(गयासुद्दीन तुगलक-द्वितीय, अबूबक्र, नासिरूद्दीन मुहम्मदशाह, हुमायूँ तथा महमूद नासिरूद्दीन)
फीरोजशाह तुगलक 80 वर्ष की आयु में मरा था। उसके राज्य का पतन उसके जीवन काल में ही होने लगा था। उसके प्रधानमंत्री खान-ए-जहाँ तथा शहजादे मुहम्मद ने राज्य पर अधिकार करने का प्रयत्न किया। इस पर दोनों को ही दिल्ली छोड़कर भाग जाना पड़ा था। इसलिये 80 साल का फीरोजशाह तब तक शासन करता रहा जब तक कि उसकी मृत्यु नहीं हो गई।
गयासुद्दीन तुगलक (द्वितीय)
फीरोजशाह तुगलक की मृत्यु के उपरान्त उसका पौत्र गियासुद्दीन तुगलकशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। तुगलकशाह, शाहजादे फतेह खाँ का पुत्र था। तुगलकशाह ने गयासुद्दीन तुगलक (द्वितीय) की उपाधि धारण की। वह अल्प वयस्क तथा अनुभव शून्य था। इस कारण गम्भीर परिस्थितियों को संभालने में सक्षम नहीं था। राज्य मिलते ही वह आमोद-प्रमोद में मग्न हो गया और शासन का कार्य अधिकारियों के भरोसे छोड़ दिया। इस कारण राज्य के अमीर उससे असन्तुष्ट हो गये। जब उसने जफर खाँ के पुत्र अबूबक्र को कारागार में डाल दिया, तब अमीरों ने सुल्तान के विरुद्ध षड्यंत्र रचकर 19 फरवरी 1389 को सुल्तान तुगलकशाह की हत्या कर दी।
अबूबक्र
गयासुद्दीन तुगलक (द्वितीय) के बाद अबूबक्र दिल्ली के तख्त पर बैठा। फीरोजशाह के छोटे पुत्र मुहम्मद ने उसके विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। इस संघर्ष में मुहम्मद को सफलता प्राप्त हुई और अबू बक्र मारा गया।
नासिरूद्दीन मुहम्मदशाह
फीरोजशाह का छोटा पुत्र मुहम्मद नासिरूद्दीन, अबूबक्र को मारकर नासिरूद्दीन मुहम्मदशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। मुहम्मदशाह ने गुजरात को फिर से दिल्ली सल्तनत के अधीन करने के लिये सेनापति जफर खाँ को गुजरात पर आक्रमण करने भेजा। जफर खाँ ने गुजरात पर विजय प्राप्त कर ली तथा वह सुल्तान की ओर से गुजरात पर शासन करने लगा। इसके बाद सुल्तान ने इटावा तथा अन्य स्थानों के हिन्दुओं के विद्रोह का दमन किया। यद्यपि इन विद्रोहों को दबाने में वह सफल रहा परन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने से 15 जनवरी 1394 को उसकी मृत्यु हो गई।
हुमायूँ
नासिरूद्दीन मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं, अलाउद्दीन सिकंदरशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा परन्तु तख्त पर बैठने के लगभग छः माह बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।
महमूद नासिरूद्दीन
हुमायूँ की मृत्यु के बाद नासिरूद्दीन मुहम्मदशाह का सबसे छोटा पुत्र महमूद नासिरूद्दीन के नाम से तख्त पर बैठा। इस सुल्तान को चारों ओर से भयानक उपद्रवों का सामना करना पड़ा। सुल्तानों की आवाजाही में राजधानी दिल्ली में भिन्न-भिन्न दलों तथा वर्गों में संघर्ष चल रहे थे। राजधानी के बाहर हिन्दू सरदार तथा मुसलमान सूबेदार अपना-अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे। ख्वाजाजहाँ ने जौनपुर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। खोखरों ने उत्तर में विद्रोह कर दिया। गुजरात, मालवा तथा खानदेश स्वतंत्र हो गये। दुर्भाग्य से इसी समय दिल्ली में गृहयुद्ध आरम्भ हो गया। फीरोज तुगलक का एक पोता नसरत खाँ कुछ अमीरों तथा सरदारों की सहायता से दिल्ली का तख्त प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। महमूद ने इन विपत्तियों का सामना सफलतापूर्वक किया परन्तु इसी बीच उसे तैमूर लंग के आक्रमण की सूचना मिली। यह एक ऐसी विकराल समस्या थी जिसका सामना करना महमूद के लिये असम्भव था। तैमूर के लौट जाने के कुछ समय उपरान्त नसरतशाह ने दिल्ली पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया परन्तु महमूदशाह के मन्त्री मल्लू खाँ ने उसे दिल्ली से मार भगाया। इसके बाद महमूदशाह की स्थिति बड़ी डावांडोल हो गई। 1412 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसके साथ ही तुगलक वंश का भी अन्त हो गया। मुहम्मदशाह की मृत्यु के पूर्व ही दौलत खाँ ने दिल्ली पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। 1414 ई. में मुलतान के सूबेदार खिज्र खाँ ने दौलत खाँ को परास्त करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया और नये राजवंश की स्थापना की।
तुगलक-वंश के पतन के कारण
मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में तुगलक वंश का राज्य अपने चरम पर पहुँच गया था तथा उसके अंतिम दिनों में तुगलकिया सल्तनत का पतन आरम्भ हो गया था। फीरोज इस पतनोन्मुख साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचा नहीं पाया। फीरोज के उत्तराधिकारियों के समय में साम्राज्य तेजी बिखर गया। तुगलक वंश के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
(1.) साम्राज्य की विशालता: तुगलक साम्राज्य की विशालता पराकाष्ठा को पहुँच गयी थी। संचार तथा यातायात के साधनों के अभाव में दिल्ली से इतने विशाल साम्राज्य का शासन सुचारू रीति से चलना सम्भव नहीं था। विशेषकर दक्षिण भारत पर नियंत्रण रखना असम्भव था। वास्तव में मुहम्मद बिन तुगलक की दक्षिण विजय से दिल्ली सल्तनत को लाभ के स्थान पर हानि ही हुई। इससे उनके सैनिक उत्तरदायित्व तथा व्यय में वृद्धि हो गई। सुल्तानों का प्रायः दक्षिण अभियान पर जाना उत्तर के लिए घातक सिद्ध हो जाता था। जब सुल्तान दिल्ली में रहता था तब दक्षिण में अशांति फैल जाती थी।
(2.) अयोग्य उत्तराधिकारी: तुगलकों की सल्तनत, पूर्ववर्ती शासक वंशों की भांति, सैनिक शक्ति के आधार पर खड़ी की गई थी। ऐसा शासन तब तक ही स्थायी रहता है जब तक शासक की भुजाओं में बल होता है। विद्रोही तत्त्व सेना के ही बल पर ऐसे शासन को उखाड़ फैंकते हैं। फीरोज के अयोग्य वंशज सैनिक शक्ति के बल पर इतनी बड़ी सल्तनत को अपने अधिकार में नहीं रख सकते थे। उसका नष्ट होना अवश्यम्भावी थी।
(3.) निश्चित उत्तराधिकार के नियम का अभाव: दिल्ली सल्तनत के राजवंशों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। इसलिये प्रायः प्रत्येक सुल्तान को अपने शासन के आरम्भ में षड्यंत्रों, कुचक्रों, विद्रोहों तथा प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करना पड़ता था। इससे दरबार में राजनैतिक दलबन्दियों को प्रोत्साहन मिलता था और प्रत्येक दल, दुर्बल शहजादों को तख्त पर बिठा कर उन्हें कठपुतली की भांति नचाता था। ऐसी दशा में तुगलक वंश का पतनोन्मुख हो जाना स्वाभाविक ही था।
(4.) सूबेदारों तथा सेनापतियों की स्वार्थपरता: विभिन्न सूबों के पदाधिकारी तथा सेनापति स्वार्थी एवं महात्वाकांक्षी थे। अवसर पाते ही वे विद्रोह करके अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना का सपना देखते थे। इसी प्रकार जनता में भी सुल्तान तथा शासक वंश के प्रति निष्ठा नहीं थी। इसलिये जनता भी प्रायः विद्रोह का झण्डा उठाये रखती थी।
(5.) साम्राज्य में संगठन का अभाव: किसी भी सुल्तान द्वारा सल्तनत को एक सुदृढ़ तथा सुसंगठित इकाई बनाने का प्रयास नहीं किया गया था। शासन में एकरूपता, दृढ़ता तथा संगठन का सर्वथा अभाव था। प्रान्तीय शासकों को व्यापक अधिकार प्रदान किये गये थे। वास्तव में तुगलक सल्तनत, अर्द्ध स्वतंत्र राज्यों का एक असम्बद्ध सा संघ बनकर रह गया था। केन्द्रीय सरकार का साम्राज्य के विभिन्न भागों पर दृढ़ नियंन्त्रण नहीं था। इससे विघटनकारी प्रवृत्तियां सदैव क्रियाशील रहती थीं। इस कारण तुगलक वंश तेजी से पतन की ओर बढ़ा।
(6.) शासन का विदेशीपन: दिल्ली सल्तनत में शासन का संचालन तुर्क तथा विदेशी अमीरों द्वारा होता था। इन लोगों को भारतीयों की आशा, अभिलाषा तथा आकांक्षाओं के साथ कोई सहानुभूति नहीं थी। उन्होंने स्वयं को विजेता समझा और हिन्दू जनता के साथ पराजितों का सा व्यवहार किया। इस कारण जब शासन में षड़यंत्र चलते थे, तब जनता उनसे विमुख रहती थी। सुल्तान को संकट काल में जनता से कोई सहायता नहीं मिल पाती थी। यही कारण था कि फीरोज तुगलक के बाद तुगलक वंश बड़ी आसानी से नष्ट हो गया।
(7.) हिन्दुओं की शासन प्रतिभा से स्वयं को वंचित रखना: न केवल तुगलक वंश के सुल्तानों ने, वरन् दिल्ली सल्तनत के समस्त शासकों ने हिन्दुओं को शासन में भाग लेने से वंचित कर दिया। इससे मुस्लिम सुल्तान, हिन्दुओं की उस प्रतिभा के उपयोग से वंचित रह गये जिसका सदुपयोग कर अकबर ने एक सबल साम्राज्य की स्थापना की थी।
(8.) मुसलमानों में परस्पर द्वेष की भावना: मुसलमानों में कुलीय उच्चता का भाव अधिक था। तुर्की अमीर अपने को अन्य अमीरों से बड़ा समझते थे। उलेमा अपने आप को अमीरों से भी बड़ा समझते थे। तुर्कों के विभिन्न कबीले भी एक दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। कोई अफगानी था तो कोई ईरानी। कोई खिलजी था तो कोई तुगलक। कोई चगताई था तो कोई मंगोल। इन कारणों से दरबार में भिन्न-भिन्न अमीरों एवं उलेमाओं में घात-प्रतिघात चलते रहते थे जिन्हांेने तुगलक वंश का पतन कर दिया।
(9.) राज परिवार में शंका और संदेह का वातावरण: गयासुद्दीन तुगलक के समय से ही तुगलक वंश में पिता अपने पुत्रों को और पुत्र अपने पिता को शंका की दृष्टि से देखने लग गये थे और एक दूसरे की हत्या करने का षड़यंत्र रचते थे। इन हत्याओं एवं षड़यंत्रों के कारण तुगलक वंश की नींव दुर्बल हो गई।
(10.) योग्य सेनापतियों तथा शासकों का अभाव: अलाउद्दीन खिलजी के अंतिम दिनों से ही सल्तनत में योग्य सेनापतियों तथा मन्त्रियों का अभाव हो गया था। यद्यपि मुहम्मद बिन तुगलक ने विदेशी अमीरों में से योग्य व्यक्तियों को चुनना आरम्भ किया था, परन्तु इसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ, क्योंकि देशी अमीर इससे अप्रसन्न हो गये। फीरोज के समय में भी योग्य सेनापति तथा मंत्री नहीं मिले। इसलिये साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाने वाला कोई व्यक्ति नहीं था।
(11.) सेना का पतन: दिल्ली सल्तनत की सेना में जो कौशल, योग्यता, साहस तथा शक्ति बलबन तथा अलाउद्दीन के समय में थी, वह तुगलक सुल्तानों के समय में नहीं रह गई। सैनिक शक्ति के क्षीण हो जाने से तुगलक वंश पतनोन्मुख हो गया। उसमें न तो आन्तरिक विद्रोहों को दबाने की क्षमता रह गई और न विदेशी आक्रमणों से सल्तनत की रक्षा करने की।
(12.) मुसलमान अमीरों का नैतिक पतन: इन दिनों मुसलमान अमीरों का नैतिक पतन अपने चरम पर था। उनमें औरतों एवं हिंजड़ों को राजदरबार में नचाने की प्रवृत्ति जोरों पर थी। वे तीतर-बटेर और मुर्गे लड़ाते थे। कबूतर पालने में समय खर्च करते थे। वेश्यावृत्ति तथा लौण्डेबाजी में प्रवृत्त रहते थे। शराब तथा रिश्वत का बोलबाला था। निरंतर विलासिता में लगे रहने से तुर्की अमीरों में अपने पूर्वजों जैसा पौरुष तथा साहस नहीं बचा था। इस कारण उनका पतन अवश्यम्भावी था।
(13.) हिन्दुओं का विद्रोह – यद्यपि दिल्ली के सुल्तानों ने हिन्दुओं को सदैव निर्बल बनाने का प्रयत्न किया परन्तु हिन्दू अपनी विनष्ट स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करने का सदैव प्रयत्न करते रहे। जब कभी हिन्दू अवसर पाते थे, विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। हिन्दुओं को राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक तीनों प्रकार की असुविधाओं का समना करना पड़ता था। ऐसी दशा में उनके द्वारा सल्तनत की जड़ खोदने का प्रयास करना स्वाभाविक ही था।
(14.) रिक्त राजकोष: साम्राज्य को सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित रखने के लिए धन की आवश्यकता होती है परन्तु खुसरोशाह परवानी के युद्ध, मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की विफलता तथा दुर्भिक्ष के कारण राजकोष रिक्त हो गया था। ऐसी दशा में राज्य का पतन अवश्यम्भावी था। साम्राज्य की मशीन ढीली होने लगी।
(15.) मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की विफलता: मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाओं की असफलता के भी तुगलक वंश के पतन में बड़ा योग मिला। प्रजा पहले से ही तुगलक वंश को अश्रद्धा की दृष्टि से देखती थी। मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की विफलता से जनता की अवशिष्ट श्रद्धा तथा सहानुभूति भी समाप्त हो गई। तुगलकों के विरुद्ध चारों ओर असंतोष और विद्रोह की अग्नि भड़कने लगी।
(16.) मुहम्मद तुगलक की कठोर दण्ड नीति: मुहम्मद बिन तुगलक अत्यंत छोटे-छोटे अपराधों के लिये मृत्यु दण्ड तथा अंग-भंग करने के दण्ड देता था। इससे तुगलकों के शत्रुओं की संख्या अधिक हो गई। उसकी इस क्रूर नीति के कारण मित्र भी उसके सशंकित रहने लगे और साम्राज्य की सेवा की ओर से विमुख हो गये। सुल्तान की कठोर नीति के कारण ही विदेशी अमीरों ने उसके विरुद्ध दक्षिण भारत में प्रबल संगठन बना लिया जिसे छिन्न-भिन्न करना सुल्तान के लिए असम्भव हो गया।
(17.) विदेशी अमीरों की उच्च पदों पर नियुक्ति: जब मुहम्मद बिन तुगलक ने देखा कि देशी अमीरों का पतन हो गया और उनमें योग्यता का अभाव है तब उसने उन योग्य विदेशी अमीरों को राज्य में ऊँचे पद देना आरम्भ किया जो सुल्तान की उदारता से आकृष्ट होकर मध्य-एशिया तथा ईरान से आकर उसके दरबार में रह रहे थे। इससे दरबार में हमेशा के लिये दो विरोधी दल खड़े हो गये।
(18.) फीरोज की दुर्बलताएं: चौदहवीं शताब्दी की परिस्थितियों में शासन करने के लिये एक दृढ़-प्रतिज्ञ तथा कठोर शासक की आवश्यकता थी परन्तु फीरोज अपनी मुस्लिम प्रजा के प्रति बड़ा उदार था। उसमें न महत्वाकांक्षाएं थीं और न युद्ध प्रवृत्ति। उसकी उदारता का लोगों ने बड़ा दुरुपयोग किया जिससे शासन की कड़ियां शिथिल पड़ गईं। सरकारी कर्मचारियों तथा सैनिकों में भ्रष्टाचार तथा घूसखोरी फैल गई। इससे शासन व्यवस्था खोखली पड़ गई और सल्तनत दु्रतगति से पतनोन्मुख हो गई। फीरोज धर्मान्ध था और मुसलमानों का अत्यधिक पक्ष लेता था। हिन्दू प्रजा को उसने कोई अधिकार नहीं दिये। इन बातों के परिणाम अच्छा नहीं हुए।
(19.) धर्म-प्रभावित राय: फीरोज तुगलक राजनीति को धर्म से अलग नहीं कर सका। वह कठमुल्लों तथा मुफ्ती लोगों से प्रभावित रहता था। फीरोज के धार्मिक पक्षपात का राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। इससे हिन्दुओं में बड़ा असंतोष फैला और ऐसी प्रतिक्रिया आरम्भ हुई जिसका परिणाम तुगलक वंश के लिए अच्छा नहीं हुआ।
(20.) गुलाम प्रथा: फीरोज के शासन काल में गुलामों की संख्या में इतनी अधिक वृद्धि हो गई कि वे राज्य के लिए भार हो गये। वे हिन्दू गुलाम जो नाममात्र के लिए मुसलमान हो गये थे, प्रायः विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। उनमें राजभक्ति का सर्वथा अभाव था और वे सदैव षड्यंत्र रचा करते थे। फीरोज तुगलक ने गुलामों की दशा सुधारने के लिये कई कदम उठाये इससे सल्तनत की आर्थिक दशा पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा।
(21.) जागीर प्रथा: फीरोज तुगलक द्वारा पुनः स्थापित की गई जागीर प्रथा का भी साम्राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। ये जागीरदार धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करने लगे। ज्यों-ज्यों तुगलक साम्राज्य की शृंखलाएं ढीली पड़ने लगीं, त्यों-त्यों इन जागीरदारों ने अवसर पाकर स्वयं को स्वतंत्र कर लिया।
(22.) सेना में वंशानुगत पद: फीरोज अपने सैनिकों के साथ बड़ी सहानुभूति दिखाता था। जब कोई सैनिक वृद्ध हो जाता था, तब उसका पुत्र अथवा उसका कोई निकटवर्ती सम्बन्धी या गुलाम उसके स्थान पर भर्ती कर लिया जाता था। इससे सेना की योग्यता तथा रण कुशलता नष्ट हो गई। चौदहवीं शताब्दी में सल्तनत का स्थायित्व सेना की योग्यता पर ही निर्भर था।
(23.) फीरोज की अस्थिर तथा दुर्बल बाह्य नीति: फीरोज की अस्थिर तथा दुर्बल बाह्य नीति का सल्तनत की सुरक्षा तथा सुदृढ़ता पर बुरा प्रभाव पड़ा। उसने दक्षिण को पुनः जीतने का कोई प्रयत्न नहीं किया। राजपूताना के हिन्दू राज्य जिन्होंने सुल्तान से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था, उनके भी पुनः जीतने का उसने प्रयत्न नहीं किया। उसने बंगाल पर विजय प्राप्त की परन्तु अपनी दुर्बल बाह्य नीति के कारण उसने उसे खो दिया। फीरोज की दुर्बल बाह्य नीति से साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा धक्का लगा और दूर-दूर के प्रान्तों को स्वतंत्र होने का प्रोत्साहन मिला।
(24.) तैमूर का आक्रमण: तुगलक साम्राज्य पर तैमूर लंग के आक्रमण से बहुत बड़ा आघात लगा। इस आक्रमण के पहले तुगलक साम्राज्य जर्जर हो गया था। तैमूर ने उस पर ऐसा घातक प्रहार किया कि वह छिन्न-भिन्न हो गया।