राजस्थान में मेवाड़ राजघराना धरती के सबसे पुराने राजवंशों में से है। यह वंश ईसा की पाँचवीं शताब्दी में गुहिल नाम के एक राजा से चला था जो रहस्यमयी शक्तियों का स्वामी था। एक हजार साल से यह राजवंश हिन्दू प्रजा एवं नरेशों के लिये आदरणीय बना हुआ था। पंद्रहवीं शताब्दी में रायमल इस वंश का उत्तराधिकारी हुआ। उसकी राजधानी चित्तौड़ थी। रायमल के तीन बेटे थे- पृथ्वीराज, जयमल और संग्रामसिंह। तीनों राजकुमार बड़े ही वीर, महत्वाकांक्षी और दुस्साहसी थे। एक दिन तीनों राजकुमारों ने एक ज्योतिषी को अपनी जन्मपत्रियां दिखाईं। ज्योतिषी ने कहा कि ग्रह तो पृथ्वीराज और जयमल के भी अच्छे हैं किंतु राजयोग संग्रामसिंह के हैं। इतना सुनते ही पृथ्वीराज और जयमल तलवार लेकर संग्रामसिंह पर टूट पड़े। पृथ्वीराज की तलवार की नोक संग्रामसिंह की आँख में जा घुसी।
संग्रामसिंह भी तलवार निकाल कर दोनों भाईयों से मुकाबिले के लिये तैयार हो गया। ठीक उसी समय महाराणा रायमल का चाचा सारंगदेव वहाँ आया। उसने इस दुष्टता के लिये दोनों राजकुमारों की प्रताड़ना की और सुझाव दिया कि ज्योतिषी की बात का विश्वास करना ठीक नहीं है। इससे तो भीमल गाँव की देवी के मंदिर में सेवा करने वाली चारणी से निर्णय करा लो। जब तीनों राजकुमार अपने-अपने दल-बल सहित पुजारिन के पास पहुँचे तो चारणी ने भी संग्रामसिंह के राजा होने की घोषणा की। इतना सुनते ही एक बार फिर पृथ्वीराज और जयमल तलवार लेकर संग्रामसिंह पर टूट पड़े।
इस बार सारंगदेव सावधान था। उसने दोनों राजकुमारों की तलवारों को अपनी तलवार पर रोका। पृथ्वीराज घायल होकर वहीं पृथ्वी पर गिर पड़ा और संग्रामसिंह घोड़े पर बैठकर भाग निकला। जयमल उसे मारने के लिये पीछे लपका किंतु संग्रामसिंह मेवाड़ राज्य से बाहर निकल गया और जयमल के हाथ नहीं आया।
अपने भाई पृथ्वीराज से संग्रामसिंह को अपने शरीर पर लगने वाला पहला घाव मिला था जिससे उसकी एक आँख जाती रही थी। उसके बाद तो संग्रामसिंह को जीवन भर इन घावों का सामना करना पड़ा जिससे उसके शरीर पर घावों की संख्या अस्सी तक जा पहुँची थी। ये सब घाव एक से बढ़कर एक गंभीर थे।
पिता के राज्य से निकाला जाकर संग्रामसिंह जंगलों में भटकने लगा। एक दिन जब वह एक पेड़ के नीचे सोया हुआ था तब श्रीनगर[1] का जागीरदार कर्मचंद वहाँ से निकला। मार्ग में एक अद्भुत दृश्य देखकर वह अपने घोड़े से नीचे उतर पड़ा। उसने देखा कि एक युवक पेड़ के नीचे सोया हुआ है और एक नाग उसके सिर पर फन फैलाये हुए छाया कर रहा है।[2]
करमसिंह ने संग्रामसिंह को जगाया और उसका परिचय पूछा। संग्रामसिंह का परिचय पाकर करमसिंह उसे आदरपूर्वक अपने घर ले गया और अपनी बेटी का विवाह उसके साथ कर लिया। जब यह बात राणा रायमल को पता लगी तो उसने संग्रामसिंह को चित्तौड़ बुलवा लिया। तब तक संग्रामसिंह के दोनों भाई मारे जा चुके थे।
ई. 1509 में रायमल की मृत्यु हुई तो संग्रामसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा। वह अत्यंत वीर और उदात्त भाव का स्वामी था। मानवोचित गुण उसमें कूट-कूट कर भरे थे। इतिहास में उसे जितना आदर प्राप्त हुआ उतना आदर संसार में बहुत कम लोगों को प्राप्त है। भारत वर्ष के इतिहास में वह राणा सांगा के नाम से विख्यात हुआ। मेवाड़ के महाराणाओं में तो वह सबसे प्रबल हुआ ही, अपने समय का वह सबसे प्रबल हिन्दू सम्राट था। जिस समय वह मेवाड़ का स्वामी हुआ उस समय दिल्ली पर सिकंदर लोदी, गुजरात पर महमूद शाह बेगड़ा और मालवा पर नासिरशाह खिलजी शासन कर रहे थे। उन तीनों की आँख मेवाड़ पर लगी हुई थी। इसलिये वे तीनों ही सांगा के शत्रु हो गये।
सांगा भी अपनी तरह का एक ही वीर था। उसने गुजरात तथा मालवा की ईंट से ईंट बजा दी और गुजरात तथा मालवा अपने राज्य में शामिल कर लिये। राणा की बढ़ी हुई शक्ति देखकर इब्राहीम लोदी राणा पर चढ़कर आया। हाड़ौती क्षेत्र में खातौली गाँव के पास राणा ने इब्राहीम लोदी[3] को रोका और उसमें जबर्दस्त मार लगायी। इब्राहीम लोदी किसी तरह अपनी जान बचाकर भागा किंतु उसके बेटे को सांगा ने पकड़ लिया। कुछ दिन बाद सांगा ने उसे भी आजाद कर दिया। इस युद्ध में राणा का एक हाथ कट गया और एक घुटने पर तीर लगने से वह सदा के लिये लंगड़ा हो गया।
कुछ दिन बाद इब्राहीम लोदी ने फिर से राणा पर आक्रमण किया। इस बार भी राणा ने इब्राहीम लोदी को मार भगाया। इब्राहीम लोदी के कई हजार सिपाही मारे गये। जब मांडू के सुल्तान महमूद को पता चला कि राणा इब्राहीम लोदी के साथ उलझा हुआ है तो वह राणा के सामंत मेदिनीराय पर चढ़ बैठा। राणा ने इब्राहीम लोदी से निबट कर महमूद को जा घेरा और उसे गिरफ्तार करके चित्तौड़ ले आया। महमूद धूर्त आदमी था। उसने राणा के पैरों पर गिरकर क्षमा याचना की और विश्वास दिलाया कि भविष्य में कभी भी दुष्टता नहीं करेगा। राणा ने उसका आधा राज्य छीनकर उसे जीवित छोड़ दिया। महमूद स्वतंत्र होते ही राणा के विरुद्ध षड़यंत्र रचने में व्यस्त हो गया।
राणा ने अपने शत्रुओं का जी भर कर मान मर्दन किया किंतु इन लड़ाईयों में उसके शरीर के हर हिस्से पर घाव लग गये। उसके शरीर पर कुल अस्सी घाव थे। वह एक आँख, एक हाथ और एक पैर से वंचित हो गया था किंतु उसकी शक्तियाँ अब भी उसके पास थीं। अपने पूर्वज गुहिल तथा ठक्कर बापा की तरह सांगा भी रहस्यमय शक्तियों का स्वामी था। वह संकल्प का धनी, अति उत्साही, उद्भट वीर और प्रखर बुद्धि युक्त था। पूरे मध्य युग में भारत भर में उसके जैसा और कोई दूसरा राजा नहीं था।
[1] अजमेर जिले में स्थित है।
[2] इस घटना का उल्लेख गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में किया है।
[3] उस समय तक सिकंदर लोदी के स्थान पर इब्राहीम लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठ चुका था।