Sunday, December 22, 2024
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17. मायावी सरोवर

सूर्योदय हुए काफी विलम्ब हो चुका था जब प्रतनु की आँख खुली। निर्ऋति उसके पास बैठी उसके उठने की ही प्रतीक्षा कर रही थी। कल देर रात्रि तक चलते रहने के कारण वह काफी थक गया था, इस कारण इस समय भी बेसुध होकर पड़ा था। निर्ऋति और उसके साथ की युवतियों ने ही इस लघु प्रासाद में उसके आहार एवं विश्राम की व्यवस्था की थी। वे ढेर सारा मधु, दुग्ध, और कई तरह के फल आहार के लिये ले आईं। कुछ फल तो ऐसे थे जिनसे प्रतनु पूर्व में परिचित नहीं था। उन्हें खाकर प्रतनु ने परम संतुष्टि का अनुभव किया। ऐसी संतुष्टि अपने जीवन में प्रतनु ने पहले कभी अनुभव नहीं की थी। पर्याप्त श्रम और भरपेट आहार के बाद प्रगाढ़ निद्रा का आना स्वाभाविक था। प्रतनु काफी विलम्ब तक सोता रहा।

सूर्य को आकाश में काफी चढ़ आया देखकर तथा उपवन के पक्षियों को उच्च स्वर में संवादरत देखकर प्रतनु को संकोच हुआ। अपरिचित स्थान पर आश्रय पाये हुए अतिथि को इतने विलम्ब तक नहीं सोना चाहिये। जब वह उपवन के सरोवर में स्नान करने के लिये गया तो आश्चर्य हुआ उसे। रात्रि में दिखाई देने वाली रक्षक युवतियाँ कहीं दिखाई नहीं दीं। साधारण नाग-सेविकाओं की संख्या भी काफी कम थी।

प्रतनु के स्नानादि से निवृत्त होने तक निर्ऋति उसकी सेवा में उपस्थित रही। आहार के लिये रात्रि की ही भांति कुछ दिव्य फल, दुग्ध तथा मधु आदि देकर बिना कुछ कहे निर्ऋति जाने कहाँ चली गयी और उसके स्थान पर हिन्तालिका उसकी सेवा में नियत हो गयी। प्रतनु ने निर्ऋति के स्थान पर हिन्तालिका को आया देखकर पूछा- ‘ तुम्हारी सखि निर्ऋति कहाँ गयी ? तुम कहाँ रहीं रात्रि भर ?’

  – ‘क्यों, क्या रात्रि में मुझे तुम्हारे साथ रहना चाहिये था ?’ हिन्तालिका ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा।

  – ‘नहीं-नहीं! मेरा आशय यह नहीं था।’

  – ‘तो फिर क्यों पूछ रहे थे कि मैं रात्रि में कहाँ रही!’

हिन्तालिका की बात का कोई उत्तर नहीं सूझा प्रतनु को। उसने मौन साध लिया।

  – ‘रुष्ट हो गये पथिक!’

  – ‘ नहीं, रुष्ट तो नहीं हुआ।’

  – ‘तो फिर मौन क्यों धारण कर लिया है।’

  – ‘विचार कर रहा हूँ कि अगला प्रश्न पूछूँ अथवा नहीं!’

  – ‘यदि पूछगो नहीं तो जानोगे कैसे ?’

  – ‘जान तो मैं कुछ पूछने पर भी नहीं पाऊंगा। फिर भी तुम्हारे संतोष के लिये पूछ लेता हूँ। क्या तुम बताना चाहोगी कि निर्ऋति कहाँ गयी हैं ?’

  – ‘रानी मृगमंदा की सेवा में।’

  – ‘क्या मैं रानी मृगमंदा के दर्शन कर सकता हूँ।’

  – ‘अवश्य कर सकते हो पथिक।’

  – ‘कब ?’

  – ‘जब रानी मृगमंदा चाहेंगी तब।’

  – ‘रानी मृगमंदा कब चाहेंगी ?’

  – ‘संभवतः शीघ्र ही।’

  – ‘तुम्हें कैसे ज्ञात ?’

  – ‘निर्ऋति यही व्यवस्था करने तो गयी है कि तुम रानी मृगमंदा के दर्शन यथाशीघ्र कर सको।’

काफी समय ऐसे ही व्यतीत हो गया किंतु निर्ऋति लौट कर नहीं आई। प्रतीक्षा को अत्यंत दीर्घ हुआ जानकर थकान हो आई प्रतनु को। समय व्यतीत करने के उद्देश्य से उसने हिन्तालिका के समक्ष प्रस्ताव रखा कि जब तक निर्ऋति आये तब तक उपवन की छटा ही देख ली जाये। हिन्तालिका ने अतिथि के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

शर्करा के तट से सिंधु नद के विशाल तट तक। मोहेन-जो-दड़ो से नागों के इस अनजाने पुर तक। न कहीं ऐसा देखा, न कहीं ऐसा सुना। लगता था सम्पूर्ण उपवन मायावी विद्या से निर्मित है। ईशान कोण में स्थित सरोवर से ही आरंभ किया प्रतनु ने। यह लघु सरोवर विशाल वापिका [1] के ही सदृश दिखाई देता है जिसके निर्मल जल तक पहुँचने के लिये श्वेत स्फटिक के सोपान हैं। चारों दिशाओं में रक्ताभ विद्रुम से निर्मित कलात्मक तोरण सुशोभित हैं। चारों कोणों में अष्टकोणीय दीपाधार रखे हैं जिनपर रक्त-अयस निर्मित मनोहारी स्त्री प्रतिमायें स्थापित हैं। वस्तुतः ये प्रतिमायें हीं दीप का कार्य करती हैं जिनके वक्ष स्थल में स्नेहक [2] भरा हुआ है और अंतरिक्ष की ओर प्रणाम की मुद्रा में उठे हस्तयुगल दीप की मायावी वर्तिकायें [3] हैं। इन्हीं वर्तिकाओं से निकलने वाले प्रकाश में विगत रात्रि में प्रतनु ने इस सरोवर की उपस्थिति का आभास किया था।

उपवन के पूर्वी भाग में भांति-भांति के पुष्पों की क्यारियाँ संवारी गयी हैं। प्रतनु ने सैंधव प्रदेश में यव, धान्य, कर्पास और ईक्षु के विशाल खेत तो देखे थे किंतु केवल पुष्पों के खेत उसने यहीं देखे थे जिनके चारों ओर विशाल वृक्ष खड़े थे। हिन्तालिका ने बताया कि आकाश में गर्व से सिर उठाये मद्यसेवित पुरुषों के समान झूमने वाली पंक्तियाँ अशोक की हैं। प्रतनु ने देखा कि पुन्नाग, [4] शिरीष, अरिष्ट, [5] चंपक, [6] बकुल [7] तथा मल्लिका [8] के अलग-अलग कुंज बहुत ही भव्य दिखाइ्र देते हैं। कुटज,[9]  कुन्द, [10] और सिंधुवार [11] के पुष्पों की क्यारियों की छटा अलग ही है। श्वेत स्फटिक से निर्मित चैकियों को घेर कर खड़े करवीर  [12] के झाड़ों की सुगंध तो मन-मस्तिष्क पर छा जाने वाली है।

उपवन के आग्नेय कोण [13] में वर्तुलाकार घूमने वाले एक विशाल यंत्र को देखकर विस्मित रह गया प्रतनु। एक कूप पर काष्ठ का विशाल चक्र लगा हुआ था जिस पर बहुत लम्बी रज्जु बंधी हुई थी। दो रज्जुओं पर अयस के लघु घट बंधे हुए थे। इन यंत्रों का उद्देश्य समझ नहीं पाया प्रतनु। हिन्तालिका ने बताया कि जब यह चक्र घुमाया जाता है तो रज्जुओं पर बंधे घट कूप में जाते हैं और वहाँ से जल भरकर बाहर आ जाते हैं। जब चक्र से लिपटी रज्जुओं से बंधे ये घट चक्र के उच्चतम बिन्दु तक पहुँचते हैं तो वहाँ से पुनः नीचे लौटने लगते हैं। इसी क्षण उनकी दिशा बदल जाने के कारण वे स्वतः खाली हो जाते हैं। घटों से निःसृत जल नालिका में प्रवाहित होने लगता है।

इस विवर में कोई नदी अथवा जल-प्रपात नहीं होने से कूप से ही जल प्राप्त किया जाता है। ईशान कोण में बने सरोवर में इसी यंत्र के माध्यम से जल पहुँचाया जाता है। सरोवर से लघु जल वितरिकायें निकलती हैं जिनसे होकर जल उपवन की क्यारियों और वृक्षों तक पहुँचता है।

उपवन की ऐसी जल व्यवस्था को देखकर प्रतनु के आश्चर्य का पार न था। सैंधव प्रदेश के पुर नदी-तटों पर स्थित होने से वहाँ इस तरह के कूपों की आवश्यकता नहीं होती। न ही यव, धान्य, और कर्पास आदि के खेतों में अलग से जल पहुँचाने की आवश्यकता होती है। खेतों की जल सम्बन्धी आवश्यकता का कार्य केवल वरुण देव की कृपा पर छोड़ दिया गया है जो अपने मेघ-रथों में बैठकर आते हैं और खेतों में जल बरसाते हैं।

इसी वरुण को लेकर कितने युद्ध हो चुके हैं असुरों और देवों में। जब असुर वृत्र वरुण को बंधक बनाने में सक्षम हो गया तब देवों के बलशाली नायक इंद्र ने वृत्र का ही वध कर दिया। तब से तो दोनों संस्कृतियों के बीच की शत्रुता स्थायी हो गयी। महाप्लावन के पश्चात् देवलोक नष्ट हो गया किंतु वह शत्रुता आर्यों और असुरों के मध्य स्थानांतरित हो गयी। यहाँ तक कि उसका प्रसार अन्य सभ्यताओं तक भी हो गया। आज आर्य-जन भी सैंधवों से इस लिये वैमनस्य रखते हैं कि सैंधव देवों की भांति अग्नि को न पूजकर असुरों की भांति वरुण को पूजते हैं।

  – ‘एक मायावी दृश्य देखोगे ?’ हिन्तालिका ने प्रतनु के विचारों का प्रवाह भंग किया।

  – ‘मायावी दृश्य ?

  – ‘हाँ मायावी दृश्य। देखो उधर देखो।’ हिन्तालिका ने प्रतनु से ईशान कोण में देखने का संकेत किया।

आश्चर्य से स्तंभित और निर्वाक् होकर रह गया प्रतनु। उसे अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ। कुछ क्षण पहले जिस सरोवर में उसने नीलमणि सदृश अतुल जलराशि को लहराते देखा था। वह पूरी तरह रिक्त था और कुछ भीमकाय नाग पाताल फोड़कर सरोवर के पैंदे में से प्रकट हो रहे थे। उनके हाथों में भांति-भांति के अस्त्र-शस्त्र थे।

  – ‘कौन लोग हैं ये ? कहाँ से चले आ रहे हैं ? विचलित हो उठा प्रतनु।’

  – ‘ये नाग प्रहरी हैं, हमारे अनुचर।’

  – ‘क्या ये सरोवर के जल में रहते हैं ?’

  – ‘सरोवर के जल में नहीं। सरोवर के नीचे बने विवर में। इन्हें आपात्काल के लिये हर क्षण सन्नद्ध रखा जाता है ताकि किसी शत्रु का आक्रमण होने पर इनकी सेवायें तत्काल ली जा सकंे।’

  – ‘क्या कोई आपात् काल उपस्थित हो गया है ?’

  – ‘नहीं कोई आपात्काल नहीं, इन्हें तो मैंने तुम्हारे मनोरंजन के लिये उपस्थित किया है।’

  – ‘तुम तो मेरे साथ वार्तालाप में संलग्न हो। फिर तुमने कैसे इन्हें यहाँ उपस्थित होने का आदेश दिया हिन्तालिका ?’

  – ‘इन्हें सांकेतिक आदेश दिया जाता है। इस चक्र पर बंधी गोपनीय रज्जु के माध्यम से।’ हिन्तालिका ने चकक्राधार पर बंधी एक क्षीण किंतु मजबूत रज्जु को हिलाकर दिखाते हुए कहा- ‘जब इस रज्जु को हिलाया जाता है तब सरोवर के नीचे बने गोपनीय विवर में सांकेतिक घण्टिकायें स्वतः ही बज उठती हैं। जिन्हें सुनकर नाग प्रहरी विवर में बने चक्र को घुमाते हैं जिससे सरोवर का समस्त जल तुरंत नालिकाओं में प्रवाहित हो जाता है और सरोवर का तल एक तरफ हट जाता है। कुछ ही क्षणों में नाग प्रहरी प्रकट हो जाते हैं। पुर के भीतर अचानक घुस आये शत्रु को ये नाग प्रहरी सरलता से अपने अधीन कर लेते हैं।’

  – ‘तुमने मुझे इस गोपनीय व्यवस्था का भेद दिया है। यदि मैं ही तुम्हारा शत्रु होऊं तो तुम्हारी यह व्यवस्था निरर्थक सिद्ध हो जायेगी।’

  – ‘हमारे शत्रु इतने सुकोमल नहीं हैं। वे अत्यंत कठोर दृढ़ और बलशाली हैं। यही कारण है कि हमें अपने शत्रुओं की पहचान है।’

  – ‘कौन हैं तुम्हारे शत्रु ?’

  – ‘गरूड़! इसी पर्वतीय क्षेत्र में उनके बहुत से पुर हैं। शताब्दियों से नागों और गरूड़ों में वैर रहा है।  वे ही अवसर पाकर हम पर आक्रमण करते रहते हैं। उन्हीं से बचने के लिये हमने इस मायावी पुर की व्यवस्था की है।’

  – ‘क्यों ? क्या नाग प्रजा सम्मुख युद्ध में गरुड़ों का सामना नहीं कर सकती ?’

  – ‘अवश्य कर सकती है किंतु हम शांति चाहते हैं। युद्ध को व्यर्थ, हेय और अनिष्टकारक समझते हैं।’

  – ‘युद्ध को व्यर्थ, हेय और अनिष्टकारक समझना तो शत्रु को प्रबल बनाने जैसा है।’ असमंजस में पड़ गया प्रतनु। कहने को तो उसने कह दिया किंतु ठीक यही चिंतन तो सैंधववासियों का भी है। वे भी तो युद्ध को सर्वथा त्याज्य समझते हैं।

  – ‘तुम्हारा कथन सही है किंतु हमारा मानना है कि किसी भी उपाय से यदि युद्ध से बचा जा सकता है तो उससे बचना चाहिये।’

  – ‘यदि गरुड़ तुम्हें अधीन बनाना चाहें तब भी क्या नाग-प्रजा युद्ध से बचने के लिये उनकी अधीनता स्वीकार कर लेगी ?’

  – ‘नहीं! सदा से स्वतंत्र रहे नाग किसी के आधीन होकर नहीं रह सकते। ऐसी स्थिति में हम युद्ध करना और रणक्षेत्र में जूझ मरना अधिक श्रेयस्कर समझते हैं। तुम नहीं जानते पथिक! गरुड़ों से होने वाले युद्धों में शताब्दियों से कितने नागों ने अपने प्राण गंवाये हैं।’

विचित्र था नागों का यह चिंतन किंतु प्रतनु को अच्छा लग रहा था। सैंधव भी युद्धों को निरर्थक समझते हैं, युद्धों से बचना चाहते हैं किंतु कितना अंतर है दोनों में! सैंधव सम्मुख युद्ध से बचने के लिये शत्रु की प्रतीकात्मक अधीनता स्वीकार कर लेते हैं। शत्रु का प्रतिरोध नहीं करते। तभी तो सैंधवों ने अस्त्र-शस्त्र नहीं बनाये। संभवतः यही कारण है कि असुर सैंधवों को अपना शत्रु नहीं मानते तथा आक्रमण नहीं करते किंतु यह भी तो हो सकता है कि सैंधवों ने असुरों की अधिकांश बातों को स्वीकार कर लिया है इसलिये वे मित्रवत् आचरण करते हैं। यह भी संभव है कि असुर आर्यों को प्रबल शत्रु जानकर उनमें ही इतने उलझे हुए रहते हैं कि वे बलहीन सैंधवों की ओर देखने की आवश्यकता नहीं समझते। फिर भी असुर जब चाहे सैंधवों के पुरों में घुस ही आते हैं तथा मांस एवं मद्य पाये बिना पुनः नहीं लौटते।

  – ‘रुक क्यों गये पथिक ?’ हिन्तालिका ने प्रतनु के विचारों का प्रवाह भंग किया।

  – ‘क्या तुम मुझे सदैव पथिक कह कर ही सम्बोधित करोगी।’

  – ‘तुम ही बताओ क्या कह कर सम्बोधित करूं ?’

  – ‘प्रतनु कह सकती हो तुम मुझे।’

  – ‘प्रतनु!’ दोहराया हिन्तालिका ने।

  – ‘ हाँ प्रतनु।’

  – ‘प्रतनु का अर्थ क्या होता है ?’

  – ‘क्या हिन्तालिका का कोई अर्थ होता है ?’ प्रतनु ने उलट कर प्रश्न किया।

  – ‘इस पर्वतीय प्रदेश में ताड़ सदृश एक क्षीणकाय वृक्ष होता है जिसे हिन्ताल कहते हैं, मैं बचपन में बहुत क्षीणकाय थी इसलिये मेरा नाम हिन्तालिका रखा रखा गया। अब बताओ प्रतनु का क्या अर्थ होता है?’

आश्चर्य में पड़ गया प्रतनु। सैंधवों और नागों की दो नितांत भिन्न और असंपृक्त संस्कृतियाँ होते हुए भी नाम रखने के पीछे का चिंतन बिल्कुल एक जैसा था। जहाँ हिन्तालिका का अर्थ भी क्षीणकाय था वहीं प्रतनु का भी तो यही अर्थ था। प्रतनु हिन्तालिका को कुछ उत्तर देता इससे पहले ही निर्ऋति ने आकर बाधा दी- ‘चलिये पथिक महाशय, रानी मृगमंदा ने आपको स्मरण किया है।’


[1] बावड़ी।

[2] तेल

[3] बत्ती

[4] एक बड़ा सदाबहर वृक्ष, जायफल

[5] रीठे का पेड़

[6] चम्पा

[7] मौलसिरी

[8] बेला

[9] इंद्रयव, कुरैया का वृक्ष

[10] जूही के समान श्वेत पुष्पों वाला पौधा।

[11] निर्गुण्डी।

[12] श्वेत कनेर के समान पुष्पों वाली झाड़ी

[13] पूर्व और दक्षिण दिशाओं के मध्य स्थित कोण

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