सैयद बन्धु फर्रूखसियर को अनुभवहीन जानकर उसे अपने हाथों की कठपुतली बनाकर रखना चाहते थे किंतु जब फर्रुखसीयर ने सैयद बंधुओं के इशारों पर नाचने से मना कर दिया तो उन दोनों दुष्टों ने बादशाह फर्रुखसीयर की हत्या करने का षड़यंत्र रचा।
फर्रूखसियर सैयद बन्धुओं के सहयोग से बादशाह बना था। इसलिये उसने सैयद अब्दुल्ला को अपना वजीर तथा सैयद हुसैन अली को बख्शी नियुक्त किया था। इन दोनों भाईयों ने बादशाह को अपने अहसानों के बदले दबा हुआ जानकर सत्ता के सारे सूत्र अपने हाथों में ले लिए।
सैयद बन्धु फर्रूखसियर को अनुभवहीन जानकर उसे अपने हाथों की कठपुतली बनाकर रखना चाहते थे। जबकि फर्रूखसियर ने सत्तासीन होते ही सैयद बन्धुओं के प्रभाव से बाहर निकलने के प्रयास आरम्भ कर दिए। बादशाह ने मीर जुमला, निजाम-उल-मुल्क तथा इनायतउल्ला कश्मीरी का सहयोग प्राप्त किया किंतु ये लोग सैयद बंधुओं का कुछ नहीं बिगाड़ सके।
अतः फर्रूखसियर ने सैयद बंधुओं से छुटकारा पाने के लिए एक योजना बनाई। उसने ई.1719 में बड़े सैयद अर्थात् हुसैन अली खाँ को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेज दिया ताकि उसे दक्षिण के नायब सूबेदार दाऊद खाँ के हाथों मरवाया जा सके।
इसके साथ ही फर्रूखसियर ने दिल्ली में रह रहे छोटे सैयद अर्थात् अब्दुल्ला खाँ को मरवाने का षड्यन्त्र किया। किसी तरह अब्दुल्ला खाँ को इस षड़यंत्र की जानकारी हो गई और उसने अपने बड़े भाई सैयद हुसैन अली को संदेश भिजवाया कि वह दाऊद खाँ से सतर्क रहे तथा मराठों से सहायता लेकर दिल्ली पर आक्रमण करे।
यह संदेश पाकर सैयद हुसैन ने दाऊद खाँ को मार डाला तथा मराठों से संधि करके उन्हें अपने पक्ष में कर लिया। इसके बाद सैयद हुसैन अली 15,000 मराठा सैनिकों तथा स्वयं अपनी सेना लेकर दिल्ली आ धमका।
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हालांकि महाराजा अजीतसिंह की पुत्री इंद्रकुंवरि का विवाह फर्रूखसियर से हुआ था तथापि जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने धूर्त फर्रूखसियर का साथ नहीं दिया। महाराजा अजीतसिंह आरम्भ से ही सैयद बंधुओं के साथ था। इसी प्रकार जाट नेता चूड़ामन को फर्रूखसियर ने अपना मनसबदार तथा जटवाड़ा क्षेत्र की राहदारी का अधिकार दिया था किंतु उसने भी संकट की इस घड़ी में धूर्त फर्रूखसियर का साथ न देकर सैयद बंधुओं का साथ दिया।
इस समय आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह फर्रूखसियर के पक्ष में था। फर्रूखसियर ने जयसिंह के माध्यम से सैयदों से संधि करने का प्रयास किया किंतु सैयदों ने किसी भी तरह की बात करने से मना कर दिया। इस पर जयसिंह ने बादशाह से कहा कि मेरे पास बीस हजार राजपूत सैनिक हैं, यदि आप चाहें तो मैं अभी सैयदों पर आक्रमण करके उन्हें समाप्त करने का अंतिम प्रयास कर सकता हूँ तथा अपनी अंतिम सांस रहते आपके लिए लड़ने के लिए तैयार हूँ किंतु बादशाह इसके लिए तैयार नहीं हुआ।
महाराजा सवाई जयसिंह की इच्छा थी कि बादशाह फर्रूखसियर तथा उसके सहायक कायरता दिखाने की बजाए लड़ते हुए मरें तो ज्यादा उचित है। जब सैयद बंधुओं को ज्ञात हुआ कि महाराजा जयसिंह बादशाह की रक्षा करने के लिए लड़ने-मरने के लिए तैयार है तो सैयदों ने बादशाह को संदेश भिजवाया कि यदि आप हमसे सुलह करना चाहते हैं तो महाराजा जयसिंह तथा बूंदी के राव बुद्धसिंह को दिल्ली से विदा कर दें।
भयभीत फर्रूखसियर ने अपने हाथों से पत्र लिखकर महाराजा जयसिंह और राव बुद्धसिंह को आदेश भिजवाए के वे इसी समय दिल्ली छोड़कर अपने राज्यों में चले जाएं। इस पर इन दोनों राजाओं ने दिल्ली से प्रस्थान कर दिया। अब सैयदों को किसी तरह का भय नहीं रहा। उन्होंने फर्रुखसीयर की हत्या करने का निश्चय किया।
27 फरवरी 1719 को कुतुबुलमुल्क अर्थात् सैयद हुसैन अली खाँ ने लाल किले में प्रवेश किया। कोटा नरेश भीमसिंह हाड़ा, जोधपुर नरेश अजीतसिंह राठौड़ तथा जाटों का नेता चूड़ामन भी उसके साथ किले में गए।
उन्होंने लाल किले में नियुक्त शाही गोलंदाजों और पहरेदारों को हटाकर अपने विश्वसनीय सिपाही तैनात कर दिए। इस प्रकार लाल किले पर मुसलमानों एवं राजपूतों ने कब्जा कर लिया और दिल्ली शहर में मराठों को तैनात किया गया। हर गली एवं हर मोड़ पर मराठा घुड़सवार दिखाई देने लगे। मराठों को दिल्ली की गलियों में देखकर दिल्ली की जनता सहम गई। इससे पहले दिल्ली में मराठा सैनिक कभी नहीं देखे गए थे।
बादशाह के गुप्तचर उसे लाल किले तथा दिल्ली के समाचार पहुंचा रहे थे। मराठों के आगमन की सूचना से फर्रूखसियर समझ गया कि अब मामला उसके हाथों से पूरी तरह निकल गया है। शाम के समय फर्रूखसियर ने सैयद बंधुओं को संदेश भिजवाया कि वह सैयदों की समस्त शर्तें स्वीकार करने को तैयार है किंतु सैयदों ने बादशाह के संदेश का कोई उत्तर नहीं दिया। वे तो फर्रुखसीयर की हत्या करने का निश्चय कर चुके थे।
इस पर फर्रूखसियर ने जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह को लिखा कि यमुना की तरफ महल की पूर्वी बाजू पर सैयदों का पहरा नहीं है। यदि आप अपने कुछ आदमी वहाँ बैठा दें तो मैं उधर की तरफ से लाल किले से बाहर निकल जाउंगा।
फर्रूखसियर सोचता था कि महाराजा अजीतसिंह उसका श्वसुर है, इसलिए वह फर्रुखसीयर की हत्या नहीं करेगा, उल्टे उसकी सहायता करेगा किंतु वह यह नहीं सोच पाता था कि महाराजा अजीसिंह ने अपनी इच्छा से अपनी पुत्री बादशाह से नहीं ब्याही थी, इसलिए अजीतसिंह सहायता क्यों करेगा!
बादशाह ने महाराजा को विवश करके उसकी पुत्री से विवाह किया था। इसलिए महाराजा ने फर्रूखसियर की जरा भी परवाह नहीं की तथा उसे उत्तर भिजवाया कि अब बहुत देर हो चुकी है, मैं क्या कर सकता हूँ? इस पत्र-व्यवहार की खबर सैयदों तक भी पहुंच गई। इसलिए उन्होंने लाल किले की पूर्वी दिशा में भी अपना पहरा बैठा दिया।
सैयद बंधुओं ने बादशाह को अपने हरम से बाहर आने के लिए कहलवाया किंतु बादशाह हरम से बाहर नहीं आया। इस पर सैयदों ने राजा रत्नचंद्र, राजा बख्तमल, नजमुद्दीन अली खाँ और दिलदार खाँ के नेतृत्व में 400 पठानों को अंतःपुर में घुसने और फर्रूखसियर को पकड़कर लाने के आदेश दिए।
जब ये लोग बादशाह के हरमखाने में घुसे तो सशस्त्र तुर्की स्त्रियों ने इन पर हमला कर दिया। देखते ही देखते दोनों ओर से तलवारें चलने लगीं और समस्त सशस्त्र तुर्की स्त्रियां मार दी गईं।
फर्रूखसियर एक छोटे से कमरे में छिपा हुआ था। जब उसका दरवाजा तोड़ा गया तो वह अपने जीवन से निराश होकर तलवार हाथ में लेकर बाहर आया और पठान सैनिकों पर वार करने लगा। जब बादशाह पठानों के वार से घायल हो गया तो बादशाह की बेगमों और बेटियों ने उसे घेर लिया और वे शत्रु सैनिकों के पैरों में गिर कर बादशाह के प्राणों की भीख मांगने लगीं।
सिपाहियों ने इन औरतों को एक ओर धकेल दिया तथा बादशाह को घसीटकर उसके हरम से बाहर ले आए। फर्रूखसियर को हरम से नंगे सिर तथा नंगे पैरों घसीटते हुए, गालियां देते हुए एवं पीटते हुए निकाला गया तथा अन्धा करके कैद में डाल दिया गया।
हरम पर हमला करने गए पठानों ने हरमखाने की बेगमों के सोने-चांदी तथा हीरे मोतियों के आभूषण उतार लिए। उनके सोने, चांदी, ताम्बे और पीतल के बरतन लूट लिए। बादशाह की रखैलों एवं दासियों को पठान सैनिक सामान की तरह उठाकर ले गए।
महाराजा अजीतसिंह के कहने पर सैयद बंधुओं ने महाराजा की पुत्री इंद्रकुंवरि महाराजा को सौंप दी। महाराजा अजीतसिंह ने पिछले तीन दिन से लाल किले के दीवाने आम में अपना आवास बना रखा था। वह वहीं पर घण्टों और शंख-ध्वनियों के बीच हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा कर रहा था।
राजकुमारी इंद्रकुंवरि ने अपने पिता की सुरक्षा में आकर, मुसलमानी कपड़े त्याग दिए तथा अपनी शुद्धि करवाकर हिन्दू पोशाक पहन ली। वह लगभग एक करोड़ रुपए की सम्पत्ति लेकर अपने पिता के साथ जोधपुर चली गई। इससे कट्टर मुसलानों में बड़ा असंतोष हुआ किंतु सैयदों को इस समय महाराजा के सहयोग की अत्यंत आवश्यकता थी। इसलिए वे चुप रहे।
फर्रूखसियर को कोठरी में बंद कर दिए जाने के बाद शहजादे रफीउद्दरजात को बादशाह घोषित कर दिया गया। कुछ दिनों बाद गला घोंटकर फर्रुखसीयर की हत्या कर दी गई। ठीक वैसे ही, जैसे कुछ साल पहले ई.1713 में फर्रूखसियर ने अपने ताऊ जहांदारशाह को इसी लाल किले में इसी प्रकार मार डाला था।
लाल किले ने मुगल शहजादों की कई बार ऐसी दुर्गति होती हुई देखी थी किंतु अब लाल किला मुगल बादशाहों की भी वैसी ही दुर्गति होते हुए देख रहा था!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता