14 अगस्त 1857 को सर्यास्त के साथ ही भारत से पराधीनता के चिह्न विलोपित होने लगे एवं स्वाधीनता का उदय होने लगा। ब्रिटिश नेताओं एवं भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश राज्यशाही के विलोपन में गरिमा को बनाए रखा। भारत के अंग्रेजों के विरुद्ध किसी तरह की नारेबाजी नहीं की गई एवं न उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया गया। यहाँ तक कि ब्रिटिश राज्यशाही के चिह्नों को भी बड़े आदर के साथ अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दिया गया।
यूनियन जैक का अवतरण
बम्बई के गवर्नर सर जान कोल्वील ने वायसराय को लिखा कि भारत की आजादी के बाद यदि उसे यूनियन जैक अथवा ऐसा ध्वज जिसमें यूनियन जैक लगा हो, फहराने नहीं दिया गया तो वह भारत में नहीं रुकेगा। वायसराय स्वयं भी इस विषय पर चिंतन कर रहा था। उसने खुद अपने हाथों से दोनों देशों का झण्डा तैयार किया। एक का आधार था कांग्रेस का झण्डा चर्खे के साथ, दूसरे का आधार था मुस्लिम लीग का झण्डा चांद के साथ। दोनों में 1/9 क्षेत्रफल का यूनियन जैक ऊपरी हिस्से में सिला गया। इन झण्डों को वायसराय ने स्वीकृति के लिये जिन्ना और नेहरू के पास भेज दिया।
जिन्ना ने जवाब दिया कि पाकिस्तान के लिये झण्डे का यह डिजायन किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं है क्योंकि चांद के साथ क्रिश्चियन क्रॉस मुसलमानों की भावना के लिये ठीक नहीं है। नेहरू ने वायसराय को एक नया डिजाइन भिजवाया जिसमें बाकी का हिस्सा तो कांग्रेस के झण्डे जैसा ही था किंतु चरखे के स्थान पर सारनाथ के अशोक स्तंभ का चक्र लिया गया था तथा यूनियन जैक नहीं था। माउण्टबेटन के पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय इसके कि वह मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस द्वारा सुझाये गये झण्डों को स्वीकार कर ले। इस प्रकार यूनियन जैक की पूरी तरह से विदाई हो गयी।
14 अगस्त की शाम को लखनऊ की रेजिडेंसी से चुपचाप यूनियन जैक उतार लिया गया और उसे आचिनलेक के पास भेज दिया गया। आचिनलेक ने उसे राजा जार्ज षष्ठम् के पास भेज दिया ताकि वह उसे विंडसर कॉसल के संग्रहालय में ऐतिहासिक झण्डों के साथ जगह पा सके। दूसरे दिन जब भारतीयों का जुलूस तिरंगा फहराने के लिये उस स्थान पर पहुंचा तो पता चला कि किसी ने ध्वज दंड को जड़ से काट दिया है। यूनियन जैक इस स्थान पर पूरे एक सौ साल फहराया था, 1847 ई. से लेकर 1947 ई. तक। 14 अगस्त की संध्या को जब सूर्य का अवसान हुआ तो देशभर में यूनियन जैक ने ध्वजदण्ड का त्याग कर दिया। जवाहरलाल नेहरू ने माउण्टबेटन के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया था कि यूनियन जैक को उतारते समय किसी तरह का समारोह नहीं होगा ताकि अँग्रेजों की भावनाओं को ठेस न लगे। समारोह 15 अगस्त को तिरंगे के आरोहण के साथ ही किये गये।
ब्रिटिश सम्राट का अंतिम संदेश देने से इंकार
भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने के अवसर पर ब्रिटेन के सम्राट जार्ज षष्ठम् द्वारा दोनों उपनिवेशों की जनता के नाम अंतिम संदेश देने के लिये वायसराय द्वारा ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया गया। ब्रिटेन की लेबर सरकार इस पर सहमत नहीं हुई। भारत सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल ने वायसराय को लिखा कि इसे सभी हिंदुस्तानी और अँग्रेज पसंद नहीं भी कर सकते हैं।
ब्रिटिश राष्ट्रगान के गायन का प्रश्न
स्वतंत्रता समारोह के दिन ब्रिटिश राष्ट्रगान गॉड सेव द किंग के गायन के प्रश्न पर माउण्टबेटन ने प्रांतीय गवर्नरों को निर्देश दिये कि सत्ता सौंपने के बाद सार्वजनिक रूप से इसका गायन नहीं होना चाहिये। सिर्फ गवर्नर के भवनों में यह प्रस्तुत हो। सत्ता सौंपने की रस्म के समय गवर्नरों को तोप की सलामी और राष्ट्रीय गान के पहले हिस्से का हक है।
स्वतंत्रता दिवस समारोह
14 अगस्त की संध्या को दिल्ली के निवासी घरों से निकल कर नाचते गाते हुए मध्य दिल्ली की ओर जाने लगे। किसानों से भरी हुई बैलगाड़ियों से दिल्ली की सड़कें पट गयीं। वे सब आजादी के समय आधी रात को दिल्ली में उपस्थित रहना चाहते थे। जब जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल तथा डा. राजेन्द्र प्रसाद आदि नेताओं ने भारत की स्वतंत्रता के समारोह की घोषणा करने के लिये संसद भवन के लिये प्रस्थान किया तो नई दिल्ली के मुख्य मार्गों पर आनंद से चिल्लाते हुए अपार जन समूह ने दोनों तरफ कतारें बना लीं। सभा भवन से बाहर आधी रात को आकाश में अचानक बिजली चमकने लगी और तेज बारिश आरम्भ हो गई किंतु लोग डटे रहे। सभा भवन को चारों तरफ से भारतीयों ने घेर रखा था। बारह बजते ही भवन के अंदर तेज शंखनाद हुआ और उसके साथ ही भारत अवतरित हो गया। दिल्ली ने स्वतंत्रता का स्वागत प्रकाश से किया। दिल्ली के प्रत्येक भवन पर प्रकाश की झालरें लगी हुई थीं जिनके प्रकाश से राजधानी जगमगा रही थी। हर ओर पटाखे छोड़े गये।
कांग्रेस ने लोगों से अपील की कि 15 अगस्त को देश में बूचड़खाने बंद रहें। देश का हर सिनेमाघर निशुल्क सिनेमा दिखाये। दिल्ली की पाठशालाओं में विद्यार्थियों को मिठाई और आजादी पदक दिया जाये। सरकार ने फांसी की समस्त सजायें माफ कर दीं। 15 अगस्त की प्रातः दिल्ली की सड़कों पर इतने आदमी जमा हुए जितने सम्पूर्ण मानव इतिहास में कभी भी एक स्थान पर एकत्र नहीं हुए होंगे। एक अनुमान के अनुसार लगभग पाँच लाख लोग पूरे भारत से दिल्ली पहुंचे जहाँ आजादी का सबसे बड़ा समारोह होने वाला था। अँग्रेजों ने भी बड़ी प्रसन्नता से इन समारोहों में भाग लिया। कुछ अँग्रेज महिलायें भारत छोड़ने के दुख में फूट-फूट कर रोने लगीं। इस भीड़ में किसी के हिलने के लिये इंच भर भी जगह नहीं थी।
गवर्नर जनरल की नियुक्ति
ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त होने के तुरंत बाद भारत और पाकिस्तान के लिये एक-एक गवर्नर जनरल नियुक्त किया जाना था। भारत स्वतंत्रता अधिनियम में प्रावधान किया गया था कि दोनों देश चाहें तो एक ही व्यक्ति को दोनों देशों का गवर्नर जनरल बना सकते थे। ऐसा माना जा रहा था कि लार्ड माउण्टबेटन दोनों देशों के लिये विश्वसनीय होंगे तथा वे कुछ समय के लिये लार्ड माउण्टबेटन को अपना गवर्नर जनरल बनायेंगे लेकिन पाकिस्तान ने जिन्ना को प्रथम गवर्नर जनरल नियुक्त किया। वायसराय ने इच्छा जाहिर की कि वे आजादी के बाद तब तक दोनों देशों के गवर्नर जनरल बने रहें जब तक कि दोनों देशों में अपना संविधान बन कर तैयार नहीं हो जाये। भारतीय नेता वायसराय से इसके लिये पहले ही अनुरोध कर चुके थे किंतु वायसराय के काफी जोर देने पर भी जिन्ना इसके लिये राजी नहीं हुआ।
ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि आजादी के बाद भी माउण्टबेटन कुछ समय तक भारत में रहें। यदि आजादी के तुरंत बाद वायसराय ने भारत छोड़ दिया तो भारत व पाकिस्तान में अँग्रेज असुरक्षित हो जायेंगे और उनमें भगदड़ मच जायेगी। उनके तत्काल हट जाने से भारत व पाकिस्तान के बीच अधिक रक्त-पात होगा जिससे ब्रिटिश सरकार की बदनामी होगी। आजादी के बाद भी माउण्टबेटन के भारत में टिके रहने से टोरी पार्टी और सम्पूर्ण विपक्ष सरकार के खिलाफ कोई हो हल्ला नहीं मचा सकेगा। माउण्टबेटन के भारत में रहने से भारत व पाकिस्तान के कॉमनवैल्थ में बने रहने तथा रिश्तों के मजबूत बनने की संभावनायें बढ़ जायेंगी।
भारतीय नेता भी कई कारणों से माउण्टबेटन को भारत में बने रहने देना चाहते थे। माउण्टबेटन के रहने से पाकिस्तान और हिंदुस्तान के मध्य बंटवारों के सम्बन्ध में होने वाले विवाद में मध्यस्थता करने वाला मौजूद रहेगा। भारत सरकार की ओर से देशी रजवाड़ों से मजबूती से बात कर सकने वाले अधिकारी के रूप में भी उसकी सेवायें अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगी।
इन सब कारणों को देखते हुए माउण्टबेटन ने भारत के प्रथम गवर्नर जनरल का पद स्वीकार कर लिया। आजादी के बिल में प्रावधान किया गया कि आजादी के बाद मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के तथा माउण्टबेटन भारत के गवर्नर जनरल होंगे।
15 अगस्त की मध्यरात्रि को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने माउण्टबेटन को स्वाधीन भारत के प्रथम गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त किये जाने का पत्र सौंपा। 15 अगस्त 1947 की प्रातः स्वाधीन भारत के प्रथम गवर्नर जनरल का शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया। माउण्टबेटन ने अपना दाहिना हाथ उठाकर शपथ ली कि वे स्वतंत्र भारत के प्रथम सेवक के रूप में अधिकतम हार्दिकता और परिश्रम के साथ भारत की सेवा करेंगे। इसी समारोह में नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्यों को शपथ दिलवायी गयी। भारत के वायसराय के रूप में माउण्टबेटन को 31 तोपों की सलामी दी जाती थी। भारत के गवर्नर जनरल के रूप में उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गयी।
इस नियुक्ति से लार्ड माउण्टबेटन के मन में भारत के प्रति अधिक उदार भाव ने जन्म लिया। आगे चलकर जब कभी भी भारत-पाकिस्तान के मध्य किसी भी विषय पर विवाद हुआ तो भारत के दावे को अधिक वजन मिला जिससे नाराज होकर पाकिस्तान द्वारा लार्ड माउण्टबेटन पर आरोप लगाये गये कि जिन्ना के निर्णय ने माउण्टबेटन को चिढ़ा दिया और माउण्टबेटन ने अपने अधिकारों का उपयोग भारत का पक्ष लेने में किया। इन आरोपों के अनुसार माउण्टबेटन ने पंजाब और बंगाल प्रांतों में भारत पाक सीमाओं के निर्धारण में, कश्मीर रियासत के भारत में रहने के मामले में तथा अन्य अनेक मामलों में भारत का पक्ष लिया। पाकिस्तान द्वारा शत्रुता का भाव आगे तक चलता रहा। 1956 ई. में लार्ड माउण्टबेटन को भारत जाने के लिये पाकिस्तान सरकार द्वारा पाकिस्तान के ऊपर होकर उड़ने की अनुमति नहीं दी गयी।
ब्रिटिश अधिकारियों की विदाई
स्वाधीनता दिवस के दिन जार्ज एबेल और इवान जेन्किन्स, इंगलैण्ड के लिये रवाना हो गये। उसी दिन सर सिरिल रेडक्लिफ भी रवाना हुआ। फील्ड मार्शल सर क्लाड आचिनलेक अगस्त 1947 के अंत तक देश में रहे। जब कांग्रेस ने उन पर और पंजाब बाउंड्री फोर्स पर पाकिस्तान का पक्ष लेने का आरोप लगाया तो आचिनलेक तथा जनरल रीस ने त्यागपत्र दे दिये। आचिनलेक के जाने के कुछ दिनों बाद लार्ड इस्मे भी चला गया। लार्ड माउण्टबेटन मई 1948 तक भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य करते रहे। जून 1948 में उन्होंने फिर से ब्रिटिश नौसेना में अपना कार्य संभाल लिया।