Friday, December 27, 2024
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अध्याय – 84 : भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का विकास – 2

भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का विकास

(1.) मुस्लिम लीग की स्थापना

30 दिसम्बर 1906 को ढाका के नवाब सलीमउल्ला खाँ के निमंत्रण पर ढाका में, अलीगढ़ की मोहम्मडन एज्युकेशनल कॉन्फ्रेन्स की वार्षिक सभा आयोजित की गई। इस सभा में सलीमुल्ला ने मुसलमानों के अलग राजनीतिक संगठन की योजना प्रस्तुत की तथा कहा कि इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार का समर्थन करना, मुसलमानों के अधिकारों और हितों की रक्षा करना, कांग्रेस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना और मुस्लिम नौजवानों को राजनीतिक मंच प्रदान करना है ताकि उन्हें भारतीय कांग्रेस से दूर रखा जा सके। सलीमउल्ला ने इस संस्था का नाम मुस्लिम ऑल इण्डिया कान्फेडरेसी सुझाया। इस प्रस्ताव को उसी दिन स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार 30 दिसम्बर 1906 को अखिल भारतीय मुस्लिम संगठन अस्तित्व में आया जिसका नाम ऑल इंडिया मुस्लिम लीग रखा गया। नवाब विकुर-उल-मुल्क को इसका सभापति चुना गया। लीग के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए समिति गठित की गई जिसके संयुक्त सचिव मोहिसिन-उल-मुल्क तथा विकुर-उल-मुल्क नियुक्त किये गये। 1907 ई. में, कराची में लीग का वार्षिक अधिवेशन आयोजित हुआ जिसमें लीग का संविधान स्वीकार किया गया। इस संविधान में मुस्लिम लीग के निम्नलिखित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित किये गये-

(क.) भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करना और किसी भी योजना के सम्बन्ध में मुसलमानों के प्रति होने वाली सरकारी कुधारणाओं को दूर करना।

(ख.) भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना और उनकी आवश्यकताओं तथा उच्च आकांक्षाओं को संयत भाषा में सरकार के समक्ष रखना।

(ग.) जहाँ तक हो सके, उक्त उद्देश्यों को हानि पहुँचाये बिना, मुसलमानों तथा भारत के अन्य समाजों में मित्रतापूर्ण भावना उत्पन्न करना।

मुस्लिम लीग के संविधान में स्थायी अध्यक्ष की व्यवस्था की गई और खोजा सम्प्रदाय के धार्मिक नेता प्रिन्स आगा खाँ को अध्यक्ष बनाया गया। आगा खाँ के पास पहले से ही इतने काम थे कि उन्हें लीग के अध्यक्ष के कार्यालय का दैनिक कार्य देखने का समय नहीं था। इसलिए लीग के हर वार्षिक अधिवेशन में एक कार्यकारी अध्यक्ष चुना जाता था। लीगी नेता, भारत के मुसलमानों में अपने देश के प्रति नहीं, अपितु अँग्रेजों के प्रति वफादारी की भावना बढ़ाना चाहते थे। वे भारत के अन्य निवासियों के साथ नहीं अपितु अँग्रेजों के साथ एकता स्थापित करना चाहते थे। लीग के सचिव जकाउल्ला ने स्पष्ट कहा- ‘कांग्रेस के साथ हमारी एकता सम्भव नहीं हो सकती क्योंकि हमारे और कांग्रेसियों के उद्देश्य एक नहीं। वे प्रतिनिधि सरकार चाहते हैं, मुसलमानों के लिए जिसका मतलब मौत है। वे सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा चाहते हैं और इसका मतलब होगा कि मुसलमान सरकारी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। इसलिए हम लोगों को (हिन्दुओं के साथ) राजनीतिक एकता के नजदीक जाने की आवश्यकता नहीं।’

1908 ई. में सर अली इमाम, लीग का कार्यकारी अध्यक्ष हुआ। उसने कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए कहा- ‘जब तक कांग्रेस के नेता इस तरह की व्यावहारिक नीति नहीं अपनाते, तब तक ऑल इंण्डिया मुस्लिम लीग को अपना पवित्र कर्त्तव्य निभाना है। यह कर्त्तव्य है- मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक भूल करने से रोकना अर्थात् उसे ऐसे संगठन में मिलने से रोकना जो लॉर्ड मार्ले के शब्दों में, चन्द्रमा को पकड़ने के लिए चिल्ला रहा है।’

इसी प्रकार अलीगढ़ में विद्यार्थियों की एक सभा में नवाब विकुर-उल-मुल्क ने कहा- ‘अगर हिन्दुस्तान से ब्रिटिश हुकूमत खत्म हो गई तो उस पर हिन्दू राज करेंगे और तब हमारी जिन्दगी, जायदाद और इज्जत पर सदैव खतरा मंडराया करेगा। इस खतरे से बचने के लिए मुसलमानों के लिए एकमात्र उपाय है- ब्रिटिश हुकूमत जरूर बनी रहे। मुसलमान अपने को ब्रिटिश फौज समझे और ब्रिटिश ताज के लिए अपना खून बहाने और अपनी जिन्दगी कुर्बान कर देने के लिए तैयार रहें…..आपका नाम ब्रिटिश हिन्दुस्तान की तवारीख में सुनहरे हर्फों में लिखा जायेगा। आने वाली पीढ़ियां आपका अहसान मानेंगी।’

(2.) 1909 के मार्ले मिण्टो सुधार में साम्प्रदायिक विभाजन के बीज

1909 ई. के मार्ले-मिण्टो सुधारों के द्वारा सरकार ने मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार द्वारा पहली बार हिन्दुओं और मुसलमानों को पृथक इकाई स्वीकार करके उन्हें अलग-अलग प्रतिनिधित्व दिया गया।

गणेशप्रसाद बरनवाल ने लिखा है- ‘1909 ई. के मार्ले मिण्टो सुधार से मुस्लिम-मुखी द्विराष्ट्रवाद की फसल बीमा कर दी जाती है।’

वाई. पी. सिंह ने लिखा है- ‘अँग्रेजों ने भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 के द्वारा साम्प्रदायिक विद्वेष के बीज बोये।’

दुर्गादास ने लिखा है- ‘व्हाइट हॉल ने पृथक निर्वाचन एवं सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार करके अनजाने में ही सर्वप्रथम विभाजन के बीज बोये। मिण्टो के शब्दों में- मुस्लिम नेशन।’

(3.) लखनऊ समझौते से देश में शांति

1911 ई. के बाद अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रभाव से, जिनमें बाल्कन युद्ध और तुर्की में युवा तुर्क आन्दोलन सम्मिलित थे, भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश शासन के प्रति राजभक्ति कम होने लगी। युवा मुस्लिम वर्ग कांग्रेस के लक्ष्य से सहानुभूति रखने लगा। इसलिये 1913 ई. में मुस्लिम लीग ने अपने संविधान में संशोधन करके कांग्रेस की ही तरह अपना लक्ष्य भारत में औपनिवेशिक स्वशासन प्राप्त करना निश्चित किया। जब दोनों पार्टियों के लक्ष्य एक हो गये तो उनमें निकटता आनी भी स्वाभाविक थी। कांग्रेस भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुसलमानों का सहयोग चाहती थी। फलस्वरूप 1916 ई. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता हुआ जिसे लखनऊ समझौता कहते हैं। यह समझौता कराने में बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। इस समझौते में तीन बातें मुख्य थीं-

(क.) मुस्लिम लीग ने भी कांग्रेस की तरह भारत को उत्तरदायित्व-पूर्ण शासन देने की मांग की।

(ख.) कांग्रेस ने मुसलमानों के पृथक् निर्वाचन-मण्डल की प्रथा को स्वीकार कर लिया और विभिन्न प्रान्तों में उनके अनुपात को भी मान लिया।

(ग.) यह स्वीकार कर लिया गया कि यदि विधान सभाओं में किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव का विरोध किसी एक सम्प्रदाय के तीन चौथाई सदस्य करेंगे तो उस प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जायेगा।

पं. मदनमोहन मालवीय, सी. वाई. चिंतामणि आदि कई कांग्रेसी नेताओं को लगा कि इस समझौते में मुसलमानों को अत्यधिक सुविधाएं दे दी गई हैं। कुछ इतिहासकार तो इन सुविधाओं को साम्प्रदायिकता के विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हैं जिसकी परिणति पाकिस्तान के रूप में हुई। तिलक का कहना था- ‘कुछ लोगों का विचार है कि हमारे मुसलमान भाइयों को अत्यधिक रियायतें दे दी गई हैं किन्तु स्वराज्य की मांग के लिए उनका हार्दिक समर्थन प्राप्त करने के लिए वह आवश्यक था; भले ही कठोर न्याय की दृष्टि से वह सही हो या गलत। उनकी सहायता और सहयोग के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।’ अयोध्यासिंह के अनुसार इस पैक्ट से जिन्हें सबसे अधिक आघात लगा था वे थे, ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उनके दलाल। लखनऊ समझौते के परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए देश में साम्प्रदायिक एकता स्थापित हुई।

(4.) खिलाफत आन्दोलन की विफलता

प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की, इंग्लैण्ड के विरुद्ध लड़ा। भारतीय मुसलमानों को आशंका थी कि यदि तुर्की युद्ध में हार गया तो तुर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया जायेगा तथा खलीफा की शक्तियां भी समाप्त कर दी जायेंगी। अतः भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत आन्दोलन चलाया। गांधीजी ने मुसलमानों से अपील की कि वे सरकार के प्रति असहयोग का कार्यक्रम अपनायें। मुसलमानों ने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में सहयोग दिया और कांग्रेस ने खिलाफत आन्दोलन में मुसलमानों का। इस प्रकार दोनों आन्दोलन मिलकर एक हो गये किन्तु जब गांधीजी ने चौरी-चौरा काण्ड के कारण 1922 ई. में अचानक असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया तब मुसलमानों ने गांधीजी की कटु आलोचना की और लखनऊ समझौते से स्थापित साम्प्रदायिक एकता पुनः नष्ट हो गई। मुसलमानों का एक वर्ग लखनऊ समझौते का घोर विरोधी था। इस वर्ग को भय था कि गांधीजी का नेतृत्व, मुसलमानों के भिन्न अस्तित्त्व को समाप्त कर देगा। खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन के दौरान ये नेता अनुभव करने लगे थे कि इस एकता से उनके अपने स्वार्थ पूरे नहीं हो रहे हैं; इससे भी एकता को आघात पहुँचा।

(5.) गांधीजी के नेतृत्व के प्रति संदेह

कांग्रेस में हिन्दू नेताओं का बोलबाला था तथा गांधीजी उनके सर्वमान्य नेता हो गये थे। गांधीजी यद्यपि मुसलमानों को प्रसन्न करने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते थे और अपनी मेज की दराज में गीता के ऊपर कुरान रखते थे। उन्हें मुहम्मद अली जिन्ना की अपेक्षा कुरान की अधिक आयतें याद थीं किंतु साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले मुसलमान नेताओं का मानना था कि गांधीजी का सत्य और अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रह, हिन्दू धर्म के आदर्शों से प्रेरित है। इस कारण मुसलमानों के लिये गांधीजी का नेतृत्व अमान्य है। अनेक पढ़े-लिखे कट्टर मुस्लिम नेता गांधीजी के विरुद्ध थे। गांधीजी ने 1907 ई. में दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स की सरकार के विरुद्ध आंदोलन चलाया तो उसे बीच में ही बंद कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीय पठानों ने गांधीजी के इस कार्य को विश्वासघात मानते हुए उनपर प्राण घातक हमला किया था। इस कारण मुसलमानों का, गांधीजी पर से विश्वास उठ चुका था। फिर भी जब गांधीजी ने 1920 ई. में भारत में असहयोग आन्दोलन आरम्भ करते समय यह कहा कि- ‘यदि देश मेरे पीछे चले तो मैं एक वर्ष के भीतर स्वराज्य ला दूँगा।’ तो मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ लिया। जब 1922 ई. में गांधीजी ने अचानक असहयोग आंदोलन बंद कर दिया तो मुसलमानों को लगा कि गांधीजी ने उन्हें मंझधार में छोड़कर, एक बार फिर विश्वासघात किया है। पूरे देश में अलगाववादी मुसलमानों ने यह प्रचार किया कि गांधीजी ने अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए मुसलमानों को गुमराह किया। इससे देश में उत्तेजना फैल गई और साम्प्रदायिक दंगे आरम्भ हो गये।

(6.) साम्प्रदायिक हिंसा से हिन्दू-मुस्लिम एकता भंग

साम्प्रदायिक एकता को सर्वप्रथम आघात मालाबार के मुस्लिम मोपलों ने पहुँचाया। 1921 ई. के अगस्त-सितम्बर माह में मोपलों ने असंख्य हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया, हिन्दू स्त्रियों को भी उनके अत्याचारों का शिकार बनना पड़ा। जब ये तथ्य समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए तो पूरे देश में तनाव व्याप्त हो गया। मुल्तान में भी मुसलमानों ने अनेक हिन्दुओं को मार डाला; उनकी सम्पत्ति लूट ली या नष्ट कर दी। सहारनपुर में भी ऐसी घटनाएं घटित हुईं। लाहौर में भी साम्प्रदायिक दंगे हुए। एक धर्मान्ध मुसलमान ने आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानन्द की रोगी-शैया पर ही हत्या कर दी। आर्य समाज के कुछ अन्य नेताओं की भी हत्या कर दी गई। इन घटनाओं ने हिन्दू जनता को विचलित कर दिया।

(7.) नवीन हिन्दू संस्थाओं की स्थापना

देश भर में हिन्दुओं के विरुद्ध हो रही हिंसक घटनाओं के विरोध में हिन्दू नेताओं ने हिन्दू एकता का नारा दिया। सारे देश में हिन्दू महासभा की शाखाएं स्थापित की गईं। अखिल भारतीय क्षत्रिय सभा की स्थापना हुई। 1923 ई. में डॉ. किचलू ने अमृतसर में तन्जीम और तबलीग आन्दोलन प्रारम्भ किया। 1925 ई. में विजय दशमी के दिन डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक दल का गठन किया जिसका उद्देश्य हिन्दू धर्म, जाति और संस्कृति की रक्षा करना था। पूरे भारत में इसकी शाखाएं स्थापित की गईं। 1928 ई. में लाहौर में ऑर्डर ऑफ दी हिन्दू यूथ नामक संगठन की स्थापना की गई। इन संस्थाओं की उपस्थिति से मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति को और अधिक विस्तार प्राप्त हो गया।

(8.) वीर सावरकर का उग्र हिन्दुत्व

स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद तथा महर्षि अरविंद घोष ने परतंत्र भारत की देह में आत्मगौरव के नवीन प्राण फूंकने के लिये उग्र हिंदुत्व को जन्म दिया। कांग्रेस में लाला लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक, इस उग्र हिंदुत्व के ध्वज-वाहक थे। 1 अगस्त 1920 को तिलक की मृत्यु होने पर कांग्रेस गांधीजी के नेतृत्व में चली गई। इस पर महाराष्ट्र में जन्मे विनायक दामोदर सावरकर ने हिन्दू-राष्ट्रवाद की भावना को तिलक युग से आगे बढ़ाया। उन्होंने हिन्दुओं में राजनीतिक एवं सामाजिक एकीकरण की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने हिन्दुओं के समान हितों पर बल देते हुए उनको संगठित होने का आह्नान किया। वे मुसलमानों को प्रसन्न करने वाली नीति के समर्थक नहीं थे। उनका कहना था कि यदि भारतीय मुसलमान, स्वराज्य-प्राप्ति में सहयोग नहीं देना चाहते तो उनसे अनुनय-विनय करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मुसलमानों के बिना भी हिन्दू अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने में समर्थ हैं। मुसलमानों के लिये साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले नेताओं को, सावरकार का विरोध करने के बहाने, अपनी उग्र साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया।

(9.) नेहरू रिपोर्ट पर मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति

1927 ई. में जब कांग्रेस ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया तो भारत सचिव लॉर्ड बर्कनहेड ने चुनौती दी कि साइमन कमीशन का विरोध करने से क्या लाभ है जबकि भारतवासी स्वयं ऐसा कोई संविधान तैयार करने में असमर्थ हैं जिसे भारत के समस्त दल स्वीकार करते हों! भारतीय नेताओं ने भारत सचिव की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। भारत के भावी संविधान के लिये एक प्रस्ताव तैयार करने हेतु एक समिति का गठन किया गया। मोतीलाल नेहरू को समिति का अध्यक्ष और जवाहरलाल नेहरू को सचिव नियुक्त किया गया। इसमें सुभाषचंद्र बोस तथा सर तेज बहादुर सप्रू सहित कुल 8 सदस्य थे। इस समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इस रिपोर्ट में भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना, अल्पसंख्यकों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए अधिकारों की घोषणा; तथा वयस्क मताधिकार आदि बातें सम्मिलित की गईं। दिसम्बर 1928 में सर्वदलीय बैठक में जिन्ना ने नेहरू समिति के प्रस्तावों पर तीन संशोधन रखे किन्तु वे स्वीकार नहीं किये गये। मुहम्मद शफी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने प्रारम्भ से ही नेहरू समिति का बहिष्कार किया। 31 दिसम्बर 1928 और 1 जनवरी 1929 को आगा खाँ की अध्यक्षता में दिल्ली में सर्वदलीय मुस्लिम कान्फ्रेंस की बैठक बुलाई गई। इसमें नेहरू रिपोर्ट के समस्त प्रस्तावों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किये गये। जिन्ना ने इस कान्फ्रेंस में भाग नहीं लिया परंतु उसने मार्च 1929 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें नेहरू रिपोर्ट के मुकाबले 14 शर्तें रखीं, जिनमें संघीय संविधान, प्रांतीय स्वायत्तता, पंजाब और बंगाल में बहुमत की स्थापना, केन्द्रीय विधानसभा और प्रान्तीय विधान मण्डलों में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई स्थान सुरक्षित करने की मांगें सम्मिलित थीं। 1930 ई. में इलाहाबाद में आयोजित मुस्लिम लीग के वार्षिक सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में डा. इकबाल  ने मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान के आधार पर भारत में एक अलग मुस्लिम राष्ट्र या फेडरेशन की स्थापना की वकालात की। उसने कहा- ‘मैं पंजाब, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, सिंध और बलूचिस्तान को एक अलग राष्ट्र में एकीकृत होते हुए देखना चाहता हूँ।’  इस प्रकार इकबाल ने भावी मुस्लिम भारत का नक्शा खींचा।

(10.) 1930 ई. का साम्प्रदायिक पंचाट

साइमन कमीशन की रिपोर्ट में प्रस्तावित संघीय भारत के निर्माण की दिशा में विचार विमर्श करने हेतु, ब्रिटिश सरकार ने 12 नवम्बर 1930 को लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन बुलाया। कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। सम्मेलन में मुहम्मद अली जिन्ना और डॉ. भीमराव अम्बेडकर में तीव्र मतभेद हो जाने से भारत में संघीय सरकार के निर्माण पर कोई निर्णय नहीं हो सका। 17 सितम्बर 1931 को लंदन में दूसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया। इसमें कांग्रेस के प्रतिनिधि की हैसियत से अकेले गांधीजी ने भाग लिया। यह सम्मेलन भी असफल रहा। 17 नवम्बर 1932 को लंदन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया। इस समय कांग्रेस अवैध संस्था घोषित हो चुकी थी इसलिये वह सम्मेलन में भाग नहीं ले सकी। जब गोलमेज सम्मेलनों से भी साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं हो पाया तो 1932 ई. में ब्रिटिश सरकार ने अपनी तरफ से साम्प्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी।

इसके अन्तर्गत मुसलमानों, यूरोपियनों, सिक्खों, भारतीय ईसाईयों, एंग्लो-इंण्डियनों, राजाओं और जागीरदारों को विभिन्न प्रान्तीय विधान सभाओं में अपने-अपने समुदायों के प्रतिनिधियों को पृथक् निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुनने का अधिकार दिया गया। डा. अम्बेडकर के प्रयत्नों से दलित वर्ग को अपने प्रतिनिधियों को पृथक निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुनने की सुविधा दे गई। इस प्रकार इस पंचाट के माध्यम से अँग्रेजों ने बांटो एवं राज्य करो के सिद्धान्त पर देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने, दलितों को अलग प्रतिनिधित्व देकर हिन्दू-समाज का बंटवारा करने, भारतीय अल्पसंख्यकों को अनुचित महत्त्व प्रदान कर राष्ट्रीय एकता को छिन्न-छिन्न करने, राजाओं और जागीरदारों के लिए पृथक्-निवार्चन की व्यवस्था कर अप्रजातांत्रिक तत्त्वों को प्रोत्साहन देने तथा भारत में प्रगतिशील तत्त्वों की गतिविधियों को नियंत्रित एवं कमजोर करने का षड़यंत्र रचा तथा धर्म एवं व्यवसाय के आधार पर प्रतिनिधित्व का विभाजन करके भारत को नई समस्याओं के खड्डे में फैंक दिया।

(11.) मुसमलानों के लिये अधिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था

गांधीजी ने साम्प्रदायिक पंचाट का, विशेषकर दलितों को हिन्दुओं से पृथक् करने का जोरदार विरोध किया तथा 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन पर बैठ गये। डॉ. अम्बेडकर ने इस व्रत को राजनैतिक धूर्त्तता बताया। कुछ लोगों ने इसे अपनी मांग मनवाने का तरीका बतलाया। जब गांधीजी की तबीयत अधिक बिगड़ने लगी तब कुछ कांग्रेसी नेताओं ने 26 सितम्बर 1932 को डॉ. अम्बेडकर और गांधीजी के बीच एक समझौता करवाया। यह समझौता पूना पैक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इसके द्वारा साम्प्रदायिक पंचाट के आपत्तिजनक भाग को हटाया गया। इस समझौते से डॉ.अम्बेडकर दलितों के लिए दुगने स्थान सुरक्षित करवाने में सफल रहे। दिसम्बर 1932 में ब्रिटिश सरकार ने केन्द्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई स्थान सुरक्षित करने की घोषणा की जबकि मुसलमान कुल जनसंख्या के एक चौथाई ही थे। इससे हिन्दुओं को मुसलमानों के विरुद्ध क्षोभ उत्पन्न हुआ।।

(12.) भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय

भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय भारत में साम्प्रदायिक समस्या को चरम पर पहुंचाने वाले प्रमुख तत्त्वों में से एक था।  आरम्भ में वह राष्ट्रवादी था तथा भारत के विभाजन के पक्ष में नहीं था। 1906 ई. में ढाका में जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और लीग ने मुसलमानों के लिये पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग की तो जिन्ना ने उसका विरोध किया और कहा कि इस तरह का प्रयास देश को विभाजित कर देगा।  1913 ई. में जिन्ना ने मुस्लिम लीग की सदस्यता ग्रहण की किंतु वह कांग्रेस का सदस्य भी बना रहा।  1916 ई. में वह मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुना गया। 1920 ई. में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जिन्ना ने गांधीजी को महात्मा कहने से मना कर दिया और उन्हें मंच से मिस्टर गांधी  कहकर सम्बोधित किया। इस पर कांग्रेस के नेताओं ने जिन्ना का अपमान किया। इस घटना के बाद, जिन्ना एवं नेहरू के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। 30 सितम्बर 1921 को जिन्ना, कांग्रेस से अलग हो गया फिर भी वह राष्ट्रवादी बना रहा। 1933 ई. में जब चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान नामक अलग देश की अवधारणा दी तो जिन्ना ने उसे दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया।

 1937 ई. में जब प्रान्तीय विधान सभाओं के निर्वाचन हुए तो जवाहरलाल नेहरू ने एक वक्तव्य दिया- ‘देश में केवल दो ही ताकतें हैं- सरकार और कांग्रेस। सरकार का मुकाबला केवल कांग्रेस कर सकती है।’

इस वक्तव्य से जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू से नाराज हो गया और उसके बाद उसने नेहरू को नीचा दिखाने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने दिया। उसने तुरंत प्रतिवाद करते हुए कहा- ‘मैं कांग्रेस का साथ देने से इंकार करता हूँ, देश में एक तीसरा पक्ष भी है और वह है मुसलमानों का पक्ष।’

1937 ई. के चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली।  मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। बंगाल, आसाम तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। केवल पंजाब और सिन्ध में कांग्रेस को कम मत मिले। ग्यारह प्रान्तों में मुसलमानों के लिए सुरक्षित 482 सीटों में से कांग्रेस को 26 सीटें, मुस्लिम लीग को 108 सीटें तथा निर्दलीय मुसलमानों को 128 सीटें मिलीं। पंजाब में अधिकांश सीटें यूनियनिस्ट पार्टी को मिलीं। बंगाल में फजलुल हक की प्रजा-पार्टी को 38 सीटें मिलीं।

चुनावों में कांग्रेस को मिली भारी विजय से जिन्ना तिलमिला गया। उसने सोचा कि भारत के समस्त मुस्लिम राजनीतिक दलों को लीग के अन्तर्गत संगठित करके ही हिन्दुओं की पार्टी अर्थात् कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी जा सकती है। इसके बाद जिन्ना, मुसमलानों के लिये अलग देश अर्थात् पाकिस्तान बनाने की राह पर चल पड़ा। उसने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को मुसलमानों की कमजोरी बनाने तथा उस कमजोरी को अपने पक्ष में भुनाने का निर्णय लिया। जिन्ना ने भारतीय राजनीति की पूरी दिशा बदल दी। उसने कांग्रेस को धमकी दी- ‘मुसमलानों को अकेला छोड़ दें।’ उसके साथियों ने मुसलमानों पर हिन्दुओं द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के झूठे आंकड़े और मनगढ़ंत घटनाएं प्रचारित करके इस्लाम खतरे में, जैसे भड़काऊ नारे दिये और मुसलमानों में कृत्रिम भय पैदा करके साम्प्रदायिकता की समस्या को चरम पर पहुंचा दिया।

इसी बीच जवाहरलाल नेहरू ने अपने समाजवादी कार्यक्रम में मुसलमानों से सहयोग करने की अपील की किन्तु डॉ. इकबाल ने इसे मुसलमानों की सांस्कृतिक एकता को नष्ट करने की योजना बताया। इकबाल ने जिन्ना को भरपूर सहयोग दिया। इकबाल की मध्यस्थता से जिन्ना-सिकन्दर समझौता हुआ तथा पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मुस्लिम सदस्य, मुस्लिम लीग के भी सदस्य बन गये। इसके तुरन्त बाद बंगाल में फजलुल हक के नेतृत्व में और सिन्ध में सादुल्लाखाँ ने नेतृत्व में विधान सभाओं के मुस्लिम सदस्यों ने मुस्लिम लीग की सदस्यता स्वीकार कर ली। इससे मुस्लिम लीग शक्तिशाली पार्टी हो गई। इसी दौरान संयुक्त प्रान्त में मन्त्रिमण्डल निर्माण सम्बन्धी विवाद ने मुस्लिम लीग की लोकप्रियता बढ़ाने में योगदान दिया। कांग्रेस और लीग के बीच अविश्वास की वृद्धि के कारण ऊपरी तौर पर गौण लगने वाले मसले, जैसे कि कांग्रेस के झण्डे को फहराना, वन्देमातरम को राष्ट्रीय गीत के रूप में गाना, उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग की मांग उठाना आदि भी अब साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए। जिन्ना ने इसका लाभ उठाया और मुसलमानों पर अपने नेतृत्व और मुस्लिम लीग का प्रभाव मजबूती से आरोपित कर दिया। फलस्वरूप 1927 ई. में मुस्लिम लीग की सदस्य संख्या जो मात्र 1330 थी, 1938 ई. में एक लाख हो गई और 1944 ई. में 20 लाख के आसपास पहुँच गई।

जिन्ना मुस्लिम लीग को भारत के समस्त मुसलमानों की एक मात्र प्रतिनिधि संस्था कहता था जबकि कांग्रेस उसके इस दावे को अस्वीकार करती थी क्योंकि जिन्ना के दावे को स्वीकार करने का अर्थ था कि कांग्रेस न तो एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है और न हिन्दू और मुसलमान, दोनों की पार्टी है। इस कारण जिन्ना, कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं, विशेषतः महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू से चिढ़ा हुआ रहता था।  कांग्रेस के नेताओं के लिये जिन्ना का व्यवहार असह्य था। फिर भी गांधीजी हर हाल में जिन्ना को कांग्रेस के आंदोलन के साथ रखना चाहते थे। इस प्रकार कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों के शर्षस्थ नेताओं के व्यक्तिगत मतभेदों ने देश में साम्प्रदायकिता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

(13.) चौधरी रहमत अली द्वारा पाकिस्तान की अवधारणा

ब्रिटिश सरकार की ओर से लगातार दिये जा रहे प्रोत्साहन ने मुसलमानों के मन में अपने लिये एक अलग देश की कल्पना ने जन्म लिया। 1933 ई. में चौधरी रहमत अली नामक एक मुस्लिम विद्यार्थी ने लंदन में एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें कहा गया कि भारतीय मुसलमानों को अपना राज्य हिन्दुओं से अलग कर लेना चाहिये। भारत को अखण्ड रखने की बात अत्यंत हास्यास्पद और फूहड़ है। भारत के जिन उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों- पंजाब, कश्मीर, सिंध, सीमांत प्रदेश तथा ब्लूचिस्तान में मुसलमानों की संख्या अधिक है, उन्हें अलग करके पाकिस्तान  नामक देश बनाया जाना चाहिये। प्रस्ताव के अंत में कहा गया था- ‘हिन्दू राष्ट्रीयता की सलीब पर हम खुदकुशी नहीं करेंगे।’

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के भारतीय मुस्लिम विद्यार्थियों ने रहमत अली का साथ दिया। उन्होंने एक इश्तहार प्रकाशित किया जिसमें पाकिस्तान की मांग के बारे में ‘नाउ ऑर नेवर’ का उल्लेख करते हुए कहा गया- ‘भारत किसी एक अकेले राष्ट्र का नाम नहीं है। न ही एक अकेले राष्ट्र का घर है। वास्तव में यह इतिहास में पहली बार ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्मित एक राष्ट्र की उपाधि है….. मुसलमानों की जीवन शैली भारत के अन्य लोगों से भिन्न है। इसलिये उनका अपना राष्ट्र होना चाहिये। हमारे राष्ट्रीय रिवाज और कैलेंडर अलग हैं। यहाँ तक कि हमारा खान-पान तथा परिधान भी भिन्न है।’

(14.) मुस्लिम लीग द्वारा नेशनल गार्ड का गठन

मुस्लिम लीग ने 1938 ई. में अपनी एक निजी सेना का गठन करना आरम्भ कर दिया। इस सेना के दो संगठन बनाये गये, एक था मुस्लिम लीग वालंटियर कॉर्प तथा दूसरा था मुस्लिम नेशनल गार्ड। मुस्लिम नेशनल गार्ड, मुस्लिम लीग का गुप्त अस्त्र था। उसकी सदस्यता गुप्त थी और उसके अपने प्रशिक्षण केंद्र व मुख्यालय थे जहाँ उसके सदस्यों को सैन्य प्रशिक्षण और ऐसे निर्देश दिये जाते थे जो उन्हें दंगों के समय लाभ पहुंचायें। इन प्रशिक्षण केन्द्रों पर लाठी-भाला चलाने, चाकू मारकर हत्या करने और धावा बोलने का प्रशिक्षण दिया जाता था। नेशनल गार्ड द्वारा भारी मात्रा में हथियार एकत्र किये गये और भारतीय सेना के विघटित मुस्लिम सैनिकों को भर्ती किया गया। मुस्लिम नेशनल गार्ड के यूनिट कमाण्डरों को सालार कहा जाता था।  नेशनल गार्ड के लम्बे चौड़े जवान, हथियारों से लैस होकर जिन्ना के चारों ओर बने रहकर उसकी सुरक्षा करते थे।

(15.) द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को कांग्रेस द्वारा असहयोग एवं मुस्लिम लीग द्वारा सहयोग

3 सितम्बर 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रिटिश सरकार ने प्रजातंत्र और स्वतंत्रता के नाम पर भारतीयों से अपील की कि वे साम्राज्य की रक्षा करें। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं को विश्वास में लिये बिना ही भारत को भी युद्ध में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी। कांग्रेस ने इसकी तीव्र आलोचना की और कहा कि जब तक भारत को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक उसे युद्ध में नहीं झौंका जा सकता। इसके विपरीत, मुस्लिम लीग ने युद्ध में अँग्रेजों की सहायता का आश्वासन दिया तथा बड़ी संख्या में मुस्लिम सैनिक मोर्चों पर लड़ने गये। 11 सितम्बर 1939 को वायसराय ने दोनों सदनों में घोषणा की कि अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण भारत संघ के निर्माण की योजना स्थगित की जा रही है। मुस्लिम लीग ने इस घोषणा का स्वागत किया क्योंकि उसे प्रस्तावित संघ में हिन्दू प्रभुत्व स्थापित होने की आशंका थी। इस प्रकार युद्ध नीति और भारत के संवैधानिक भविष्य को लेकर कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच खाई बहुत चौड़ी हो गई किंतु मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार एक दूसरे के और निकट आ गये। मुस्लिम लीग ने अवसर का लाभ उठाते हुए, ब्रिटिश सरकार से मांग की कि ई. 1935 के सम्पूर्ण संविधान पर पुनर्विचार किया जाये क्योंकि प्रान्तीय स्वायत्तता ने हिन्दू आधिपत्य की आशंका को सत्य सिद्ध कर दिया है।

(16.) मुक्ति दिवस का आयोजन

17 अक्टूबर 1939 को वायसराय ने एक वक्तव्य दिया जिसमें युद्ध के बाद भारत को उपनिवेश का दर्जा (डोमिनियन स्टेटस) देने का आश्वासन दिया। कांग्रेस ने इस घोषणा को अपर्याप्त बताया क्योंकि कांग्रेस 1930 से पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रही थी। सरकार की नीति के विरोध में प्रान्तों के कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिये। मुस्लिम लीग ने कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों के त्यागपत्र का स्वागत करने के लिये 22 दिसम्बर 1939 को मुक्ति दिवस मनाया। वायसराय ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से केन्द्रीय और प्रान्तीय प्रशासन में सहयोग देने के सम्बन्ध में बातचीत जारी रखी परन्तु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार भारत के संवैधानिक भविष्य के बारे में ऐसे किसी प्रस्ताव को प्रोत्साहन देने के पक्ष में नहीं थी जिससे कांग्रेस और लीग की दूरी घटती हो। वह तो दोनों के मध्य साम्प्रदायिक विद्वेष को बढ़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहती थी।

(17.) मुस्लिम लीग का लाहौर अधिवेशन एवं पाकिस्तान प्रस्ताव

1940 ई. में रहमत अली ने इस्लाम की मिल्लत और भारतीयता का खतरा शीर्षक से एक इश्तहार प्रकाशित किया जिसमें उसने कहा कि मुसलमानों को भारतीयता से बचना चाहिये और अलग राष्ट्र के निर्माण का प्रयास करना चाहिये। रहमत अली ने इण्डिया शब्द के अँग्रेजी अक्षरों में हेरफेर करके दीनिया शब्द का निर्माण किया जिसका अर्थ होता था- एक ऐसा उपमहाद्वीप जो इस्लाम में धर्मांतरित होने की प्रतीक्षा कर रहा था। रहमत अली ने बंगाल व आसाम का पुनः नामकरण करते हुए उसे बंग ए इस्लाम का नाम दिया। इस नाम का अर्थ था ‘इस्लाम का बंगुश।‘ उसने बिहार का नाम फरूखिस्तान, उत्तर प्रदेश का नाम हैदरिस्तान, राजपूताना का नाम मोइनिस्तान  तथा हैदराबाद का नाम ओसमानिस्तान रखा। उस वर्ष रहमत अली की परिकल्पना इतनी सफल हुई कि दिसम्बर 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने अलग देश बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया।  इस प्रस्ताव में कहा गया कि मुसलमानों को तब तक कोई संवैधानिक योजना स्वीकार नहीं होगी जब तक उसे इन मूल सिद्धांतों पर तैयार न किया गया हो। जिन क्षेत्रों में मुसलमान बहुमत में हैं, जैसे भारत के उत्तर पश्चिमी और उत्तर पूर्वी अंचलों में, उन्हें संगठित करके आठ स्वतंत्र देशों के रूप में संगठित किया जाना चाहिये जिसमें घटक इकाइयाँ स्वतंत्र और प्रभुत्व संपन्न होंगी। प्रस्तावित नये देश में मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों को उनके हितों की सुरक्षा के लिये प्रभावशाली संवैधानिक सुरक्षा का आश्वासन दिया गया था जिनसे उनके धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं प्रशासनिक अधिकार सुरक्षित रहें। माना जाता है कि इस प्रस्ताव को पारित करवाने में ब्रिटिश अधिकारियों का हाथ था। गणेशप्रसाद बरनवाल ने लिखा है- ‘लाहौर का पाकिस्तान प्रस्ताव, गांधीजी की हिन्दू मुस्लिम एकता मिशन की कर्बला है। 15 जून 1940 के हरिजन में गांधीजी की एकता संकल्पना का ग्लेशियर पिघलता दिखाई पड़ता है। जिसमें उन्होंने लिखा है- …… द मुस्लिम लीग इज फ्रैंकली कम्यूनल एंड वांट्स टू डिवाइड इण्डिया इन टू पार्टस्।’

(18.) क्रिप्स प्रस्ताव से कांग्रेस और मुस्लिम लीग आमने-सामने

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक दो वर्षों में जब जापान के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों की स्थिति कमजोर होती गई तो मार्च 1942 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए सर स्टैफर्ड क्रिप्स को कुछ प्रस्तावों के साथ भारत भेजा। क्रिप्स प्रस्ताव के दो भागों में थे- एक तो दूरगामी प्रस्ताव जो युद्ध के बाद लागू किये जाने थे और दूसरे तात्कालिक प्रस्ताव जो तुरन्त लागू किये जाने थे। दूरगामी प्रस्ताव में एक संविधान निर्मात्री सभा का गठन करने तथा उसके द्वारा भारतीय संघ का संविधान बनाने का प्रावधान था। मुस्लिम लीग को सन्तुष्ट करने के लिए इन प्रस्तावों में कहा गया कि यदि कोई प्रान्त भारतीय संघ में सम्मिलित नहीं होना चाहेगा तो ऐसे प्रान्तों को अपना पृथक् संघ और संविधान बनाने का अधिकार होगा। तात्कालिक प्रस्ताव में वायसराय की कार्यकारिणी में युद्धमन्त्री के अधिकारों से सम्बन्धित विषय थे। कांग्रेस ने क्रिप्स के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनमें उत्तरदायी शासन स्थापित करने वाली कोई बात नहीं थी। यद्यपि क्रिप्स प्रस्ताव में अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर ली गई थी तथापि लीग ने भी क्रिप्स प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसमें पाकिस्तान के निर्माण के सम्बन्ध में स्पष्ट घोषणा नहीं थी। यद्यपि कांग्रेस का एक वर्ग राजगोपालाचारी के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग की वास्तविकता को स्वीकार करने लगा था, तथापि 29 अप्रैल 1942 को भारतीय कांग्रेस कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित करके कहा कि किसी भी भारतीय भौगोलिक क्षेत्र को भारतीय संघ से अलग हो जाने की स्वतंत्रता देना, देश के लिए अहितकर होगा। इस प्रकार कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को खुली चुनौती दी गई।

(19.) भारत छोड़ो आन्दोलन पर मुस्लिम लीग की अलगाववादी राजनीति

क्रिप्स प्रस्तावों की असफलता के बाद 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रस्ताव पारित किया। इस पर सरकार ने कांग्रेसी नेताओं को बंदी बना लिया। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी ने आन्दोलन को विद्रोह में बदल दिया। जब कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन आरम्भ किया तो जिन्ना ने कांग्रेस के खिलाफ असभ्य भाषा में भाषण दिये और मुसलमानों को इस आंदोलन का विरोध करने का आह्वान किया। मुसलिम लीग प्रेस ने इस पूरे आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन से लड़ रहे कांग्रेसियों को गुण्डे शब्द से संबोधित किया। कांग्रेस नेताओं के विरुद्ध उतनी कठोर बातें ब्रिटिश प्रेस ने भी नहीं कीं जितनी मुस्लिम लीग प्रेस ने कहीं।

20 अगस्त को लीग की कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव में कहा गया- ‘कांग्रेस के इस आन्दोलन का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को परेशान करना है जिससे वह हिन्दू कुलीनतन्त्र को शासन-भार सौंप दे और इस प्रकार वह मुसलमानों तथा अन्य भारतीय अल्पसंख्यक समुदाय को समय-समय पर दिये गये वचनों तथा नैतिक उत्तरदायित्वों को पूरा न कर सके। साथ ही मुसलमानों को भी कांग्रेस की शर्तों पर तथा आज्ञाओं के आगे झुकने के लिए विवश कर दे।’

इस प्रस्ताव की आड़ में जिन्ना ने मुस्लिम लीग को और अधिक सशक्त बनाने का प्रयास किया। हर प्रान्तीय लीग को संगठित किया गया। केन्द्रीय और प्रान्तीय स्तर के लीगी नेताओं को छोटे शहरों एवं कस्बों में पाकिस्तान का संदेश पहुँचाने के लिए नियमित दौरे करने को कहा गया तथा साम्प्रदायिक समस्या को उसके चरम पर पहुंचा दिया गया।

6 मई 1944 को वायसराय लॉर्ड वेवल ने गांधीजी को बीमारी के कारण जेल से छोड़ दिया। जेल से मुक्त होने के बाद गांधीजी ने साम्प्रदायिक समस्या के समाधान हेतु जिन्ना से मिलने का निश्चय किया। गांधीजी की योजना की मुख्य बात यह थी कि युद्ध के बाद भारत उत्तर-पूर्व तथा उत्तर-पश्चिम में मुस्लिम बहुमत वाले प्रदेशों की सीमा निर्धारित करने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाये। इन प्रदेशों में किसी व्यावहारिक मताधिकार के आधार पर यह तय करने के लिए जनमत लिया जाये कि ये प्रदेश भारत से अलग होना चाहते हैं या नहीं। यदि मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्र भारत से अलग होने का निर्णय करते हैं तो उनका राज्य अलग बन जायेगा। जिन्ना ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। उसने अस्वीकृति के तीन कारण बताये-

(क.) इस फार्मूले से मुसलमानों को अपूर्ण, अंगहीन तथा दीमक युक्त पाकिस्तान दिया गया है। जिन्ना सम्पूर्ण बंगाल, आसाम, सिन्ध, पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त और ब्लूचिस्तान को पाकिस्तान में चाहता था।

(ख.) प्रस्तावित जनमत-संग्रह में गैर-मुसलमानों को भी भाग लेने की अनुमति दी गई थी।

(ग.) प्रतिरक्षा, संचार और परिवहन के सम्बन्ध में संयुक्त व्यवस्था का प्रस्ताव था जिसे लीग मानने को तैयार नहीं थी।

(20.) शिमला सम्मेलन की असफलता

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जून 1945 में लॉर्ड वेवल ने भारत के भावी प्रशासनिक पुनर्गठन की योजना पर वार्त्ता करने के लिए साम्प्रदायिक हितों से जुड़े प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन शिमला में आयोजित किया गया था इसलिये इसे शिमला सम्मेलन कहते हैं। जिन्ना और गांधीजी का मतभेद केवल मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के विषय में रहता था। देश में 10 करोड़ मुसमलान थे एवं 25 करोड़ हिन्दू व अन्य मतों के अनुयायी थे। कांग्रेस देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी जिसे विश्वास था कि वह 100 प्रतिशत हिन्दू, सिख एवं अन्य मतों के अनुयायियों का तथा 90 प्रतिशत मुस्लिम मतानुयायियों को नेतृत्व करती है और मुस्लिम लीग को देश के लगभग 10 प्रतिशत मुसलामनों का समर्थन प्राप्त है। जबकि मुस्लिम लीग मानती थी कि उसे देश के 90 प्रतिशत मुसलामनों का समर्थन प्राप्त था। जिन्ना कहता था कि मुस्लिम लीग ही एक मात्र संस्था है जो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर सकती है जबकि गांधीजी का कहना था कि कांग्रेस हिन्दू और मुसलमान दोनों का प्रतिनिधित्व करती है। गांधीजी ने शिमला सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से मौलाना अबुल कलाम आजाद को भी सम्मिलित करने का प्रयास किया। इस पर जिन्ना नाराज हो गया। उसने कहा कि सरकार में केवल चार मुस्लिम प्रतिनिधि होंगे और वे चारों प्रतिनिधि मुस्लिम लीग की ओर से होंगे। कांग्रेस को केवल हिन्दुओं को ही अपना प्रतिनिधि बनाने का अधिकार है। इस बिंदु पर इतनी टसल चली कि शिमला सम्मेलन विफल हो गया। 

(21.) मुसलमानों पर कांग्रेस का प्रभाव समाप्त

दिसम्बर 1945 में प्रान्तीय विधान सभाओं के चुनाव हुए। चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस का मुसलमानों में कोई विशेष प्रभाव नहीं है और मुसलमानों का वास्तिविक प्रतिनिधित्व मुस्लिम लीग कर रही है। ब्रिटिश भारत के 11 प्रान्तों में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल बने, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में खुदाई खिदमतगारों की सरकार बनी जिनके नेता सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फारखान थे। पंजाब में कांग्रेस तथा अकाली दल की मिलीजुली सरकार बनी। केवल दो प्रांतों- बंगाल एवं सिन्ध में मुस्लिम लीग की सरकारें बनीं।

(22.) कैबिनेट मिशन योजना

 15 मार्च 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारतीयों के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की घोषणा की। 24 मार्च 1946 को इस सम्बन्ध में भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने तीन महीने भारत में रहकर भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श किया। 16 मई 1946 को मिशन ने एक योजना की घोषणा की। इसमें भारत के लिए एक संघीय शासन व्यवस्था की बात कही गई जिसमें ब्रिटिश भारत के समस्त प्रान्त तथा भारत की देशी रियासतें सम्मिलित होनी थीं। मिशन ने भारत का संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन करने का भी प्रस्ताव किया जिसके कुल 389 सदस्यों में से 210 गैर-मुस्लिम और 78 मुस्लिम सदस्य रखे गये। शेष 101 स्थान देशी रियासतों के लिए सुरक्षित रखे गये। केबिनेट मिशन योजना का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंश अन्तरिम सरकार की स्थापना का था। इसमें 14 सदस्य रखे गये जिनमें 5 कांग्रेस के सवर्ण हिन्दू सदस्य, 5 मुस्लिम लीग के सदस्य, 1 दलित वर्ग का सदस्य और 3 अन्य अल्प संख्यकों के सदस्य सम्मिलित होने थे। कांग्रेस ने केबिनेट मिशन योजना के संविधान निर्माण सम्बन्धी प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किन्तु अन्तरिम सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने सम्पूर्ण योजना को स्वीकार कर लिया। वह अन्तरिम सरकार में भाग लेने की भी इच्छुक थी। जुलाई 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार संविधान सभा के चुनाव हुए जिनमें कांग्रेस को भारी सफलता मिली। इस पर 29 जुलाई 1946 को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग द्वारा कैबिनेट मिशन योजना अस्वीकार कर दिये जाने पर कांग्रेस ने अन्तरिम सरकार में भाग लेने की स्वीकृति दे दी। इस पर 12 अगस्त 1946 को वायसराय ने पं. जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने का निमन्त्रण भेज दिया।

(23.) सीधी कार्यवाही दिवस

आसानी से पाकिस्तान हाथ आता हुआ न देखकर मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 के दिन सीधी कार्यवाही दिवस मनाने तथा पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए सड़कों पर भयानक हिंसा करने का निर्णय लिया। जिन्ना को अपना निर्णय पलटने का अनुरोध करने के लिये जवाहरलाल नेहरू 16 अगस्त 1946 को जिन्ना के घर गये किंतु जिन्ना पर नेहरू की अपील का कोई असर नहीं हुआ। बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी और सुहरावर्दी वहाँ का मुख्यमंत्री था। सुहरावर्दी ने 16 अगस्त को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया ताकि मुस्लिम लीग के स्वयंसेवक बिना किसी रोक-टोक के सीधी कार्यवाही की हिंसा में भाग ले सकें। मुस्लिम लीग के आह्वान पर लाखों लोग सड़क पर निकल आये। उन्होंने हिन्दुओं के घरों एवं दुकानों में आग लगा दी और हिन्दुओं का कत्लेआम आरम्भ कर दिया। कलकत्ता में भीषण हत्याकाण्ड हुआ जिसमें लगभग 4000 हिन्दू मारे गये। ये साम्प्रदायिक दंगे पूर्वी बंगाल के नोआखाली और त्रिपुरा जिलों में भी फैल गये जिनमें लगभग 200 हिन्दू मारे गये। नोआखाली में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया गया तथा स्त्रियों के साथ बलात्कार किये गये।  इन दंगों की प्रतिक्रिया में बिहार में हिन्दुओं ने मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया। सरकारी सूत्रों के अनुसार बिहार में लगभग 4300 मुसलमान मारे गये। संयुक्त प्रान्त में 250 मुसलमान मारे गये। पूर्वी भारत की तरह पश्चिमी भारत में भी सीधी कार्यवाही में हिन्दुओं एवं सिक्खों के विरुद्ध भयानक हिंसा हुई। पंजाब में मरने वाले सिक्खों तथा हिन्दुओं की संख्या 3000 तक पहुंच गई। दंगों के दौरान सिक्खों की करोड़ों रुपये मूल्य की सम्पत्ति लूट ली गई अथवा तोड़-फोड़ एवं आगजनी में नष्ट कर दी गई।

(24.) अंतरिम सरकार के गठन के बाद साम्प्रदायिकता में वृद्धि

2 सितम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने अन्तरिम सरकार का गठन किया। सत्ता का सारा लाभ कांग्रेस को न मिल जाय, इस आशंका से ग्रस्त मुस्लिम लीग अपने पूर्व निर्णय को बदल कर 13 सितम्बर को अन्तरिम सरकार में सम्मिलित हो गई। मुस्लिम लीग, नेहरू सरकार के समक्ष इतने कांटे बिछाना चाहती थी कि सरकार विफल हो जाये।  वित्तमंत्री की हैसियत से लियाकत अलीखां को सरकार के प्रत्येक विभाग में दखल देने का अधिकार मिल गया। वह प्रत्येक प्रस्ताव को या तो अस्वीकार कर देता था या फिर उसमें बदलाव कर देता था। उसने अपने कार्यकलापों से मंत्रिमण्डल को पंगु बना दिया। मंत्रिगण लियाकत अलीखां की अनुमति के बिना एक चपरासी भी नहीं रख सकते थे। लियाकत अलीखां ने कांग्रेसी मंत्रियों को ऐसी उलझन में डाला कि वे कर्तव्यविमूढ़ हो गये।  घनश्यामदास बिड़ला ने गांधीजी और जिन्ना के बीच खाई पाटने के उद्देश्य से लियाकत अलीखां को समझाने की चेष्टा की किंतु कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में कांग्रेस के अनुरोध पर लार्ड माउण्टबेटन ने लियाकत अली से बात की और करों की दरें काफी कम करवाईं।

मुस्लिम लीग ने सरकार में सम्मिलित होने के बाद भी संविधान सभा का बहिष्कार जारी रखा। मुस्लिम लीग के अंतरिम सरकार में सम्मिलित होने पर बंगाल और पंजाब के मुसलमानों ने हिंदुओं के विरुद्ध हमले तेज कर दिये। इस कारण मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से हिन्दू जनता भागने लगी। लाहौर से लेकर पेशावर तक पूरा पंजाब धू-धू कर जलने लगा। अलगाववादी मुल्लाओं और मौलानाओं ने जानवरों की हड्डियां दिखा-दिखा कर मुसलमानों को भड़काया कि यह बिहार में हिंदुओं के अत्याचार के कारण मरे मुसलमानों की हड्डियां हैं। मुस्लिम लीग के वालंटियर (रजाकार) चुन-चुन कर हिन्दुओं के मोहल्लों और मकानों को लूटने लगे, आग लगाने लगे, स्त्रियों से बलात्कार करने लगे और उनका अपहरण करने लगे।

लॉर्ड माउण्टबेटन ने घोषणा की- ‘मैं रक्तपात और लूटमार नहीं होने दूंगा। मैं थलसेना और वायुसेना से काम लूंगा। मैं उत्पात करने वालों का दमन करने के लिये टैंकों और वायुयानों का उपयोग करूंगा।’

एक ओर वायसराय दंगों को रोकने के लिये कृत संकल्प था तो दूसरी ओर पंजाब का गर्वनर फ्रांसिस मुडी जिन्ना को आश्वासन दे रहा था- ‘मैं सबसे कह रहा हूँ कि मैं इस बात की चिंता नहीं करता कि सिक्ख सीमा पर कैसे पहुंचेंगे। अच्छी बात तो यह है कि यंथासंभव शीघ्र से शीघ्र उनसे छुटकारा हो जाये।’

यही कारण था कि वायसराय की घोषणा पर अमल नहीं हुआ। पंजाब में बड़ी संख्या में सिक्खों का कत्ल हुआ और अंग्रेज उनकी रक्षा नहीं कर पाये। सिक्खों की रक्षा करने की कौन कहे, स्वयं अँग्रेजों की जान के लाले पड़े हुए थे, वे किसी तरह भारत से सही सलामत निकलकर अपने देशी पहुंच जाना चाहते थे।

इस प्रकार भारत में साम्प्रदायिक समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया और देश का विभाजन निश्चित जान पड़ने लगा।

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