सब भीतर ही भीतर गांधीजी के खिलाफ थे
जब भारत के विभाजन हेतु माउण्टबेटन योजना लंदन से स्वीकृत होकर आ गई तो कांग्रेस सहित भारत के विभिन्न पक्षों ने विभाजन की अनिवार्यता को अनुभव कर लिया किंतु गांधीजी अब भी इसके खिलाफ थे इस कारण कांग्रेस एवं अन्य दल गांधीजी के खिलाफ हो गए किंतु वे अपने भावों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। माउण्टबेटन ने इस घटना को अपने संस्मरणों में लिखा है।
2 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन ने कांग्रेस की ओर से नेहरू, सरदार पटेल तथा कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी को, मुस्लिम लीग की ओर से जिन्ना, लियाकत अली तथा रबनिस्तर को एवं साठ लाख सिक्खों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरदार बलदेवसिंह को अपने निवास पर आमंत्रित किया और उन्हें माउण्टबेटन योजना की प्रतिलिपियां सौंप दीं।
इन नेताओं ने लॉर्ड माउंटबेटन से योजना की प्रतियां ले लीं किंतु वे गांधीजी के भावी कदम से आशंकित थे। इस बैठक में लॉर्ड माउंटबेटन के साथ लॉर्ड इस्मे तथा सर एरिक मेलविल भी सम्मिलित हुए। 2 जून 1947 को माउंटबेटन के निवास पर नेताओं के व्यवहार पर लॉर्ड माउंटबेटन ने टिप्पणी करते हुए लिखा है- ‘मैं एक अजीब बात अनुभव कर रहा था। वे सब अंदर ही अंदर चुपके-चुपके गांधी के खिलाफ थे। जल्द ही वे मेरे साथ आ गये। उन्होंने मुझे उकसाना आंरभ किया ……. कहना चाहिये कि एक तरह से वे गांधी को स्वयं चुनौती न देकर मेरे माध्यम से देना चाहते थे। ‘
कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा सिक्ख नेताओं के चले जाने के बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने गांधीजी को बुलाया और उनसे इस योजना का विरोध न करने की अपील की। गांधीजी ने उस दिन मौनव्रत रख लिया, इसलिये उन्होंने एक कागज पर लिखकर वायसराय को सूचित किया कि मैं आज बोल नहीं सकता फिर कभी आपसे अवश्य चर्चा करना चाहूंगा। गांधीजी के इस रवैये से स्पष्ट है कि गांधीजी भारत विभाजन का ठीकरा अपने सिर पर फोड़े जाने से बचना चाहते थे।
जिन्ना की मक्कारी
2 जून 1947 को माउण्टबेटन ने अपने निवास पर पुनः जिन्ना से भेंट की तथा चाहा कि जिन्ना उन्हें लिखकर दे कि मुस्लिम लीग को विभाजन की योजना स्वीकार है। इस पर जिन्ना ने लिखकर देने से मना कर दिया तथा जवाब दिया कि- ‘इसका निर्णय मुस्लिम लीग की कार्यसमिति करेगी।’
स्टेनली वोलपर्ट ने इस वार्तालाप को इस प्रकार लिखा है-
माण्टबेटन ने जिन्ना से प्रश्न किया- ‘मुस्लिम लीग की कार्यसमिति इस योजना को स्वीकार करेगी या नहीं?’
जिन्ना ने जवाब दिया- ‘उम्मीद तो है।’
माउण्टबेटन ने पूछा- ‘क्या वह खुद इस योजना को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?’
जिन्ना ने कहा- ‘वह निजी तौर पर माउण्टबेटन के साथ हैं और अपनी तरफ से पूरा प्रयास करेंगे कि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग कौंसिल भी इसे स्वीकार कर ले।’
माउण्टबेटन ने जिन्ना को याद दिलाया- ‘आपके इस हथकण्डे से कांग्रेस पार्टी आपको हमेशा शक की निगाह से देखती रही है। आपका तरीका हमेशा यही रहा है कि आप पहले कांग्रेस द्वारा किसी भी योजना पर अंतिम निर्णय लिए जाने की प्रतीक्षा करते हैं, ताकि आपको मुस्लिम लीग के अनुकूल फैसला करने का अवसर मिल जाए। यदि आपका रवैया यही बना रहा तो सुबह की बैठक में कांग्रेस पार्टी के नेता और सिक्ख, योजना पर अपनी मुहर लगाने से इन्कार कर देंगे जिसका नतीजा अव्यवस्था में निकलेगा और आपके हाथ से आपका पाकिस्तान हमेशा के लिए निकल जाएगा।’
जिन्ना ने कहा- ‘जो होना है, वह तो होगा ही।’
माउण्टबेटन ने कहा- ‘मि. जिन्ना मैं आपको इस समझौते के लिए किए गए परिश्रम को व्यर्थ करने की अनुमति नहीं दे सकता। चूंकि आप मुस्लिम लीग की तरफ से स्वीकृति नहीं दे रहे हैं, इसलिए उसकी तरफ से मुझे स्वयं बोलना पड़ेगा। ….. मेरी केवल एक शर्त है कि सुबह की मीटिंग में जब मैं यह कहूं कि मि. जिन्ना ने मुझे यह आश्वासन दिया है, जिसे मैंने मान लिया है और जिससे मैं संतुष्ट हूँ तो आप किसी भी कीमत पर इसका खण्डन नहीं करेंगे और जब मैं आपकी तरफ देखूंगा तो आप सहमति में सिर हिलाएंगे……..।’
वायसराय के इस प्रस्ताव का जवाब जिन्ना ने केवल सिर हिलाकर दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता