– ‘उस भिखारी को इतना घमण्ड?’ क्रोध से चीख पड़ा अकबर।
– ‘नहीं जिल्लेइलाही। बाबा को किसी तरह का घमण्ड नहीं। उन्होंने अपनी युवावस्था में ही गृह संसार त्यागकर सन्यास धारण कर लिया था। अब वे फिर से संसारिक मोह माया में फंसना नहीं चाहते।’ खानखाना ने निवेदन किया।
– ‘किंतु यदि बादशाही हुक्म की इसी तरह तौहीन होती रही तो रियाया एक दिन मुगलों का हुक्म मानना तो दूर बात सुनना भी बंद कर देगी।’
बादशाह के कोप को देखकर खानखाना सहम गया। आखिर बादशाह के मन में क्या है? क्या करना चाहता है वह?
– ‘हमने आपको काशी का सूबेदार इसलिये नहीं बनाया है कि आप बादशाही हुक्म की तौहीन का समाचार हम तक पहुँचाया करें।’
– ‘क्षमा करें हुजूर! बाबा ने किसी हुक्म की तौहीन नहीं की है। न ही उन्हें किसी तरह का हुक्म दिया गया था।’
– ‘यदि बादशाही हुक्म नहीं सुनाया था तो फिर तुमने उस भिखमंगे से कहा क्या था?
– ‘उन्हें कहा गया था कि बादशाह की ऐसी इच्छा है कि आप उनके दरबार में चलकर मनसब स्वीकार करें।’
– ‘और उसने अस्वीकार कर दिया?’ अकबर क्रोध से फुंकारा।
– ‘हाँ। उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।’
– ‘शब्दों की बाजीगरी से हमें बहलाओ मत खानखाना। बादशाह की इच्छा, बादशाह का प्रस्ताव और बादशाह का हुक्म, ये तीनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं।’
खानखाना निरुत्तर हो गया।
– ‘उसे यहाँ पकड़ कर मंगवाओ।’
खानखाना के होश उड़ गये। बादशाह क्या करने को कहता है? कैसे संभव है यह? खानखाना की हिम्मत नहीं हुई कि बादशाह की ओर मुँह उठाकर देख सके। वह चुपचाप धरती में ही दृष्टि गड़ाये रहा।
– ‘तो आप भी बादशाह का हुक्म मानने से मना करते हैं?’
– ‘आप चाहें तो सर कलम कर लें किंतु गुलाम पर हुक्म उदूली की तोहमत न लगायें।’ खानखाना ने किसी तरह हिम्मत करके कहा। उसने आज से पहले बादशाह को अपने ऊपर कुपित होते हुए नहीं देखा था।
– ‘हम जानते हैं कि तुम ही नहीं राजा टोडरमल और राजा मानसिंह भी यह हुक्म नहीं मानेंगे।’
– ‘जिल्ले इलाही जानते हैं कि ये दोनों भी इस गुलाम की तरह मुगलिया तख्त के मजबूत पहरेदार हैं।’
– ‘इसलिये हमने निश्चय किया है कि मुगलिया तख्त के इन पहरेदारों की जगह शहजादे मुराद को इस काम के लिये भेजा जायेगा।’
बादशाह के आदेश से खानखाना सन्न रह गया। वह बादशाह को सलाम बजाकर राजा टोडरमल के दीवानखाने की ओर बढ़ गया। टोडरमल ने राजा मानसिंह, राजा बीरबल और तानसेन को भी अपनी कचहरी में बुलवा लिया। पाँचों राजपुरुषों ने बहुत देर तक माथा पच्ची की किंतु इस समस्या का कोई हल दिखायी नहीं दिया।
एक पखवाड़ा बीतते न बीतते शहजादा मुराद गुसाईंजी को बांधकर आगरा ले आया। पाँचों राजपुरुषों ने गुसाईंजी से मिलने का बहुत प्रयास किया किंतु मुराद ने किसी को भी गुसाईंजी से मिलने की अनुमति नहीं दी। अंत में किसी तरह खानखाना गुसाईंजी तक पहुँचा।
उसने देखा कि कारागार की अंधेरी कोठरी में प्रभूत मात्रा में दिव्य प्रकाश फैला हुआ है। जिसके आलोक में एक भव्य मूर्ति ध्यानमग्न अवस्था में विराजमान है। खानखाना के कदमों की आहट से गुसाईंजी का ध्यान भंग हुआ।
– ‘कौन है?’ गुसाईंजी ने पूछा।
– ‘मैं आपका गुनहगार हूँ बाबा।’ एक आकृति को अपने पैरों में गिरते देखकर गुसाईंजी उठ कर खड़े हो गये। उन्होंने कण्ठ स्वर से पहचाना कि अब्दुर्रहीम है।
– ‘उठो खानखाना।’ गुसाईंजी ने खानखाना को उठा कर छाती से लगा लिया।
– ‘मेरे ही कारण आप इस अवस्था को पहुँचे हैं।’
– ‘कोई किसी के कारण कहीं नहीं पहुँचता मित्र, सब अपने करमों और रामजी की इच्छा से चलायमान हैं।’
दोनों मित्र कारागार की उसी अंधेरी कोठरी में धरती पर बैठ गये। रहीम ने कहा कुछ हरिजस सुनाओ बाबा। प्राणों में बहुत बेचैनी है।
खानखाना के अनुरोध पर गुसाईंजी गाने लगे-
है प्रभु मेरोई सब दोसु।
सीलसिंधु, कृपालु, नाथ अनाथ, आरत पोसु।
बेष बचन बिराग मन अब अवगुननि को कोसु।
राम प्रीति प्रतीति पोली, कपट करतब ठोसु।
राग रंग कुसंग हो सों साधु संगति रोसु।
चहत केहरि जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु।
संभु सिखवन रसन हूँ नित राम नामहिं घोसु।
दंभहू कलिनाम कुंभज सोच सागर सोसु।
मोद मंगल मूल अति अनुकूल निज निरजोसु।
रामनाम प्रभाव सुनि तुलहिसहु परम परितोस।।