Friday, November 22, 2024
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अध्याय – 31 (ब) : मुगल सल्तनत का विघटन

मुगल दरबार में दलबन्दी

अमीरों, मनसबदारों, शहजादों तथा बेगमों के निजी स्वार्थों और आपसी स्पर्द्धा के कारण हुमायूँ के समय से ही मुगल दरबार में दलबन्दी चली आ रही थी। इसी दलबंदी के कारण शहजादों में प्रायः शीत युद्ध आरम्भ होते थे जो बादशाह के बूढ़े होने पर खूनी संघर्ष में बदल जाते थे। औरंगजेब की मृत्यु के समय उसके दरबार में कई दल थे। बहादुरशाह के शासनकाल में मुगल दरबार ईरानी तथा तूरानी, दो दलों में विभक्त हो गया। प्रथम दल का नेतृत्व सैयद बन्धु कर रहे थे। चूंकि फर्रूखसियर सैयद बन्धुओं के सहयोग से बादशाह बना था। इसलिये उसने सैयद अब्दुल्ला को अपना वजीर तथा सैयद हुसैन अली को बख्शी नियुक्त किया। 1720 ई. तक मुगल सल्तनत पर सैयद बन्धुओं का पूर्ण प्रभाव रहा। राजनैतिक सत्ता उनके हाथों में केन्द्रित रही। फर्रूखसियर उनके हाथों की कठपुतली बनकर रहा। इस स्थिति से तंग आकर फर्रूखसियार ने सैयद बन्धुओं के प्रभाव को समाप्त करने हेतु षड्यन्त्र रचने आरम्भ  किये। बादशाह को मीर जुमला, निजाम-उल-मुल्क तथा इनायतउल्ला कश्मीरी का सहयोग प्राप्त हो गया। फर्रूखसियार ने सैयद हुसैन अली को राजपूतों के विरुद्ध भेजकर उसे मरवाना चाहा किन्तु इस काम में सफलता नहीं मिली। तत्पश्चात् उसे दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेज दिया तथा पीछे से दारदखाँ को गुप्त रूप से उसकी हत्या करने के लिए रवाना कर दिया। किन्तुयह प्रयत्न भी असफल रहा। फर्रूखसियर ने सैयद अब्दुल्ला को मरवाने के भी षड्यन्त्र किये, जिससे सैयद बन्धुओं को फर्रूखसियर के षड्यन्त्रों का पता चल गया। सैयद अब्दुल्ला ने सैयद हुसैन अली को मराठों से सहायता लेकर दिल्ली पर आक्रमण करने हेतु लिखा। सैयद हुसैन अली मराठों को लेकर दिल्ली आ धमका। सैयद बन्धुओं ने फर्रूखसियर को बन्दी बनाकर उसकी हत्या कर दी।

फर्रूखसियर को अपदस्थ करने तथा उसकी हत्या करने से सैयद बन्धुओं के हौंसले बढ़ गये। उन्होंने अगले दस माह में एक-एक करके तीन मुगल शहजादे मुगलों के तख्त पर बैठाये। तीनों शहजादों में से कोई भी तख्त पर नहीं बैठना चाहता था। जब रफी-उद्-दरजात को तख्त पर बैठाने के लिए ले जाया गया, तब उसकी माता फूट-फूटकर रो रही थी। तूरानी दल के नेता मीर जुमला ने सैयद बन्धुओं के प्रभाव को रोकने का अथक् प्रयास किया परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। धीरे-धीरे सैयद बन्धुओं की निरंकुश शक्ति के विरुद्ध मुगल दरबार में अन्य अमीर भी उठ खड़े हुए। मुहम्मदशाह ने स्वयं को सैयद बन्धुओं के चंगुल से मुक्त कराने का संकल्प लिया। उसने एक षड्यन्त्र रचकर अक्टूबर 1720 में फतेहपुर सीकरी से 45 मील दूर हुसैन अली का वध कर दिया। सैयद अब्दुल्ला ने अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए विद्रोह किया किन्तु मुहम्मदशाह ने उसे बन्दी बना लिया। 1722 ई. में सैयद अब्दुल्ला को विष देकर उसकी हत्या की गई।

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सैयद बन्धुओं के पतन के बाद मुहम्मदशाह ने अमीनखाँ को अपना वजीर बनाया, जिसने एतमामुद्दौला की उपाधि धारण की। जनवरी 1721 में उसकी मुत्यु हो गयी। इस पर मुहम्मदशाह ने निजाम-उल-मुल्क को दक्षिण से बुलाकर अपना वजीर नियुक्त किया। निजाम अत्यन्त ही योग्य प्रशासक था और उसने सैयद बन्धुओं का दमन करने में पूर्ण सहयोग दिया था। इसी कारण उसे वजीर का पद प्राप्त हुआ था। कुछ समय बाद बादशाह से उसके मतभेद उत्पन्न हो गये। इसलिए वह दक्षिण में जाकर हैदराबाद में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के प्रयास में लग गया किन्तु सिद्धान्त रूप में वह मुगल बादशाह के प्रभुत्व को मानता रहा। निजाम के दक्षिण जाते ही दरबार में पुनः दलबन्दी आरम्भ हो गयी। एक तरफ तुर्की एवं मंगोल अमीर थे तो दूसरी ओर हिन्दुस्तानी अमीर। तुर्की व मंगोल अमीरों का नेता कमरूद्दीनखाँ था जबकि हिन्दुस्तानी मुसलमानों का नेता खानेदौरां था। खानेदौरां, निजाम और मराठों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकना चाहता था किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। फिर भी वह मुगल दरबार पर अपना प्रभाव बनाये रहा।

नादिरशाह के आक्रमण के समय निजामउलमुल्क दिल्ली में था तथा सल्तनत का शासन उसके हाथों में था। खानेदौरां मीर बख्शी के पद पर था। खानेदौरां, नादिरशाह की सेना का मुकाबला नहीं कर सका। वह युद्ध में घायल हो गया और कुछ ही दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गयी। अब मीर बख्शी के पद के लिए निजाम और सआदतखाँ के बीच प्रतिद्वन्द्विता आरम्भ हो गयी। सआदतखाँ ने नादिरशाह को प्रलोभन दिया कि यदि वह दिल्ली पर आक्रमण करता है तो उसे 20 करोड़ रुपये दे दिये जायेंगे। मार्च 1739 में नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया किन्तु सआदतखाँ 20 करोड़ रुपयों का प्रबन्ध न कर सका। अतः उसने नादिरशाह के भय से आत्महत्या कर ली। 1740 ई. में निजाम पुनः दक्षिण लौट गया। कमरूद्दीन वजीर के पद पर बना रहा।

नादिरशाह के हाथों करारी पराजय के बाद भी मुगल दरबार की दलबन्दी समाप्त नहीं हुई। 1740 ई. में तीसरा गुट बन गया, जिसमें मुहम्मद अमीरखाँ, मुहम्मद इसहाक और असदयारखाँ प्रमुख थे। इस गुट के सदस्यों ने वजीर और उसके दल को समाप्त करने का प्रयास किया किन्तु भेद खुल जाने पर अमीरखाँ को नीचा देखना पड़ा। 1745 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। 1748 ई. में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के समय भी मुगल दरबार में दलबन्दी व्याप्त थी। 1748 ई. में मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद अहमदशाह ने सफदरजंग को अपना वजीर बनाया। वह तूरानी अमीरों का कट्टर विरोधी था। अतः उसने तूरानी गुट को समाप्त करने का प्रयास किया परन्तु बादशाह अहमदशाह और वजीर सफदरजंग में मतभेद आरम्भ हो गये। बादशाह पर उसकी माता ऊधमबाई तथा उसके प्रेमी जाविदखाँ का प्रभाव था। जाविदखाँ ने तूरानी अमीरों का सहयोग प्राप्त कर सफदरजंग की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली किन्तु सफदरगंज ने उसे 70 लाख रुपया देकर वजीर पद पुनः प्राप्त कर लिया। यह सफदरगंज की एक चाल थी, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद उसने धोखे से जाविदखाँ की हत्या करवा दी। इसके बाद सफदरगंज पुनः शक्तिशाली बन गया। ऊधमबाई ने इन्तजामुद्दौला, इमादुलमुल्क, संसामुद्दौला और अकवितखाँ के सहयोग से एक नया दल बना लिया। इमादुलमुल्क बड़ी चतुराई से सफदरजंग के प्रभाव को समाप्त कर स्वयं सर्वेसर्वा बन गया। सफदरगंज को दिल्ली छोड़कर अपने सूबे अवध की ओर लौटना पड़ा। कुछ समय बाद इमादुलमुल्क के निरंकुश शासन ने बादशाह को भी नाराज कर दिया। इमादुलमुल्क ने 1754 ई. में बादशाह अहमदशाह को मरवा दिया तथा 55 वर्षीय अजीजुद्दीन को आलमगीर (द्वितीय) के नाम से बादशाह बनाया। वह भी इमादुलमुल्क के हाथों की कठपुतली बना रहा। इमादुलमुल्क का दुर्व्यवहार केवल बादशाह तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु उसके दुर्व्यवहार से तंग आकर शाहजादा अलीगौहार भारत के पूर्वी प्रान्तों की ओर चला गया और इधर-उधर भटकने लगा। इमादुलमुल्क के दुर्व्यवहार से तंग आकर ही शाही परिवार की बेगमों ने तथा नजीबखाँ ने अहमदशाह अब्दाली को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया। अब्दाली सेना लेकर दिल्ली पर आ धमका। कुछ समय बाद इमादुलमुल्क ने बादशाह आलमगीर (द्वितीय) की हत्या करवा दी और स्वयं जाट राजा सूरजमल की शरण में भाग गया। 

आलमगीर (द्वितीय) की मृत्यु के बाद अलीगौहर, शाहआलम (द्वितीय) के नाम से मुगल बादशाह बना। 1765 ई. में अंग्रेजों के साथ हुई इलाहाबाद की सन्धि के अन्तर्गत ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उसे 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देना स्वीकार कर लिया। मुगल बादशाह पर अँग्रेजों का प्रभाव स्थापित होने पर ही मुगल दरबार की दलबन्दी समाप्त हो सकी।

विभिन्न शक्तियों का प्रबल होना

मुगल सल्तनत के पतनोन्मुख काल में अनेक प्रान्तीय राज्यों का उदय हुआ। इसके साथ ही सल्तनत में फैली अव्यवस्था का लाभ उठाकर विभिन्न शक्तियाँ भी प्रबल हो उठीं। राजपूत शासकों ने मुगल सत्ता की अवहेलना आरम्भ कर दी। आगरा के पास जाटों ने थूण में एक सुदृढ़ दुर्ग बनाकर अपने नेता चूड़ामन के नेतृत्व में मुगलों का विरोध करना आरम्भ कर दिया। पंजाब में सिक्ख भी शक्तिशाली हो गये। मराठे भी शक्तिशाली होकर उत्तर भारत में अपना प्रभाव जमाने का प्रयास करने लगे।

राजपूत शासकों उत्थान

अकबर ने राजपूतों के सहयोग से अपनी सल्तनत का विस्तार किया था और सल्तनत को मजबूती प्रदान की थी। यह नीति जहांगीर और शाहजहां के समय भी चलती रही। औरंगजेब की धर्मान्धता के कारण राजपूत शासक मुगल सत्ता से नाराज हो गये। अतः औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजपूत शासकों ने धीरे-धीरे मुगल सल्तनत से सम्बन्ध विच्छेद कर लिये। बहादुरशाह, जहाँदारशाह और फर्रूखसियर के समय में राजपूत शासकों को फिर से जागीरें, मनसब तथा उच्च पद दिये गये जिससे राजपूतों की शक्ति का विकास हुआ। फर्रूखसियर के शासनकाल में आमेर के महाराजा सवाई जयसिंह और जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह एक ओर तो अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे तथा दूसरी ओर वे मुगल दरबार में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाये हुए थे तथा मालवा एवं गुजरात जैसे महत्त्वपूर्ण सूबों के सूबेदार बने हुए थे। इन दोनों राजाओं ने सैयद बन्धुओं के पतन में तटस्थता की नीति अपनाई, क्योंकि उन्होंने अनुभव कर लिया था कि सैयदों की शक्ति कमजोर हो रही है। उत्तर भारत में मराठों के बढ़ते हुए प्रभाव को न रोके सकने के कारण सवाई जयसिंह की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा। 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके दो पुत्रों- ईश्वरीसिंह और माधोसिंह के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। उधर जोधपुर में महाराजा अजीतसिंह की हत्या उसी के पुत्र बख्तसिंह ने कर दी। अजीतसिंह का ज्येष्ठ पुत्र अभयसिंह गद्दी पर बैठा किन्तु उसकी मृत्यु के बाद अभयसिंह के पुत्र रामसिंह और उसके चाचा बख्तसिंह के बीच जोधपुर की गद्दी के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया। सवाई जयसिंह ने राव बुद्धसिंह को बून्दी की गद्दी से उतरवाकर बून्दी में उत्तराधिकार का संघर्ष आरम्भ करवा दिया। उत्तराधिकार के इन संघर्षों के कारण राजपूताने की राजनीति में मराठों का हस्तक्षेप बढ़ गया और उन्होंने राजपूताने पर वर्चस्व स्थापित कर लिया। अन्त में मराठों की लूटमार से तंग आकर 19वीं शताब्दी के आरम्भ में राजपूत शासकों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी का संरक्षण स्वीकार कर लिया।

जाट शक्ति का उत्थान

औरंगजेब की गलत नीतियों के कारण उसके शासनकाल में जाटों ने एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में उभरना आरम्भ किआ। औरंगजेब ने जाटों की शक्ति को कुचलने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। औरंगजेब की मृत्यु के बाद जाटों ने चूड़ामन के नेतृत्व में थूण का किला बनवाया और मुगलों को आतंकित करने लगे। 1721 ई. में चूड़ामन की मृत्यु के बाद उसके भतीजे बदनसिंह ने जाटों का नेतृत्व ग्रहण किया। जाटों की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने बदनसिंह को आगरा से जयपुर के मार्ग की रक्षा का दायित्व सौंप दिया। अब बदनसिंह ने मुगलों के भय से मुक्त होकर अपनी शक्ति में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया। उसने कुम्हेर, वैर, डीग व भरतपुर में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण करवाया। बदनसिंह भरतपुर का प्रथम शासक स्वतंत्र शासक था, जिसे सवाई जयसिंह द्वारा मान्यता प्रदान की गई। 1756 ई. में बदनसिंह की मृत्यु के बाद सूरजमल जाटों का राजा हुआ। उसमें हिन्दू धर्म के प्रति अत्यधिक लगाव था इसलिए वह मराठों का समर्थक तथा मुगलों का विरोधी रहा। उसने लड़खड़ाते हुई मुगल सल्तनत पर भीषण  प्रहार किये। उसने पानीपत के तृतीय युद्ध में तटस्थता की नीति का अवलम्बन किया जिसके कारण मुगलों और मराठों को भारी क्षति हुई और जाटों की शक्ति में परोक्ष रूप से वृद्धि हुई। इस युद्ध के बाद दिल्ली और उसके आस-पास फैली अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए राजा सूरजमल ने दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया किन्तु 1763 ई. में रूहेला सरदार नजीबुद्दौला ने उसे छल से मार दिया। राजा सूरजमल की मृत्यु के बाद जवाहरसिंह गद्दी पर बैठा किन्तु भरतपुर राज्य में गृह-युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। इसमें मराठों ने भी हस्तक्षेप किया। इस गृह-युद्ध के कारण 1768 ई. में जवाहरसिंह की हत्या कर दी गई। उसके बाद राजा रणजीतसिंह जाटों की गद्दी पर बैठा। रणजीतसिंह के शासनकाल में जाटों की शक्ति का हृास आरम्भ हो गया। आगरा और मथुरा जाटों के हाथ से निकल गये। 1784 ई. में सिन्धिया ने डीग पर अधिकार कर लिया। रानी किशोरी के प्रयासों से डीग पुनः रणजीतसिंह को मिल गया। रणजीतसिंह ने मराठों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये किन्तु लासवाड़ी युद्ध में मराठों के पराजित होते ही रणजीतसिंह ने अँग्रेजों से मैत्री कर ली तथा 1803-1804 ई. में उसने अँग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।

सिक्ख शक्ति का उत्थान

औरंगजेब की धर्मान्धता के कारण सिक्खों के नौवें गुरु तेग बहादुर (1664-75) को अपनी प्राणों से हाथ धोना पड़ा। गुरु गोविन्दसिंह सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरु हुए, जिन्होंने सिक्खों को सैनिक शक्ति के रूप में संगठित किया और औरंगजेब के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुरशाह ने गुरु से अनुरोध किया कि वे उत्तराधिकार के संघर्ष में बहादुरशाह की सहायता करें। इस पर गुरु गोविंदसिंह, बहादुरशाह के साथ दक्षिण भारत की ओर गये। दक्षिण में गोदावरी के तट पर एक पठान ने गुरु की हत्या कर दी। गुरु गोविन्दसिंह की मृत्यु के बाद उनके एक सेवक बन्दा बहादुर ने देश के विभिन्न भागों से सिक्खों को बुलाकर अपने झण्डे के नीचे एकत्र कर लिया। 1710 ई. में सिक्खों व मुगलों के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमें सिक्खों की जीत हुई और सिक्खों ने सरहिन्द को जीत लिया। सहारनपुर और जलालाबाद में भी सिक्खों ने विद्रोह कर दिया और अमृतसर, कसूर, बटाला, कलानौर, पठानकोट आदि पर अधिकार जमा लिया। अंत में बहादुरशाह को सिक्खों की ओर ध्यान देना पड़ा। उसने बन्दा बहादुर को बन्दी बना लिया और 1716 ई. में उसे मौत के घाट उतार दिया। बन्दा बहादुर की मृत्यु के बाद सिक्ख बन्दई एवं सतखालसा नामक दो दलों में विभक्त हो गये जिससे उनकी शक्ति कमजोर पड़ गई। 1721 ई. में इन दोनों दलों में पुनः एकता स्थापित की गई। 1726 ई. में बादशाह मुहम्मदशाह ने जकरियाखाँ को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया जिसने सिक्खों पर भीषण अत्याचार किये परन्तु इससे सिक्खों की शक्ति का पतन नहीं हुआ और वे छोटे-छोटे दलों में संगठित होेकर मुगल अधिकारियों को परेशान करते रहे। जब नादिरशाह, भारत से अतुल सम्पत्ति लूटकर वापस जा रहा था, तब सिक्खों ने उसकी सेना पर पीछे से आक्रमण करके लूट का बहुत सा माल छीन लिया। नादिरशाह के आक्रमण से मुगल सत्ता का पंजाब पर नियंत्रण समाप्त हो गया।

नादिरशाह के आक्रमण से पंजाब में फैली अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए सिक्खों ने अपनी शक्ति संगठित कर ली। 1748 ई. में सिक्खों ने दल-खालसा का गठन किया। इसमें में सम्मिलित सिक्ख दलों को जत्थों में विभाजित किया गया जो बाद में मिसलों के नाम से विख्यात हुए। सिक्ख मिसलों के नेताओं ने अपनी सैनिक शक्ति में और अधिक विस्तार किया। जब भारत पर अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण होने लगे तब इन सिक्ख मिसलों ने अब्दाली का दृढ़ता से मुकाबला किया। अब्दाली की मृत्यु के बाद सिक्खों ने पंजाब के भिन्न-भिन्न भागों में छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। आगे चलकर इन सिक्ख राज्यों में आपसी झगड़े उठ खड़े हुए अतः वे एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य की स्थापना नहीं कर सके। आगे चलकर महाराजा रणजीतसिंह ने एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य की स्थापना की।

मराठा शक्ति का अभ्युदय

17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति का उदय हुआ। शिवाजी ने स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की तथा अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जीवन भर मुगलों से संघर्ष किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र शम्भाजी ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा परन्तु 1689 ई. में शम्भाजी पकड़ा गया और औरंगजेब ने उसकी हत्या करवा दी। शम्भाजी की पत्नी और अल्पवयस्क पुत्र भी मुगलों के हाथों में पड़ गये। इस पर मराठों ने शम्भाजी के छोटे सौतेले भाई राजाराम के नेतृत्व में स्वतंत्रता संघर्ष छेड़ दिया। 1700 ई. में राजाराम की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी ताराबाई ने अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को राजा घोषित कर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। ताराबाई के नेतृत्व में मराठों ने शानदार सफलताएँ प्राप्त कीं। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों ने शाहूजी (शम्भाजी का पुत्र) को मुक्त कर दिया। शाहूजी ने ताराबाई को परास्त करके शिवाजी के राजसिंहासन को प्राप्त कर लिया। 1707 ई. से 1749 ई. तक मराठा राज्य का स्वामित्व शाहू के हाथ में रहा।

पेशवा का उत्कर्ष

शाहू मुगल शिविर में बड़ा हुआ था। इसलिये वह आरामपसन्द एवं विलासी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसके लिए महाराष्ट की उलझी हुई व्यवस्था को सुलझाना सम्भव नहीं था। अतः शाहू को ऐसे सहायक की आवश्यकता थी जो राज्य की कठिनाइयों को हल करके, शासन व्यवस्था को संचालित कर सके। पेशवा ने शाहू की इच्छाओं को पूरा कर दिखाया। इस कारण शाहू के शासनकाल में पेशवा की शक्ति का उत्कर्ष हुआ। धीरे-धीेरे पेशवा ने छत्रपति के समस्त अधिकार अपने हाथ में ले लिये। पेशवाओं का उत्कर्ष मुख्यतः बालाजी विश्वनाथ के समय में हुआ। उसे 16 नवम्बर 1713 को पेशवा के पद पर नियुक्त किया गया था। बालाजी विश्वनाथ ने ताराबाई की सत्ता को समाप्त किया तथा विद्रोही मराठा सरदारों की शक्ति का दमन कर उन पर शाहू के प्रभुत्व की पुनः स्थापना की। बालाजी विश्वनाथ की सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा शाहू के लिए दक्षिण के छः मुगल सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का शाही फरमान प्राप्त करना था। दिल्ली में सैयद बन्धुओं के सहयोग से फर्रूखसियर मुगल तख्त पर आसीन हुआ था किन्तु कुछ समय बाद उसकी सैयद बंधुओं से अनबन हो गई और दोनों पक्ष-एक दूसरे को समाप्त करने पर उतारू हो गये। 1719 ई. में सैयद हुसैनखाँ ने मराठों से एक सन्धि की, जिसमें शाहू को दक्षिण के छः सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार देने तथा शाहू के परिवार को मुगलों की कैद से छोड़ देने का वचन दिया। बालाजी विश्वनाथ मराठा सेना लेकर सैयद हुसैनखाँ की सहायता के लिये दिल्ली गया। फर्रूखसियर को गद्दी से उतारकर मार डाला गया और रफी-उद्-दराजात को बादशाह बनाया गया। नये बादशाह ने 1719 ई. की मुगल-मराठा सन्धि को स्वीकार करके तदनुसार शाही फरमान जारी कर दिये। मराठों की यह दिल्ली यात्रा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई। इससे मराठों के समक्ष मुगल सत्ता का खोखलापन स्पष्ट हो गया। दिल्ली से वापस आने के बाद बालाजी विश्वनाथ ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की योजना बनायी परन्तु योजना कार्यान्वित करने से पूर्व ही 1720 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उसका बीस वर्षीय पुत्र बाजीराव (1720-1740 ई.) पेशवा बना, जिसने मराठों के प्रभाव को और अधिक बढ़ाया। उसने निजाम-उल-मुल्क को दो बार पराजित किया, पुर्तगालियों से बसीन व सालसेट छीन लिये तथा मराठों के प्रभाव को गुजरात, मालवा और बुन्देलखण्ड तक पहुँचा दिया। वस्तुतः बाजीराव ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में मराठा शक्ति के विस्तार का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। मुगलों के पतन से उत्तर भारत में जो राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हो गई थी, मराठों ने उसे भरने का प्रयत्न किया। 28 अप्रैल 1740 को बाजीराव की मृत्यु हो गयी। इस पर शाहू ने बाजीराव के 19 वर्षीय पुत्र बालाजी बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया।

बालाजी बाजीराव का काल (1740-1761 ई.) मराठा राज्य के प्रसार, आन्तरिक व्यवस्था और भौतिक समृद्धि की दृष्टि से चरम पर पहुँच गया। छत्रपति की समस्त शक्तियाँ पेशवा के हाथ में आ गई और सतारा के स्थान पर पूना मराठा राज्य का प्रमुख केन्द्र बन गया। 25 दिसम्बर 1749 को शाहू की मृत्यु हो गई। उसके बाद इतिहास में छत्रपति का नाम लुप्त-प्रायः हो गया तथा पेशवा मराठा सल्तनत का सर्वोच्च व्यक्ति बन गया। बालाजी बाजीराव योग्य सेनानायक और कुशल कूटनीतिज्ञ नहीं था। उसकी अयोग्यता का लाभ उठाकर सिन्धियाँ एवं भोंसले जैसे मराठा सरदार स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार करने लगे। उसने अपनी स्वार्थपूर्ण नीतियों के कारण भारत की समस्त महत्त्वपूर्ण शक्तियों को नाराज कर दिया। उसके उत्तरी अभियानों का ध्येय अधिक-से-अधिक धन बटोरना था। उसने राजपूत शासकों पर तो इतने जुल्म ढाये कि वे मराठों के शत्रु बन गये। यही कारण था कि पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को कहीं से भी सहायता प्राप्त नहीं हो सकी। इस युद्ध में मराठे बुरी तरह से परास्त हुए और अहमदशाह अब्दाली विजयी हुआ। अब्दाली ने मराठों की पराजित सेना को बुरी तरह काटा। कहा जाता है कि लगभग एक लाख मराठे काट डाले गये। जब यह समाचार बालाजी बाजीराव के पास पहुंचा तो हृदयाघात से जून 1761 में उसकी मृत्यु हो गयी।

पेशवा बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद उसका 17 वर्षीय पुत्र माधवराव (प्रथम) नया पेशवा बना। बालाजी बाजीराव अपने छोटे भाई रघुनाथराव को अपने पुत्र माधवराव का संरक्षक नियुक्त कर गया। रघुनाथ (राघोबा) सम्पूर्ण सत्ता अपने हाथ में रखना चाहता था। अवसर देखकर हैदराबाद के निजाम ने महाराष्ट्र पर आक्रमण कर दिया किन्तु उसे मराठों से सन्धि करनी पड़ी। राघोबा ने भविष्य में निजाम से सहयोग प्राप्त करने की दृष्टि से बहुत ही उदार शर्तो पर सन्धि की। पेशवा माधवराव को उसकी यह कार्यवाही पसन्द नहीं आई। माधवराव एवं राघोबा के बीच मतभेद बढ़ते चले गये। माधवराव ने राघोबा से माँग की कि सम्पूर्ण सत्ता उसे सौंप दी जाये। इस पर राघोबा और उसके समर्थकों ने त्याग-पत्र दे दिये। माधवराव ने उनके स्थान पर नई नियुक्तियाँ कर दीं। राघोबा ने क्रुद्ध होकर माधवराव के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। युद्ध में पेशवा माधवराव परास्त हुआ। राघोबा ने उसे नजरबन्द करके शासनाधिकार अपने हाथ में ले लिये। मराठों की आपसी लड़ाई देखकर निजाम ने पुनः आक्रमण कर दिया। राक्षक भुवन के इस युद्ध में पेशवा माधवराव ने अपूर्व पराक्रम एवं नेतृत्व का परिचय दिया। निजाम परास्त होकर लौट गया। राघोबा में उसे पुनः नजरबन्द करने की हिम्मत नहीं हुई। माधवराव ने पुनः सत्ता ग्रहण कर ली। राघोबा ने उसे सत्ताच्युत करने का प्रयत्न किया किन्तु वह असफल रहा। जून 1767 में राघोबा ने माधवराव से राज्य के बँटवारे की माँग की; जो माधवराव ने ठुकरा दी। माधवराव ने राघोबा को बन्दी बना लिया। इसी समय हैदर अली ने मराठा राज्य पर आक्रमण कर दिया। माधवराज ने उसे परास्त कर खदेड़ दिया। दक्षिण में अपने प्रतिद्वन्द्वियों को पराभूत करने के बाद माधवराव ने उत्तर भारत में भी मराठों की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की।

माधवराव में सैनिक प्रतिभा के साथ-साथ शासकीय योग्यता भी थी। पानीपत के पराजय के बाद उसने मराठों को सृदृढ़ नेतृत्व प्रदान किया और आन्तरिक एवं बाह्य संकटों का सामना करते हुए मराठों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने में सफल रहा। उसने सेना का पुनर्गठन किया तथा मराठों के शत्रुओं को परास्त किया। उसने मुगल बादशाह को अपने संरक्षण मे लेकर उसे पुनः दिल्ली के तख्त पर बैठाया। राजपूतों व जाटों पर उसने पुनः अपना वर्चस्व स्थापित किया। नवम्बर 1772 में पेशवा माधवराव की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु मराठा राज्य के लिए पानीपत की पराजय से भी अधिक घातक सिद्ध हुई क्योंकि उसके बाद आंग्ल-मराठा संघर्षों का सूत्रपात हुआ जिनमें मराठे लगातार अंग्रेजों से हारते चले गये।

यूरोपीय जातियों का आगमन

1498 ई. में पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा पुर्तगाल से चलकर भारत के मलाबार तट पर पहुँचने में सफल रहा। इस प्रकार उसने यूरोप से भारत का सामुद्रिक मार्ग खोज निकाला। इस खोज ने भारत और यूरोप के सम्बन्धों में एक नये अध्याय का सूत्रपात किया। कालीकट के राजा जमोरिन ने पुर्तगालिों को अपने राज्य में व्यापार करने की अनुमति दे दी। इसके बाद पुर्तगालियों का भारत में आना-जाना बढ़ता चला गया। पुर्तगालियों ने गोआ, दमन, दीव, हुगली आदि स्थानों पर व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं तथा एक सुदृढ़ नौ-सेना भी खड़ी कर ली। कुछ ही वर्षों में पुर्तगालियों ने भारतीय व्यापार से इतना विपुल धन कमाया कि उसे देखकर यूरोप की अन्य जातियों में भी धन लिप्सा जागृत हो उठी। अतः उन्होंने भी भारत के साथ व्यापार करने के लिए अपनी-अपनी व्यापारिक कम्पनियाँ स्थापित कीं। 1595 ई. में हॉलैण्ड के डच व्यापारियों ने पूर्वी देशों से व्यापार करने हेतु एक कम्पनी स्थापित की। इसके बाद भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए पुर्तगालियों और डचों में संघर्ष आरम्भ हो गया। पुर्तगाली, डचों के समक्ष टिक नहीं सके। इधर मराठों ने भी पुर्तगालियों से बसीन तथा सालसेट छीन लिये।

उन्हीं दिनों में लन्दन के अँग्रेज व्यापारियों ने भी भातर से व्यापार करने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की। 1608 ई. में इस कम्पनी का पहला जहाज सूरत के बन्दरगाह पर पहुँचा। इस जहाज का कप्तान जॉन हॉकिन्स था, जो अपने साथ ब्रिटेन के राजा का पत्र लाया था। हॉकिन्स ने यह पत्र मुगल बादशाह जहाँगीर को दिया 6 फरवरी 1613 को एक शाही फरमान द्वारा अंग्रेजों को व्यापार के लिए एक कोठी बनाने तथा मुगल दरबार में एलची रखने की अनुमति दे दी गई। कम्पनी की ओर से सर टॉमस रो को इस पद पर नियुक्त किया गया, जिसने मुगल बादशाह को प्रभावित कर भारत में अँग्रेजी कोठियाँ स्थापित करने की आज्ञा प्राप्त कर ली। अब भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने हेतु पुर्तगालिों, डचों और अँग्रेजों के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया। अँग्रेजों ने धीरे-धीरे पुर्तगालियों और डचों को परास्त करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना लिया।

अन्य यूरोपीय जातियों की भाँति, फ्रांसीसियोंने भी 1664 ई. में एक व्यापारिक कम्पनी स्थापित की। उन्होंने सूरत, मछलीपट्टम, पाण्डिचेरी और चन्दरनगर में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। जब मुगल सत्ता कमजोर पड़ने लगी तब फ्रांसीसियों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया। इस समय तक पुर्तगालियों और डचों की शक्ति काफी कमजोर पड़ गई थी और अब अँग्रेज तथा फ्रांसीसी व्यापारी ही भारत में व्यापार के लिए मुख्य प्रतिद्वन्द्वी रह गये थे। अतः दोनों में संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया। दोनों शक्तियों के पास पर्याप्त सेना थी। दोनों शक्तियों ने भारत के देशी राजाओं के पारस्परिक झगड़ों में तथा राज्यों के उत्तराधिकार के मामलें में हस्तक्षेप कर उन्हें सैनिक सहायता देना आरम्भ किया। इस सहायता के बदले में उन्होंने भारतीय शासकों से भूमि, धन और अन्य व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कीं। धीरे-धीरे ये व्यापारी राजनैतिक शक्ति बन गये। इस कारण अंग्रेजों तथा फ्रांसिसियों के बीच भारत में राजनीतिक प्रभुत्व के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया। 1744 ई. से 1763 ई. के मध्य दोनों के बीच तीन युद्ध हुए जिन्हंे कर्नाटक के युद्ध कहा जाता है। अन्त में अँग्रेजों ने फ्रांसिसियों को परास्त कर दिया जिससे अंग्रेजों को भारत में अपना राज्य स्थापित करने का अवसर मिल गया।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में राजनैतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी थी। परवर्ती मुगल बादशाहों की अयोग्यता एवं विलासिता के कारण सत्ता, स्वार्थी अमीरों के हाथों में चली गई। मुगल दरबारों में दलबन्दी इतनी बढ़ गई थी कि बादशाहों एवं अमीरों के प्राण भी संकट में रहते थे। बादशाह की कमजोरी तथा अमीरों की दलबंदी के कारण शक्तिशाली मुगल अमीरों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करनी आरम्भ कर दी। अवध, बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबे सल्तनत से पृथक हो गये और दक्षिण भारत में निजाम-उल-मुल्क ने हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। जाटों, सिक्खों, राजपूतों एवं मराठों ने भी अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार किया। मराठे दक्षिण में पहले से ही प्रबल हो रहे थे। अतः मराठों और निजाम के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया। मराठों से परास्त होकर निजाम ने शाहू को मराठा राज्य का एकमात्र शासक स्वीकार कर लिया तथा मराठों को मालवा और नर्मदा तथा चम्बल नदियों के मध्य का प्रदेश मिल गया। दक्षिण में अपनी धाक जमाने के बाद पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में मराठों ने उत्तर भारत में अपना प्रभाव बढ़ाया। गुजरात, मालवा, बुन्देलखण्ड और राजपूत शासकों पर मराठों ने  वर्चस्व स्थापित कर लिया। इस प्रकार राजपूत शासक, जो मुगल सल्तनत के आधार स्तम्भ थे, केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त हो गये। मराठों ने उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। इससे अफगानों ने उस ओर के सूबों पर अधिकार जमा लिया। पानीपत के मैदान में मराठों की करारी पराजय हुई, जिससे मराठा शक्ति को भारी आघात लगा किन्तु पेशवा माधवराव (प्रथम) के नेतृत्व में मराठे पुनः संगठित हो गये और उत्तर भारत में वर्चस्व स्थापित करने में वे सफल रहे। मराठों ने मुगल बादशाह पर वर्चस्व स्थापित कर दिल्ली तक अपनी धाक जमा ली किन्तु मराठों की पारस्परिक कलह ने मराठों के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उधर अँग्रेज, दक्षिण में फ्रांसीसियों को पराजित कर बंगाल, बिहार व उड़ीसा में शक्तिशाली हो गये थे।

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2 COMMENTS

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