तुर्की अमीरों की परम्परागत कमजोरियों एवं षड़यंत्रकारी राजनीतिक आदतों ने न तो किसी भी तुर्की राजवंश को अधिक समय तक दिल्ली के तख्त पर टिके रहने दिया और न कोई तुर्की सुल्तान चैन से सांस ले पाया। इसी कारण ई.1320 में जिस तुगलक वंश का दिल्ली के तख्त पर अवतरण हुआ था वह ई.1412 में ही रक्त के समुद्र में डूब गया।
उस काल के भारतीय मुसलमानों में कुलीय उच्चता का अभाव था जबकि तुर्की अमीर स्वयं को भारतीय अमीरों से बड़ा समझते थे। उलेमा अपने आप को अमीरों से भी बड़ा समझते थे। अरब से आए हुए सयैद आदि कबीलों के लोग स्वयं को सुल्तानों से भी बड़ा समझते थे। तुर्कों के विभिन्न कबीले भी एक दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। कोई अफगानी था तो कोई ईरानी, कोई खिलजी था तो कोई तुगलक, कोई चगताई था तो कोई मंगोल। इन कारणों से दरबार में भिन्न-भिन्न अमीरों एवं उलेमाओं में घात-प्रतिघात चलते रहते थे जिन्हांेने एक-एक करके इल्बरी वंश, बलबनी वंश, खिलजी वंश एवं तुगलक वंश का नाश कर दिया।
अल्लाउद्दीन खिलजी के अंतिम दिनों से ही दिल्ली सल्तनत में योग्य सेनापतियों तथा मन्त्रियों का अभाव हो गया था। यद्यपि मुहम्मद बिन तुगलक ने विदेशी अमीरों में से योग्य व्यक्तियों को चुनना आरम्भ किया था परन्तु इसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ, क्योंकि विदेशी अमीर धोखेबाज थे और देशी अमीर स्वयं को अपमानित अनुभव करते थे। फीरोजशाह तुगलक के समय में योग्य सेनापति तथा मंत्री नहीं मिले। इसलिए दिल्ली सल्तनत को बार-बार छिन्न-भिन्न होने से बचाने वाला कोई व्यक्ति नहीं था।
गाजी तुगलक के समय से ही तुगलक वंश में पिता अपने पुत्रों को और पुत्र अपने पिता को शंका की दृष्टि से देखने लग गए थे और एक दूसरे की हत्या करने का षड़यंत्र रचते थे। यहाँ तक कि फीरोजशाह तुगलक भी अपने पुत्रों को शंकित दृष्टि से देखता था। इन हत्याओं एवं षड़यंत्रों के कारण तुगलक वंश की नींव दुर्बल हो गई।
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दिल्ली सल्तनत की सेना में जो कौशल, योग्यता, साहस तथा शक्ति कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, रजिया, बलबन तथा अल्लाउद्दीन खिलजी के समय में थी, वह तुगलक सुल्तानों के समय में नहीं रह गई। सैनिक शक्ति के क्षीण हो जाने से तुगलक वंश पतनोन्मुख हो गया। उसमें न तो आन्तरिक विद्रोहों को दबाने की क्षमता रह गई और न विदेशी आक्रमणों से सल्तनत की रक्षा करने की।
इन दिनों मुसलमान अमीरों का नैतिक पतन अपने चरम पर था। उनमें औरतों एवं हिंजड़ों को राजदरबार में नचाने की प्रवृत्ति जोरों पर थी। वे तीतर-बटेर और मुर्गे लड़ाते थे। कबूतर पालने में समय खर्च करते थे। वेश्यावृत्ति तथा लौण्डेबाजी में प्रवृत्त रहते थे। शराब तथा रिश्वत का बोलबाला था। निरंतर विलासिता में लगे रहने से तुर्की अमीरों में अपने पूर्वजों जैसा पौरुष तथा साहस नहीं बचा था। इस कारण उनका पतन अवश्यम्भावी था।
दिल्ली के सुल्तानों ने हिन्दुओं को सदैव निर्बल बनाने का प्रयत्न किया परन्तु हिन्दू अपनी विनष्ट स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करने का सदैव प्रयत्न करते रहे। जब कभी हिन्दू अवसर पाते थे, विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। हिन्दुओं को राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक तीनों प्रकार की असुविधाओं का सामना करना पड़ता था। ऐसी दशा में उनके द्वारा सल्तनत की जड़ें खोदने का प्रयास करना स्वाभाविक ही था।
सल्तनत को सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित रखने के लिए धन की आवश्यकता होती है परन्तु अल्पकालीन सुल्तान खुसरोशाह परवारी के युद्ध, मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की विफलता तथा दुर्भिक्ष के कारण राजकोष रिक्त हो गया था। ऐसी दशा में सल्तनत का सरकारी तंत्र शिथिल होने लगा और ऐसी स्थिति में राज्य का पतन अवश्यम्भावी था।
हालांकि तुगलक वंश के कुल नौ सुल्तानों ने दिल्ली सल्तनत पर शासन किया किंतु इनमें से गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक तथा फीरोज तुगलक ही उल्लेखनीय हैं। शेष छः सुल्तानों के नाम केवल इतिहास की पुस्तकों में सिमटकर रह गये हैं, जनमानस में उनका अवशेष मात्र भी शेष नहीं है। तुगलक वंश के समस्त नौ शासक इस वंश की लुटिया डुबोने के लिए न्यूनाधिक जिम्मेदार हैं।
गाजी तुगलक अथवा गयासुद्दीन तुगलक ने अपने पुराने स्वामी को भारतीय मुसलमान होने के कारण नष्ट किया था। इस कारण भारतीय मुस्लिम अमीर, तुगलकों के शासन से रुष्ट ही रहे और सल्तनत की शक्ति पूरी तरह से लड़खड़ाई हुई रही। यही कारण था कि गाजी तुगलक का पुत्र जूना खाँ अर्थात् मुहम्मद बिन तुगलक बड़ी आसानी से सुल्तान गाजी तुगलक अर्थात् गयासुद्दीन तुगलक को मारकर दिल्ली के तख्त पर बैठने में सफल रहा।
मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाओं की असफलताओं का तुगलक वंश के पतन में बड़ा योगदान था। भारतीय प्रजा पहले से ही तुगलक वंश को घृणा से देखती थी। मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की विफलता से जनता की अवशिष्ट श्रद्धा तथा सहानुभूति भी समाप्त हो गई। तुगलकों के विरुद्ध चारों ओर असंतोष और विद्रोह की अग्नि भड़कने लगी।
मुहम्मद बिन तुगलक अत्यंत छोटे-छोटे अपराधों के लिए मृत्युदण्ड तथा अंग-भंग करने के दण्ड देता था। इससे तुगलकों के शत्रुओं की संख्या अधिक हो गई। उसकी इस क्रूर नीति के कारण मित्र भी उससे सशंकित रहने लगे और साम्राज्य की सेवा की ओर से विमुख हो गए। सुल्तान की कठोर नीति के कारण ही विदेशी अमीरों ने उसके विरुद्ध दक्षिण भारत में प्रबल संगठन बना लिया जिसे छिन्न-भिन्न करना सुल्तान के लिए असम्भव हो गया।
जब मुहम्मद बिन तुगलक ने देखा कि देशी अमीरों का पतन हो गया और उनमें योग्यता का अभाव है तब उसने उन योग्य विदेशी अमीरों को राज्य में ऊँचे पद देना आरम्भ किया जो सुल्तान की उदारता से आकृष्ट होकर मध्य-एशिया तथा ईरान से आकर उसके दरबार में रह रहे थे। इससे दरबार में हमेशा के लिए दो विरोधी दल खड़े हो गए।
चौदहवीं शताब्दी की परिस्थितियों में शासन करने के लिए एक दृढ़-प्रतिज्ञ तथा कठोर शासक की आवश्यकता थी परन्तु मुहम्मद बिन तुगलक का उत्तराधिकारी फीरोजशाह अपनी मुस्लिम प्रजा के प्रति बड़ा उदार था। उसमें न महत्त्वाकांक्षाएं थीं और न युद्ध-प्रवृत्ति। उसकी उदारता का लोगों ने बड़ा दुरुपयोग किया जिससे शासन की कड़ियां शिथिल पड़ गईं।
सरकारी कर्मचारियों तथा सैनिकों में भ्रष्टाचार एवं घूसखोरी फैल गई। इससे शासन व्यवस्था खोखली पड़ गई और सल्तनत दु्रतगति से पतनोन्मुख हो गई। फीरोज धर्मान्ध था और मुसलमानों का अत्यधिक पक्ष लेता था। हिन्दू प्रजा को उसने कोई अधिकार नहीं दिए। इन बातों के परिणाम अच्छे नहीं हुए।
फीरोज तुगलक राजनीति को धर्म से अलग नहीं कर सका। वह कठमुल्लों तथा मुफ्तियों से प्रभावित रहता था। फीरोज के धार्मिक पक्षपात का राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। इससे हिन्दुओं में बड़ा असंतोष फैला और ऐसी प्रतिक्रिया आरम्भ हुई जिसका परिणाम तुगलक वंश के लिए अच्छा नहीं हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता