जिस समय मुहम्मद अली जिन्ना और भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ हिन्दू राज्यों को पाकिस्तान में मिलाने का प्रयास कर रहे थे, उस समय जोधपुर नरेश हनवंतसिंह ने जिन्ना से भेंट की। इस कारण महाराजा महाराजा हनवंतसिंह की भूमिका विवादास्पद हो गई!
वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन ने भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ द्वारा भेजे गये तथ्यों को सही माना है। महाराजा शीर्षक से लिखी गई एक पुस्तक के लेखक ओंकारसिंह ने इस विवरण के आधार पर यह माना है कि जिन्ना और जोधपुर नरेश की भेंट के समय कर्नल केसरीसिंह महाराजा के साथ नहीं थे अन्यथा भोपाल नवाब ने उनका उल्लेख अवश्य किया होता।
ओंकारसिंह के अनुसार अवश्य ही केसरीसिंह ने यह मिथ्या भ्रम फैलाया था कि इस भेंट के दौरान केसरीसिंह भी उपस्थित थे और इसी भ्रम के कारण मानकेकर और पन्निकर आदि ने तथ्यों को विकृत कर दिया है। इन विकृत तथ्यों के कारण महाराजा हनवंतसिंह की भूमिका और अधिक विवादास्पद दिखाई देती है।
16 अगस्त 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा भारत सचिव को अपना अंतिम प्रतिवेदन भेजा गया जिसके अनुच्छेद 41 में कहा गया-
‘8 अगस्त को मैंने महाराजा जोधपुर को बुलाया तो वे उसी रात्रि को विलम्ब से जोधपुर से दिल्ली पहुंचे और अगले दिन सेवेरे (9 अगस्त को) मुझसे मिले। महाराजा ने निःसंकोच स्वीकार किया कि वे जिन्ना से मिले थे और नवाब भोपाल का विवरण सही है। पटेल को जब जोधपुर महाराजा की चाल का पता चला तो वे महाराजा को मनाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार हो गये। पटेल ने यह बात मान ली कि महाराजा जोधपुर राज्य में बिना किसी रुकावट के शस्त्रों का आयात कर सकेंगे। राज्य के अकालग्रस्त जिलों को पूरे खाद्यान्न की आपूर्ति की जायेगी और इस हेतु भारत के अन्य क्षेत्रों की अवहेलना की जायेगी। महाराजा द्वारा जोधपुर रेलवे की लाइन कच्छ राज्य के बंदरगाह तक मिलाने में कोई रुकावट नहीं की जायेगी। पटेल की इस स्वीकृति से महाराजा संतुष्ट हो गये और उन्होंने निश्चय किया कि वे भारत के साथ रहेंगे।’
ओंकारसिंह का मानना है कि महाराजा हनवंतसिंह न तो पाकिस्तान में मिलना चाहते थे और न ही राजस्थान के सम्राट बनना चाहते थे अपितु वे तो अपने राज्य के लिए अधिकतम सुविधायें प्राप्त करने के लिए सरदार पटेल पर दबाव बनाना चाहते थे। यदि ओंकारसिंह का स्पष्टीकरण स्वीकार कर लिया जाए तब भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत सरकार को बताए बिना जिन्ना से से की गई भेंट के कारण महाराजा हनवंतसिंह की भूमिका विवादास्पद हो गई।
स्वतंत्रता सेनानी प्रवीण चंद्र छाबड़ा के अनुसार यदि सरदार पटेल ने जोधपुर महाराजा को गिरफ्तार करने की चेतावनी नहीं दी जोती तो इतिहास अन्य भी हो सकता था। गोकुल भाई भट्ट ने लिखा है- ‘तब जोधपुर का मामला बहुत पेचीदा हो रहा था, क्योंकि जोधपुर के महाराजा की पाकिस्तान के साथ सांठ-गांठ हो रही थी। उनसे पत्र-व्यवहार भी हुआ था। समझौते का मसौदा भी तैयार हो गया था। वहाँ से कुछ एक्ट्रैस (अभिनेत्रियां) भी भेजी गई थीं। इस तरह से बहुत कुछ हुआ था।’
सरदार पटेल ने जोधपुर महाराजा को दिल्ली बुलाया और कहा- ‘क्या पाकिस्तान के साथ जाना है आपको? तो वे घबरा गए, कुछ जवाब नहीं दे पाए और सरदार ने जरा कड़ाई से कहा कि देखिए! अगर आपको जाना है तो आपको भेज दूँ, रियासत नहीं जाएगी। इस प्रकार कुछ डांट-डपट भी की गई। राजमाता ने जब यह सुना कि हनुवंतसिंह को इस तरह सरदार ने कहा है तो उन्होंने मुझसे (गोकुल भाई भट्ट से) कहा कि व्यक्तिगत रूप से गोकुल भाई आप ही ध्यान रखिए कि कोई ऐसी बात न हो। अपने को तो देश के साथ, भारत के साथ रहना है और मेरे लड़के ने कुछ भी किया हो या नहीं किया हो, उसे भूल जाना चाहिए। सरदार साहब उसके ऊपर इतना कुछ न करें। रूआंसी माँ ने भट्टजी से अनुरोध किया कि मेरे सिर पर हाथ रखिए और इसमें मदद करें, ये सब बातें तो हैं। आखिर जोधपुर महाराजा ने मान लिया और भारत संघ में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।’
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि जोधपुर नरेश अवश्य ही भोपाल नवाब और महाराजराणा धौलपुर की चाल में फँस कर उन संभावनाओं का पता लगाने के लिए जिन्ना तक पहुँच गये थे कि उनका अधिक लाभ किसमें है, भारत संघ में मिलने में, पाकिस्तान में मिलने में अथवा इन दोनों देशों से स्वतंत्र रहकर अलग अस्तित्व बनाये रखने में?
गणेश प्रसाद बरनवाल ने लिखा है- ‘जोधपुर और त्रावणकोर के हिन्दू राजाओं ने कुछ अलगाववादी चालाकियां करनी चाहीं किंतु पटेल की सजगता ने उन्हें पानी-पानी कर दिया।’
सबसे पहले सुमनेश जोशी ने जोधपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘रियासती’ में जोधपुर नरेश के पाकिस्तान में मिलने के इरादे का भण्डाफोड़ किया। 20 अगस्त 1947 के अंक में ‘राजपूताने के जागीरदारों और नवाब भोपाल के मंसूबे पूरे नहीं हुए’ शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जोधपुर राज्य के संघ प्रवेश से जो प्रसन्नता यहाँ के राजनैतिक क्षेत्र में हुई है उसके पीछे आश्चर्य भी है कि नये महाराजा ने बावजूद अपने तिलकोत्सव के भाषण के, संघ प्रवेश में क्यों हिचकिचाहट दिखायी?
भोपाल नवाब ने हवाई जहाजों के जरिये 16 रियासतों के साथ सम्पर्क कायम करने का प्रयास किया। उन्होंने जोधपुर के मामले में इसलिए कामयाबी हासिल कर ली क्योंकि उनके चारों तरफ जागीरदार थे जो रियासत को पाकिस्तान में मिलाने के पक्ष में थे। जैसा कि महाराजा साहब के ननिहाल ठिकाने के प्रेस से प्रकाशित क्षत्रिय वीर के एक लेख में इशारा था, पाकिस्तान जागीरी प्रथा के प्रति उदार है जबकि हिन्दुस्तान इस प्रथा को उठाना चाहता है।
अतः पैलेस के जागीरदार स्वभावतः हिन्दुस्तान से पाकिस्तान को ज्यादा पंसद करते हैं। इससे जोधपुर रियासत की काफी बदनामी हुई है। हिन्दुस्तान यूनियन से दूर रहने का जो षड़यंत्र किया गया था उसमें यह भी प्रचारित किया गया था कि सर स्टैफर्ड क्रिप्स हिन्दुस्तान आयेंगे तथा उनसे बातचीत करके रियासतों का सम्बन्ध सीधा इंगलैण्ड से करवा दिया जायेगा। इस नाम पर बहुत लोग बेवकूफ बनने वाले थे।
अतः और लोगों को भी पाकिस्तान की तरफ से स्वतंत्र रहने का लोभ दिया गया। जोधपुर की अस्थायी हिच, इन समस्त बातों का सामूहिक परिणाम था। जाम साहब के पास भी भोपाल का संदेश गया था पर उन्होंने उसे ठुकरा दिया। उदयपुर महाराजा के पास जोधपुर का संदेश गया जिसका महाराणा ने कड़ा उत्तर दिया। ऐसेम्बली लॉबी में भी जोधपुर का यूनियन में प्रवेश अत्यंत चर्चा का विषय है।
इतिहास में बहुत से तथ्य ऐसे होते हैं जिनके बारे में सही या गलत का निर्णय करना कठिन होता है। महाराजा हनवंतसिंह की भूमिका के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही हुआ था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता