Thursday, November 21, 2024
spot_img

लाल किले पर गोलीबारी

जिस लाल किले की सत्ता के नाम पर अंग्रेजों ने दिल्ली में अपना शासन आरम्भ किया था, अब उसी लाल किले पर गोलीबारी करने में अंग्रेजों को बिल्कुल भी संकोच नहीं हुआ। बहुत से अंग्रेजों का मानना था कि जब तक लाल किले को मिट्टी में नहीं मिलाया जाएगा, तब तक बहादुरशाह जफर से लिया जाने वाला बदला पूरा नहीं हो सकता!

दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में स्थित रिज से दिल्ली नगर पर 10 जून 1857 को गोलीबारी आरम्भ हुई। इस समय तक अंग्रेजों के पास बहुत कम तोपें थीं। घेराव करने वाली बड़ी तोपें तो थी ही नहीं। इसलिए इस गोलीबारी से दिल्ली नगर को बहुत कम नुक्सान हुआ और दिल्ली के जनसाधारण के लिए यह तोपबाजी एक तमाशा बन कर रह गई। जन साधारण को यह देखकर प्रसन्नता होती थी कि दिल्ली के परकोटे की बुर्जों पर पर लगी बागियों की बड़ी तोपों की कतार की तुलना में अंग्रेजों की तोपों की संख्या बहुत कम थी।

क्रांतिकारी सिपाहियों में बंगाल आर्मी के अनुभवी तोप अधिकारी शामिल थे इसलिए उनका निशाना अचूक था। अंग्रेज इन बागी तोपचियों से बहुत डरते थे। विलियम हॉडसन ने घेराबंदी के पहले ही दिन अनुमान लगा लिया था कि बागियों के पास जबरदस्त निशानेबाज हैं और वे सटीक निशाने लगाने में अंग्रेजों को मात देते हैं।

जब जनसाधारण ने देखा कि अंग्रेजों की तोपें अधिक नुक्सान नहीं पहुंचा सकतीं तो वे अपनी छतों पर उमड़ आए। बादशाह और शाही खानदान के लोग लाल किले की छत पर बैठ गए। सलातीन भी लाल किले की दीवारों के बुर्जों से इस गोली-बारी को देखते रहते।

यह कैसा तमाशा था! लाल किले पर गोलीबारी हो रही थी और लाल किले का बादशाह किले की छत पर बैठकर उसका आनंद ले रहा था।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

सरवरुल मुल्क ने अपनी डायरी में लिखा है- ‘उस वक्त खूब गर्मी थी और हर रात हम अपने सिरों के ऊपर से निकलते तोप के गोलों की चमक देखा करते। हम उन्हें आतिशबाजी मानते थे लेकिन अगर उनमें से कोई गोला किसी के घर पर गिर जाता जैसा कि एक महीने बाद हमारी हवेली में हुआ तो फिर यह सारा मजा खत्म हो जाता।

एक तोप के गोले ने हमारी हवेली के ऊपर की मंजिल की छत उड़ा दी और फिर बरामदे में आ गिरा जहाँ बैठे हम खाना खा रहे थे। मेरे चाचा ने जल्दी से दौड़ कर उस पर बाल्टियों से पानी डाला। लाल किले के भीतर स्थित शाही महल अंग्रेजों के लिए आसान निशाना बन गया और जल्दी ही एक अंग्रेजी तोप ऐसी जगह रख दी गई जहाँ से वह लगातार शाहजहाँ के लाल किले की लाल पत्थर की दीवारों के अंदर गोले फैंकती रहती थी।’

जहीर देहलवी ने लिखा है- ‘अंग्रेज विशेषकर सुंदर सफेद संगमरमर के शाही निवासों को निशाना बना रहे थे ……. अंग्रेजों के कब्जा किए हुए रिज से गोलीबारी होती रही और जैसे-जैसे उनका निशाना बेहतर होता गया वैसे-वैसे गोले फटने पर खूब तबाही मचती।

यदि कोई तोप का गोला किसी बहुमंजिला इमारत पर गिरता तो उसमें नीचे तक पहुंच जाता और यदि धरती पर गिरता तो वहीं पर कम से कम 10 गज अंदर घुस जाता तथा आसपास सब कुछ नष्ट कर देता। बम तो और भी खतरनाक थे। वे यदि किले के पुराने शाहजहानी घरों पर गिरते तो वे बिल्कुल ढह जाते थे। घेराबंदी के बाद के दौर में कभी-कभी रातों में ऐसा लगता था मानो धरती पर नर्क उतर आया हो। एक साथ 10 गोले फेंके जाते और वे एक के बाद एक फटते।’

लाल किले की दर्दभरी दास्तान - bharatkaitihas.com
TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

13 जून 1857 को जब रिज से तोपें छोड़ी गईं तो हिन्दू राव हाउस उनकी चपेट में आया और उसे बहुत क्षति पहुंची। बैंक ऑफ देहली का भवन भी अंग्रेजों की बमबारी में बर्बाद हो गया।

एक गोले ने यमुना किनारे बने हुए शाहबुर्ज को बहुत नुकसान पहुंचाया। दूसरा गोला लाल पर्दे के करीब आकर गिरा। इसकी वजह से अस्तबल का एक नौकर और एक एलची मारा गया। एक और गोला महल के दक्षिण में स्थित जनान खाने पर गिरा जिससे जीनत महल की एक खास दासी चमेली कुचल गई।

उसके बाद जीनत महल लाल किला छोड़ कर लालकुआं की अपनी हवेली में चली गई जिसे वह कम असुरक्षित मानती थी और शायद उन सिपाहियों की मौजूदगी से आजाद भी जो किले में हर जगह मौजूद थे। इससे वह अपने लाड़ले इकलौते पुत्र जवान बक्श और बागियों के बीच कुछ दूरी बनाने में भी कामयाब रही।

इसके कुछ समय बाद फिर से लाल किले पर गोलीबारी हुई तथा गोलों की एक बौछार में बादशाह सलामत खुद बाल-बाल बचे। ईद मुबारक शाह जिसे हाल ही में मुइनुद्दीन की जगह कोतवाल बनाया गया था, उस वक्त महल में ही मौजूद था। उसने लिखा है-

‘एक सुबह करीब आठ बजे बादशाह अपने कक्ष से बाहर आए। वहाँ 30-40 अमीर पहले से ही बैठे बादशाह का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही बादशाह सलामत अपने निजी कक्ष से बाहर निकले, तीन गोले उनके बिल्कुल सामने और पीछे आकर गिरे और फट गए लेकिन हैरत अंगेज ढंग से किसी को चोट नहीं आई।

बादशाह फौरन वापस चले गए और बाकी लोग भी जो जहाँ बैठे थे उठकर चले गए। उसी शाम को बादशाह ने क्रांतिकारी सैनिकों के बड़े अधिकारियों को बुलवाया और उनसे कहा- मेरे भाइयो! अब तुम्हारे लिए या दिल्ली के बाकी नागरिकों के लिए या खुद मेरे बैठने के लिए भी कोई स्थान सुरक्षित नहीं रह गया है।

इस लगातार होती गोलीबारी ने उसको भी खत्म कर दिया जैसा कि तुम देख रहे हो। जिस हौज पर मैं रोजाना आकर बैठता था उस पर भी गोला बारूद बरस रहा है। तुम कहते हो कि तुम यहाँ लड़ने और ईसाईयों को भगाने के लिए आए हो, क्या तुम इतना भी नहीं कर सकते कि मेरे महल पर हो रही इस गोले बारूद की बारिश को रोक दो।’

बहादुरशाह जफर के लिए इस सप्ताह में यह दूसरा बड़ा झटका था। 14 जून को उनके खास खिदमतगार ख्वाजासरा महबूब अली खाँ की अचानक मौत हो गई। वह काफी दिन से बीमार था किंतु किले में अफवाह उड़ी कि उसे जहर दिया गया है। शहर में हर तरफ मायूसी छा रही थी।

सईद मुबारक शाह का कहना था कि बागी सिपाहियों की लूटमार और अंग्रेजों की गोलाबारी के बीच दिल्ली के लोगों को चाहे वे बुरे हों या अच्छे अंग्रेजों के पक्ष में हो या विरोध में, सबको अब लग रहा था कि वह चूहों की तरह पिंजरे में कैद हैं जहाँ से भागने का कोई रास्ता नहीं है।

उर्दू के सुप्रसिद्ध कवि मिर्जा गालिब ने लिखा है-

‘उनके मित्रों की परेशानी और वजन बढ़ाने के लिए रिज से खूब गोलाबारी हो रही थी। आग बरसाने वाली बंदूकों और बिजली गिराने वाली तोपों से उठता गहरा काला धुआं आसमान पर गिरे काले बादलों की तरह है और उनकी आवाज ऐसी है जैसे ओलों की बारिश हो रही हो।

दिन भर तोप चलने की आवाज सुनाई देती है, जैसे आसमान से पत्थर गिर रहे हों। उमरा के घरों में चिराग जलाने को तेल नहीं है। वह घुप अंधेरे में बिजली चमकने का इंतजार करते हैं ताकि अपना गिलास और सुराही ढूंढ सकें और अपनी प्यास बुझा सकें। बहादुर लोग भी अपने साए से डर रहे हैं और बागी सिपाही दरवेश और बादशाह दोनों पर हुकूमत कर रहे हैं।’

हालांकि जून, जुलाई एवं अगस्त के तीन महीनों में अंग्रेजी सेना छोटी तोपों से गोले चला रही थी और वह इन तोपों की सीमा को समझती थी फिर भी उसने तोपों से गोले दागना जारी रखा। वे यह नहीं देख रहे थे कि कौनसा गोला कहाँ गिर रहा है! उनके लिए यही पर्याप्त था कि तोप का गोला दिल्ली शहर में कहीं पर गिर रहा है! लाल किले पर गोलीबारी होती रही!

14 जुलाई 1857 को अंग्रेजी सेना का तेजतर्रार युवा ब्रिगेडियर नेविली चेम्बरलेन क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा किए गए हमले में बुरी तरह घायल हो गया। इससे अंग्रेज सेना का मनोबल टूटने लगा किंतु इसी बीच लाल किले में कुछ अप्रिय घटनाएं घट गईं जिनसके अंग्रेजों को बड़ा सम्बल मिला।

बहादुरशाह जफर का पुत्र मिर्जा मुगल तथा बहादुरशाह जफर का एक पोता मिर्जा अबू बकर क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा पूरी तरह नकार दिए गए। क्रांतिकारी सैनिकों ने इन अयोग्य शहजादों के आदेश मानने से मना कर दिया। इससे क्रांतिकारी सेनाएं नेतृत्व विहीन हो गईं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source