कैथोलिक चर्च के इतिहास में इनक्विजिशन का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इनक्विजिशन का अर्थ है जाँच-पड़ताल। यह एक तरह का न्यायाधिकरण है जिसकी स्थापना कैथोलिक धर्म के सिद्धान्तों से भटकने वाले व्यक्तियों का पता लगाकर उन्हें दण्ड दिलवाने के लिए सरकार को सौंपने के उद्देश्य से हुई थी।
कैथोलिक धर्म के अधिकारी अपने धार्मिक विश्वासों के अनुरक्षण तथा भ्रामक सिद्धान्तों के प्रचार को रोकने के प्रति आरम्भ से ही सतर्क रहे ताकि धर्म का पवित्र स्वरूप सुरक्षित रखा जा सके। चौथी शताब्दी ईस्वी में कैथोलिक धर्म को रोमन साम्राज्य की ओर से मान्यता मिली।
इसके साथ ही अन्य धर्मों पर प्रतिबंध लगा दिया गया किंतु बहुत से लोग चोरी-छिपे प्राचीन रोमन धर्म को मानते रहे तथा बहुत से लोग ईसाई धर्म को अपनाने से मना करते रहे। इसे धर्म-द्रोह के साथ-साथ राजद्रोह भी माना गया और ऐसे लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर दण्डित किया जाने लगा। बाद में यूरोप के अधिकांश देशों में कैथोलिक ईसाई-धर्म ‘राज-धर्म’ के रूप में स्वीकृत हो गया।
उन देशों में भी कैथोलिक धर्म के प्रति विद्रोह करना राजद्रोह माना जाने लगा। वहाँ की सरकारें कैथोलिक धर्म के विरोध में प्रचार करनेवालों को निर्वासन, संपत्ति की जब्ती, जेल एवं जीवित जला देने जैसे दंड देती थी।
इस काल में पोप की दृष्टि इतनी संकुचित हो गई थी कि जो ईसाई समूह, कैथोलिक धर्म की मान्यताओं के साथ-साथ अपनी स्थानीय परम्पराओं को भी मानते थे या कैथोलिक मत की किसी मान्यता पर अपना स्वतंत्र मत प्रस्तुत करते थे, उन्हें गैर-ईसाई घोषित किया जाने लगा तथा उनके विरुद्ध क्रूसेड की घोषणा करके उन समूहों का सफाया किया जाने लगा। इसके पीछे मंशा यह थी कि कैथोलिक धर्म का स्वरूप हर जगह ठीक एक जैसा दिखे तथा वह वैसा ही हो जैसा कि रोमन चर्च कह रहा था।
आर्नोल्ड को मृत्युदण्ड
कुछ लोगों ने अनुभव किया कि पोप तथा उसके शिष्य विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं तथा विलासिता पर अपार धन व्यय करते हैं। इस कारण कुछ लोग पोप एवं धर्म की अवहेलना करने लगे। कुछ लोगों को तो कैथोलिक मत से ही विश्वास समाप्त होने लगा और वे अन्यत्र प्रकाश ढूंढने लगे अर्थात् किसी दूसरे धर्म की भी तलाश करने लगे। सम्राट और पोप के बीच चलने वाले विवादों तथा क्रूसेड की असफलताओं एवं दीर्घकालिकता ने भी कुछ ईसाइयों को ईसाई धर्म से दूर करने का काम किया।
इस पर ईसाई संघ के कुछ पदाधिकारियों ने जनता पर जोर-जबर्दस्ती आरम्भ कर दी। ईसाई धर्म की मान्यताओं एवं पदाधिकारियों के आचरण पर अंगुली उठाने वाले लोगों की शंकाओं का समाधान प्रेम एवं सद्व्यवहार से करने की बजाय डण्डे एवं सूली का प्रयोग किया गया। इस कारण स्थिति और अधिक बिगड़ गई। डण्डे से बदमाश को काबू में किया जा सकता है किंतु जन-सामान्य को नेतृत्व करने वालों के उच्च नैतिक जीवन एवं सदाचरण से ही विश्वास एवं नियंत्रण में लिया जा सकता है।
ई.1155 में इटली के ‘ब्रेशिया’ नगर में आर्नोल्ड नामक एक लोकप्रिय धर्मोपदेशक हुआ जो पादरियों के भ्रष्टाचरण और विलासमय जीवन के विरुद्ध प्रचार करता था। ईसाई-संघ ने उसे पकड़ कर फांसी पर लटका दिया तथा उसके शव को जलाकर उसकी राख को टाइबर नदी में फैंक दिया। आर्नोल्ड अंतिम समय तक अपनी बातों को दोहराता रहा और शांत रहा।
फ्रांसिस संघ से टकराव
ई.1181 में इटली के असीसी नामक एक गांव में फ्रांसिस नामक धनवान व्यक्ति हुआ। उसने अपनी सम्पत्ति का त्याग कर दिया और वह धर्म के मार्ग का अनुसरण करके निर्धनता में जीवन व्यतीत करने लगा तथा स्थान-स्थान पर घूमकर निर्धनों एवं बीमारों की सेवा करने लगा। बाद में वह कोढ़ियों की सेवा करने लगा क्योंकि संसार में वे सबसे अधिक दुःखी और बेसहारा थे।
बहुत से लोग उसके अनुयायी हो गए। फ्रांसिस ने उन लोगों की सहायता से एक संघ का निर्माण किया जिसे ‘सेंट फ्रांसिस संघ’ कहा जाता था। यह संघ भारतीय बौद्ध संघ से मिलता-जुलता था जो दीन-दुखियों की सेवा के लिए समर्पित था। फ्रांसिस का पूरा जीवन लोगों की सेवा करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने तथा सेवा-धर्म का प्रचार करने में बीता। यह ठीक ईसा मसीह के जीवन की तरह था। हजारों ईसाई उसकी शरण में आते और उसका शिष्यत्व स्वीकार कर लेते।
संत फ्रांसिस क्रूसेड्स के दौरान फिलीस्तीन और मिस्र भी गया और उसने अपने शिष्यों को साथ लेकर वहाँ भी दीन-दुखियों एवं बीमारों की सेवा की। हालांकि वह ईसाई था और क्रूसेड्स का युग चल रहा था फिर भी मुसलमान इस ईसाई संत की बहुत इज्जत करते थे तथा उसके काम में बाधा उत्पन्न नहीं करते थे।
ई.1226 में इस संत का निधन हो गया। उसकी मृत्यु के बाद ईसाई संघ के पदाधिकारियों एवं फ्रांसिस संघ के पदाधिकारियों में टक्कर हो गई। इस युग का ईसाई संघ नहीं चाहता था कि लोग गरीबी का जीवन जीने पर इतना अधिक जोर दें किंतु फ्रांसिस संघ के साधुओं ने अपने सिद्धांत त्यागने से मना कर दिया।
अब ईसाई संघ कोई ऐसी व्यवस्था ढूंढने लगा कि लोग चर्च द्वारा बताए गए मार्ग से अलग कोई सिद्धांत, नियम, व्यवहार एवं आचरण न अपनाएं। शीघ्र ही उन्होंने ‘इनक्विजिशन’ के रूप में एक एक उपकरण ढूंढ लिया।
अल्बीजंसस सम्प्रदाय का उदय
12वीं शताब्दी ईस्वी में जर्मनी एवं फ्रांस आदि यूरोपीय देशों में कुछ अलग सिद्धांतों वाले ईसाई सम्प्रदायों के प्रचार के कारण कैथोलिक सम्प्रदाय वालों एवं अन्य सम्प्रदाय वालों में झगड़े होने लगे। इससे यूरोपीय देशों में सामाजिक तथा राजनीतिक अशांति फैलने लगी। फ्रांस के दक्षिणी भागों में ‘अल्बीजंसस’ नामक सम्प्रदाय अधिक लोकप्रिय हो गया।
इस सम्प्रदाय के लोगों की धारणा थी कि- ‘समस्त भौतिक जगत् (प्रकृति) किसी दुष्ट पुरुष की सृष्टि है तथा मानव शरीर भी दूषित है। इसलिए आत्महत्या करना उचित है किंतु विवाह करना बुरा है क्योंकि वह शारीरिक जीवन को बनाए रखने का साधन है।’
इस सम्प्रदाय के ‘सिद्ध’ लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते थे किंतु अपने साधारण अनुयायियों को यह शिक्षा देते थे कि- ‘यदि कोई पूर्ण संयम न रख सके तो उसके लिए विवाह की अपेक्षा व्यभिचार करना ही अच्छा है।’
इस सम्प्रदाय के विरुद्ध फ्रांस की ईसाई जनता की ओर से उग्र प्रतिक्रिया हुई। इस कारण फ्रांस की सरकार ने ‘अल्बीजंसस’ के अनुयायियों को प्राणदंड देने का निर्णय किया।
चर्च ने इस सम्प्रदाय के लोगों का पता लगाने की जिम्मेदारी ली। इस उद्देश्य से ई.1233 में इनक्विजिशन नामक संस्था की स्थापना हुई और बाद में वह प्रायः समस्त ईसाई देशों में फैल गई। यह एक तरह का न्यायालय था। इसके पदाधिकारी रोमन चर्च की ओर से नियुक्त होते थे तथा वे पूरे देश का दौरा किया करते थे।
अभियुक्तों से अनुरोध किया जाता था कि वे अपने भ्रामक सिद्धान्त त्यागकर पश्चाताप करें। जो लोग इसके लिए तैयार नहीं होते थे, उन्हें पकड़कर सरकार को सौंप दिया जाता था ताकि उन्हें दण्ड दिलवाया जा सके।
कुछ लोगों पर संदेह होने पर अथवा किसी के द्वारा उनके विरुद्ध शिकायत किए जाने पर न्यायाधिकरण के पदाधिकारों द्वारा अभियुक्त से सवाल-जवाब किए जाते थे तथा उनके माध्यम से उनके विश्वासों का परीक्षण किया जाता था। इस परीक्षण में खरा नहीं उतरने वालों को यंत्रणाएं दी जाती थीं। अभियोक्ताओं के नाम गुप्त रखे जाते थे तथा ‘अपश्चत्तापी दोषियों’ को जीते जी जला दिया जाता था। इन कारणों से इतिहासकारों ने इनक्विजिशन की घोर निन्दा की है।
संत फ्रांसिस संघ के साधुओं को जीवित जलाने की सजा
ई.1318 में संत फ्रांसिस संघ तथा रोमन ईसाई संघ का विवाद अत्यंत बढ़ गया। संत फ्रांसिस संघ विलासिता पूर्ण जीवन को उचित नहीं मानता था जबकि चर्च का कहना था कि निर्धनता पूर्वक जीवन जीने पर इतना जोर दिया जाना ईसाई धर्म की दृष्टि से उचित नहीं है। इस विवाद के बाद इस संघ के चार साधुओं का इनक्विजिशन किया गया और उन्हें मार्साई में जीवित जला दिया गया। रोमन चर्च इस पर भी फ्रांसिस संघ को पूरी तरह नष्ट नहीं कर सका।
जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘काफिरों को बाकायदा ढूंढ-ढूंढ कर पकड़ा गया और उनमें से सैंकड़ों को जिंदा जला दिया गया। जिन्दा जला देने से ज्यादा बुरी बात यह थी कि लोगों से प्रायश्चित्त करवाने के लिए उन्हें यातनाएं दी जाती थीं। बहुत सी गरीब अभागी औरतों पर डायन होने का अपराध लगाया जाता था और वे जला दी जाती थीं किंतु प्रायः यह काम इंग्लैण्ड और स्कॉटलैण्ड में दंगाई भीड़ किया करती थी।
इनक्विजशन के आदेश से ऐसा नहीं होता था। पोप ने एडिक्ट ऑफ फेथ नामक आदेश जारी करके प्रत्येक व्यक्ति को मुखबिर बनने का आदेश दिया। पोप ने रसायन-विज्ञान के विरुद्ध फतवा दे दिया और इसे शैतानी हुनर करार दिया। ये तमाम अत्याचार और आतंक सच्चे विश्वास के साथ किए जाते थे।
इनका विश्वास था कि किसी आदमी को जिन्दा जलाकर वे उसकी आत्मा को या दूसरों की आत्माओं को पापों से बचा रहे हैं। मजहबी लोगों ने अक्सर अपनी बात दूसरों से जबर्दस्ती मनवाने की कोशिश की है। अपने विचार जबर्दस्ती दूसरे लोगों के गले में उतारे हैं और वे समझते रहे हैं कि वे जनता की सेवा कर रहे हैं।
ईश्वर के नाम पर इन्होंने लोगों को मारा है और हत्याएं की हैं। अमर आत्मा को बचाने की बात करते हुए इन्होंने नश्वर शरीर को जलाकर राख करने में जरा भी संकोच नहीं किया है। मजहब का लेखा बड़ा खराब रहा है परन्तु जल्लादी और बेरहमी में इनक्विजिशन को मात करने वाली कोई चीज दुनिया में मेरे विचार से नहीं हुई।’
स्पेन का इनक्विजिशन
स्पेन के कुछ हिस्सों पर सात शताब्दियों तक मुसलमानों का शासन था। मुसलमानों का शासन समाप्त होने के बाद अधिकांश मुसलमान या तो स्पेन छोड़कर चले गए या उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। फिर भी कुछ मुसलमान चोरी-छिपे स्पेन में रहते थे। इसी प्रकार कुछ यहूदी भी छिपकर स्पेन में रहते थे। स्पेन के राजा ने ऐसे मुसलमानों एवं यहूदियों को आदेश दिया कि- ‘वे या तो ईसाई बन जाएं अन्यथा देश छोड़ कर चले जाएं।’
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में स्पेन में दोमिनिक नामक एक ईसाई संत ने ईसाई संघ के भीतर ‘दोमिनिक संघ’ की स्थापना की। यह संघ उग्र एवं कट्टर था। इस संघ के लोगों ने स्पेन के ईसाइयों के लिए कुछ धार्मिक आदेश जारी किए तथा लोगों को उन पर चलने के लिए विवश किया। जो लोग उनकी बात नहीं मानते थे, उन्हें मार-पीट कर सहमत किया जाता था लेकिन यह संघ अधिक समय तक नहीं चल सका।
ई.1478 में स्पेन के राजा ने स्पेन में इनक्विजिशन की स्थापना की ताकि स्पेन में रह रहे गुप्त मुसलमानों तथा यहूदियों का पता लगाया जा सके। स्पेन की सरकार को नए ईसाइयों के विषय में संदेह बना रहता था कि वे भीतर ही भीतर मुसलमान अथवा यहूदी तो नहीं हैं।
उनका बार-बार परीक्षण किया जाता था तथा परीक्षण में खरे नहीं उतरने वालों को जिंदा जला दिया जाता था। स्पेन के इनक्विजिशन का उन्मूलन 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुआ।
रोमन इनक्विजिशन
मध्यकालीन इनक्विजिशन 13वीं तथा 14वीं शताब्दी में सक्रिय रहा। ई.1542 में इसका पुनर्संगठन तथा परिष्करण हुआ। उस समय इसका नाम ‘रोमन इनक्विजिशन’ रखा गया जिसे बाद में बदलकर ‘होली ऑफिस’ कर दिया गया। यह संस्था आज भी इसी नाम से विद्यमान है। कैथोलिक धर्म की पवित्रता की रक्षा करना तथा धार्मिक सिद्धान्तों का ठीक-ठीक सूत्रीकरण एवं व्याख्या करना इस संस्था का मुख्य उत्तरदायित्व है। मध्यकालीन तथा स्पेन के इनक्विजिशन के कारण कैथोलिक चर्च को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हुई।
यद्यपि इनक्विजिशन के अत्याचार के वर्णन में प्रायः अतिरंजना का सहारा लिया गया है तथा दंडितों की संख्या को अत्यधिक बढ़ा दिया गया है, फिर भी यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस संस्था द्वारा मनुष्य के मूल अधिकारों की उपेक्षा की जाती थी। आजकल प्रचलित कैथोलिक धर्म (चर्च) के विधान में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध कैथोलिक नहीं बनाया जा सकता।
सर्वव्यापी-चर्च व्यवस्था
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जिस प्रकार के अत्याचार सहन करके ईसाई संतों ने इस धर्म को जीवित रखने का गौरव प्राप्त किया, ठीक वैसे ही अत्याचार राज्य द्वारा ईसाईकरण के दौरान किए गए। चर्च और पंथाधिकरण, उसके पापमोचक प्रमाण-पत्र तथा उनके कठोर नियंत्रण ने यीशू मसीह की मूल शिक्षाओं पर ग्रहण लगा दिया। रोम का चर्च तथा सम्राट की शक्ति एकाकार हो गए। नया सिद्धांत प्रतिपादित हुआ- ‘साम्राज्य, चर्च का सेकुलर एवं शस्त्र-सज्जित शासन तंत्र है, जिसे पोप ने गढ़ा और जो केवल पोप के प्रति उत्तरदायी है।’
यही कारण है कि यूरोपीय उपनिवेशवाद और ईसाई पंथ का एक गहरा नाता है। पहली सदी में इसाई धर्म का उद्भव हुआ। आरम्भ में यह एक प्रगतिशील धर्म था। इसने रोमन साम्राज्य को कड़ी चुनौती दी। इसका स्वरूप सादा और आडम्बर-मुक्त था।
संत पॉल तथा संत ऑस्टाइन ने इसाई धर्म की सादगी तथा मानव-मुक्ति के लिए आस्था पर बल दिया परन्तु 8वीं सदी और उसके बाद पीटर लोम्बार्ड और टॉमस एक्वेनाश नामक दो संतों ने पुराने संतों की शिक्षा को उलटते हुए कहा कि आस्था नहीं बल्कि अच्छे कार्य मानव-मुक्ति के लिए आवश्यक हैं।
इन संतों ने अच्छे कार्यों का अर्थ पुरोहितवाद एवं संस्कारवाद से लगाया। उनके विचार में पादरी ईश्वर द्वारा चयनित व्यक्ति है इसलिए प्रत्येक इसाई को उसका निर्देश मानना चाहिए। इस समय में इसाई पंथ में कर्मकांड घर कर गया तथा मध्ययुगीन चर्च व्यवस्था की शुरुआत हुई।
इसे सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था का नाम दिया गया क्योंकि इसका मुख्यालय रोम तथा इसकी शाखाएं संपूर्ण यूरोप में फैली हुई थी। अब यूरोपीय लोगों के जीवन पर रोमन कैथोलिक चर्च का गहरा प्रभाव हो गया। शिक्षा एवं कला पर भी चर्च का नियंत्रण था, प्राचीन यूनानी और रोमन विद्वानों द्वारा जो ग्रंथ लिखे गए, वे ग्रंथ इसाई धर्म के प्रचार के बाद पूरी तरह लुप्त कर दिए गए। इसलिए आगे आने वाले बदलाव के मार्ग में एक बड़ी बाधा सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था थी।
मध्यकालीन यूरोप के पुनर्जागरण के काल में सर्वकालीन चर्च व्यवस्था ने अपने लाभ के लिए कभी राजतंत्र तो कभी कुलीन वर्ग के साथ सांठगांठ की। रोमन साम्राज्य के पतन और यूरोप के अंधकारमय युग के लिए उत्तरदायी कारणों में आडम्बरों से युक्त चर्च व्यवस्था भी एक कही जाती है।
पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के कई कारण थे, जिनमें से एक कारण ईसाई धर्म का रोम में फैलना था। पोप का यूरोप की राजनीति में हस्तक्षेप हो जाने से सम्राट की शक्ति कमजोर हुई। इस कारण सम्राट और पोप के बीच कई बार संघर्ष की स्थिति बनी जिसमें आम आदमी पिसता चला गया।