उर्वशी एवं पुरुरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयु को नहुष, क्षत्रवृद्ध, रम्भ, रजि एवं अनेना नामक पांच पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनमें से क्षत्रवृद्ध के एक प्रपौत्र शौनक ने मानव समाज में चातुर्वर्ण का प्रवर्तन किया तथा दूसरे प्रपौत्र काशिराज काशेय ने काशी की स्थापना की। इसी काशिराज के वंश में धन्वंतरि हुए जिन्होंने आयुर्वेद को आठ विभागों में विभक्त किया। इस कथा में हम धन्वंतरि के जन्म की विस्तार से चर्चा करेंगे।
दर्शकों को स्मरण होगा कि देवों एवं दानवों द्वारा समुद्र मंथन करने से चैदह रत्नों की उत्पत्ति हुई थी जिनमें से धन्वंतरि भी एक थे। श्री हरिवंश पुराण में आई एक कथा के अनुसार जब धन्वंतरि प्रकट हुए तो वे भगवान् विष्णु के नामों का जप और आरोग्य साधक कार्य का चिंतन करते हुए सब ओर से दिव्य कांति से प्रकाशित हो रहे थे।
इस कारण जैसे ही धन्वंतरि इस संसार में प्रकट हुए उन्होंने भगवान विष्णु के दर्शन किए। भगवान विष्णु ने धन्वंतरि से कहा- ‘हे धन्वंतरि! तुम ‘अप्’ अर्थात् जल से प्रकट हुए हो, इस कारण तुम्हें अब्ज भी कहा जाएगा।’
धन्वंतरि ने भगवान विष्णु से कहा- ‘हे प्रभो! मैं आपका पुत्र हूँ। मेरे लिए यज्ञभाग की व्यवस्था कीजिए और लोक में मेरे योग्य कोई स्थान दीजिए।’
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धन्वंतरि के ऐसा कहने पर भगवान विष्णु ने कहा- ‘हे धन्वंतरि! पूर्वकाल में यज्ञ-सम्बन्धी देवताओं ने यज्ञ का विभाग कर लिया है। महर्षियों ने हवनीय पदार्थों का देवताओं के लिए ही विनियोग किया है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। बेटा! तुम्हें छोटे-मोटे उपहोम कभी अर्पित नहीं किए जा सकते।
क्योंकि वे तुम्हारे योग्य नहीं हैं। तुम देवताओं से पीछे उत्पन्न हुए हो। अतः तुम्हारे लिए वेद-विरुद्ध यज्ञभाग की कल्पना नहीं की जा सकती और वैदिक यज्ञभाग पाने के तुम अधिकारी नहीं हो। दूसरे जन्म में तुम संसार में विख्यात होओगे। वहाँ गर्भावस्था में ही तुम्हें अणिमा आदि सिद्धि प्राप्त हो जाएगी। तुम उसी शरीर से देवत्व प्राप्त कर लोगे और ब्राह्मण लोग चरु, मंत्र, व्रत एवं जपनीय मंत्रों द्वारा तुम्हारा यजन करेंगे।
फिर तुम उस जन्म में आयुर्वेद को आठ भागों में विभक्त करके उसे आठ अंगों से युक्त बना दोगे। कमलयोनि ब्रह्माजी ने इससे पहले ही इसे देख लिया है। दूसरा द्वापर आने पर तुम संसार में अवश्य प्रकट होओगे, इसमें संशय नहीं है।’ धन्वंतरि को यह वरदान देकर भगवान् श्री हरि विष्णु अंतर्धान हो गए।
जब दूसरा द्वापर आया तब सुनहोत्र के पुत्र काशिराज धन्व पुत्र की कामना से दीर्घ तपस्या करने लगे। उन्होंने मन ही मन सोचा कि मैं उस देवता की शरण लूं जो मुझे पुत्र प्रदान करे। ऐसा विचार करके राजा ने पुत्र के लिए भगवान् धन्वंतरि की आराधाना की।
उस आराधना से संतुष्ट होकर भगवान् अब्ज राजा धन्व से बोले- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! तुम जो वर प्राप्त करना चाहते हो, उसे बताओ, वह मैं तुम्हें दूंगा।’
राजा बोले- ‘भगवन्! यदि आप मुझसे संतुष्ट हैं तो आप मेरे पुत्र हो जाएं और इसी रूप में आपकी ख्याति हो!’ भगवान् धन्वंतरि तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गए। कुछ काल के पश्चात् भगवान् धन्वंतरि राजा धन्व के घर में अवतीर्ण हुए। आगे चलकर वे काशिराज बने। काशिराज भगवान् धन्वंतरि समस्त रोगों का नाश करने में समर्थ थे। उन्होंने मुनि भरद्वाज से आयुर्वेद तथा चिकित्साकर्म का ज्ञान प्राप्त किया तथा उसे आठ भागों में विभक्त कर दिया। फिर उन विभागों की विवेचना की।
इसके पश्चात् भगवान् धन्वंतरि ने बहुत से शिष्यों को उस अष्टांग युक्त आयुर्वेद की शिक्षा प्रदान की। भगवान् धन्वंतरि का वंश ही पीढ़ी दर पीढ़ी काशी पर राज्य करता रहा। राजा दिवोदास के काल में भगवान शिव देवी पार्वती से विवाह करके उनके साथ रहने के लिए वाराणसी नगरी में आए। भगवान शिव ने अपने गण निकुम्भ से कहा- ‘तुम वाराणसी नगरी को जनशून्य कर दो किंतु इसके लिए कोमल उपायों से काम लेना क्योंकि वाराणसी के राजा दिवोदास बड़े बलवान् एवं धर्मात्मा हैं।’
भगवान का आदेश सुनकर निकुम्भ वाराणसी में आ गया और उसने एक व्यक्ति को स्वप्न में आदेश दिया कि- ‘तू नगर की सीमा पर मेरी मूर्ति बनाकर स्थापित करवा। जो भी व्यक्ति उस मूर्ति की पूजा करेगा उसका मनोरथ सिद्ध होगा।’
उस व्यक्ति ने राजा दिवोदास से आज्ञा लेकर शिवजी के गण निकुम्भ की एक मूर्ति बनवाई तथा वाराणसी नगर की सीमा पर लगवा दी। सब लोग उसकी पूजा करके अपनी मनोकामनाएं पूरी करने लगे। इस पर राजा दिवोदास की रानी सुयशा भी पुत्र की कामना लेकर निकुम्भ की पूजा करने लगी किंतु जब बहुत काल तक रानी को पुत्र नहीं हुआ तो राजा दिवोदास ने क्रोधित होकर निकुम्भ के स्थान को नष्ट करवा दिया।
इस पर निकुम्भ ने राजा को शाप देते हुए कहा कि तुमने अकारण ही मेरा स्थान नष्ट करवाया है, इसलिए तुम्हारी नगरी अकस्मात् जनशून्य हो जाएगी तथा एक हजार वर्ष तक जनशून्य बनी रहेगी। इसके बाद वाराणसी जनशून्य हो गई तथा शिव एवं पार्वती वहाँ आकर निवास करने लगे। वाराणसी पुरी के शापग्रस्त हो जाने पर राजा दिवोदास ने अपने राज्य की सीमा पर गोमती नदी के तट पर एक रमणीय नगरी बसाई।
हरिवंश पुराण के अनुसार राजा दिवोदास ने यदुवंशी राजा महिष्मान् के पुत्र भद्रश्रेण्य के सौ पुत्रों को मारकर वाराणसी नगरी पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। सतयुग आदि तीन काल बीत जाने पर भगवान शिव के गण क्षेमक ने पुरानी वाराणसी अर्थात् काशी को फिर से बसाया।
इस प्रकार प्रत्येक सृष्टि में सत्ययुग आदि तीन कालों में भगवान शिव एवं पार्वती वाराणसी में निवास करते हैं, उस समय काशी जनशून्य रहती है तथा कलियुग के आने पर भगवान शिव की वाराणसी लुप्त हो जाती है तथा मनुष्यों से परिपूर्ण काशी प्रकट होती है। तब भगवान धन्वंतरि के वंशज काशी पर शासन करते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता