधिंकाश बाट 16 अथवा उसके गुणज भार के हैं जैसे- 16, 64, 160, 320, 640 आदि। सैंधव वासी स्वर्ण के प्रयोग और उसकी महत्ता से भी भली भांति परिचित थे अतः सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि बहुमूल्य वस्तुओं के विनिमय के लिये स्वर्ण-भार उपयोग में लाया जाता रहा होगा।