सैयद बंधु फर्रुखसीयर के समय से ही लाल किले में बादशाहों का कत्ल करते आ रहे थे और अब तक कई बादशाहों को कीड़े-मकोड़ों की तरह मार चुके थे। इसलिए नए बादशाह को लगा कि जब तक सैयद बंधुओं की हत्या नहीं की जाएगी, बादशाह का जीवन सुरक्षित नहीं है।
जब मुहम्मदशाह रंगीला भारत का बादशाह बन गया तब सैयद बंधुओं ने मालवा की तरफ हो रहा विद्रोह कुचलने के लिए चिनकुलीच खाँ को मालवा का सूबेदार बनाया तथा उसे मालवा जाने का आदेश दिया।
चिनकुलीच खाँ ने सैयद बंधुओं के आदेश से मालवा की ओर प्रस्थान किया किंतु मार्ग में उसे बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला की माँ कुदसिया बेगम का पत्र मिला कि वह सैयद बंधुओं की हत्या का प्रबंध करे। इसलिए चिनकुलीच खाँ ने मालवा पहुंचते ही नई सेना की भर्ती आरम्भ कर दी तथा असीरगढ़ दुर्ग के किलेदार को रिश्वत देकर दुर्ग पर पर अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद चिनकुलीच खाँ ने बुरहानपुर के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।
जब सैयद बंधुओं को चिनकुलीच खाँ की कार्यवाहियों के बारे में ज्ञात हुआ तो सैयदों ने दिलावर खाँ के नेतृत्व में दिल्ली से एक सेना चिनकुलीच खाँ के विरुद्ध भेजी। कोटा नरेश भीमसिंह को भी चिनकुलीच खाँ पर आक्रमण करने के निर्देश दिए। महाराव भीमसिंह को सैयदों की ओर से आश्वासन दिया गया कि इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद महाराव को सात हजारी मनसब दिया जाएगा। इसी तरह नरवर के राजा गजसिंह को भी महाराव भीमसिंह के साथ युद्ध में जाने के आदेश दिए गए।
सैयदों ने दोस्त मुहम्मद खाँ रूहेला को भी साढ़े तीन हजार घुड़सवारों के साथ चिनकुलीच खाँ पर चढ़ाई करने के लिए रिवाना कर दिया। कोटा नरेश भीमसिंह तेरह हजार घुड़सवारों के साथ चिनकुलीच खाँ के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए रवाना हो गया। जब उत्तर भारत में स्थित मुगलों की सेनाएं मालवा की तरफ रवाना हुईं तो चिनकुलीच खाँ उज्जैन से कुछ दूरी पर स्थित पन्धार नामक स्थान पर मोर्चा बांधकर बैठ गया।
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सैयद बंधु किसी भी कीमत पर चिनकुलीच खाँ को कुचल देना चाहते थे ताकि बादशाह मुहम्मद शाह को अपने नियंत्रण में लेकर उसे दण्डित किया जा सके। इसलिए सैयदों ने दक्षिण भारत के नायब सूबेदार आलम अली खाँ को भी चिनकुलीच खाँ पर अभियान करने के निर्देश भेज दिए।
सैयदों का अनुमान था कि चिनकुलीच खाँ दोनों तरफ से आने वाली मुगल सेनाओं के बीच में पिस जाएगा किंतु चिनकुलीच खाँ की तैयारी पूरी थी। बादशाह की माता का समर्थन मिल जाने से उसके पास नैतिक शक्ति भी थी और वह पूरे उत्साह में था।
19 जून 1720 को पन्धार में दोनों पक्षों के बीच भयानक युद्ध हुआ। सैयदों की सेना का मुख्य सेनापति दिलावर खाँ रणक्षेत्र में ही छाती में गोली लग जाने से मारा गया। कोटा का राजा भीमसिंह इस युद्ध में हाथी पर बैठकर लड़ रहा था। वह भी थोड़ी ही देर में तोप का गोला लग जाने से मारा गया। राजा गजसिंह भी इस युद्ध में हाथी पर बैठकर लड़ रहा था। जब उसने देखा कि सैयदों का प्रधान सेनापति अपने सैयद सिपाहियों के साथ बुरी तरह काट डाला गया है तथा महाराव भीमसिंह भी वीरगति को प्राप्त हो गया है तो राजा गजसिंह हाथी से उतरकर घोड़े पर बैठ गया। अंत में वह चिनकुलीच खाँ की सेना के बहुत से सैनिकों को मारकर स्वयं भी रणखेत रहा।
इस प्रकार पन्धार के युद्ध में सैयदों की समस्त सेनाएं बुरी तरह परास्त हो गईं। दक्षिण का नायब सूबेदार हुसैन अली खाँ भी इस युद्ध में मारा गया। वह हुसैन अली खाँ का दत्तक पुत्र था। उसकी मृत्यु से सैयदों का दक्षिण में मुख्य स्तम्भ टूट गया। जब सैयद हुसैन खाँ की सेनाएं चिनकुलीच खाँ द्वारा परास्त कर दी गईं तो दिल्ली में बैठै एतमादुद्दौला, सआदत अली ख़ाँ और हैदर ख़ाँ ने सैयद बंधुओं की हत्या का षड्यंत्र रचा।
इस षड्यंत्र में बादशाह मुहम्मद शाह तथा बादशाह की माता भी शामिल हो गई। हैदर ख़ाँ ने हुसैन अली को मारने का बीड़ा उठाया। इसके बाद मुहम्मदशाह ने फतेहपुर सीकरी में दरबार का आयोजन किया। 9 अक्टूबर 1720 को जब हुसैन अली खाँ दरबार में एक याचिका पढ़ रहा था, उसी समय हैदर ख़ाँ ने हुसैन अली की छुरा मारकर हत्या कर दी। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि जब हुसैन अली खाँ बादशाह से मिलकर वापस जा रहा था, तब एक मुगल ने हुसैन अली खाँ की बगल में खन्जर घुसा दिया तथा दूसरे मुगल ने हुसैन अली खाँ के पैर खींचकर उसे पालकी से नीचे गिरा दिया और छाती पर चढ़कर उसका सिर काट डाला।
इस हत्या पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार इर्विन ने ‘लेटर मुगल्स’ में लिखा है कि ‘भारतीय कर्बला में दूसरे याज़ीद ने दूसरे हुसैन को शहीद कर दिया।’ इसके पश्चात् बादशाह मुहम्मदशाह ने स्वयं को समस्त सेनाओं का मुख्य सेनापति घोषित कर दिया।
सैयद हुसैन अली खाँ का सिर काटकर उसके छोटे भाई अब्दुल्ला खाँ को भेज दिया गया तथा अब्दुल्ला खाँ को निर्देश दिए गए कि वह तुरंत बादशाह की सेवा में हाजिर हो किंतु अब्दुल्ला खाँ बादशाह के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ। अब्दुल्ला ख़ाँ ने अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए एक विशाल सेना एकत्रित की तथा मुहम्मद शाह के स्थान पर रफ़ी-उस-शान के पुत्र मुहम्मद इब्राहीम को बादशाह घोषित कर दिया।
इस पर बादशाह मुहम्मदशाह ने मुहम्मद अमीन खाँ तूरानी को आठ हजार का मनसब प्रदान करके उसे प्रधानमंत्री सैयद हुसैन अली खाँ बारहा को कुचलने के लिए भेजा। उसके साथ मीर मुहम्मद अमीन ईरानी तथा मुहम्मद हैदर बेग आदि को भी भेजा गया।
13 नवम्बर 1720 को आगरा के निकट हसनपुर में बादशाह की सेना तथा अब्दुल्ला ख़ाँ के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें अब्दुल्ला खाँ हार गया। उसे बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया गया। 2 वर्ष के बाद 11 अक्टूबर 1722 को विष देकर मार दिया गया। इस प्रकार दोनों सैयद बंधुओं की हत्या हो गई तथा लाल किले को दोनों सैयदों से छुटकारा मिल गया।
जिस शहजादे इब्राहीम मुहम्मद को अब्दुल्ला खाँ ने बादशाह घोषित किया था, उसे भी कैद कर लिया गया तथा उसकी 40 रुपए प्रतिदिन की पेंशन बांध दी गई। मुहम्मद शाह रंगीला ने बादशाह बनने के तीन साल के भीतर ही सैयद बंधुओं के क्रूर शिकंजे से छुटकारा पा लिया। सैयद बंधुओं की हत्या किए बिना उनसे छुटकारा पाना संभव नहीं था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता