Thursday, December 26, 2024
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131. दुखती रग

महावतखाँ लड़ता कम था और भागता अधिक था। उधर खानखाना लड़ना तो चाहता था किंतु किसी मैदान में अच्छी तरह मोर्चा बांधकर। इस कारण दोनों ही सेनाएं छुट-पुट लड़ाईयाँ ही करती थीं। जब दक्खिन बहुत कम दूरी पर रह गया तब खानखाना ने पूरी ताकत के साथ महावतखाँ पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। जब वह अपने सेनानायकों के साथ विचार-विमर्श करके हमले की अंतिम योजना बना रहा था, उसी समय दिल्ली का संदेशवाहक बादशाह की चिट्ठी लेकर खानखाना की सेवा में हाजिर हुआ।

बादशाह की चिट्ठी पाकर खानखाना के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं। बादशाह ने लिखा था कि इधर कुछ ऐसी बातें हो गयी हैं कि खानखाना को मोर्चा उठाकर तुरंत दिल्ली हाजिर होना चाहिये। यदि खानखाना रोटी मोर्चे पर खावे तो पानी दिल्ली में आकर पिये।

जाने ऐसी क्या मुसीबत आन पड़ी थी जो खानखाना को अपनी पूरी सेना सहित तुरंत दिल्ली तलब किया गया था! दिल्ली तलब किये जाने के पीछे कारण चाहे जो भी रहा हो किंतु खानखाना को मन मार कर फिर से दिल्ली लौटना पड़ा।

ताबड़तोड़ चलता हुआ खानखाना बादशाह के पास पहुँचा। बीमार तो वह लाहौर से ही हो गया था किंतु इस भागमभाग में वह और अधिक बीमार हो गया। फिर भी किसी तरह अपनी जर्जर देह को समेट कर वह बादशाह के सामने उपस्थित हुआ।

खानखाना को देखकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ। बार-बार खानखाना के कंधे चूमते हुए बादशाह ने कहा- ‘मेरे अतालीक!’ जाने क्यों लगता है कि मेरा अंत आ पहुँचा! मैं चाहता हूँ कि अब जब तक मैं जीवित हूँ आप मेरे पास ही रहें। मुझे छोड़कर कहीं न जायें।’

खानखाना बादशाह की बात सुनकर हैरान रह गया। क्या केवल इसीलिये खानखाना को वह मोर्चा उठाकर दिल्ली तलब किया गया था! ऐसा संभव नहीं था। खानखाना जहाँगीर की प्रकृति को पहचानता था। अवश्य ही इसके पीछे कोई सियासी कारण है किंतु बादशाह खुलकर नहीं कह रहा।

– ‘शंहशाहे आलम! गुलाम ने जीवन के बहत्तर बसंत देखे हैं और गुलाम पेड़ों की पत्तियों का रंग देखकर बता सकता है कि इस समय कौन सी ऋतु चल रही है। आप निःसंकोच होकर गुलाम पर भरोसा करें।’

खानखाना ने कह तो दिया किंतु वह नहीं जानता था कि उसने बादशाह की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। बादशाह ने लम्बी साँस लेकर कहा- ‘मैं जानता हूँ कि आप मोर्चा उठा लेने का असली कारण जानना चाहते हैं किंतु मुझे नहीं मालूम कि मैंने ठीक किया या गलत!’

– ‘बादशाह सलामत जो भी फैसला करेंगे, सल्तनत और रियाया की भलाई के लिये ही करेंगे। यदि कुछ बातों की जानकारी मुझे हो तो मैं भी अपनी ओर से कुछ अर्ज कर सकता हूँ।’

– ‘खानखाना! मैं नहीं जानता कि जीवन का सफल होना क्या होता है किंतु मैं इतना अंदाज जरूर लगा सकता हूँ कि मेरा जीवन असफलताओं की जीती जागती कहानी है।’

– ‘मामूली परेशानियों से अपना दिल तंग न करें बादशाह सलामत। मुझे बतायें कि आपकी परेशानी का असली सबब क्या है?’

– ‘खानखाना! जब मैंने तुमको महावतखाँ का सिर काट कर लाने के लिये भेजा तो मुझे अचानक ही अपने पैरों की जमीन खिसकती हुई दिखाई दी। मुझे हरम में बड़ा भारी षड़यंत्र होता हुआ दिखाई दिया। मलिका नूरजहाँ स्वयं इस षड़यंत्र का ताना-बाना बुन रही थीं। वे चाहती हैं कि किसी तरह तुम्हारे हाथों महावतखाँ के साथ-साथ शहजादा खुर्रम भी मारा जाये। इसलिये मलिका नूरजहाँ ने अपने मोहरे उसी तरह खेलने शुरू किये।’

खानखाना को बादशाह से यह सूचना पाकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

– ‘इतना ही नहीं। मलिका ए आलम नूरजहाँ तो यह भी चाहती हैं कि उनका अपना भाई आसिफखाँ जो महावतखाँ की कैद में है, वह भी तुम्हारे हाथों मारा जाये। और यह भी कि इस दौरान यदि आप भी लड़ाई में काम आ सकें तो अच्छा रहे। हमें उसी दिन मालूम हो सका कि परवेज और खुर्रम के बीच जंग का बीज मलिका नूरजहाँ ने ही बोया था। अब जबकि शहजादा परवेज नहीं रहा है, नूरजहाँ खून की वही होली खुर्रम और शहरयार के बीच खेलना चाहती है। यद्यपि खुर्रम ओर शहरयार दोनों ही मेरे बेटे हैं किंतु आसिफखाँ अपने जवांई खुर्रम को और नूरजहाँ अपने जंवाई शहरयार को दिल्ली के तख्त पर बैठाने के लिये अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं। इस सबका परिणाम यह है कि सल्तनत के विश्वस्त सिपाही एक-एक करके मौत के मुँह में जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में आपको इन दोनों के बीच पीस डालने का कोई अर्थ नहीं था। इससे तो बेहतर तो यही है कि शहजादा खुर्रम और मलिका नूरजहाँ आपस में ही लड़कर निबट लें।’

बादशाह अपनी बात पूरी करते-करते हाँफने लगा। खानखाना चुपचाप बादशाह को सलाम करके बाहर निकल आया।

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