रजिया की स्वतंत्र मनोवृत्ति तथा हिन्दुओं के प्रति उसकी सहानुभूति को तुर्की अमीर सहन नहीं कर सके। उनकी नजरों में अब भी रजिया एक औरत मात्र थी। जिसे भोगा ही जा सकता था, उसका शासन किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता था। रजिया दिल्ली की जनता के सहयोग से सुल्तान बनी थी जिसमें अमीरों की बहुत कम भूमिका थी। इसलिये वे रजिया के स्थान पर ऐसे व्यक्ति को सुल्तान बनाना चाहते थे जो उनके प्रति कृतज्ञ रहे तथा अमीरों के हाथ की कठपुतली बनकर रहे। जब रजिया ने एक भारतीय मुसलमान को अपने दरबार में उच्च पद दिया तो तुर्की अमीर रजिया के दुश्मन हो गये। थोड़े ही समय में चारों ओर विद्रोह के झण्डे बुलंद हो गये और रजिया का पतन आरम्भ हो गया।
शम्सी तुर्क सरदारों का षड्यन्त्र
कुछ प्रान्तीय शासकों के मन में यह संदेह उत्पन्न होने लगा कि रजिया शम्सी तुर्क सरदारों की शक्ति का उन्मूलन करना चाहती है। अतः वे आत्मरक्षा के लिए षड्यन्त्र रचने लगे और विद्रोह की तैयारियां करने लगे। पंजाब के गवर्नर कबीर खाँ अयाज ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। रजिया उसका दमन करने के लिये एक सेना लेकर आगे बढ़ी। अयाज ने उसका सामना किया किंतु अधिक देर तक नहीं टिक सका और परास्त होकर पीछे की ओर अर्थात् चिनाव नदी की ओर भागा। कबीर खां के दुर्भाग्य से चिनाव नदी पर मंगोलों का सैन्य शिविर लगा हुआ था जो पंजाब में लूट-मार मचाते घूम रहे थे। मंगोलों से डरकर कबीर खां को रजिया की तरफ आना पड़ा तथा बिना शर्त रजिया के पैरों में गिरकर माफी मांगनी पड़ी। रजिया ने उसे माफ कर दिया तथा उससे लाहौर छीनकर केवल मुल्तान उसके अधिकार में रहने दिया। कबीरखां की इस भयावह पराजय के बाद भी सल्तनत में षड्यंन्त्र तथा विद्रोह की अग्नि शांत नहीं हुई। अब तुर्क प्रांतपतियों ने दिल्ली के अमीरों की सहायता से सल्तनत पर अधिकार करने की योजना बनाई। इन विद्रोही तुर्क अमीरों का नेता इख्तियारूद्दीन एतिगीन था। विद्रोहियों ने बड़ी सावधानी तथा सतर्कता के साथ कार्य करना आरम्भ किया। इन लोगों ने योजना बनाई कि बजाय इसके कि वे दिल्ली पर आक्रमण करें, रजिया को दिल्ली से बाहर खींचा जाये क्योंकि आम रियाया के समर्थन के चलते, दिल्ली में रजिया की स्थिति काफी मजबूत थी।
मलिक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया द्वारा विद्रोह
भटिण्डा के गर्वनर मलिक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया और रजिया की परवरिश, सुल्तान कुतुबुद्दीन के महलों में साथ-साथ हुई थी और दोनों बचपन के मित्र थे। जब अल्तुनिया ने युवावस्था में प्रवेश किया तो वह रजिया के प्रति अनुरक्त हो गया। उसने कई बार रजिया के समक्ष अपने प्रेम का प्रदर्शन किया किंतु रजिया ने हर बार हँसकर टाल दिया था। जब रजिया सुल्तान बन गई तो अल्तूनिया की चाहत और अधिक बढ़ गई। वह रजिया से निकाह करके न केवल अपने पुराने प्रेम को हासिल करना चाहता था अपितु इस वैवाहिक सम्बन्ध के माध्यम से सल्तनत पर कब्जा करने का ख्वाब भी देखा करता था। रजिया, अल्तूनिया के प्रस्तावों को टाल भले ही रही थी किंतु उसने अल्तूनिया के विरुद्ध कोई सख्ती नहीं दिखाई थी। इस कारण अल्तूनिया की उम्मीदें जीवित बनी रहीं किंतु जब उसने सुना कि रजिया अपने हब्शी गुलाम याकूत की मुहब्बत में खोई हुई है तो उसका दिल टूट गया। थोड़े ही दिनों में उसकी निराशा नाराजगी में बदल गई और उसने बगावत का झण्डा बुलंद करने का निश्चय किया।
जब रजिया पंजाब के गवर्नर कबीर खां अयाज का दमन करके दिल्ली लौट रही थी, तब मार्ग में ही उसे सूचना मिली कि अल्तूनिया ने बगावत कर दी है। इस समय उत्तर भारत भयानक गर्मी से उबल रहा था तथा इसके साथ ही रमजान का महीना होने से मुस्लिम सैनिकों के रोजे चल रहे थे किंतु रजिया ने तुरंत कार्यवाही करने का निर्णय लिया और वह विशाल सेना लेकर भटिण्डा की ओर बढ़ गई। जब वह भटिण्डा पहुंची, तब दूसरे सूबों के प्रांतपति भी अपनी सेनाएं लेकर अल्तूनिया की सहायता के लिये आ गये। अल्तूनिया ने बड़ी चतुराई से अपने कुछ लोगों को सुल्तान के दल में शामिल कर दिया और जब रजिया भटिण्डा पहुंची, तब पूर्व में निर्धारित योजना के अनुसार उन लोगों ने याकूत से गाली-गलौच करके उसे झगड़ा करने के लिये उकसाया। जब याकूत ने इन लोगों का विरोध किया तो उन लोगों ने याकूत को वहीं घेर कर मार डाला गया।
याकूत की मृत्यु से अपने ही सैन्य शिविर में रजिया की स्थिति कमजोर हो गई किंतु उसने हिम्मत से काम लिया तथा स्वयं तलवार लेकर दुश्मनों का सामना करने को उद्धत हुई किंतु धोखे, फरेब और जालसाजी के उस युग में रजिया का कोई सच्चा सहायक नहीं था। याकूत मारा जा चुका था तथा पुराना प्रेमी मलिक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया बागी हो गया था। इसलिये अप्रेल 1240 में रजिया बंदी बना ली गई। सूबेदारों की संयुक्त सेनाओं ने रजिया अल्तूनिया को समर्पित कर दी। अल्तूनिया ने रजिया को भटिण्डा के किला मुबारक में बंद कर दिया। विद्रोहियों ने इल्तुतमिश के छोटे पुत्र बहरामशाह को तख्त पर बैठा दिया। मिनहाजुद्दीन सिराज के अनुसार रजिया ने 3 वर्ष, 6 माह, 6 दिन राज्य किया।
रजिया की हत्या
रजिया भले ही बंदी बना ली गई थी तथा उसका पूरा भविष्य अंधकार में दिखाई दे रहा था किंतु उसने एक बार फिर भाग्य आजमाने का फैसला किया। अल्तूनिया अब भी रजिया के साथ कठोर व्यवहार नहीं कर रहा था। रजिया हर शुक्रवार को राजसी ठाठ-बाट के साथ हाजीरतन मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ती तथा अल्तूतनिया प्रतिदिन रजिया से मिलने के लिये आता। रजिया ने उसकी आंखों में अपने लिये वही पहले जैसा प्यार देखा। रजिया ने अल्तूनिया पर अपने रूप का जादू इस्तेमाल करने का निश्चय किया। रजिया ने अल्तूनिया के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तथा उससे कहा कि रजिया से विवाह करके वह हिन्दुस्थान का सुल्तान बन सकता है। अल्तूनिया इस प्रस्ताव से सहमत हो गया और अगस्त 1240 में उसने रजिया को कारागार से मुक्त करके उसके साथ निकाह कर लिया।
अब अल्तूनिया और रजिया एक सेना लेकर दिल्ली के तख्त पर अधिकार करने के लिए दिल्ली की ओर बढ़े। मलिक इज्जुद्दीन सालारी तथा मलिक कराकश आदि कुछ अमीर भी उनसे आ मिले। अक्टूबर 1240 में दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ परन्तु नये सुल्तान बहरामशाह की सेना ने अल्तूनिया को परास्त कर दिया। रजिया और अल्तूनिया युद्ध के मैदान से भाग निकले किंतु 13 अक्टूबर 1240 को कैथल के निकट जाटों ने अल्तूनिया तथा रजिया को पकड़ लिया और उनका माल-असबाब लूटकर उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार रजिया सुल्तान का सदा के लिये अंत हो गया। एक अन्य मत के अनुसार रजिया तथा अल्तूनिया को पकड़कर दिल्ली लाया गया तथा बहराम के आदेश से दिल्ली में ही मारा गया। दिल्ली में तुर्कमान गेट पर उसका मकबरा बताया जाता है। इस मकबरे को राजी व साजी का मकबरा कहा जाता है तथा कहा जाता है कि साजी, रजिया की बहिन थी किंतु इतिहास में इसका उल्लेख नहीं मिलता।