Friday, November 22, 2024
spot_img

105. असार संसार

जिस दिन अकबर सलीम के सिर पर अपनी पगड़ी रखकर एक ओर को लुढ़क गया था उसके बाद वह कभी भी नये सूरज का उजाला नहीं देख सका। वह छः दिन तक बेहोश रहा। सातवें दिन आधी रात के लगभग अकबर के प्राण पंखेरू उड़ गये। राजा मानसिंह अपने आदमियों को लेकर महल से बाहर हो गया और जाते समय खुसरो को भी अपने साथ छिपा कर ले गया। कच्छवाहे रामसिंह ने आगरा का चप्पा-चप्पा खोज मारा किंतु खुसरो उसके हाथ नहीं लगा।

बादशाह के मरते ही सलीम ने सबसे पहले शाही कोष को अपने अधिकार में लेने का काम किया। अकबर आगरा के किले में तीस करोड़ रुपया छोड़ कर मरा था। मानसिंह ने किले की किसी चीज को हाथ नहीं लगाया था, इससे वे रुपये बिना किसी बाधा के सलीम के हाथ लग गये।

बादशाह की मौत के ठीक आठवें दिन सलीम नूरूद्दीन मुहम्मद जहाँगीर के नाम से आगरा के तख्त पर बैठा। पहले ही दिन उसने कई राजाज्ञाएं प्रसारित कीं जिनमें दो राजाज्ञाएं प्रमुख थीं, पहली ये कि मानसिंह बंगाल के लिये प्रस्थान कर जाये तथा दूसरी ये कि जैसे भी हो शहजादे खुसरो को कैद करके मेरे सामने लाया जाये।

राजा मानसिंह की तीन पीढ़ियों ने अकबर की तन मन से सेवा की थी। राजा मानसिंह की बुआ और बहिन भी अकबर तथा सलीम को ब्याही गयीं थीं। राजा भगवानदास तथा राजा मानसिंह ने अकबर के लिये बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ जीती थीं। अकबर की मृत्यु से एक क्षण पहले तक मानसिंह मुगल सल्तनत का सबसे मजबूत कंधा गिना जाता था किंतु नियति के चक्र ने सलीम को बादशाह बना दिया था जो मानसिंह का घोर विरोधी था। जहाँगीर के हाथों अपमानित होकर राजा मानसिंह वृद्धावस्था में अपना टूटा हुआ दिल लेकर बंगाल के लिये प्रस्थान कर गया।

आज वर्षों बाद उसे गुसांईजी के वे शब्द स्मरण हो आये थे, जो उन्होंने मानसिंह द्वारा महाराणा पर कोप करने की बात सुनकर कहे थे- ‘बंधु द्रोह भयानक पाप है राजन्। मनुष्य को इस पातक से बचने के लिये प्राण देकर भी प्रयास करना चाहिये। जो अबंधु है, जो रिपु है, जो हरिविमुख हैै, उस पर कोप करने की सामर्थ्य और इच्छा पैदा करो। जो बंधु है, निरीह है, शरण में आया हुआ है, प्रेम, प्रीत और दया का पात्र है, उससे वैर कैसा? यदि मनुष्य के मन में स्वबंधु, स्वजाति, स्वधर्म और स्वराष्ट्र के प्रति अपनत्व नहीं होगा, वह प्राणि मात्र में ईश्वर के दर्शन कैसे कर सकेगा? अभी भी समय है राजन्! अपनी त्रुटियों का प्रतिकार करो। अपने बंधुओं को गले लगाओ अन्यथा जीवन में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगेगा।’

सचमुच ही बंधुओं से वैर करके तथा अबंधुओं से प्रीत जोड़ कर क्या पाया था उसने? अपमान! तिरस्कार!! निष्कासन!!! स्वयं अपनी दुर्दशा और अपने बंधुओं की दुर्दशा। अपने धर्म की दुर्दशा और अपने राष्ट्र की दुर्दशा। महाराणा तो अपना उज्जवल चरित्र इतिहास को सौंप कर एकलिंग की सेवा में जा पहुँचा था किंतु स्वयं मानसिंह…….? राज्य की खातिर उसने अपनी बहिन-बेटियाँ शत्रुओं को ब्याह दीं। कुल पर कलंक लिया और दास होकर भी जीवन भर राजा कहलाने का भ्रम पाला।

अपनी दशा देखकर मानसिंह की आँखों में आँसू आ गये और आत्मा चीत्कार कर उठी। हाय! किन विधर्मियों और शत्रुओं की दासता में जीवन बिताया….. किंतु अब पश्चाताप् करने से क्या होने वाला था। शरीर के खेत से काल रूपी चिड़िया उम्र का दाना चुगकर कभी की फुर्रर्रर्र… हो चुकी थी। जीवन के दिन अब बचे ही कितने थे?

बंगाल पहुँचने के कुछ ही दिनों पश्चात् राजा मानसिंह की मृत्यु हो गयी। वह भग्न हृदय लेकर इस असार संसार से सदा-सर्वदा के लिये प्रस्थान कर गया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source