हमने पूर्व की कड़ियों में चर्चा की थी कि उर्वशी एवं पुरुरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयु ने राहु की कन्या प्रभा से विवाह किया था जिससे आयु को नहुष, क्षत्रवृद्ध, रम्भ, रजि एवं अनेना नामक पांच पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनमें से नहुष की कथा हम पिछली दो कड़ियों में बता चुके हैं।
क्षत्रवृद्ध के एक प्रपौत्र शौनक ने मानव समाज में चातुर्वर्ण का प्रवर्तन किया अर्थात् उनकी संतानों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्णों की प्रजा हुई।
क्षत्रवृद्ध के दूसरे प्रपौत्र काशिराज काशेय ने काशी नामक राज्य की स्थापना की। इसी काशिराज के वंश में धन्वंतरि हुए जिन्होंने आयुर्वेद को आठ विभागों में विभक्त किया। इस प्रकार चंद्रवंशी राजकुमारों ने बड़े-बड़े कार्य किए।
इस कथा में हम पुरुरवा के पुत्र रजि तथा रजि के पुत्रों की चर्चा करेंगे। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण एवं हरिवंश पुराण सहित अनेक पुराणों में आई एक कथा के अनुसार पुरुरवा के पुत्र राजा रजि के पांच सौ बलशाली पुत्र हुए जो राजेय के नाम से विख्यात हुए। रजि ने भगवान नारायण की आराधना की। राजा रजि के द्वारा की गई तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्री हरि विष्णु ने राजा रजि को अनेक वर दिए जिससे राजा रजि त्रिलोक-विजयी हो गए।
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एक बार दैत्यराज प्रहलाद एवं देवराज इन्द्र के बीच महासंग्राम छिड़ गया जो तीन सौ वर्षों तक चलता रहा परंतु कोई भी पक्ष विजयी नहीं हो पाया।
तब देवताओं एवं दानवों ने प्रजापति ब्रह्मा के पास जाकर उनसे पूछा- ‘इस युद्ध में कौनसा पक्ष विजयी होगा?’
इस पर ब्रह्माजी ने कहा- ‘जिस पक्ष में राजा रजि शस्त्र धारण करके युद्ध करेंगे, वही पक्ष विजयी होगा!’
तब दैत्यों ने जाकर रजि से सहायता मांगी। राजा रजि दैत्यराज राहु के दौहित्र थे। इसलिए दैत्यों का भी राजा रजि पर पूर्ण अधिकार था।
इसलिए रजि ने दैत्यों से कहा- ‘यदि मेरी सहायता से देवताओं के परास्त हो जाने के बाद मैं दैत्यों द्वारा शासित स्वर्ग का इंद्र हो सकूं तो मैं आपके पक्ष में लड़ सकता हूँ।’
यह सुनकर दैत्यों ने कहा- ‘हम लोग एक बात कहकर उसके विरुद्ध दूसरी तरह का आचरण नहीं करते। हमारे इन्द्र तो दैत्यराज प्रह्लाद हैं और उन्हीं के लिए यह सम्पूर्ण उद्योग हो रहा है।’
ऐसा कहकर दैत्य तो रजि को छोड़कर चले गए किंतु तभी देवताओं ने आकर राजा से अपने पक्ष में लड़ने का आग्रह किया। स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी का पौत्र होने से देवताओं का भी राजा रजि पर पूर्ण अधिकार था किंतु राजा रजि ने देवताओं के समक्ष भी वही शर्त रखी जो उसने दैत्यों के समक्ष रखी थी। देवताओं ने रजि की शर्त मान ली तथा युद्ध में विजय मिलने के बाद रजि को स्वर्ग का नया इन्द्र बनाना स्वीकार कर लिया।
अतः राजा रजि ने पूरे उत्साह के साथ देव सेना की सहायता की। राजा रजि महान् योद्धा थे और उनके पास अनेक महान अस्त्र-शस्त्र थे जिनकी सहायता से राजा रजि ने दैत्यों की सेना पराजित कर दी। युद्ध समाप्ति के बाद इन्द्र को भय हुआ कि अब उसे राजा रजि के पक्ष में इन्द्रपद का त्याग करना पड़ेगा किंतु वह इन्द्र पद छोड़ने को तैयार नहीं था। उन दिनों शतक्रतु स्वर्ग का इन्द्र था।
इसलिए इन्द्र ने एक उपाय सोचा और राजा रजि के दोनों चरणों को अपने मस्तक पर रखकर कहने लगा- ‘दैत्यों के भय से हमारी रक्षा करने और हमें अन्नदान देने के कारण आप हमारे पिता हैं। आप सम्पूर्ण लोकों में सर्वोत्तम हैं क्योंकि मैं त्रिलोकेन्द्र आपका पुत्र हूँ। आप स्वर्ग मेरे ही पास रहने दें, इससे आपको अक्षय कीर्ति प्राप्त होगी।’
इस पर राजा रजि देवराज इन्द्र से प्रसन्न हो गए और उन्होंने हंसकर कहा- ‘अच्छा ऐसा ही सही।’ ऐसा कहकर वे अपनी राजधानी को चले गए।
इस प्रकार शतक्रतु ही इन्द्र-पद पर आसीन हुआ। पीछे राजा रजि के स्वर्गवासी होने पर देवर्षि नारद की प्रेरणा से रजि के पुत्रों ने अपने पिता के पुत्रभाव को प्राप्त हुए शतक्रतु से अपने पिता का राज्य मांगा किंतु इन्द्र ने रजि के पुत्रों को राज्य देने से मना कर दिया। इस पर रजि के पुत्रों ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया तथा उसे जीतकर स्वयं ही इन्द्र पद का भोग करने लगे।
रजिपुत्रों ने इन्द्र के वैभव, यज्ञभाग और राज्य को बलपूर्वक छीन लिया। इस कारण इन्द्र को स्वर्ग छोड़ना पड़ा। एक दिन देवगुरु बृहस्पति एकांत में बैठे थे। तब त्रिलोकी के यज्ञभाग से वंचित हुए शतक्रतु इंद्र ने अवसर जानकर उनसे भेंट की।
देवेन्द्र ने कहा- ‘देव मैं रजिपुत्रों द्वारा सताया जा रहा हूँ। मुझे अब यज्ञ में भाग नहीं मिलता। क्या आप मेरी तृप्ति के लिए एक बेर के बराबर भी पुरोडाशखण्ड मुझे दे सकते हैं? आप मेरी राज्यप्राप्ति के लिए कोई उपाय कीजिए।’
शतक्रतु के ऐसा कहने पर देवगुरु बृहस्पति ने कहा- ‘यदि ऐसा है तो पहले ही तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा? तुम्हारे लिए भला मैं क्या नहीं कर सकता? मैं थोड़े ही दिनों में, रजि के उद्दण्ड पुत्रों को स्वर्ग से निकालकर तुम्हें तुम्हारे पद पर पुनः आसीन कर दूंगा।’
ऐसा कहकर देवगुरु बृहस्पति रजिपुत्रों की बुद्धि को मोहित करने के लिए अभिचार और इन्द्र की तेजोवृद्धि के लिए हवन करने लगे। बुद्धि को मोहित करने वाले उस अभिचार कर्म से अभिभूत हो जाने के कारण रजि-पुत्र ब्राह्मण विरोधी, धर्म-त्यागी और वेद-विमुख हो गए। इस कारण कुछ ही समय में उनका बल घट गया। तब इन्द्र ने उन्हें मार डाला और पुरोहित के द्वारा तेजोवृद्ध होकर पुनः स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया।
हरिवंश पुराण के अनुसार देवगुरु बृहस्पति ने रजि के पुत्रों में मोह उत्पन्न करने के लिए एक ऐसे शास्त्र का निर्माण किया जो नास्तिकवाद से परिपूर्ण तथा धर्म के प्रति अत्यंत द्वेष उत्पन्न करने वाला था। केवल तर्क के आधार पर अपने सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाला वह ग्रंथ नास्तिक शास्त्रों में उत्तम माना गया है।
बृहस्पति का वह नास्तिक दर्शन दुष्ट-पुरुषों के मन को अधिक भाता है। बृहस्पति उस शास्त्र को लेकर रजिपुत्रों के पास गए। रजिपुत्रों ने वह शास्त्र सुना तो वे धर्म से विमुख हो गए तथा वेदों से वैर रखने लगे। इस पर बृहस्पति ने रजिपुत्रों को ऋगवेद, युजुर्वेद एवं सामवेद से वंचित कर दिया। अब पापपूर्ण बुद्धि वाले रजि के पुत्रों को इन्द्र ने मार दिया। उर्वशी एवं पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र महाराज आयु का दूसरा पुत्र रम्भ सन्तानहीन रहा। तीसरे पुत्र क्षत्रवृद्ध का पुत्र प्रतिपक्ष हुआ। महाराज आयु के ज्येष्ठ पुत्र नहुष का विवाह विरजा से हुआ जिससे अनेक पुत्र हुए जिनमें ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव प्रमुख थे। इनकी चर्चा हम आगामी कथाओं में करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता