फ्रेडरिक लालमुँहा
बारहवीं एवं तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में रोमन साम्राज्य की बागडोर ‘होहेन्तॉफेन’ नामक ईसाई राजवंश के हाथों में रही। होहेन्तॉफेन जर्मनी का एक छोटा सा कबीला या गांव था। इस कबीले या गांव से सम्बन्धि होने के कारण यह वंश ‘होहेन्तॉफेन’ राजवंश कहलाता था। इस वंश का राजा फ्रेडरिक (प्रथम) ई.1152 में रोम का एम्परर हुआ। इसे फ्रेडरिक लालमुँहा (बार्बरोसा) भी कहते हैं।
कहा जाता है कि पवित्र रोमन साम्राज्य में उसका शासन सबसे शानदार था। जर्मन लोगों के लिए तो वह एक आदर्श ही था। उसकी वीरता के किस्से इतने बढ़-चढ़ कर यूरोप में विख्यात हो गए थे कि वह काल्पनिक कहानियों का राजकुमार बन गया। जर्मन लोगों को सदियों तक यह विश्वास रहा कि फ्रेडरिक किसी गुफा में सो रहा है और यदि कभी भी जर्मनी पर संकट आएगा तो वह नींद से उठकर हमें बचाएगा।
फ्रेडरिक उन राजाओं में से था जो राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे और प्रजा पर शासन करना अपना नैसर्गिक अधिकार समझते थे। उसका कहना था कि- ‘प्रजा का काम यह नहीं है कि वह राजा को कानून बताए। उसका काम, राजा का आदेश मानना है।’
फ्रेडरिक अपने राज्य को अपने ढंग से जमाना चाहता था तथा उसमें अनुशासन लाना चाहता था किंतु इस काम में रोम का पोप तथा उसके अपने सामंत सबसे बड़ी बाधा थे। इस कारण फ्रेडरिक के सामाने तीन मोर्चों से एक साथ निबटने की चुनौती थी। पहली चुनौती पोप, दूसरी चुनौती रोम के सामंत तथा तीसरी चुनौती फिलीस्तीन के मोर्चे पर चल रहा क्रूसेड!
फ्रेडरिक ने बहुत आत्म-विश्वास के साथ पोप की अवहेलना की किंतु पोप ने उसे ईसाई संघ से बाहर निकाल दिया। इस प्रकार पोप, एम्परर पर भारी पड़ गया और फ्रेडरिक को नीचा देखना पड़ा। सामंतों के साथ हुए झगड़े में एम्परर ने सामंतों के अधिकारों को कुचलने का प्रयास किया किंतु यहाँ भी उसे सफलता नहीं मिली।
बड़े-बड़े सामंतों के प्रभाव के कारण इस काल में इटली में बड़े-बड़े नगर पनप रहे थे किंतु एम्परर ने इन नगरों को पनपने से रोकने का प्रयास किया ताकि सामंतों की बढ़ती हुई शक्ति पर अंकुश लगाया जा सके किंतु सम्राट को इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकी।
फ्रेडरिक के काल में जर्मनी में भी बड़े-बड़े नगर पनप रहे थे। आज के कोलोन, हैम्बर्ग तथा फ्रैंकफर्ट उसी काल में बसे हुए जर्मन नगर हैं। इन नगरों के सम्बन्ध में फ्रैडरिक की नीति इटली के नगरों से बिल्कुल उलटी थी। इटली में जहाँ वह बड़े नगरों को पनपने से रोक रहा था, वहीं अपने मूल देश में वह बड़े नगरों के विकास के लिए राज्य की ओर से सहायता कर रहा था। अंत में फ्रेडरिक (प्रथम) क्रूसेड में भाग लेने के लिए एक बड़ी सेना के साथ फिलीस्तीन चला गया।
यहाँ भी उसे विशेष सफलता नहीं मिली और दुर्भाग्यवश एक नदी पार करते समय उसी में डूब कर मर गया। फ्रेडरिक के जीवन को देखने से लगता है कि वह हर तरह से असफल राजा था किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। इतनी सारी असफलताओं के उपरांत भी उसकी झोली में अनेक सफलताएं थीं। उसके समय में रोम का राज्य बहुत अनुशासित हो गया था जिससे प्रजा को सुख मिला था तथा प्रजा उसका गुणगान करती थी। वह न केवल जर्मनी या इटली में अपितु पूरे यूरोप में बहुत लोकप्रिय था।
फ्रेडरिक (द्वितीय)
फ्रेडरिक बार्बरोसा के पोते का नाम भी फ्रेडरिक था। उसे इतिहास में फ्रेडरिक (द्वितीय) के नाम से जाना जाता है। वह ई.1212 में रोम का शासक बना। उस समय उसकी आयु बहुत कम थी। फ्रेडरिक (प्रथम) की तरह फ्रेडरिक (द्वितीय) भी ‘रोम के पोप’ को प्रजा की उन्नति में बाधक समझता था तथा पोप के अधिकारों को सीमित करके शासन में उसके हस्तक्षेप को समाप्त करना चाहता था।
इस कारण शीघ्र ही उसकी पोप से ठन गई। फ्रेडरिक (द्वितीय) अपने दादा के स्वभाव से बिल्कुल उलटा था। उसने पोप के सामने सिर नहीं झुकाया और अपनी सत्ता के सर्वोपरि होने की स्पष्ट घोषणा करता रहा। पोप ने फ्रेडरिक के नाम कुछ आदेश जारी किए जिन्हें फ्रेडरिक ने मानने से मना कर दिया। पोप और सम्राट के बीच पत्रों के माध्यम से तीखी बहस हुई।
इस पर पोप ने फ्रेडरिक को ईसाई संघ से बाहर कर दिया। यह पोप का पुराना हथियार था जिसके बल पर वह रोम के जर्मन राजाओं पर आदेश चलाता रहा था किंतु इस बार उसका पाला फ्रेडरिक (द्वितीय) से पड़ा था जिसने न केवल पोप का उपहास उड़ाया अपितु यूरोप के बहुत से राजाओं को पोप के कारनामों के बारे में लम्बे-लम्बे पत्र भिजवाए।
इन पत्रों के अंत में दुनिया भर के राजाओं से यह अपील की गई थी कि वे पोप के आदेशों को न मानें, पोप की भूमिका केवल धार्मिक मामलों तक सीमित है। उसे राजाओं को आदेश देने और राजकाज में बाधा उत्पन्न करने का कोई अधिकार नहीं है। उसने अपने पत्रों में बहुत से पादरियों के कारनामों की जानकारी देते हुए रोम के पादरियों में पनप रहे भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्ठा पूरी दुनिया के शासकों को लिख भेजा। उसने पोप को कुछ पत्र लिखकर पोप पर कई आरोप लगाए तथा इन पत्रों के माध्यम से पोप को अपमानित किया।
एम्परर द्वारा किए गए इस आक्रामक पत्राचार से पोप की प्रतिष्ठा को बहुत आघात पहुँचा। यूरोप के अधिकांश राजा फ्रेडरिक (द्वितीय) की बातों से सहमत हो गए तथा उन्होंने पोप को राजा के काम में हस्तक्षेप न करने की सलाहें लिख भेजीं। इस कारण पोप ने स्वयं को बहुत अपमानित एवं निरुत्साहित अनुभव किया। पोप की असली शक्ति ये राजा ही तो थे जो उसके आदेशों पर अपने-अपने राज्य की जनता को हांकते थे। पोप इस बात को अच्छी तरह समझता था कि यदि राजाओं ने ही पोप को दूर कर दिया तो फिर ईसाई जगत् में पोप की प्रतिष्ठा एवं हैसियत क्या रह जाएगी!
फ्रेडरिक के दरबार में यहूदी तथा अरबी दार्शनिक भी आते थे। अरबी दार्शनिकों के माध्यम से ही फ्रेडरिक ने यूरोप में अरबी अंकों और बीज गणित का प्रचलन आरम्भ किया। ये अंक भारत से अरब एवं अरब से यूरोप पहुँचे। फ्रेडरिक ने नेपल्स में विश्वविद्यालय तथा एक बड़ा मेडिकल स्कूल आरम्भ किया।
वह ई.1250 तक रोमन साम्राज्य पर राज्य करता रहा। वह ‘होहेन्तॉफेन’ वंश का अंतिम सम्राट सिद्ध हुआ। उसकी मृत्यु के बाद रोमन साम्राज्य बिखरने लगा। इटली अलग हो गया। लुटेरे एवं डाकू पूरे साम्राज्य में लूटमार करते थे और इन्हें रोकने वाला कोई नहीं था।
जर्मन राज्य के लिए रोमन साम्राज्य का बोझ इतना भारी पड़ा कि वह उसे सहन नहीं कर सका और टुकड़े-टुकड़े हो गया। इंग्लैण्ड और फ्रांस के शासक अपनी-अपनी स्थिति मजबूत करने लगे और अपने अधीन सामंतों की शक्ति को दबाकर अपने अधीन करने लगे। जर्मनी का सम्राट पोप एवं इटली के अन्य राज्यों से लड़ने में इतना व्यस्त हो गया कि वह जर्मनी के सामंतों को नहीं दबा सका।
इस कारण इंग्लैण्ड और फ्रांस ने जर्मनी की अपेक्षा बहुत पहले राष्ट्रों का स्वरूप धारण करना आरम्भ कर दिया जबकि जर्मनी में बीसवीं सदी के आरम्भ तक छोटे-छोटे राजाओं का जमघट लगा रहा।