मेजर जनरल आर्कडेल विल्सन के नेतृत्व में जॉन निकल्सन, हेनरी बर्नार्ड, थियोफिलस मेटकाफ, विलियम हॉडसन, बेयर्ड स्मिथ तथा नेविली चेम्बरलेन आदि अनुभवी अंग्रेज अधिकारी दिल्ली को जीतने के लिए जी-जान से जूझ रहे थे किंतु बड़ी तोपों के अभाव में वे दिल्ली में घुसने का मार्ग नहीं बना पा रहे थे।
अंततः सितम्बर 1857 में पंजाब से छः 24 पाउण्डर लॉंग गन तथा 8 अठारह पाण्डर लॉंग गन, 6 आठ इंच होविट्जर्स, 10 दस इंच मोर्टार्स और गोला-बारूद एवं कारतूसों से भरे 600 बक्से दिल्ली की अंग्रेज सेना के पास सफलता पूर्वक पहुँच गए। लगभग इतना ही असला अंग्रेजी सेनाओं के पास पहले से ही था। इस प्रकार अंग्रेजों के पास गोला-बारूद की कमी नहीं रही।
इन बड़ी तोपों को शक्तिशाली हाथियों द्वारा घसीट कर लाया गया था और बड़ी कठिनाई से रिज पर चढ़ाया गया था। इन तोपों का रिज तक पहुंच जाना क्रांतिकारी सैनिकों की भारी रणनीतिक विफलता थी। उन्होंने अंग्रेजी सेनाओं की रसद एवं गोला-बारूद की आपूर्ति रेखा को काटने की कोई योजना नहीं बनाई थी। 6 सितम्बर को अंग्रेजों ने रिज के दक्षिणी छोर पर 24 पाउण्डर तथा 9 पाउण्डर तोपों को स्थापित किया और दिल्ली के परकोटे को तोड़ने के लिए गोले दागने आरम्भ कर दिए।
7 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों ने मोरी बुर्ज से केवल 700 गज की दूरी पर एक भारी तोप स्थापित की। आठ सितम्बर को चार बड़ी तोपें और मिल गईं। उसी दिन कश्मीरी बुर्ज पर गोलाबारी आरम्भ की गई। ब्रिगेडियर जॉन निकल्सन की इस रणनीति से क्रांतिकारी सैनिकों के पैर उखड़ने लगे। अंग्रेज अपनी तोपों को रिज से उतार कर सिविल लाइंस में बने लुडलो कैसल तक ले आए। अब वे नगर प्राचीर से केवल 180 मीटर दूर रह गए। कहने को तो दिल्ली में क्रांतिकारियों का नायक स्वयं बादशाह था किंतु क्रांतिकारियों ने बादशाह द्वारा नियुक्त दोनों शहजादों को सेनापति के रूप में स्वीकार नहीं किया। इसलिए क्रांतिकारी सेनाओं में तालमेल का अभाव था किंतु बादशाह के सौभाग्य से उन्हीं दिनों बरेली से कम्पनी सरकार की एक सेना बागी होकर दिल्ली पहुंची।
इस सेना का नेतृत्व बख्त खाँ नामक एक तोपखाना अधिकारी कर रहा था। बादशाह ने बख्त खाँ को दिल्ली में स्थित समस्त क्रांतिकारी सेनाओं का सेनापति नियुक्त कर दिया। बख्त खाँ को इस तरह के युद्धों में भाग लेने का अच्छा अनुभव था।
मेजर जनरल आर्कडेल विल्सन ने हेनरी बरनार्ड को एक बड़ी सेना देकर दिल्ली नगर में प्रवेश करने के लिए भेजा किंतु क्रांतिकारी सैनिकों ने अँग्रेजी सेना को पीछे धकेल दिया। अंग्रेज समझ गए कि अभी आमने-सामने की लड़ाई का समय नहीं आया है। इसलिए वे फिर से तोपों से गोले दागने लगे।
अब अंग्रेजों की 50 तोपें दिन और रात गोले छोड़ने लगीं जिससे नगर परकोटा ध्वस्त होने लगा तथा लगभग 300 क्रांतिकारी सैनिक मारे गए। आठ दिन की भीषण गोलाबारी के बाद 14 सितम्बर 1857 को प्रातः तीन बजे अंधेरे में अंग्रेजों ने क्रांतिकारी सैनिकों पर बड़ा धावा बोला जिसका नेतृत्व ब्रिगेडियर निकल्सन ने किया।
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ब्रिगेडियर जॉन निकल्सन ने तीन कॉलम्स को खुदीसा बाग के पीछे जमा किया जहाँ मुगल बादशाह गर्मियों में निवास करते थे। चौथे कॉलम को काबुल गेट को खोलने की जिम्मेदारी दी गई। पांचवे कॉलम को रिजर्व में रखा गया। अब अंग्रेजी सेनाएं दिल्ली शहर के परकोट में बनी दरारों से होकर दिल्ली शहर में घुसने लगीं।
सार्जेंट कारमाइकल ने कश्मीरी गेट को बारूद से उड़ा दिया। क्रांतिकारी सैनिकों ने काबुल गेट के बाहर किशनगंज में अंग्रेजों से भयानक युद्ध किया। दोनों पक्षों ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना आत्मघाती युद्ध किया जिसके कारण दोनों ओर के सैनिकों को बड़ी संख्या में प्राण गंवाने पड़े। मेजर रीड बुरी तरह घायल हो गया और उसका पूरा कॉलम बिखर गया।
जब अंग्रेजों ने सेंट जेम्स चर्च पर अधिकार करना चाहा तो अंग्रेजी सेनाओं के 1170 सिपाही मारे गए। यह अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ा धक्का था। कहा जाता है कि सेंट जेम्स चर्च पर क्रांतिकारी सैनिकों के दबाव को देखते हुए आर्कडेल विल्सन ने अपनी सेनाओं को चर्च से पीछे हटने के आदेश दिए।
उस समय तक ब्रिगेडियर निकल्सन भी बुरी तरह घायल हो चुका था तथा किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती थी किंतु जब निकल्सन ने सुना कि मेजर जनरल विल्सन आर्कडेल ने अंग्रेजी सेना को पीछे हटने के आदेश दिए हैं तो ब्रिगेडियर निकल्सन ने मेजर जनरल आर्कडेल को धमकी दी कि या तो वह अपना आदेश वापस ले नहीं तो वह आर्कडेल को गोली मार देगा। इस पर बेयर्ड स्मिथ तथा चेम्बरलेन आदि अधिकारियों ने बीच-बचाव करके आर्कडेल को इस बात पर सहमत किया कि वह अपना आदेश वापस ले ले।
इस समय तक अंग्रेजी सेनाओं के इतने अधिकारी मारे जा चुके थे कि अंग्रेजी सेनाओं में यह भ्रम उत्पन्न होने लगा कि उनका वास्तविक अधिकारी कौन है। इसी दौरान उन्हें दिल्ली में एक शराब का स्टोर दिख गया। अंग्रेजी सेना के सैनिकों ने शराब के इस स्टोर को लूट लिया और वे अपने मन में बैठ गए भय को दूर करने के लिए बेतहाशा शराब पीने लगे। इस प्रकार दो दिन बीत गए।
16 सितम्बर 1857 को अंग्रेजी सेना ने मैगजीन पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया। पाठकों को स्मरण होगा कि मेरठ से आए तिलंगों ने 11 मई 1857 को इस मैगजीन पर अधिकार कर लिया था तथा अंग्रेजों ने स्वयं ही इसके गोला-बारूद में आग लगाकर उसे नष्ट कर दिया था। पूरे तीन महीने बाद अंग्रेज फिर से उसी मैगजीन में लौट आए थे किंतु इन तीन महीनों में दिल्ली में बहुत कुछ बदल चुका था, अब वह पहले वाली दिल्ली नहीं रही थी।
भारतीयों के सौभाग्य से विशेषकर दिल्ली वालों के भाग्य से 23 सितम्बर 1857 को ब्रिगेडियर जॉन निकल्सन की मौत हो गई। अंग्रेजों के लिए यह एक बड़ा सदमा था। युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजों ने जॉन निकल्सन की एक बड़ी प्रतिमा बनवाकर दिल्ली में लगवाई जो ई.1947 में उसकी जन्मभूमि उत्तरी आयरलैण्ड को भेज दी गई।
यह प्रतिमा आज भी आयरलैण्ड के डुंगनन कस्बे के रॉयल स्कूल में लगी हुई है। भारत के लोग उसे इंग्लैण्ड का निवासी समझते थे किंतु वह आयरलैण्ड का रहने वाला था। आयरलैण्डवासी आज भी जॉन निकल्सन को बड़े गर्व के साथ याद करते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता