मुहम्मदशाह रंगीला मुगलिया इतिहास की कुछ ऐसी विस्मयकारी कथाओं का नायक बन गया है जो परीकथाओं जैसी प्रतीत होती हैं तथा मुगलों के नैतिक पतन की कहानी कहती हैं।
जब ईस्वी 1719 में बादशाह शाहजहाँ (द्वितीय) अर्थात् रफीउद्दौला मर गया तो सैयद बंधुओं ने नए बादशाह की तलाश आरम्भ की। इस बार उनकी दृष्टि शहजादे रौशन अख्तर पर पड़ी। वह मरहूम बादशाह बहादुरशाह (मुअज्जमशाह, शाहआलम प्रथम) के चौथे पुत्र जहानशाह मिर्जा का बेटा था।
रौशन अख्तर का जन्म 7 अगस्त 1702 को अफगानिस्तान के गजना नामक स्थान पर कुदसिया बेगम के पेट से हुआ था। उस समय रौशन अख्तर का पिता जहानशाह अपने पिता मुअज्जमशाह के साथ अफगानिस्तान के मोर्चे पर नियुक्त था।
सौभाग्य एवं दुर्भाग्य ने रौशन अख्तर के साथ अनोखा खेल खेला था। जब ईस्वी 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हुई तो रौशन अख्तर के बाबा मुअज्जमशाह ने जजाउ के युद्ध में अपने भाई आजमशाह को मारकर मुगलों के तख्त पर अधिकार कर लिया था किंतु जब ईस्वी 1712 में मुअज्जमशाह अर्थात् बहादुरशाह की मृत्यु हुई तो उसके बाद हुए उत्तराधिकार के युद्ध में रौशन अख्तर का पिता जहानशाह मिर्जा मार डाला गया।
उस समय रौशन अख्तर 12 साल का बालक था। उसके ताऊ जहांदारशाह ने बालक रौशन अख्तर को मारने का निर्णय लिया किंतु रौशन अख्तर इतना सुंदर एवं मासूम दिखता था तथा इतना हाजिर-जवाब था कि जहांदारशाह ने अपना निर्णय बदल दिया और रौशन अख्तर तथा उसकी माता को बंदी बना लिया।
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रौशन अख्तर की माता कुदसिया बेगम ने रौशन अख्तर को अच्छी शिक्षा दिलवाई थी। संभवतः इसलिए भी रौशन अख्तर ने अपने ताऊ जहांदारशाह के मन पर अच्छा प्रभाव डाला था। जब ईस्वी 1719 में फर्रूखसियर को गद्दी से उतारा गया तब रौशन अख्तर तथा उसकी माता कुदसिया बेगम को जेल से मुक्त कर दिया गया।
जब लगभग 8 माह की अवधि में रफीउद्दरजात और रफीउद्दौला नामक दो बादशाह मर गए अथवा मार डाले गए तब रौशन अख्तर का फिर से भाग्योदय हो गया। 29 सितम्बर 1719 को उसे ‘अबु अल फतेह नासिरूद्दीन रौशन अख्तर मुहम्मदशाह’ के नाम से बादशाह बनाया गया। भारत के इतिहास में उसे मुहम्मदशाह रंगीला के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
दिल्ली के लाल किले में बड़ी धूमधाम से मुहम्मदशाह रंगीला की ताजपोशी की गई। उसकी माता को 15 हजार रुपए मासिक पेंशन स्वीकृत की गई। इस प्रकार बाल्यकाल में ही जीवन के कई उतार-चढ़ाव देख चुका रौशन अख्तर ईस्वी 1719 में केवल 17 साल की आयु में मुहम्मदशाह रंगीला के नाम से मुगलों के तख्त पर बैठा। उसके तख्त पर बैठते ही सैयद बंधुओं ने अपना पुराना खेल आरम्भ कर दिया। वे बादशाह के हरम से लेकर उसके दरबार तक कड़ा पहरा रखते थे और बादशाह की ओर से लिए जाने वाले समस्त निर्णय स्वयं लेते थे।
इधर मुहम्मदशाह रंगीला भी अत्यंत महत्वाकांक्षी युवक था। उसके लिए यह संभव नहीं था कि बादशाह जैसे सर्वोच्च पद पर बैठकर वह अपने ही अमीरों का नियंत्रण स्वीकार करे। अतः उसने तख्त पर बैठते ही सबसे पहला काम उन तरीकों को तलाशने का किया जिनसे सैयद बंधुओं को मारा जा सके। इस समय सैयद हुसैन अली खाँ सल्तनत के मुख्य सेनापति के पद पर कार्य कर रहा था और उसका छोटा भाई अब्दुल्ला खाँ सल्तनत का प्रधानमंत्री था।
मुहम्मदशाह के सौभाग्य से इस समय तूरानियों का गुट भी बहुत प्रबल था जो कि सैयद बंधुओं द्वारा अब तक किए गए कार्यों से बहुत नाराज था।
इस समय तूरानी गुट में कमरूद्दीन खाँ तथा जैनुद्दीन अहमद खाँ आदि अमीरों का बोलबाला था। इन लोगों ने मुहम्मदशाह रंगीला को तो बादशाह स्वीकार कर लिया किंतु सैयद बंधुओं के प्रबल विरोधी हो गए। मुहम्मदशाह भी सैयदों के प्रति समर्पित न रहकर सैयदों के विरोधी अमीरों अर्थात् तूरानी गुट के साथ हो गया।
सैयदों को सबसे अधिक खतरा चिनकुलीच खाँ से था। इसलिए उन्होंने चिनकुलीच खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त करके दिल्ली से दूर भिजवा दिया। चिनकुलीच खाँ का वास्तविक नाम कमरूद्दीन खाँ था। उसे औरंगजेब ने चिनकुलीच खान की, फर्रूखसियर ने निजामुलमुल्क फतेहजंग की तथा मुहम्मदशाह ने आसफजाह की उपाधियां दी थीं। इसलिए इतिहास की पुस्तकों में चिनकुलीच खां के अलग-अलग नाम मिलते हैं।
सैयद बंधुओं ने चिनकुलीच खाँ को फर्रूखसियर के समय से ही तंग करना आरम्भ कर दिया था। फर्रूखसियर के काल में सैयद बंधुओं ने चिनकुलीच खाँ को दक्षिण में सूबेदार बनाकर भेजा था। चिनकुलीच खाँ छः माह ही दक्षिण में सूबेदारी कर सका था कि सैयद बंधुओं ने उसका स्थानांतरण मुरादाबाद कर दिया तथा उसके स्थान पर सैयद हुसैन अली को नियत कर दिया।
चिनकुलीच खाँ दक्षिण से चल पड़ा तथा बादशाह फर्रूखसियर से अनुमति प्राप्त करके कुछ दिन के लिए दिल्ली आ गया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि फर्रूखसियर ने ही चिनकुलीच खाँ को दिल्ली आने के लिए लिखा था ताकि सैयद बंधुओं का दमन किया जा सके।
जब चिनकुलीच खाँ दिल्ली में ही था कि अब्दुल्ला खाँ ने चिनकुलीच खाँ को मुरादाबाद की जगह बिहार का सूबेदार बना दिया तथा उसे पटना जाने के आदेश दिए। अभी चिनकुलीच खाँ दिल्ली से रवाना भी नहीं हुआ था कि सैयद बंधुओं ने बादशाह फर्रूखसियर की हत्या कर दी। इससे चिनकुलीच खाँ सैयदों पर नाराज हुआ तथा पटना जाने की तैयारी करने लगा।
सैयद बंधुओं ने उसे बिहार भेजना ठीक नहीं समझा अपितु उसे मालवा की सूबेदारी सौंप दी गई। इस बार चिनकुलीच खाँ ने अब्दुल्ला खाँ को लिखा कि वह एक शर्त पर मालवा जाएगा कि उसे वहाँ से हटाया नहीं जाए। अब्दुल्ला खाँ ने चिनकुलीच खाँ को आश्वस्त किया कि उसे मालवा से जल्दी नहीं हटाया जाएगा। वह मालवा पहुंचकर विद्रोहियों पर नियंत्रण स्थापित करे।
इस पर चिनकुलीच खाँ ने सैयद बंधुओं के आदेश पर मालवा की ओर प्रस्थान कर दिया। जब वह मालवा के लिए जा रहा था तब मार्ग में उसे बादशाह मुहम्मद शाह की माँ कुदसिया बेगम का गुप्त पत्र मिला जिसमें लिखा था कि चिनकुलीच खाँ दुष्ट सैयदों के मंसूबों को सफल नहीं होने दे और सैयदों के विनाश का प्रबंध करे। इस पत्र को पढ़कर चिनकुलीच खाँ का उत्साह बढ़ गया। उसे अपने जीवन के लिए एक मजबूत लक्ष्य मिल गया था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता