Saturday, December 21, 2024
spot_img

मानव जाति का डी.एन.ए. क्या अप्सराओं ने बदला !

मानव जाति का डी.एन.ए. क्या अप्सराओं ने बदला! पढ़ने-सुनने में यह बात विचित्र सी लगती है किंतु इस बात पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।

संसार में ऐसा कोई देश नहीं होगा जिसमें अप्सराओं के अस्तित्व के बारे में विश्वास नहीं किया जाता। उनके बारे में सामान्य धारणा है कि अप्सराएं लाखों साल से युवा बनी हुई हैं। वे सुंदर और बेहद आकर्षक नारियां है जो स्वर्गलोक में रहती हैं। वे नृत्य एवं गायन में विशेष दक्ष होती हैं तथा मनुष्यों के साथ पत्नी के रूप में रहने धरती पर आती हैं।

हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के साथ-साथ बौद्ध ग्रंथों में भी अप्सराओं का उल्लेख किया गया है। जैन ग्रंथ भी अप्सराओं का उल्लेख करते हैं। मुस्लिम संस्कृति में उन्हें जन्नत की हूर कहा जाता है तथा माना जाता है कि जो व्यक्ति धरती पर इस्लाम का कार्य करते हुए शहीद होगा, उसे जन्नत में हूरें प्राप्त होंगी।

यूनानी ग्रंथों में अप्सराओं को ‘निफ’ कहा गया है। इसाई पौराणिक कथाओं में अप्सराओं को ‘एल्फ’ कहकर पुकारा गया है। ईसाई एवं हिन्दू धर्म में मान्यता है कि अप्सराएं धरती के मानवों के साथ कुछ समय के लिए पत्नी के रूप में भी रहती हैं।

इस लेख में हमने भारतीय संस्कृत ग्रंथों में वर्णित उन अप्सराओं चर्चा की है जिन्होंने कुछ राजाओं एवं ऋषियों के साथ पत्नी के रूप में रहकर भारतीय आर्यों का डीएनए बदल दिया।

हालांकि आधुनिक विज्ञान हमें देवताओं की संतान नहीं बताएगा, वह हमें सदैव अफ्रीकी मूल की नीग्रो महिला की संतान के रूप में चित्रित करेगा जो वास्तव में बंदर जाति की मादा थी किंतु भारतीय शास्त्रों के अनुसार हम देवताओं की संतान हैं तथा हमारे शरीर में अप्सराओं के रक्त का भी मिश्रण हुआ है।

भारतीयों का पहला ग्रंथ है- ऋग्वेद। ऋग्वेद से लेकर महाभारत तथा अनेक पुराणों में स्वर्ग तथा उसमें रहने वाले देवी-देवताओं और अप्सराओं का उल्लेख हुआ है। अनेक संस्कृत ग्रंथों के अनुसार धरती पर मानव जाति के जन्म लेने से पहले, हिमालय पर्वत के किसी ठण्डे भाग में देवता नामक जाति रहती थी।

देवत गण ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति में आज के मानवों से काफी उन्नत थे। वे पलक झपकते ही हजारों मील की यात्रा करते थे। वे अमर थे तथा उनके पास खाने-पीने के लिए अद्भुत वस्तुएं थीं। उनके गले के फूल कभी मुर्झाते नहीं थे।

देवता लोग अपने देश को स्वर्ग कहते थे जैसे आज हम अपने देश को भारत कहते हैं। दिव्य शक्तियों का स्वामी होने के कारण उन्हें ‘देवता’ कहते थे तथा कभी मृत्यु न होने के कारण उन्हें अमर कहते थे। स्वर्ग में रहने के कारण उन्हें ‘सुर’, कहा जाता था तथा उनके शत्रुओं को असुर कहा जाता था। सुरों की स्त्रियां सुरा कहलाती थीं। स्त्री-देवता अथवा देवताओं की स्त्री होने के कारण उन्हें ‘देवी’ कहते हैं।

जिस प्रकार मानव समाज ने प्राचीन काल में मंदिरों में नृत्य एवं कीर्तन करने के लिए देवदासियां नियुक्त की थीं तथा सार्वजनिक मनोरंजन के लिए नगरवधुएं नियुक्त की थीं, उसी प्रकार स्वर्ग नामक देश में देवताओं का मनोरंजन करने के लिए कुछ स्त्रियों को नियुक्त किया गया था जिन्हें अप-सुरा अर्थात् ‘निम्न स्तर की देवी’ कहते थे।

इन्हीं अप-सुराओं को हम अप्सरा कहते हैं। चूंकि ये स्वर्गलोक की स्त्रियां थीं तथा स्वर्गलोक धरती के ठण्डे प्रदेश में स्थित था इसलिए ये अप्सराएं गोरे रंग की, आकार में लम्बी और बहुत सुंदर होती थीं।

जब धरती पर मानव संस्कृति का विकास हुआ और साइबेरिया, तिब्बत अथवा पामीर के पठार के आसपास के ठण्डे प्रदेशों में आर्य जाति का उद्भव हुआ तब देवताओं ने आर्य जाति से सम्पर्क स्थापित किया।

देवताओं ने आर्यों को रथ, विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, खेती के लिए उन्नत बीज, गाय, घोड़ा जैसी उपयोगी वस्तुएं प्रदान कीं। आर्यों को संस्कृत भाषा, देवनागरी लिपि तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद नामक तीन वेद देवताओं से ही प्राप्त हुए।

देवताओं से प्राप्त हुए ज्ञान के कारण आर्यों ने राजन्य नामक व्यवस्था स्थापित की। प्रारम्भिक आर्य, देवताओं के राजा इन्द्र तथा विभिन्न देवताओं की पूजा करते थे ताकि उनसे दिव्य शक्तियां प्राप्त हो सकें। यज्ञ एवं हवनों में भी देवताओं को भाग दिया जाता था।

जब देव जाति एवं मानव जाति में सम्पर्क हो गया तो स्वर्ग के देवी-देवता तथा अप्सराएं भी मानव बस्तियों में आने लगे जिसे वे धरती कहते थे। उनके लम्बे सम्पर्क से मानव जाति का डी.एन.ए. बदलने लगा।

देवी-देवता तथा अप्सराएं सामान्यतः मानव समाज के उच्च वर्ग अर्थात् ऋषि, राजा एवं श्रेष्ठि आदि से सम्पर्क रखते थे। आर्यों की सेवा टहल करने वाले निम्न तबके से उनका सम्पर्क नहीं था जिन्हें तब शूद्र कहा जाता था।

कालांतर में देव जाति अपने भोग-विलास के कारण तथा असुरों से निरंतर होने वाले युद्धों के कारण कमजोर होती चली गई तथा देवताओं से प्राप्त ज्ञान एवं विज्ञान के बल पर आर्य ऋषि एवं राजा इतने शक्तिशाली हो गए कि वे देवासुर संग्रामों में भी भाग लेने लगे। इक्ष्वाकु वंश के कई आर्य राजाओं ने देवासुर संग्रामों में देवताओं की सहायता की।

जब राजा दशरथ जैसे इक्ष्वाकु राजा स्वर्ग में जाते थे तो इन्द्र उन्हें अपने सिंहासन के आधे भाग पर बैठाता था।

स्वर्ग का राजा इन्द्र कोई स्थाई व्यक्ति नहीं था, वह अपने तप के क्षीण होने पर बदल जाता था। इसलिए देवताओं से प्राप्त हुए दिव्य ज्ञान के बल पर कुछ आर्य राजा एवं ऋषि तपस्या करके इन्द्र का स्थान प्राप्त करना चाहते थे। अतः इन्द्र इन राजाओं एवं ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए स्वर्गलोक की अप्सराओं को धरती पर भेजता था। ये अप्सराएं इन राजाओं एवं ऋषियों के साथ पत्नी के रूप में रहकर उनकी तपस्या भंग कर देती थीं।

अप्सराओं द्वारा आर्यों के साथ पत्नी के रूप में रहने का एक कारण और भी था। देवताओं के पास दिव्य शक्तियां थीं जबकि मनुष्य इन दिव्य शक्तियों का स्वामी नहीं था। इस कारण मनुष्य, देवताओं की तुलना में काफी कमजोर था।

इसलिए स्वर्गलोक से कुछ अप्सराओं को आर्य राजाओं के पास भेजा जाता था ताकि वे आर्य राजाओं के सम्पर्क से दिव्य गुणों एवं विशिष्ट शक्तियों से सम्पन्न संतान उत्पन्न कर सकें और अप्सराओं के गर्भ से उत्पन्न मानव, देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता कर सकें।

यही कारण है कि कुछ अप्सराएं धरती पर अकार राजाओं एवं ऋषियों की पत्नी के रूप में रहीं तथा उनके गर्भ से पवनपुत्र हनुमान, बालिपुत्र अंगद, गंगापुत्र भीष्म तथा आचार्य द्रोण जैसे शक्तिसम्पन्न मानवों ने जन्म लिया।

जिस राजा ‘भरत’ के नाम पर हमारे देश का नाम ‘भारत’ हुआ है, उस भरत की माता ‘शकुंतला’ का जन्म स्वर्ग की अप्सरा मेनका के गर्भ से हुआ था, शकुंतला के पिता ऋषि विश्वामित्र थे। अप्सरा का दौहित्र होने से राजा भरत विशिष्ट शक्तियों के स्वामी थे। उन्होंने भारत देश को एकसूत्र में पिरोया तथा एक शक्तिशाली केन्द्रीय राजनीतिक व्यवस्था स्थापित की।

 गंगापुत्र भीष्म ‘गंगा’ नामक अप्सरा के पुत्र थे। कुछ लोग भ्रमवश उन्हें गंगा-नदी का पुत्र कहते हैं। भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था।

अप्सराओं और मानवों के पुत्र-पुत्रियां होने के और भी बहुत से उदाहरण मिलते हैं। महर्षि भरद्वाज के पुत्र द्रोणाचार्य का जन्म घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से हुआ था। द्रोणाचार्य अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे।

महर्षि वेदव्यास के पुत्र शुकदेव का जन्म भी घृताची के गर्भ से हुआ था। भारत की संस्कृति पर शुकदेव का बहुत प्रभाव पड़ा। महर्षि च्वन के पौत्र रूरू का जन्म भी स्वर्ग की अप्सरा घृताची के गर्भ से हुआ था। इस प्रकार मानव जाति का डी.एन.ए. बदलता चला गया।

ऋषि विश्वासु की पुत्री प्रमद्वारा का जन्म स्वर्ग की अप्सरा मेनका के गर्भ से हुआ था। प्रमद्वारा का विवाह घृताची के पुत्र रूरू से हुआ। इनकी कथा देवी भागवत पुराण में मिलती है। कन्नौज नरेश कुशनाभ की सौ पुत्रियों का जन्म घृताची के गर्भ से हुआ था।

माना जाता है कि आज से लगभग चालीस हजार साल पहले जब धरती पर अब तक के अंतिम हिमयुग की समाप्ति हुई और वर्तमान गर्मयुग आरम्भ हुआ तो धु्रवों एवं पहाड़ों की बर्फ पिघल गई जिससे धरती पर जल प्लावन अर्थात् जलप्रलय हुई जिसमें स्वर्गलोक नष्ट हो गया। संभवतः देवता अपने विमानों में बैठकर किसी अन्य ग्रह पर चले गए। यही कारण है कि अब धरती पर न देवता आते हैं, न देवियां और न अप्सराएं।

जलप्लावन के समय देवपुत्र मनु ने आर्य बस्तियों की रक्षा की। इसी कारण हम आज मनुष्य, मानव एवं मनुपुत्र कहलाते हैं।

अतः कहा जा सकता है कि जिस प्रकार देवी-देवताओं ने आर्यों को ज्ञान-विज्ञान दिया, उसी प्रकार अप्सराओं ने मानव जाति का डी.एन.ए. दिया। उन्होंने मनुष्यों की संतानों को जन्म देकर धरती के मनुष्यों में स्वर्गलोक के प्राणियों का डीएनए डाल दिया। संभवतः अप्सराओं के मनुष्यों के साथ पत्नी के रूप में रहने के पीछे यही सबसे बड़ा कारण था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source