भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना और विस्तार के वास्तविक कारणों के विषय में इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भारत में ब्रिटिश भारत की स्थापना एक चमत्कारिक घटना थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना संयोगवश हुई, जबकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सोची समझी नीति का हिस्सा थी। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना भारतीयों की कमजोरी एवं परस्पर फूट का परिणाम थी। इन चारों धारणाओं पर विचार किये जाने की आवश्यकता है-
(1.) भारत में अँग्रेजी शासन की स्थापना एक आश्चर्यजनक घटना थी-
कुछ इतिहासकारों के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में साम्राज्य की स्थापना करने के लिये नहीं आई थी। उसके उपरांत भी भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना होना एक आश्चर्यजनक घटना समझी जानी चाहिये। यह भी एक आश्चर्य था कि भारत में अँग्रेजों से पहले जितने भी विदेशियों ने अपने राज्यों की स्थापना की, वे पश्चिम दिशा से भारत में घुसे थे जबकि अँग्रेजों ने बंगाल अर्थात् पूर्व दिशा से भारत में अपना राज्य आरम्भ किया।
(2.) भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना एक संयोग थी-
प्रोफेसर साले, अल्फ्रेड लॉयल तथा ली-वार्नर आदि इतिहासकारों की मान्यता है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार एक सुनिश्चित योजना का परिणाम न होकर संयोग की बात थी। इन विद्वानों के अनुसार पिट्स इण्डिया एक्ट में, कम्पनी द्वारा भारत में साम्राज्य विस्तार न करने की नीति का स्पष्ट उल्लेख इन शब्दों में किया गया है- ‘भारत में राज्य विस्तार और विजय योजनाओं का अनुसरण करना, इस राष्ट्र की नीति, सम्मान और इच्छा के विरुद्ध है।’ अतः इन इतिहासकारों के अनुसार कम्पनी द्वारा घोषित इस नीति के बावजूद भारत में कम्पनी के राज्य की स्थापना एवं विस्तार होना केवल संयोग की बात थी।
(3.) भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना सोची समझी नीति का हिस्सा थी –
अनेक इतिहासकारों का मत है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत में साम्राज्य विस्तार पूर्णतः सोची-समझी गई नीति का परिणाम था। इन इतिहासकारों के अनुसार पिट्स इण्डिया एक्ट की धारा 34 जो कि एक पृष्ठ से भी अधिक लम्बी है, में स्पष्ट कहा गया है कि- ‘फोर्ट विलियम के गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को, भविष्य में संचालक समिति अथवा उसकी सीक्रेट कमेटी के आदेश के बिना भारतीय राज्यों अथवा नरेशों में से किसी के विरुद्ध युद्ध घोषित करने, युद्ध आरम्भ करने अथवा युद्ध करने के लिए सन्धि करने अथवा उसके क्षेत्रफल की सुरक्षा करने की गारण्टी देने का वैध अधिकार नहीं होगा।’ इसका अर्थ यह हुआ कि संचालक समिति अथवा सीक्रेट कमेटी की अनुमति से उन्हें युद्ध करने का वैध अधिकार था। इस धारा में यह भी अपवाद था कि- ‘जहाँ भारत में अँग्रेजों के विरुद्ध अथवा अँग्रेजों के आश्रित राज्य के विरुद्ध लड़ाई आरम्भ की जा चुकी हो अथवा तैयारियाँ की जा चुकी हो।’ इस अपवाद से स्पष्ट है कि गवर्नर जनरल किसी भी स्थिति में साम्राज्यवादी नीति का आश्रय ले सकता था।
(4.) अँग्रेजी शासन की स्थापना भारतीयों की कमजोरी का परिणाम थी-
पुर्तगाल, स्पेन, नीदरलैण्ड, ब्रिटेन एवं फ्रांस आदि देशों से आने वाले लोग व्यापारी थे। वे अपने जहाजों एवं जन-माल की रक्षा के लिये अपने साथ सशस्त्र सैनिक रखते थे। अँग्रेज व्यापारी स्थानीय शासकों एवं मुगल बादशाहों की अनुमति प्राप्त करके भारत में व्यापार करने लगे। उनका उद्देश्य भारत में अधिक से अधिक लाभ अर्जित करना था ताकि वृद्धावस्था में इंग्लैण्ड लौटकर शेष जीवन सुख से बिता सकें। इसके उपरांत भी अँग्रेज व्यापारी भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में इसलिये सफल रहे क्योंकि भारतीयों में एकता नहीं थी। भारत की केन्द्रीय सत्ता के स्वामी मुगल शहजादे तख्त प्राप्त करने के लिये एक दूसरे का रक्त बहाने में व्यस्त थे। हिन्दू शासक अपने खोये हुए राज्यों की पुनर्स्थापना के लिये संघर्ष कर रहे थे। मराठे सम्पूर्ण भारत से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने के कार्य में व्यस्त थे। अफगान आक्रांता हर समय भारत की छाती रौंद रहे थे। इस प्रकार भारत की समस्त शक्तियां एक दूसरे के रक्त की प्यासी बनी हुई थीं तथा अँग्रेजों को ऐसे कमजोर देश पर अधिकार जमाने में अधिक रक्त नहीं बहाना पड़ा।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना न तो संयोग से हुई थी और न वह कोई चमत्कारिक घटना थी। कम्पनी के अधिकारियों द्वारा औरंगजेब के समय से ही भारत में व्यापार बढ़ाने के लिये तलवार का सहारा लेने की वकालात की जाने लगी थी। अतः यह निश्चित है कि एक सुनिश्चित योजना के अनुसार सम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया गया। भारतीयों की कमजोरी ने अंग्रेजों की सोची समझी नीति को साकार करने के लिये रास्ता आसान कर दिया।
भारत में साम्राज्य विस्तार की ब्रिटिश नीतियाँ
जहांगीर के समय से भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की व्यापारिक गतिविधियां आरम्भ हो गयी थीं। लगभग 150 वर्षों तक अंग्रेज व्यापारी ही बने रहे और उन्होंने ‘व्यापार, न कि भूमि’ की नीति अपनाई। मुगलों के अस्ताचल में जाने एवं पुर्तगाली, डच तथा फ्रैंच शक्तियों को परास्त कर भारत में अपने लिये मैदान साफ करने में अँग्रेजों को अठारहवीं सदी के मध्य तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। 23 जून 1757 के प्लासी युद्ध के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में प्रथम बार राजनीतिक सत्ता प्राप्त हुई। इसके बाद अँग्रेजों ने अपनी नीति ‘भूमि, न कि व्यापार’ कर दी।
गांधीजी के परम सहयोगी प्यारेलाल ने लिखा है- ‘देशी राज्यों के परिप्रेक्ष्य में ब्रिटिश नीति में कई परिवर्तन हुए किंतु भारत में साम्राज्यिक शासन को बनाये रखने का प्रमुख विचार, उन परिवर्तनों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में सदैव विद्यमान रहा। यह नीति तीन मुख्य चरणों से निकली जिन्हें घेराबंदी (Ring Fence); सहायक समझौता (Subsidiary Alliance) तथा अधीनस्थ सहयोग (Subordinate Co-operation) कहा जाता है। राज्यों की दृष्टि से इन्हें ‘ब्रिटेन की सुरक्षा’, ‘आरोहण’ तथा ‘साम्राज्य’ कहा जा सकता है।’
प्रथम चरण – बाड़बंदी (1756-98 ई.)
ब्रिटिश नीति के प्रथम चरण (1756-98 ई.) में नियामक विचार ‘सुरक्षा’ तथा ‘भारत में इंगलैण्ड की स्थिति’ का प्रदर्शन’ था। इस काल में कम्पनी अपने अस्तित्त्व के लिये संघर्ष कर रही थी। यह चारों ओर से अपने शत्रुओं और प्रतिकूलताओं से घिरी हुई थी। इसलिये स्वाभाविक रूप से कम्पनी ने स्थानीय संभावनाओं में से मित्र एवं सहायक ढूंढे। इन मित्रों के प्रति कम्पनी की नीति चाटुकारिता युक्त, कृपाकांक्षा युक्त एवं परस्पर आदान-प्रदान की थी। लॉर्ड क्लाइव (1758-67) ने प्लासी के युद्ध से पहले और उसके बाद में मुगल सत्ता की अनुकम्पा प्राप्त करने की चतुर नीति अपनाई। बक्सर युद्ध के पश्चात् 1765 ई. में हुई इलाहाबाद संधि से ईस्ट इण्डिया कम्पनी राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हुई। वारेन हेस्टिंग्स (1772-1785 ई.) के काल में स्थानीय शक्तियों की सहायता से राज्य विस्तार की नीति अपनाई गई। 1784 ई. के पिट्स इण्डिया एक्ट में घोषणा की गयी कि किसी भी नये क्षेत्र को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में जबर्दस्ती नहीं मिलाया जायेगा। लार्ड कार्नवालिस (1786-1793 ई.) तथा सर जॉन शोर (1793-1798 ई.) ने देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति अपनायी। इस नीति को अपनाने के पीछे उनका विचार मित्र शक्तियों की अवरोधक दीवार खड़ी करने तथा जहाँ तक संभव हो सके, विजित मित्र शक्तियों की बाड़बंदी ;त्पदह थ्मदबमद्ध में रहने का था।
दूसरा चरण – सहायक समझौते (1798-1813 ई.)
मारवाड़ रियासत ने ई. 1786, 1790 तथा 1796 में, जयपुर रियासत ने ई. 1787, 1795 तथा 1799 में एवं कोटा रियासत ने ई. 1795 में मराठों के विरुद्ध अँग्रेजों से सहायता मांगी किंतु अहस्तक्षेप की नीति के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इन अनुरोधों को स्वीकार नहीं किया। शीघ्र ही अनुभव किया जाने लगा कि यदि स्थानीय शक्तियों की स्वयं की घेरेबंदी नहीं की गयी तथा उन्हें अधीनस्थ स्थिति में नहीं लाया गया तो अँग्रेजों की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी। इस कारण लॉर्ड वेलेजली (1798 से 1805 ई.) के काल में ब्रिटिश नीति का अगला चरण आरम्भ हुआ। इस चरण में ‘सहयोग’ के स्थान पर ‘प्रभुत्व’ ने प्रमुखता ले ली। वेलेजली ने सहायक संधि की पद्धति निर्मित की। इस पद्धति में देशी शासक, रियासत के आंतरिक प्रबंध को अपने पास रखता था किंतु बाह्य शांति एवं सुरक्षा के दायित्व को ब्रिटिश शक्ति को समर्पित कर देता था। इस प्रकार वेलेजली ने ‘सहायक संधियों’ के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को समस्त भारतीय राज्यों पर थोपने का निर्णय लिया ताकि देशी राज्य, ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध किसी तरह का संघ न बना सकें। उसने सहायता के समझौतों से ब्रिटिश प्रभुत्व को और भी दृढ़ता से स्थापित कर दिया। वेलेजली ने प्रयत्न किया कि राजपूताने के राज्यों को ब्रिटिश प्रभाव एवं मित्रता के क्षेत्र में लाया जाये किंतु उसे इस कार्य में सफलता नहीं मिली।
तीसरा चरण – अधीनस्थ सहयोग (1817-1858 ई.)
1805 ई. में वेलेजली के लौट जाने के बाद ब्रिटिश नीति में पुनः परिवर्तन हुआ। कार्नवालिस (1805 ई.) तथा बारलो (1805-1807 ई.) ने देशी रियासतों की ओर से किये जा रहे संधियों के प्रयत्नों को अस्वीकृत किया तथा अहस्तक्षेप की नीति अपनाई किंतु शीघ्र ही इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे और मराठे फिर से शक्तिशाली हो गये। अतः 1814 ई. में चार्ल्स मेटकाफ ने लॉर्ड हेस्टिंग्ज को लिखा कि यदि समय पर विनम्रता पूर्वक मांगे जाने पर भी (देशी राज्यों को) संरक्षण प्रदान नहीं किया गया तो संभवतः बाद में, प्रस्तावित संरक्षण भी अमान्य कर दिये जायेंगे। जॉन मैल्कम की धारणा थी कि सैनिक कार्यवाहियों तथा रसद सामग्री दोनों के लिये इन राज्यों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होना चाहिये अन्यथा ये राज्य हमारे शत्रुओं को हम पर आक्रमण करने के लिये योग्य साधन उपलब्ध करवा देंगे। हेस्टिंग्स का मानना था कि राजपूत रियासतों पर हमारा प्रभाव स्थापित होने से सिक्खों और उनको सहायता देने वाली शक्तियों के बीच शक्तिशाली प्रतिरोध बन जायगा। इससे न केवल सिन्धिया, होलकर और अमीरखाँ की बढ़ती हुई शक्ति नियंत्रित होगी, जो उसके अनुमान से काफी महत्वपूर्ण उद्देश्य था, बल्कि उससे मध्य भारत में कम्पनी की सैनिक और राजनैतिक स्थिति को अत्यधिक सुदृढ़ बनाने में भी सहायता मिलेगी। इस नीति के तहत 1817 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज देशी राज्यों से अधीनस्थ संधियाँ करने को तत्पर हुआ। हेस्टिंग्ज ने अपना उद्देश्य लुटेरी पद्धति के पुनरुत्थान के विरुद्ध अवरोध स्थापित करना तथा मराठा शक्ति के विस्तार को रोकना बताया। उसने तर्क दिया कि चूंकि मराठे, पिण्डारियों की लूटमार को नियंत्रित करने में असफल रहे हैं अतः मराठों के साथ की गयी संधियों को त्यागना न्याय संगत होगा। हेस्टिंग्स ने चार्ल्स मेटकाफ को राजपूत शासकों के साथ समझौते सम्पन्न करने का आदेश दे दिया। गवर्नर जनरल का पत्र पाकर चार्ल्स मेटकॉफ ने राजपूत शासकों को कम्पनी का सहयोगी बनने के लिये आमंत्रित किया। इस पत्र में कहा गया कि राजपूताना के राजा जो खिराज मराठों को देते आये हैं उसका भुगतान ईस्ट इण्डिया कम्पनी को करें। यदि किसी अन्य पक्ष द्वारा राज्य से खिराज का दावा किया जायेगा तो उससे कम्पनी निबटेगी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि करने वाले राज्यों के शासकों को अपने आंतरिक मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र आचरण करने का अधिकार होगा किंतु उन्हें अपने व्यय पर ब्रिटिश सेना अपने राज्य में रखनी पड़ेगी। कम्पनी द्वारा संरक्षित राज्य को दूसरे राज्य से संधि करने के लिये कम्पनी से अनुमति लेनी होगी। इस सब के बदले में कम्पनी ने राज्य की बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा करने तथा आंतरिक विद्रोह के समय राज्य में शांति स्थापित करने का दायित्व ग्रहण किया।
इस प्रकार हेस्टिंग्ज ने देशी राज्यों के समक्ष बाह्य सुरक्षा एवं आंतरिक शांति का चुग्गा डाला जिसे चुगने के लिये भारत के देशी राज्य आगे आये और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जाल में फंस गये।
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना
क्लाइव का योगदान
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का मार्ग 1757 ई. में क्लाइव के नेतृत्व में लड़े गये प्लासी के युद्ध के बाद से ही खुल गया था। इस युद्ध ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल का स्वामी बना दिया तथा वह राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गई। 1764 ई. में बक्सर के युद्ध में मिली विजय से कम्पनी का भारत की तीन प्रमुख शक्तियों- मुगल बादशाह शाहआलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर कासिम पर दबदबा स्थापित हो गया। इस युद्ध में मल्हारराव होलकर भी अँग्रेजों से परास्त हो गया। इससे ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक अखिल भारतीय शक्ति बन गई। क्लाइव की सफलताएं इतनी जबर्दस्त थीं कि 1765 ई. में उसे दुबारा बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया। क्लाइव ने दृढ़ संकल्प शक्ति से दुःसाहस पूर्ण कार्य किये जिनसे भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सका।
वारेन हेस्टिंग्ज का योगदान
1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज बंगाल का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसने क्लाइव के काम को तेजी से आगे बढ़ाया। उसने मुगल बादशाह की 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन बंद कर दी और बंगाल के नवाब की 53 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन घटाकर 16 लाख रुपये कर दी। उसने 1772 ई. में बंगाल से द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त किया। 1773 ई. में ब्रिटिश संसद ने रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया तथा बंगाल में गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल की नियुक्ति की जाने लगी। हेस्टिंग्ज के समय में मराठों के विरुद्ध कई सैनिक कार्यवाहियां की गईं किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कई बार मराठों से अपमानजनक शर्तों पर संधि करनी पड़ी।
अहस्तक्षेप की नीति से साम्राज्य विस्तार को आघात (1784-98 ई.)
1784 ई. में ब्रिटिश संसद ने पिट्स इण्डिया एक्ट पारित किया जिसमें कहा गया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन करेगी। यह प्रावधान भी किया गया कि गवर्नर जनरल को आपातकाल में, कौंसिल के बहुमत की स्वीकृति प्राप्त किये बिना भी कार्य करने के विशेष अधिकार होंगे। हेस्टिंग के बाद मेकफर्सन ने 1785 से 1786 ई. में 21 माह तक कार्यवाहक गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया। सितम्बर 1786 में कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसने सामान्यतः अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया। इस नीति के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत में साम्राज्य स्थापना की दिशा में किये जा रहे कार्य में अवरोध उत्पन्न हो गया। 1793 ई. में सर जॉन शोर को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। उसने भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। 1795 ई. में हैदराबाद के निजाम एवं मराठों के बीच खरदा का युद्ध हुआ। निजाम ने कम्पनी से सैनिक सहायता मांगी किंतु कम्पनी ने देशी राज्यों के परस्पर झगड़ों में हस्तक्षेप करने तथा निजाम को सहायता देने से इन्कार कर दिया। इस कारण निजाम मराठों से परास्त हो गया और उसे मराठों से अपमानजनक शर्तों पर सन्धि करनी पड़ी। अहस्तक्षेप की नीति के काल में नाना फड़नवीस के नेतृत्व में उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत में मराठों का प्रभाव फैलने लगा। इस अवधि में महादजी सिन्धिया की शक्ति में भी अपूर्व वृद्धि हुई तथा पेशवा की शक्ति का ह्रास हुआ।