भारत पर पाश्चात्य देशों के आक्रमण तो सिकंदर से पूर्व भी होते रहे किंतु उनके प्रभाव सीमित होने के कारण उनमें भारत से धन का विशेष निष्कासन नहीं हुआ। सिकंदर एवं उसके बाद के पाश्चात्य आक्रमणों में भी धन निष्कासन अत्यंत सीमित मात्रा में संभव हो सका। शक, कुषाण तथा हूण आदि आक्रांताओं ने भारत में ही अपने शासन स्थापित किये इसलिये वे भारत से धन निकालकर बाहर नहीं ले गये। 712 ई. में भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के अंतिम आक्रमण तक जारी रहा। एक हजार वर्ष से भी अधिक लम्बे समय तक चले इस दौर में उत्तर भारत एवं पश्चिमी भारत से अपार धन सम्पदा लूटी गई फिर भी इन आक्रमणों से धन का निष्कासन उतना अधिक नहीं हुआ जितना 1757 ई. में प्लासी के युद्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के आरम्भ से लेकर 1947 ई. में ब्रिटिश ताज के राज्य की समाप्ति तक हुआ।
मार्कोपोलो ने भारत को एशिया का मुख्य बाजार कहा है। सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसिसी यात्री बर्नियर ने भारत की आर्थिक स्थिति की चर्चा करते हुए लिखा है- ‘यह भारत एक अथाह गड्ढा है, जिसमें संसार का अधिकांश सोना और चांदी चारों तरफ से अनेक रास्तों से आकर जमा होता है……. यह मिस्र से भी अधिक धनी देश है।’
बीसवीं शताब्दी में भारत की आर्थिक दशा के बारे में एक इतिहासकार ने लिखा है- ’20वीं सदी के आरम्भ में लगभग दस करोड़ व्यक्ति ब्रिटिश भारत में ऐसे हैं जिन्हें किसी समय भी पेट भर अन्न नहीं मिलता।’
स्पष्ट है कि इस अवधि में ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश ताज, भारत को पूरी तरह चूस कर खोखला कर चुके थे।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं ब्रिटिश ताज द्वारा मचाई गई लूट
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1765 ई. में बंगाल की दीवानी के अधिकार प्राप्त किये तथा उसने तेजी से आगे बढ़कर उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों तक शेष देश को अपने चंगुल में ले लिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शिकंजा कसे जाने से पूर्व, भारत में उद्योग, कृषि एवं निर्यात की दशा संतोषजनक थी। ढाका की मलमल पूरे विश्व में विख्यात थी। हीरे-जवाहरात, गर्म मसाले, शृंगार प्रसाधन, हाथी दांत की कलात्मक वस्तुएं, सुगंधित तेल, इत्र, सूती एवं रेशम का कपड़ा विदेशों को निर्यात किये जाते थे। कम्पनी द्वारा देश पर शिकंजा कस लिये जाने के बाद भारत के ग्रामीण दस्तकारों, किसानों तथा व्यापारियों की स्थिति खराब होने लगी। वे कम्पनी की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने लगे। कम्पनी द्वारा बनाये गये कानूनों के कारण भारत से तैयार उत्पाद के स्थान पर कच्चा माल लंका शायर एवं मैनचेस्टर की मिलों को जाने लगा। व्यापार में कमाये गये लाभ एवं बंगाल की दीवानी से अर्जित राजस्व, तेजी से देश के बाहर जाने लगा। 1767 ई. में ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को निर्देश दिये कि वह प्रति वर्ष रानी की सरकार को 4 लाख पौण्ड दे।
जॉन सुलिवन ने भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति एवं उसके प्रभाव को दर्शाते हुए लिखा है- ‘हमारी प्रणाली एक ऐसे स्पंज के रूप में काम करती है, जो गंगा के किनारों से प्रत्येक अच्छी वस्तु ले लेती है और टेम्स के किनारों पर निचोड़ देती है।’
धन के बहिर्गमन का सिद्धांत
भारत से धन के निष्कासन का सिद्धांत सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने 2 मई 1867 को लंदन में ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन की बैठक में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा ब्रिटेन अपने शासन की कीमत पर भारत की सम्पदा को छीन रहा है। भारत में वसूल किये गये राजस्व का एक चौथाई भाग भारत से बाहर चला जाता है। भारत का रक्त निरंतर निचोड़ा जा रहा है। महादेव गोविंद रानाडे ने भी 1872 ई. में अपने एक भाषण में कहा- ‘भारत की राष्ट्रीय आय के एक तिहाई हिस्से से अधिक, ब्रिटिश सरकार द्वारा किसी ने किसी रूप में लिया जाता है।’ रमेशचंद्र दत्त ने इकॉनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा है- ‘भारत में हो रही धन की निकासी का उदाहरण आज तक विश्व के किसी भी देश में ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा।’
दादाभाई नौरोजी ने पॉवर्टी एण्ड ब्रिटिश रूल इन इण्डिया नामक शोध ग्रंथ में भारत से धन के बहिर्गमन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत की मुख्य बातें इस प्रकार से हैं-
(1.) धन के बर्हिगमन की राष्ट्रवादी परिभाषा का तात्पर्य भारत से धन-सम्पत्ति एवं माल का इंग्लैण्ड में हस्तान्तरण था जिसके बदले में भारत को इसके समतुल्य कोई भी आर्थिक, वाणिज्यिक या भौतिक प्रतिलाभ प्राप्त नहीं होता था।
(2.) धन बर्हिगमन का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम, ब्रिटिश प्रशासनिक, सैनिक और रेलवे अधिकारियों के वेतन देना, आय व बचत के एक भाग को इंग्लैण्ड भेजना और अँग्रेज अधिकारियों की पेंशन एवं अवकाश भत्तों को इंग्लैण्ड में भुगतान करना था।
(3.) धन का बहिर्गमन भारत की निर्धनता का मुख्य कारण है।
धन निष्कासन की मात्रा एवं स्वरूप
ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत से निकाले गये धन की मात्रा का अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है। विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग आंकड़े दिये हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
(1.) बंगाल प्रांत में प्राप्त होने वाले राजस्व एवं व्यय विवरण के अनुसार कम्पनी ने प्रथम छः वर्षों (1765-1771 ई.) में 1,30,66,991 पौण्ड शुद्ध राजस्व अर्जित किया जिसमें से 90,27,609 पौण्ड खर्च कर दिया। शेष बचे 40,39,152 पौण्ड का सामान इंग्लैण्ड भेज दिया गया।
(2.) विलियम डिग्बी के अनुसार 1757 ई. से 1815 ई. तक भारत से 50 से 100 करोड़ पौण्ड राशि इंग्लैण्ड भेजी गई।
(3.) 1828 ई. में मार्टिन मोंटमुगरी ने इस निर्गम का अनुमान 30 हजार मिलियन पौण्ड (3 करोड़ पौण्ड) प्रतिवर्ष की दर से लगाया।
(4.) जॉर्ज विन्सेट द्वारा 1859 ई. में लगाये गये अनुमान के अनुसार 1834 ई. से 1851 ई. तक भारत से 42,21,611 पौण्ड धन का निष्कासन प्रतिवर्ष हुआ।
(5.) भारत को कम्पनी के माध्यम से ब्रिटिश ताज को सत्ता हस्तांतरण से सम्बन्धित व्यय, चीन के साथ हुए युद्धों के व्यय, लंदन में इण्डिया ऑफिस के व्यय, भारतीय सेना की रेजीमेण्टों के प्रशिक्षण व्यय, चीन और फारस में इंग्लैण्ड के राजनयिक मिशनों के व्यय, इंग्लैण्ड से भारत तक टेलिग्राफ लाइनों के सम्पूर्ण व्यय आद विविध व्यय चुकाने पड़ते थे। इस कारण भारत पर वर्ष 1850-51 में 5.50 करोड़ रुपये का ऋण चढ़ गया।
(6.) कम्पनी के अनुसार 1857 ई. के विद्रोह को दबाने में 47 करोड़ रुपये व्यय हुए। कम्पनी ने इस राशि को भारत पर कर्ज माना।
(7.) दादा भाई नौरोजी तथा आर. सी. दत्त आदि राष्ट्रवादियों ने 1883 ई. से 1892 ई. तक के दस वर्षों में भारत से इंग्लैण्ड भेजी गई राशि 359 करोड़ पौण्ड बताई है।
(8.) विभिन्न स्थलों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने पर अर्थशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि 1834 से 1924 ई. तक के 90 वर्ष की अवधि में भारत से 394 से 591 मिलियन पौण्ड राशि इंग्लैण्ड भेजी गई।
धन निष्कासन के परिणाम
1765 ई. से 1947 ई. तक भारत से भारी परिमाण में किये गये धन निष्कासन के अत्यन्त बुरे परिणाम हुए।
(1.) 1939-40 ई. में भारत सरकार पर ब्रिटिश सरकार का 1200 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया। आश्चर्य है कि 1850-51 ई. में यह कर्ज केवल 5.50 करोड़ रुपये था।
(2.) कर्ज बढ़ने से भारतीयों पर करों का बोझ बढ़ गया। भारत का यह कर प्रति व्यक्ति आय का 14 प्रतिशत से अधिक था। इससे भारतीयों का जीवन स्तर निरंतर गिरता चला गया।
(3.) देश में दरिद्रता बढ़ने से बार-बार अकाल पड़ने लगे जिनमें हजारों लोग मरने लगे। एक अनुमान के अनुसार इन अकालों में 2.85 करोड़ लोग मरे।
(4.) भारत की अर्थव्यवस्था, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल गई जिससे देश में गहरा आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया।
(5.) आम भारतीय के मन में अँग्रेजों के शासन से घृणा उत्पन्न हो गई जिससे राष्ट्रीय आंदोलनों को बल मिला।
धन निष्कासन के सम्बन्ध में राष्ट्रवादी नेताओं के विचार
दादाभाई नौरोजी ने धन निष्कासन को समस्त बुराइयों की बुराई (ईविल ऑफ ऑल ईविल्स) बताया है। 1905 ई. में उन्होंने कहा- ‘धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण।’
धन निष्कासन के सम्बन्ध में आर. सी. दत्त ने कहा- ‘भारतीय राजाओं द्वारा कर लेना तो सूर्य द्वारा भूमि से पानी लेने के समान था जो पुनः वर्षा के रूप में भूमि पर उर्वरता देने के लिये वापस आता था, पर अँग्रेजों द्वारा लिया गया कर फिर भारत में वर्षा न करके इंग्लैण्ड में ही वर्षा करता था।’
धन निष्कासन के सम्बन्ध में विदेशी विद्वानों के विचार
लॉर्ड क्लाइव बंगाल को एडन का बगीचा एवं सोने का खजाना कहता था। उसने एडन के इस बगीचे को इंग्लैण्ड-वासियों की तरफ से लूटने का काम आरम्भ किया जिसे देखकर स्वयं अँग्रेज अधिकारियों के दिल दहल उठे। असम के चीफ कमिश्नर चार्ल्स इलियन ने व्यथित होकर लिखा- ‘मैं यह कहने में नहीं हिचकूंगा कि आधे किसान साल भर में कभी यह भी नहीं जानते कि पूरा भोजन किस चिड़िया का नाम है। यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है कि भारत में 10 करोड़ मनुष्यों की प्रति व्यक्ति आय 5 डॉलर वार्षिक से अधिक नहीं है।’
मैकडॉनल्ड ने लिखा है- ‘भारत में तीन करोड़ से लेकर पांच करोड़ तक ऐसे परिवार हैं जिनकी आय साढ़े तीन पैन्स प्रतिदिन से अधिक नहीं है।’
विलियम हण्टर ने 1883 ई. में वायसरॉय की कौंसिल में कहा था- ‘सरकार का लगान किसानों एवं उनके परिवारों के लिये पूरा अन्न भी नहीं छोड़ता। ब्रिटिश साम्राज्य में भारत के किसान के समान हृदय द्रवित करने वाला और कोई मनुष्य नहीं है।’
राष्ट्रीय आय के विशेषज्ञ कोलीन क्लार्क ने विवरण सहित लिखा है- ‘1924-25 ई. के समय संसार में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय, भारतीय की आय से पांच गुना अधिक थी।’
इस प्रकार 20वीं सदी के अंत में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का ज्ञान होने पर भी एक भारतीय की औसत आयु 32 वर्ष थी जबकि पश्चिमी यूरोप के एक व्यक्ति की औसत आयु 60 वर्ष थी। पौष्टिक आहार के अभाव में भारतीय शीघ्र बीमार हो जाते थे और उपचार के अभाव में 32 वर्ष की औसत आयु में ही मर जाते थे।