यद्यपि सुल्तान इब्राहीम लोदी की मृत्यु के साथ ही दिल्ली सल्तनत तथा उसका इतिहास समाप्त हो जाते हैं तथापि उस काल में उत्तर भारत के कुछ प्रबल राज्यों तथा दिल्ली सल्तनत के राजनीतिक सम्बन्धों पर चर्चा किए बिना यह इतिहास पूरा नहीं होता।
बाबर ने अपने आत्मचरित ‘तुजुक-ए-बाबरी’ अर्थात् बाबरनामा में लिखा है- ‘उन दिनों जब मैंने हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त की, तब यहाँ पर पाँच मुसलमान और दो काफिर बादशाह शासन करते थे। वे एक-दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे। इस देश में उनके सिवा और भी बहुत से छोटे-छोटे राजा थे। वे राव और राजा के नाम से विख्यात थे। उनकी संख्या बहुत अधिक थी और वे थोड़े-थोड़े स्थानों के अधिकारी थे। इन छोटे राजाओं में से अधिकांश पहाड़ियों पर रहा करते थे। पाँच मुसलमान बादशाहों में पहला था अफगान सुल्तान जिसकी राजधानी दिल्ली थी, दूसरा गुजरात में सुल्तान मुजफ्फर था, तीसरा मुस्लिम राज्य दक्षिण में बहमनी राज्य था, चौथी मुस्लिम बादशाहत मालवा में थी, पाँचवाँ बादशाह बंगाल में नुसरतशाह था। हिन्दुस्तान के काफिर राज्यों में विस्तार एवं सेना की अधिकता की दृष्टि से सबसे बड़ा विजयनगर का राजा है तथा दूसरा राणा सांगा है।’
बाबर ने प्रान्तीय राज्यों की पूरी सूची नहीं दी है। उस समय भारत में काश्मीर, मुल्तान, पजंाब, सिन्ध, गुजरात, बंगाल, आसाम, मालवा, खानदेश, मेवाड़, मारवाड़, उड़ीसा आदि प्रमुख प्रांतीय राज्य थे। इनमें से काश्मीर, मुल्तान, पजंाब, सिन्ध, गुजरात, बंगाल, मालवा तथा खानदेश मुस्लिम राज्य हो चुके थे जबकि आसाम, मेवाड़, मारवाड़, उड़ीसा तथा विजयनगर प्रमुख हिन्दू राज्य थे। इनके अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे हिन्दू राज्य पूरे देश में फैल हुए थे।
दक्षिण में विजयनगर और बहमनी राज्यों का दिल्ली सल्तनत से कोई राजनीतिक सम्पर्क नहीं था। बाबर के भारत आगमन के समय भारत के समस्त छोटे-बड़े हिन्दू एवं मुस्लिम राज्य अपनी-अपनी सीमाओं को बढ़ाने के लिए पड़ौसी राज्यों से लड़ते रहते थे। इस कारण उनकी सीमाएँ निरन्तर घटती-बढ़ती रहती थीं।
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पाठकों को स्मरण होगा कि मुहम्मद बिन तुगलक के समय से ही प्रांतपतियों पर केन्द्रीय शक्ति की पकड़ ढीली पड़ने लगी थी और कई प्रांतपति स्वयं को पूरी तरह स्वतंत्र करने में सफल रहे थे। फीरोज तुगलक के समय यद्यपि सल्तनत के अधीन बचे हुए प्रांतपतियों ने विद्रोह नहीं किये किंतु उन पर केन्द्रीय शक्ति का भय लगभग समाप्त ही हो गया था।
ई.1398-99 में तैमूर लंग के भारत अभियान के बाद भारत की केन्द्रीय शक्ति का पराभव हो गया। इस कारण भारत में अनेक प्रान्तीय राज्यों का उद्भव हुआ तथा सम्पूर्ण देश अनेक छोटे प्रांतीय राज्यों में विभक्त हो गया। इन राज्यों के कभी न खत्म होने वाले युद्धों, लूटमार तथा विध्वंसात्मक कार्यवाहियों से देश में अशान्ति एवं अव्यवस्था व्याप्त हो गई जिससे देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास को गहरा आघात लगा।
भारत के उत्तर में स्थित काश्मीर अनादि काल से हिन्दू संस्कृति का मुख्य केन्द्र था। इस कारण इस क्षेत्र में वैदिक संस्कृति के काल से ही हिन्दू राजा शासन करते आए थे। काश्मीर में महाभारत कालीन मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें गणपतयार तथा खीरभवानी का मंदिर प्रमुख हैं।
मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में काश्मीर में बौद्धधर्म का प्रचार हुआ। जब काश्मीर पर कुषाणों का अधिकार हुआ, तब भी उनके संरक्षण में बौद्धधर्म फलता-फूलता रहा किंतु जब छठी शताब्दी ईस्वी में उज्जैन में महाराज विक्रमादित्य का शासन हुआ तब काश्मीर में हिन्दूधर्म पूरे उत्साह के साथ फिर से लौट आया। महाराजा ललितादित्य के समय में काश्मीर में हिन्दू संस्कृति का विशेष रूप से प्रसार हुआ। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ ही काश्मीर में कुछ सूफियों ने आकर बसना आरम्भ किया। तब से काश्मीर में मुस्लिम जनसंख्या की बसावट होने लगी।
कोटरानी काश्मीर की अंतिम हिन्दू शासक थी जिसने ई.1334 से ई.1339 तक काश्मीर पर शासन किया। उसके बाद ई.1399 में रामचंद्र काश्मीर का शासक हुआ। उसने शाह मिर्जा नामक एक व्यक्ति को अपना मंत्री बनाया जो ई.1320 से काश्मीर राज्य की सेना में नौकरी कर रहा था। अभी राजा रामचंद्र कुछ दिन ही शासन कर सका था कि मन्त्री शाह मिर्जा ने छल से राजा रामचंद्र की हत्या कर दी और स्वयं काश्मीर का स्वतंत्र शासक बन बैठा।
इस काल में भारत में दिल्ली सल्तनत अपने चरम पर थी और हिन्दू राजा अपने-अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे इसलिए काश्मीर के हिन्दू राजवंश को कहीं से भी सहायता नहीं मिल सकी और वह इतिहास के नेपथ्य में चला गया।
शाह मिर्जा के वंश को काश्मीर के इतिहास में शाह मीर वंश कहा जाता है। इस वंश के शासक हिन्दुओं के प्रति अत्यंत कठोर रवैया रखते थे। उन्होंने हिन्दू प्रजा पर जजिया लगा दिया तथा शरीयत के अनुसार शासन करने लगे। इस कारण केवल मुसलमानों को ही राज्य के उच्च पदों पर रखा जाने लगा। इस वंश के शासकों ने ई.1339 से ई.1585 तक काश्मीर पर शासन किया। शाह मीर वंश के लम्बे शासन काल में काश्मीर में मुस्लिम जनसंख्या का तेजी से प्रसार हुआ।
ई.1420 में शाह मिर्जा के वंश में जैनुलओबेदीन नामक शासक हुआ जो अपने पूर्ववर्ती शासकों की अपेक्षा उदार और सहिष्णु था। जैनुलओबेदीन ने भारत के अनेक हिन्दू एवं मुस्लिम राज्यों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित किए। उसने अपने राज्य में हिन्दू जनता पर से जजिया हटा दिया तथा गौ-वध का निषेध कर दिया।
तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार जैनुलओबेदीन काश्मीरी, फारसी, हिन्दी और तिब्बती भाषाओं का विद्वान था। उसने महाभारत तथा राजतरंगिणी नामक संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया तथा अनेक फारसी ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद करवाया। उसने अपने राज्य में शान्ति स्थापित की तथा जनता पर करों का बोझ कम किया। उसके शासन में काश्मीर की उन्नति हुई। ई.1470 में सुल्तान जैनुलओबेदीन की मृत्यु हो गई।
जैनुलओबेदीन के बाद उसका पुत्र हैदरशाह काश्मीर का सुल्तान बना। उसने अपने पिता की धर्मसहिष्णु नीतियों को जारी रखा। हैदरशाह के उत्तराधिकारी निर्बल तथा अयोग्य निकले। परिणामस्वरूप काश्मीर में अराजकता फैल गई और मुस्लिम सरदार अनेक गुटों में बँट गए। सुल्तान इन सरदारों के हाथ की कठपुतली बन कर रह गया।
दिल्ली से बहुत दूर स्थित होने और आन्तरिक अवस्था बिगड़ी हुई होने के कारण दिल्ली सल्तनत के काल में काश्मीर उत्तरी भारत की राजनीति में कोई विशेष भूमिका नहीं निभा पाया। दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने भी कभी काश्मीर पर अधिकार करने का प्रयास नहीं किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता