कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 1857 का विद्रोह एक सोची-समझी एवं पूर्व नियोजित योजना थी। इसका नेतृत्व अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग लोगों ने किया। इस संघर्ष में धार्मिक नेताओं, पूर्व राजाओं, जागीरदारों, कृषकों, कारीगरों, सैनिकों और सामामान्य जनता ने डटकर मुकाबला किया।
क्रांति की योजना
1852 ई. में पेशवा बाजीराव (द्वितीय) की मृत्यु हो जाने पर कम्पनी सरकार ने उसके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेंशन देने से मना कर दिया। इससे असंतुष्ट होकर नाना साहब ने अपदस्थ एवं अधिगृहीत रजवाड़ों से सम्पर्क करने की योजना बनाई। वह अपने भाई बाला साहब और अजीमुल्ला को लेकर कानपुर से भारत के विभिन्न स्थानों के लिये तीर्थयात्रा पर निकला तथा उन-उन स्थानों पर गया जहाँ अँग्रेजों द्वारा अपदस्थ रजवाड़ों के परिवार रहते थे। इस यात्रा में नाना साहब ने अम्बाला की सैनिक छावनी की भी यात्रा की। वह आगरा तथा दिल्ली भी गया। दिल्ली के लाल किले में उसने बहादुरशाह जफर से भेंट की। संभवतः इसी यात्रा में भारत-व्यापी क्रांति की भूमिका तैयार हुई। संभवतः कोई गुप्त संगठन तैयार हुआ था जिसने क्रांति के लिये 31 मई 1857 की तिथि निर्धारित की थी। अँग्रेज अधिकारी विल्सन ने सरकार को सूचित किया था कि एक गुप्त संगठन ने भारत-व्यापी विद्रोह के लिये 31 मई 1857 की तिथि निर्धारित की है। भारतीय हिन्दू सैनिकों को गंगाजल तथा तुलसीदल एवं मुसलमानों को कुरान की शपथ दिलवाकर विद्रोह के लिये तैयार किया गया। अनुमान है कि अनेक भारतीय रेजीमेंटें एक गुप्त संगठन से जुड़ गई थीं जिसने 31 मई 1857 का दिन विद्रोह के लिये नियत किया था। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि विद्रोह अचानक फूट पड़ा था जो बाद में बड़े क्षेत्र में फैल गया था, क्योंकि किसी गुप्त संगठन के कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं हुए हैं।]
क्रांति का प्रचार
प्रचार का माध्यम एक स्थान से दूसरे स्थान पर चपातियां और लाल कमल का फूल था। ट्रैवेलियन ने अपनी पुस्तक कानपोर में लिखा है- ‘लाल कमल ने सचमुच सारी जनता को एक कर दिया है…….. बंगाल में जवान और किसान दोनों एक ही भाव- सब कुछ लाल होने जा रहा है, की अभिव्यक्ति देते हुए पाये गये।’
नरेटिव ऑफ म्यूटिनी में लिखा है- ‘बंगाल में ऐसी कोई छावनी या स्टेशन नहीं था जहाँ कमल का प्रसारण न हुआ हो…… षड्यंत्र के इस साधारण प्रतीक का प्रसारण अवध के विलीनीकरण के पश्चात् हुआ।’
क्रांति के संदेश का प्रचार करने के लिये तीर्थ स्थलों, मेलों और उत्सवों का उपयोग किया गया। छद्म सन्यासियों, मदारियों एवं फकीरों द्वारा गांवों के चौकीदारों को रोटी पहुंचाई जाती थी जो प्रसाद के रूप वितरित की जाती थी। इसी प्रसाद के साथ, सम्पूर्ण भारत में विद्रोह के लिये 31 मई 1857 की तिथि निर्धारित होने का संदेश दिया जाता था।
(1.) बैरकपुर में क्रांति का विस्फोट
26 फरवरी 1857 को कलकत्ता से 120 मील दूर स्थित बहरामपुर छावनी के सैनिकों ने चर्बी-युक्त कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। केनिंग ने उस कम्पनी को भंग कर दिया। इससे अन्य सैनिक टुकड़ियों में असन्तोष फैल गया। 29 मार्च 1857 को कलकत्ता से 5 मील दूर स्थित बैरकपुर छावनी में 34वीं कम्पनी के सिपाही मंगल पाण्डे ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। उसने अपने साथियों को ललकारा- ‘तुम लोग धर्म के लिये संग्राम में उतर पड़ो।’ मंगल पाण्डे ने अपने एडजुटेण्ट पर गोली चलाकर उसे मार डाला। इस पर मंगल पाण्डे को बन्दी बनाकर 8 अप्रेल 1857 को फांसी पर चढ़ा दिया गया तथा पूरी कम्पनी को भंग कर दिया गया। भंग कम्पनी के सैनिकों ने अपने-अपने गांव पहुंचकर मंगल पाण्डे के बलिदान की गाथा लोगों को सुनाई। इससे भारत की विभिन्न छावनियों में स्थित सैनिकों में भी चर्बी युक्त कारतूसों के विरुद्ध क्रांति करने की भावना जागृत हुई।
(2.) अवध में सैनिक क्रांति
डलहौजी द्वारा 1856 ई. में अवध को अँग्रेजी राज्य में मिलाये जाने के कारण, अवध में अँग्रेजों के विरुद्ध भारी असन्तोष था। 2 मई 1857 को लखनऊ की अवध रेजीमेंट ने चरबी-युक्त कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। 3 मई 1857 को लखनऊ में सैनिक विद्रोह हुआ जिसे दबा दिया गया। 31 मई 1857 को एक बार पुनः विद्रोह फूट पड़ा। यह विद्रोह अवध राज्य के विभिन्न भागों में फैल गया। अवध का नवाब वाजिद अलीशाह कलकत्ता में अँग्रेजों का बन्दी था, अतः विद्रोहियों ने उसके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादर को नवाब घोषित करके शासन, बेगम हजरत महल को सौंप दिया। अवध के जमींदारों, किसानों और सैनिकों ने, बेगम हजरत महल की सहायता की। 20 जून 1857 को अँग्रेजी सेना, क्रांतिकारियों से परास्त हुई। ब्रिटिश सेना ने भागकर ब्रिटिश रेजीडेंसी में शरण ली। क्रांतिकारियों ने रेजीडेंसी में आग लगा दी। इसके बाद अवध के अधिकांश ताल्लुकेदारों व जमींदारों ने अपनी जागीरों व जमींदारियों पर अधिकार कर लिया। 4 जुलाई 1857 को एक भीषण विस्फोट में अवध के कमिशनर हेनरी लॉरेन्स की मृत्यु हो गई। लखनऊ में रह रहे अँग्रेजों की सहायता के लिए प्रधान सेनापति कॉलिन कैम्पबेल, आउट्रम तथा हेवलॉक अपनी सेनाएं लेकर लखनऊ पहुंचे। नेपाल से गोरखा सेना बुलाई गई। 31 मार्च 1858 को अँग्रेजों ने पुनः लखनऊ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद भी ताल्लुकेदार छिपकर अँग्रेजों की हत्या करते रहे किन्तु मई 1858 में बरेली पर अँग्रेजों का अधिकार हो जाने पर अवध के क्रान्तिकारियों ने हथियार डाल दिये। इसके बाद अवध रेजीमेंट को भंग कर दिया गया।
(3.) मेरठ में सैनिक क्रांति
चर्बी-युक्त कारतूसों की सूचना मेरठ भी पहुँच गई। 24 अप्रैल 1857 को घुड़सवारों की एक सैनिक टुकड़ी ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। मेरठ छावनी का अधिकारी कारमाइकेल स्मिथ अत्यन्त घमण्डी था। उसने सैनिकों को 5 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई। 9 मई 1857 को 85 सैनिकों को अपराधियों के कपड़े पहनाकर बेड़ियाँ लगा दी गईं। कारमाइकेल ने भारतीय सैनिकों को चुनौती दी कि वे चाहें तो अपने साथियों के अपमान का बदला ले सकते हैं। 9 मई की शाम को जब कुछ सिपाही नगर में घूमने निकले तो राह चलती स्त्रियों ने उन पर ताने कसे। मुरादाबाद के तत्कालीन जज जे. सी. विल्सन ने लिखा है- ‘महिलाओं ने सिपाहियों से कहा, छिः! तुम्हारे भाई जेलखाने में हैं और तुम यहाँ बाजार में मक्खियां मार रहे हो। तुम्हारे जीने पर धिक्कार है।’ 10 मई 1857 को सांय 5 बजे मेरठ की एक पैदल सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह घुड़सवारों की टुकड़ी में भी फैल गया। कारमाइकेल जान बचाकर भाग गया। क्रांतिकारी सैनिक, जेल में घुसे और उन्होंने बन्दी सैनिकों की बेड़ियाँ काटकर उन्हें अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये। इसके बाद अँग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतार कर, वे दिल्ली की ओर चल पड़े। उस समय जनरल हेविट के पास 2200 यूरोपीय सैनिक थे परंतु उसने इस प्रचण्ड विद्रोह को रोकने का साहस नहीं किया।
(4.) दिल्ली पर अधिकार
11 मई 1857 को मेरठ के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली पहुंचे। उन्होंने कर्नल रिपले सहित अनेक अँग्रेज अधिकारियों को मार डाला तथा दिल्ली पर अधिकार कर लिया। विद्रोहियों ने बहादुरशाह से क्रान्ति का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। पहले तो बहादुरशाह ने नेतृत्व स्वीकार करने में संकोच दिखाया किन्तु विद्रोहियों का अत्यधिक दबाव देखकर उसने क्रान्ति का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। बहादुरशाह ने दिल्ली में इस क्रांति का नेतृत्व नाम-मात्र के लिये किया। वास्तविक नेतृत्व उसके सेनापति बख्तखाँ ने किया जिसकी बाद में 13 मई 1859 को अँग्रेजों से युद्ध करते हुए मृत्यु हुई। मेरठ तथा दिल्ली के समाचार अन्य नगरों में भी पहुँचे जिससे उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में विद्रोह फैल गया। नाना साहब ने कानपुर पर अधिकार करके स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया। बुन्देलखण्ड में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने, मध्य भारत में तात्या टोपे नामक मराठा ब्राह्मण ने तथा बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवरसिंह ने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया। इसी प्रकार अवध, कानपुर, आगरा, अलीगढ़, बरेली, मथुरा आदि विद्रोह के प्रमुख केन्द्र बन गये।
(5.) राजपूताना में सैनिक क्रांति की चिन्गारी
कम्पनी सरकार ने राजपूताना में डाकुओं को पकड़ने के लिये कोटा रेजीमेंट, जोधपुर लीजियन, शेखावाटी ब्रिगेड आदि सेनाओं का गठन किया था तथा इन्हें रखने के लिये नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा तथा खैरवाड़ा में कुल छः स्थानों पर सैनिक छावनियां स्थापित की थीं। इन छावनियों में लगभग पाँच हजार भारतीय सैनिक नियुक्त थे। इनमें एक भी यूरोपीय सैनिक नहीं था। जब मेरठ और दिल्ली की क्रांति के समाचार राजपूताने में पहुँचे तो ए.जी.जी. ने राजपूताना के शासकों को पत्र लिखकर निर्देशित किया कि वे अपने राज्य में शंति बनाये रखें। राज्य में क्रांतिकारियों को न घुसने दें तथा यदि वे घुसते हैं तो उन्हें बंदी बनायें। इन निर्देशों के उपरांत भी राजपूताने की लगभग समस्त सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अँग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध हथियार उठा लिये।
(6.) नसीराबाद में सैनिकों का विद्रोह
राजपूताने के मध्य में स्थित अजमेर, ब्रिटिश शासित क्षेत्र था। जिस समय मेरठ और दिल्ली में सैनिक क्रांति आरम्भ होने के समाचार अजमेर पहुंचे, उस समय अजमेर का तोपखाना बंगाल इन्फैण्ट्री की 15वीं रेजीमेंट के अधीन था। यह सेना कुछ समय पहले ही मेरठ से नसीराबाद आई थी। जिस समय विद्रोह हुआ, अजमेर-मेरवाड़ा का कमिश्नर कर्नल डिक्सन ब्यावर में था। अजमेर का शस्त्रागार (मैगजीन), अजमेर की सघन बस्ती के बिल्कुल निकट स्थित था। इसमें इतना बारूद, शस्त्र, तोपें तथा राजकीय खजाना मौजूद था कि पूरे राजपूताना के विद्रोही सैनिकों को आपूर्ति करने के लिये पर्याप्त था। कर्नल डिक्सन ने अपने सहायक, ऑफिशियेटिंग सैकण्ड इन कमाण्ड लेफ्टिनेंट डब्लू कारनेल को रात्रि में ही ब्यावर से मेरवाड़ा बटालियन की दो कम्पनियों के साथ अजमेर के लिये रवाना किया ताकि रात में ही अजमेर पहुँचकर मैगजीन पर अधिकार कर ले। ले. कारनेल अगली प्रातः मैगजीन के समक्ष प्रकट हुआ। उसने ब्रिटिश ऑफीसर इन कमाण्ड से अपनी सेना सहित मैगजीन से बाहर जाने के लिये कहा तो ब्रिटिश ऑफीसर इन कमाण्ड ने मैगजीन खाली करने से मना कर दिया। इस पर ले. कारनेल ने उस पर दबाव बनाया और मैगजीन पर कब्जा करके 15वीं बंगाल इन्फैण्ट्री को मैगजीन से बाहर निकाल दिया। कारनेल, अँग्रेजों के परिवारों को मैगजीन के भीतर ले आया और उसने मैगजीन की बुर्जों पर पुरानी तोपें चढ़ा दीं। कारनेल ने मैगजीन के बीचों बीच एक कुआं खोदा तथा पर्याप्त रसद जमा करके, किसी भी आपात् स्थिति से निबटने के लिये तैयार होकर बैठ गया। जब 15वीं इण्डियन इनफैण्ट्री नसीराबाद पहुँची तो उनके साथियों ने उन्हें इस बात के लिये धिक्कारा कि उन्होंने निम्न जाति के मेर लोगों को मैगजीन सौंप दी।
राजपूताना के एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल कर्नल जॉर्ज पैट्रिक लॉरेंस को 19 मई 1857 को इस विद्रोह का समाचार मिला। उस दिन वह माउण्ट आबू में था। एजीजी ने कोटा कण्टिन्जेण्ट को अजमेर पहुंचने के निर्देश भेजे किंतु तब तक उसे आगरा भेजा जा चुका था। एजीजी ने नसीराबाद की हिन्दुस्तानी सेना को आतंकित करने के लिये डीसा की लाइट इन्फैन्ट्री को नसीराबाद भेजने के आदेश भिजवाये। 23 मई 1857 को लॉरेंस ने राजपूताना की समस्त रियासतों के राजाओं से अपील की कि वे अपने राज्यों में व्यवस्था बनाये रखें तथा अपनी सेनाओं को ब्रिटिश शासन की सहायता के लिये राज्यों की सीमा पर तैनात करें। 23 मई को ही डीसा से लाइट इन्फैण्ट्री नसीराबाद के लिये चल पड़ी। उसके साथ लाइट फील्ड तोपखाना भी था। इसमें पूरी तरह यूरोपियन सैनिक थे। लॉरेन्स ने अपने सहायक, कैप्टेन फोर्ब्स को तोपखाने के साथ नसीराबाद के लिये रवाना किया। 15वीं नेटिव इन्फैण्ट्री की ग्रेनेडियर कम्पनी को भी अजमेर भेजा गया तथा उसे अजमेर दुर्ग में तैनात किया गया ताकि डीसा से आने वाली लाइट इन्फैण्ट्री को मजबूती दी जा सके।
अजमेर से कुछ दूरी पर स्थित नसीराबाद छावनी के बाहर यूरोपियन अधिकारियों के बंगले बने हुए थे। छावनी क्षेत्र में एक असिस्टेण्ट कमिश्नर, एक सिविल सर्जन तथा उसकी पत्नी, गवर्नमेंट कॉलेज का प्रिंसीपल, उसका एक सहायक तथा आधा दर्जन नॉन कमीशन्ड अधिकारी तोपखाने के पास ही रहते थे। 28 मई 1857 को नसीराबाद की दो रेजीमेन्ट्स में विद्रोह हुआ। सबसे पहले 15वीं रेजीमेन्ट ने विद्रोह किया जो बहुत उद्दण्ड तथा अनुशासनहीन मानी जाती थी। इसके सैनिकों को व्यंग्य से पुरबिया (पूर्व के रहने वाले) कहा जाता था। उन्होंने शस्त्रागार से बन्दूकें लूट लीं और सरकारी बगंलों तथा निजी आवासों में घुसकर लूटपाट की और उन्हें जला दिया।
फर्स्ट बॉम्बे कैवेलरी तथा 30वीं नेटिव इनफैण्ट्री भी नसीराबाद में नियुक्त थीं। मेजर प्रिचार्ड ने इन टुकड़ियों के सिपाहियों को विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दिया किंतु सैनिकों ने आदेश मानने से मना कर दिया परन्तु जब ब्रिटिश अधिकारियों के बच्चे नसीराबाद से अजमेर के लिये रवाना हुए तो फर्स्ट बॉम्बे कैवेलरी ने स्त्रियों तथा बच्चों को सुरक्षा प्रदान की। विद्रोहियों द्वारा इस टुकड़ी के दो अधिकारी मार डाले गये। कर्नल स्पॉट्सवुड को गोली मारी गई तथा कर्नल न्यूबरी को टुकड़ों में काट दिया गया। लेफ्टीनेंट लॉक तथा केप्टेन हार्डी को बुरी तरह से घायल कर दिया। यह हमला होते ही अँग्रेज अधिकारियों ने अजमेर की सड़क पकड़ी। 30वीं नेटिव इन्फैण्ट्री के कैप्टेन फेनविक ने नसीराबाद छोड़ने से मना कर दिया। कुछ वफादार सिपाहियों ने कैप्टेन से प्रार्थना की कि वह भी अजमेर चला जाये किंतु फेनविक ने मना कर दिया। सिपाही उसे मारना नहीं चाहते थे। इसलिये चार सिपाही उसे पकड़कर ले गये और छावनी के बाहरी छोर पर ले जाकर छोड़ दिया।
अँग्रेज अधिकारी कुछ विश्वस्त भारतीय सैनिकों को अपने साथ लेकर अजमेर की तरफ चल दिये किंतु ब्रिगेडियर मकाउ के निर्देशों पर वे अजमेर न जाकर ब्यावर की तरफ मुड़ गये। 30वीं नेटिव इन्फैण्ट्री के 120 मजबूत सिपाही तथा एक भारतीय अधिकारी के सरंक्षण में ये अँग्रेज अधिकारी ब्यावर पहुँच गये। अँग्रेज अधिकारियों के नसीराबाद छोड़ते ही छावनी में लूटपाट और आगजनी तेज हो गई। चर्च तथा अधिकारियों के बंगलों में आग लगा दी गई तथा खजाना लूट लिया गया। अधिकारियों के बंगलों में रात भर लूट चलती रही। उसके बाद दुकानों में लूट आरम्भ हुई। विद्रोहियों ने सदर बाजार के कोने पर तोप लगा दी और धमकी दी कि यदि कोई उनके मार्ग में आया तो उसे तोप से उड़ा दिया जायेगा किंतु किसी को नहीं मारा गया न घायल किया गया।
बंगाल नेटिव इन्फेंटरी के सैनिक लूट का धन लेकर दिल्ली की ओर कूच कर गये। उनके पास नसीराबाद से लूट का इतना अधिक माल था कि उसे ढो पाना कठिन हो रहा था। विद्रोही सैनिक दु्रतगति से कूच करते गये। लूट के सामान से लदे होने तथा खराब सड़कों के उपरांत भी उन्होंने लम्बी यात्रा जारी रखी। उनके साथ उनकी बीमार स्त्रियां, बच्चे तथा बहुत सारा सामान था। उन्हें लूट का एक भाग रास्ते में ही छोड़ देना पड़ा था। अजमेर के असिस्टेण्ट कमिश्नर ले. वॉल्टर्स तथा राजपूताना की फीर्ल्ड फोर्सेज के डिप्टी असिस्टेण्ट क्वार्टर मास्टर जनरल ले. हीथकोट ने विद्रोहियों का पीछा किया। उनके साथ एक हजार सिपाही थे। यह टुकड़ी राज ट्रूप्स कहलाती थी। इसमें निकटवर्ती जयपुर तथा जोधपुर रियासतों के सैनिक थे। इन सैनिकों ने विद्रोहियों पर आक्रमण नहीं किया। इन्होंने इस बात को छिपाया भी नहीं कि उन्हें विद्रोहियों से सहानुभूति है। 18 जून 1857 को क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली पहुँचे तथा उन्होंने उस अंग्रेज पलटन पर पीछे से आक्रमण किया जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी। इस युद्ध में अँग्रेज सेना हार गयी।
नसीराबाद में शांति: 12 जून को लाइट इन्फैण्ट्री डीसा से नसीराबाद पहुँच गई। अजमेर से 100 मील की दूरी पर एरिनपुरा छावनी में अनयिमित सेना थी जिसे जोधपुर लीजियन कहा जाता था। ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन दो स्थानीय कोर भी थे जिनमें से एक भील कोर थी जिसमें मेवाड़ी भील सैनिक थे। दूसरी सेना खेरवाड़ा की मेरवाड़ा बटालियन थी जिसकी भरती कर्नल डिक्सन के द्वारा की गई थी। ये दोनों सेनायें अँग्रेजों के प्रति स्वामिभक्त बनी रहीं। जब फर्स्ट बंगाल इंफैण्ट्री ने विद्रोह किया तो भील कोर ने उसे विफल कर दिया। विद्रोहियों के दिल्ली रवाना होने के कुछ दिन बाद 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री की इकाई, जोधपुर लीजियन की इकाई, सैकेण्ड बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री, तीन तोपें, बॉम्बे हॉर्स आर्टिलरी तथा हिज मैजस्टी की 83वीं बटालियन के 200 सिपाहियों ने नसीराबाद पहुँचकर स्थानीय लोगों को अभयदान दिया। जो अँग्रेज अधिकारी विद्रोह के दिन नसीराबाद छोड़कर ब्यावर चले गये थे, वे इन टुकड़ियों के साथ नसीराबाद लौट आये।
12 जून को फर्स्ट बॉम्बे लांसर्स का एक घुड़सवार घोड़े पर सवार होकर अपने सैनिकों की पंक्ति के समक्ष खड़ा हो गया तथा उसने अपने साथियों को विद्रोह के लिये आमंत्रित किया। बॉम्बे लांसर्स ने उसका पीछा किया, विद्रोही ट्रूपर, 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री की पंक्तियों में भाग गया जहाँ उसे शरण मिल गई। ब्रिगेडियर हेनरी मकाउ ने 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री को बैरकों से बाहर आने के आदेश दिये। इस पर केवल 40 सैनिक बाहर आये। ब्रिगेडियर ने तोपें मंगवा लीं तथा 83वीं पैदल टुकड़ी को उन्हें दण्डित करने का निर्देश दिया। थोड़ी देर में ही विद्रोही घुड़सवार को एक तोपची ने मार गिराया। उसके पांच विद्रोही साथियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। तीन को आजीवन कारावास दिया गया तथा पच्चीस सैनिकों के हथियार छीनकर दूसरे सैनिकों को दे दिये गये। नसीराबाद के सैनिक विद्रोह से कर्नल डिक्सन को गहरा आघात पहुँचा जिससे 25 जून 1857 को ब्यावर में उसका निधन हो गया।
(7.) नीमच में सैनिक क्रांति
कर्नल एबॉट ने भारतीय सिपाहियों को गंगाजल तथा कुरान पर हाथ धरकर शपथ दिलवायी कि वे अँग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादार रहेंगे। उसने स्वयं भी बाइबिल पर हाथ रखकर शपथ ली कि वह अपने भारतीय सैनिकों पर पूरा विश्वास रखेगा किंतु अविश्वास का वातावरण बन चुका था इसलिये इन शपथों से कुछ नहीं हुआ। 3 जून 1857 को रात्रि 11 बजे भारतीय सैनिकों ने तोपखाने पर अधिकार करके छावनी को घेर लिया तथा उसमें आग लगा दी। कप्तान मेकडोनल्ड ने किले की रक्षा का प्रयास किया किंतु वहाँ तैनात टुकड़ी भी विद्रोही हो गयी। सैनिक कोष से 50 हजार रुपये तथा असैनिक कोष से 1 लाख 26 हजार रुपये लूट लिये गये। एक सार्जेंण्ट की पत्नी की हत्या करके उसके बच्चों को अग्नि में फैंक दिया गया। इसके अतिरिक्त कोई हत्या नहीं हुई। नीमच छावनी से लगभग 40 अँग्रेज, औरतें व बच्चे मेवाड़ की ओर भागे। डूंगला गाँव में एक किसान ने उन्हें शरण दी। इसी समय खबर आयी कि मेवाड़ पोलिटिकल एजेंट कप्तान शावर्स बेदला के राव बख्तसिंह के नेतृत्व में सेना लेकर नीमच आ रहा है। इस पर विद्रोही सिपाहियों ने लूट का माल लेकर बैण्ड बजाते हुए छावनी से कूच किया। 10 जुलाई 1857 को कर्नल लॉरेंस ने नसीराबाद से हर मेजस्टी की 83वीं रेजीमेंट के 100 सैनिक, 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री के 200 सैनिक, सैकेण्ड बॉम्बे कैवलेरी का एक स्क्वैड्रन तथा अजमेर मैगजीन से दो तापें नीमच भेजीं। तब तक क्रांतिकारी दिल्ली के लिये कूच कर चुके थे।
शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारी सिपाहियों को शरण दी तथा उनके लिये रसद आदि की व्यवस्था की। निम्बाहेड़ा में भी इन सिपाहियों का भव्य स्वागत हुआ। इन सिपाहियों ने देवली पहुँच कर छावनी को लूटा। अँग्रेज पहले ही देवली को खाली करके जहाजपुर जा चुके थे। यहाँ से विद्रोही सिपाही टोंक तथा कोटा होते हुए दिल्ली पहुँचे और दिल्ली के क्रांतिकारियों से मिलकर अंग्रेज सेना पर आक्रमण किया। कप्तान शावर्स ने सेना लेकर विद्रोही सिपाहियों का पीछा किया। वह शाहपुरा भी गया किंतु शाहपुरा के शासक ने उसके लिये नगर के द्वार नहीं खोले। शावर्स जहाजपुर व नीमच भी गया। उसकी सहायता के लिये ए.जी.जी. जार्ज लॉरेन्स भी आ गया किंतु तब तक क्रांतिकारी दिल्ली के लिये कूच कर चुके थे। ए.जी.जी. ने डीसा से एक यूरोपियन सेना बुलाकर नसीराबाद में नियुक्त की तथा वहाँ स्थित समस्त भारतीय सैनिकों को सेवा मुक्त कर दिया। 12 अगस्त 1857 को नीमच छावनी के कमाण्डर कर्नल जैक्सन को सूचना मिली कि भारतीय सैनिक पुनः नीमच में विद्रोह करने की योजना बना रहे हैं। सैनिकों ने एक अँग्रेज अधिकारी को मार दिया तथा दो अधिकारियों को घायल कर दिया। मेवाड़ी सैनिकों के सहयोग से इस विद्रोह को भी दबा दिया गया।
(8.) आउवा में क्रांति
आउवा ठिकाना जोधपुर राज्य में स्थित था। जोधपुर राज्य पर उस समय महाराजा तख्तसिंह का शासन था। वह ईडर से लाकर राजा बनाया गया था इसलिये मारवाड़ के सामंत उसे विदेशी शासक मानते थे। तख्तसिंह ने मारवाड़ के सामंतों से परंपरागत रेख के साथ नजराना भी मांगा तथा हुक्मनामे में वृद्धि कर दी। तख्तसिंह ने गुजरात से अपने साथ आये आदमियों को राज्य में उच्च पद दिये। इससे मारवाड़ के सामंत, राजा से नाराज थे। उन्होंने राजा को रेख, नजराना व हुक्मनामा देने से मना कर दिया। इनमें आसोप, आउवा तथा पोकरण के ठाकुर प्रमुख थे।
1836 ई. में स्थापित जोधपुर-लीजियन नामक सेना एरिनपुरा में तैनात की गयी थी। 18 अगस्त को जोधपुर लीजियन के कुछ सिपाहियों ने माउण्ट आबू में अँग्रेजी सैनिकों की बैरकों में घुसकर गोलियां चलाईं तथा ए.जी.जी. के पुत्र ए. लॉरेंस को घायल कर दिया। कप्तान हॉल ने विद्रोहियों को अनादरा गाँव तक खदेड़ दिया। ये विद्रोही सैनिक 23 अगस्त को ऐरिनपुरा पहुँचे। ऐरिनपुरा में इनका स्वागत हुआ तथा ऐरिनपुरा में भी विद्रोह हो गया। विद्रोही सिपाही पाली की ओर बढ़े। जोधपुर नरेश तख्तसिंह ने अनाड़सिंह को सेना देकर अंग्रेजों की सहायता के लिये भेजा। क्रांतिकारी सैनिक पाली के बजाये आउवा की तरफ मुड़ गये। आउवा ठाकुर कुशालसिंह ने इन सैनिकों का स्वागत किया। कुशालसिंह को लाम्बिया, बांटा, भीवलिया, राडावास, बांजावास आदि ठिकानों के सामंतों का समर्थन प्राप्त था। कुशालसिंह ने जोधपुर के पोलिटिकल एजेंट मॉक मेसन को सूचित किया कि उसने क्रांतिकारियों को इस बात पर सहमत कर लिया है कि यदि उन्हें क्षमा कर दिया जाये तो वे अपने हथियार तथा सरकारी सम्पत्ति को जमा करवा देंगे। इस पर मॉक मेसन ने कुशालसिंह को लताड़ पिलाई कि वह उन लोगों की पैरवी कर रहा है जो देशद्रोही हैं तथा जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया है।
कुशालसिंह ने क्रांतिकारियों से बात की तथा उन्हें किले में बुला लिया। कुशालसिंह ने अँग्रेजों से और राजा तख्तसिंह की सेनाओं से लड़ने का निश्चय किया। गूलर का ठाकुर बिशनसिंह, आसोप का ठाकुर शिवनाथसिंह तथा आलणियावास का ठाकुर अजीतसिंह भी अपनी सेनाएं लेकर आउवा आ गये। खेजड़ला ठाकुर ने भी अपने कुछ सैनिक कुशालसिंह की मदद के लिये भेज दिये। मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के सामंतों ने भी अपनी सेनाएं आउवा भेज दीं। इसी बीच किलेदार अनाड़सिंह की सहायता के लिये जोधपुर से कुशलराज सिंघवी, छत्रसाल, राजमल मेहता, विजयमल मेहता आदि की सेनाएं भी आ गयीं। अनाड़सिंह ने अपनी तोपों के मुंह विद्रोही सिपाहियों की ओर खोल दिये। विद्रोहियों ने भी गोलीबारी आरम्भ कर दी। जोधपुर की राजकीय सेना के दस सिपाही मारे गये तथा अनाड़सिंह की सेना पराजित हो गयी। लेफ्टीनेंट हीथकोट ने पाँच सौ अश्वारोही लेकर विद्रोही सिपाहियों पर आक्रमण किया। विद्रोही सिपाहियों ने राजकीय सेना के 76 आदमी मार डाले। अनाड़सिंह घायल हो गया। हीथकोट किसी तरह जान बचाकर भागा। कुशलराज सिंघवी और विजयमल मेहता भी मैदान छोड़कर भाग गये। क्रांतिकारी सिपाहियों ने राजकीय सेना के डेरे लूट लिये।
आउवा में पराजय के समाचार सुनकर ए.जी.जी. जॉर्ज लारेंस 18 सितम्बर को आउवा पहुँचा। जोधपुर से मॉक मेसन भी आ गया। विद्रोही सिपाहियों ने मॉक मेसन की गोली मारकर हत्या कर दी तथा उसका सिर काटकर किले के दरवाजे के सामने उलटा लटका दिया। ए.जी.जी. डरकर अजमेर भाग गया।
दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद अँग्रेज सेना ने आउवा पर फिर से चढ़ाई की। 20 जनवरी 1858 को कर्नल होमल ने आउवा को घेरा। इस समय कुशालसिंह के पास केवल 700 सैनिक थे। चार दिन तक आउवा का घेरा चलता रहा। दोनों पक्षों में भीषण गोलीबारी हुई। ठाकुर कुशालसिंह रात के अंधेरे में आउवा छोड़कर मेवाड़ चला गया और उसके भाई (लाम्बिया ठाकुर) ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया। अंत में अँग्रेजों ने आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर किले पर अधिकार कर लिया। अँग्रेजों ने आउवा को जमकर लूटा। सिरियाली के ठाकुर को पकड़ कर राजा तख्तसिंह के पास भेज दिया। गूलर, आसोप एवं आलणियावास की किलेबंदी नष्ट कर दी।
गूलर, आसोप, आलणियावास तथा आउवा ठाकुर, क्रांतिकारी सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए नारनौल तक गये तथा अँग्रेजी फौजों से युद्ध किया। जब अँग्रेजों ने आसोप घेर लिया तब आसोप ठाकुर ने अँग्रेज सेना पर आक्रमण किया। पाँच सप्ताह तक चले इस युद्ध के बाद आसोप ठाकुर की युद्ध सामग्री समाप्त हो गयी और उसे समर्पण करना पड़ा। उसे बंदी बना लिया गया तथा उसकी जागीर जब्त कर ली गयी। गूलर तथा आलणियावास के ठाकुरों की जागीरें भी जब्त कर ली गयीं तथा उन्हें डाकू घोषित किया गया। आउवा ठाकुर भी नारनौल से लौटकर कई वर्षों तक अपनी जागीर फिर से प्राप्त करने की जुगत करता रहा। उसने आउवा पर कई आक्रमण किये किंतु असफल रहा। अंत में 1860 ई. में नीमच में उसने आत्म-समर्पण किया।
(9.) कोटा में क्रांति
कोटा की क्रांति राजस्थान में हुई 1857 की क्रांति में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी। कोटा में 1838 ई. से कोटा कन्टिजेन्ट स्थापित थी। कोटा के शासक से इस बटालियन का पूरा खर्चा लिया जाता था। जून 1857 में नीमच विद्रोह को दबाने के लिये मेजर बर्टन कोटा कन्टीजेंट को लेकर नीमच गया। तब तक नीमच के क्रांतिकारी दिल्ली के लिये जा चुके थे। अतः कोटा की सेना को आगरा भेज दिया गया। यह सेना सितम्बर में विद्रोह पर उतर आयी। ये समाचार कोटा पहुँचे तो कोटा के सैनिकों में भी क्रांति के बीज फूट पड़े। मेजर बर्टन 12 अक्टूबर को वापस कोटा लौटा। कोटा महाराव ने बर्टन का स्वागत विजयी सेनानायक की भांति किया। बर्टन ने कोटा नरेश रामसिंह को गुप्त परामर्श दिया कि वह उन सैनिक अधिकारियों को बर्खास्त कर दे जिनमें ब्रिटिश विद्रोही भावनाएं हैं। यह परामर्श सैनिकों को ज्ञात हो गया। इससे क्रुद्ध होकर 15 अक्टूबर 1857 को कोटा राज पलटन में विद्रोह हो गया। कोटा की नारायण पलटन तथा भवानी पलटन ने हथियारों से लैस होकर कोटा रेजीडेंसी को घेर लिया जहाँ मेजर बर्टन का आवास था। तीन हजार सैनिकों ने लाला जयदयाल तथा रिसालदार मेहराबखान के नेतृत्व में प्रातः साढ़े दस बजे रेजीडेंसी पर गोलाबारी आरम्भ कर दी। रेजीडेंसी के सर्जन डॉ. सेल्डर तथा डॉ. काण्टम, मेजर बर्टन तथा उसके दो पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया गया। कोटा के क्रांतिकारियों को कोटा राज्य के अधिकांश अधिकारियों यहाँ तक कि विभिन्न किलों के किलेदारों का भी सहयोग मिल गया। सैनिकों ने राजकीय भण्डारों, बंगलों, दुकानों, शस्त्रागारों, शहर कोतवाली आदि पर अधिकार कर लिया। उन्होंने कोटा राज्य के कोषागारों पर भी आक्रमण किया।
मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया गया। महाराव ने अँग्रेजों तथा करौली के शासक से सहायता के लिये संदेश भिजवाये। ये संदेश भी क्रांतिकारियों के हाथ लग गये। अतः सैनिकों ने महल पर हमला कर दिया। महाराव ने मथुराधीश मंदिर के महंत को मध्यस्थ बनाकर विद्रोही सैनिकों से संधि की। सैनिकों ने महाराव से एक कागज पर लिखवाया कि बर्टन की हत्या महाराव के आदेश पर की गयी है तथा महाराव ने लाला जयदयाल को अपना मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किया है। लगभग 6 माह तक कोटा महाराव का अपने राज्य पर कोई अधिकार नहीं रहा। करौली के शासक मदनपाल तथा उदयपुर के महाराणा स्वरूपसिंह ने अपनी सेनाएं कोटा भेजीं। इन सेनाओं ने विद्रोही सैनिकों को पीछे खदेड़ दिया किंतु शहर का एक भाग अब भी कोटा महाराव के नियंत्रण में नहीं था। वहाँ पर विद्रोही सैनिकों ने भीषण लूटपाट आरम्भ कर दी।
कोटा महाराव ने क्रांति का दमन करने के लिये ए.जी.जी. से सहायता मांगी। ए.जी.जी. ने बम्बई से सेना मंगवाई जो मार्च 1858 में चम्बल नदी के उत्तरी किनारे पर पहुँची। इस समय चम्बल का दक्षिणी भाग विद्रोही सैनिकों के अधिकार में था किंतु जनरल रॉबर्ट्स ने आसानी से इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 30 मार्च 1858 तक सम्पूर्ण कोटा शहर पर महाराव का शासन हो गया। इस युद्ध में 120 से 130 विद्रोही सैनिक मारे गये। लाला जयदयाल तथा मेहराबखान भूमिगत हो गये किंतु कुछ ही महीनों में पकड़कर उन्हें फांसी दे दी गयी। कोटा की क्रांति की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें राज्याधिकारी भी क्रांतिकारियों के साथ थे तथा उन्हें जनता का प्रबल समर्थन प्राप्त था। वे चाहते थे कि कोटा का महाराव अँग्रेजों के विरुद्ध हो जाये तो वे महाराव का नेतृत्व मान लेंगे किंतु महाराव इस बात पर सहमत नहीं हुआ।
(10.) मेवाड़ में क्रांति
भारत-व्यापी क्रांति आरम्भ हो के समय, महाराणा स्वरूपसिंह के सम्बन्ध न तो अपने सरदारों से अच्छे थे और न कम्पनी सरकार से। महाराणा सामंतों को प्रभावहीन करना चाहता था। इससे सरदार दो धड़ों में विभक्त थे तथा उनमें खूनी संघर्ष की संभावना थी। इस समय महाराणा और कम्पनी सरकार दोनों को ही मेवाड़ के सामंतों से भय था इसलिये दोनों को ही एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता थी। मेरठ विद्रोह की सूचना मिलने पर ए.जी.जी. ने महाराणा को पत्र लिखा कि वह अपनी सेनाएं तैयार रखे ताकि उनका उपयोग विद्रोह को दबाने में किया जा सके। महाराणा ने अपने सामंतों को आदेश दिया कि वे अपनी सेनाएं तैयार रखें तथा पोलिटिकल एजेंट शावर्स के आदेशों को महाराणा के ही आदेश समझें। मेवाड़ की भील कोर का मुख्यालय खैरवाड़ा में था, वहाँ भी क्रांति होने का भय था।
नीमच के क्रांतिकारी सैनिक, नीमच छावनी में आग लगाने के बाद चित्तौड़, हमीरगढ़ व बनेड़ा में सरकारी बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा के राजाधिराज ने सैनिकों को शरण दी। वहाँ से सैनिक देवली की ओर रवाना हुए। उनके आगमन की सूचना पाकर अँग्रेज अधिकारियों के परिवार देवली से भाग खड़े हुए। उन्हें जहाजपुर में स्थित मेवाड़ी सेना ने बचा कर उदयपुर भिजवाया। कप्तान शावर्स ने मेवाड़ की एक टुकड़ी को क्रांतिकारी सैनिकों के पीछे भेजा तथा स्वयं नीमच होते हुए शाहपुरा आ गया। शाहपुरा के राजाधिराज ने शावर्स के लिये किले के दरवाजे नहीं खोले। शावर्स जहाजपुर होता हुआ बेगूं पहंुचा। बेगूं के रावत महासिंह ने उसका स्वागत किया। उसने क्रांतिकारियों को अपने राज्य में नहीं घुसने दिया। क्रांति समाप्त होने पर अँग्रेज सरकार ने रावत को दो हजार मूल्य की खिलअत प्रदान की।
सलूम्बर के रावत ने परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए महाराणा को धमकाया कि यदि उसकी परम्परागत मांगें नहीं मानी गयीं तो वह चित्तौड़ के किले पर महाराणा के प्रतिद्वंद्वी को बैठा देगा। महाराणा ने अँग्रेजों से सहायता मांगी। इस पर शावर्स ने रावत को धमकी दी कि यदि वह गड़बड़ी करने का प्रयास करेगा तो उसका ठिकाना जब्त कर लिया जायेगा। इस पर रावत ने कहा कि मैं कुछ नहीं कर रहा, यह तो केवल अफवाह है। विद्रोहियों की एक टुकड़ी सलूम्बर आकर ठहरी। इस पर शावर्स ने रावत को लिखा कि विद्रोही सैनिकों को अपने यहाँ ही रोके तथा उनके मुखिया को गिरफ्तार करके भेज दे किंतु रावत ने ऐसा नहीं किया तथा विद्रोही सैनिकों को वहाँ से निकल जाने दिया। इस पर अँग्रेजों ने उससे स्पष्टीकरण मांगा। रावत ने कहा कि वह विद्रोही सैनिकों के आगे मजबूर था।
(11.) झाँसी में क्रान्ति
1854 ई. में झाँसी राज्य को ब्रिटिश क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया गया था। अतः झाँसी में अँग्रेजों के विरुद्ध व्यापक असन्तोष था। 5 जून 1857 को झाँसी की सेना ने विद्रोह किया तथा अँग्रेज अधिकारियों को दुर्ग में घेरकर 8 जून को उनकी हत्या कर दी। आरम्भ में रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों का समर्थन नहीं किया तथा सागर डिवीजन के कमिशनर को पत्र लिखकर अपनी स्थिति भी स्पष्ट की। अर्सकाइन ने भी रानी को प्रशासन का उत्तरदायित्व सौंपा, फिर भी अँग्रेजों ने झाँसी की घटनाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई को दोषी ठहराया। जब ओरछा तथा दतिया के शासकों ने झाँसी पर आक्रमण किया, तब भी रानी अँग्रेजों से सहायता प्राप्त करना चाहती थी किन्तु अँग्रेजों ने उसे सन्देह की दृष्टि से देखा। विवश होकर रानी ने झाँसी के विद्रोहियों का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। रानी का दमन करने के लिए सर ह्यूरोज सेना लेकर बुन्देलखण्ड की ओर आया। रानी ने स्वयं सेना का संचालन किया। ग्वालियर से तांत्या टोपे भी रानी की सहायता के लिए आ पहुँचा किन्तु कुछ देशद्रोहियों ने किले के फाटक खोल दिये जिससे शत्रु सेना भीतर आ गई। अतः रानी लक्ष्मीबाई 4 अप्रैल 1858 को रात के अन्धेरे में अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर नगर से बाहर चली गई और ग्वालियर, गुना, बीना तथा बारां होती हुई झालावाड़ नगर के निकट कालीसिंध नदी के किनारे तक आ पहुंची। जब राजराणा पृथ्वीसिंह को अपने सैनिकों से ज्ञात हुआ कि महारानी अँग्रेजों से लड़ती हुई कालीसिंध के तट पर आकर ठहरी है तो राजराणा ने महारानी को महल में आमंत्रित किया। महारानी की दशा देखकर पृथ्वीसिंह को भारत भूमि की दुर्दशा का बोध हुआ। पृथ्वीसिंह ने महारानी को दो दिन तक महल में ठहराया तथा उन्हें नये वस्त्र भी प्रदान किये। अँग्रेजी सेनाएं महारानी का पीछा करती हुई झालावाड़ तक आ पहुंचीं। तब महारानी को झालावाड़ छोड़ना पड़ा। महारानी बहादुरी से लड़ती हुई कालपी पहुँच गयी। ह्यूरोज भी रानी का पीछा करते हुए कालपी आ पहुँचा। कालपी में दोनों में घमासान युद्ध हुआ। मई 1858 में कालपी पर अग्रेजों का अधिकार हो गया। वहाँ से रानी ग्वालियर पहुँची तथा ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ह्यूरोज भी रानी का पीछा करता हुआ ग्वालियर पहुँचा और रानी को घेर लिया। रानी ने यहाँ से भी भागने का प्रयास किया किन्तु उसका घोड़ा एक नाला पार करते समय वहीं गिर गया। रानी स्वयं भी बुरी तरह घायल हो गई। वहीं पर उसकी देह छूट गई। असीम धैर्य, साहस, स्वाभिमान और पराक्रम का परिचय देकर महारानी ने अँग्रेजों को खूब छकाया और अंत में मानव जाति के इतिहास में अपना नाम सबसे ऊपर लिखवा कर अमर हो गई।
(12.) कानपुर और बिठुर की क्रान्ति
1818 ई. में पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को कानपुर के निकट बिठुर भेज दिया गया तथा उसके लिए 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देना तय किया गया। बाजीराव के कोई पुत्र नहीं था, अतः उसने नाना धुन्धुपन्त को जिसे नाना साहब कहकर पुकारा जाता था, गोद लिया। 28 जनवरी 1851 को बाजीराव की मृत्यु हो गई। डलहौजी ने नाना साहब को पेंशन देने से इन्कार कर दिया। अतः नाना अँग्रेजों का शत्रु हो गया। मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना जब कानपुर पहुँची तो अँग्रेजों ने खजाने तथा बारूद के भण्डार की सुरक्षा का दायित्व नाना साहब के सिपाहियों को सौंपा किन्तु 4 जून को कानपुर में विद्रोह हो गया। 6 जून 1857 को नाना ने विद्रोहियों का नेतृत्व ग्रहण किया और कानपुर की ओर आया। अँग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक अस्थाई शिविर बनाया किन्तु 25 जून को इस शिविर पर विद्रोहियों ने अधिकार कर लिया। 27 जून को अँग्रेज इलाहाबाद की ओर जाने लगे किन्तु विद्रोहियों ने उन पर आक्रमण कर दिया। कानपुर पर अधिकार हो जाने के बाद बिठुर में नाना ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया। कुछ दिन बाद ही इलाहाबाद से अँग्रेजी सेना आ पहुँची जिसने 16 जुलाई 1857 को कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया।
इसी दिन कानपुर में बीबीघर नामक एक मकान में कुछ अँग्रेज स्त्रियों व बच्चों की हत्या कर दी गई। इससे नाराज होकर जनरल नील ने कानपुर में जन-साधारण पर भयानक अत्याचार किए। उसने एक मुसलमान अधिकारी को बीबीघर में फर्श पर लगे खून को जीभ से साफ करने का आदेश दिया। उस अधिकारी द्वारा आदेश पालन किये जाने पर भी नील ने उसे मृत्यु-दण्ड दिया। जनरल नील ने मृत ब्राह्मणों को जमीन में दफनवाया तथा मुसलमानों को चिता पर जलवाया। इसके तीन दिन बाद 19 जुलाई 1857 को बिठुर पर आक्रमण करके नाना के महल में आग लगा दी। बिठुर में भयंकर लूटमार की गई तथा धन मिलने की आशा में महल की एक-एक ईंट उखड़वा दी। अँग्रेजों को बिठुर की लूट में इतना अधिक सोना-चाँदी प्राप्त हुआ कि वे पूरा उठाकर नहीं ला जा सके। जनवरी 1858 के बाद नाना के बारे में कोई पता नहीं चला। बाद में पता लगा कि वह नेपाल चला गया है किन्तु उसके बाद उसकी कोई निश्चित जानकारी नहीं मिल सकी।
(13.) बिहार में क्रान्ति
बिहार में विद्रोह का संचालन शाहबाद जिले की जगदीशपुर जमींदारी के जमींदार कुवंरसिंह ने किया। उस समय उनकी आयु 70 वर्ष थी। कुंवरसिंह की जमींदारी काफी बड़ी थी किन्तु अँग्रेजों ने उन्हें दिवालियेपन की स्थित में पहुंचा दिया था। जुलाई 1857 में क्रांतिकारी सैनिकों ने दानापुर पर अधिकार करके कुवरंसिंह को नेतृत्व करने के लिये आमंत्रित किया। अगस्त 1857 में कुवंरसिंह लखनऊ की ओर चल पडे़। रास्ते में आजमगढ़ जिले में अँग्रेजी सेना से उनकी मुठभेड़ हो गयी। कुवंरसिंह ने अँग्रेजी सेना को खदेड़कर मार्च 1858 में आजमगढ़ पर अधिकार कर लिया। अब कुवंरसिंह बनारस की ओर बढ़े। 6 अप्रैल 1858 को लार्ड मार्क ने अपने तोपखाने सहित कुंवरसिंह से मुकाबला किया। कुंवरसिंह ने उसे भी परास्त करके भगा दिया। 22 अप्रैल 1858 को कुंवरसिंह ने अपनी जागीर जगदीशपुर पर अधिकार कर लिया। जगदीशपुर पहुँचे हुए उन्हें 24 घण्टे भी नहीं हुए थे कि आरा से ली-ग्रेड एक सेना लेकर जगदीशपुर आ पहुँचा। कुवंरसिंह ने उसे भी पराजित कर दिया। तीन दिन बाद कुंवरसिंह की मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के समय जगदीशपुर पर आजादी का ध्वज लहरा रहा था। बाद में मेजर आयर ने जगदीशपुर के महलों और मन्दिरों को नष्ट करके अपनी भड़ास निकाली।
(14.) दक्षिण भारत में क्रांति की चिन्गारी
बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है कि इस क्रांति के समय नर्मदा का दक्षिणी भाग पूर्णतः शान्त रहा। इन इतिहासकारों के अनुसार क्रांति के प्रमुख केन्द्र बिहार, अवध, रूहेलखण्ड, चम्बल तथा नर्मदा के मध्य की भूमि एवं दिल्ली ही थे किंतु यह मत सही नहीं है। आधुनिक शोधों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह क्रांति समस्त महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु और करेल तक फैल गई थी। गोवा और पाण्डिचेरी भी इस क्रांति से प्रभावित हुए। महाराष्ट्र में इस क्रांति को सतारा के रहने वाले रंगा बापूजी गुप्ते ने आरम्भ किया। दक्षिण भारत के प्रमुख क्रांतिकारी नेताओं में सोनाजी पण्डित (कर्नाटक), अण्णाजी फड़नवीस (कोल्हापुर), गुलाम गौस व सुल्तान बख्श (मद्रास), अरणागिरि व कृष्णा (चिंगलपुट), मुलबागल स्वामी (कोयम्बटूर), मुल्ला अली, कोनजी सरकार, विजय कुदारत कुंजी मागा (केरल), आदि उल्लेखनीय हैं। दक्षिण में हैदराबाद, कनार्टक, तमिलनाडु एवं सूदूर दक्कन के बहुत से क्षेत्र इस क्रांति से अलग रहे। दक्षिण भारत की 1857 की क्रांति की घटनायें इसलिये इतिहास की पुस्तकों में नहीं आ सकीं क्योंकि अँग्रेज उस समय के समस्त अभिलेख उठाकर लंदन ले गये। जबकि इस क्रांति का दमन किये जाने के बाद अँग्रेजों ने दक्षिण भारत में अनेक भारतीयों पर मुकदमे चलाये जिनकी कार्यवाहियां आज भी लंदन के अभिलेखागार में सुरक्षित हैं।