फर्रूखसियर ई.1713 में जुल्फिकार खाँ, असद खाँ तथा सैयद बन्धुओं की सहायता से बादशाह बना था। इन सभी लोगों ने अपने पुराने बादशाह जहांदारशाह से धोखा करके फर्रूखसियर को बादशाह बनाया था। इस कारण फर्रूखसियर बादशाह बनते ही भयानक षड़यंत्रों में घिर गया!
सैयद बंधुओं द्वारा फर्रूखसियर को सहायता दिए जाने का कारण यह था कि सैयद बंधुओं के उत्थान में फर्रूखसियर के पिता अजीम-उस-शान की बड़ी भूमिका रही थी जबकि जहांदारशाह सैयद बंधुओं को अच्छी दृष्टि से नहीं देखता था।
इसलिये सैयद बंधुओं ने जहाँदारशाह के विरुद्ध विद्रोह करके फर्रूखसियर को तख्त पर बैठाने में सहायता की थी। जुल्फिकार खाँ तथा असद खाँ द्वारा फर्रूखसियर से सहयोग किए जाने का कारण यह था कि बादशाह जहांदारशाह जुल्फिकार खाँ के अधिकारों में कटौती करने का प्रयास कर रहा था।
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बादशाह बनने के बाद फर्रूखसियर ने इलाहाबाद के सूबेदार सैयद अब्दुल्ला खाँ को अपना वजीर नियुक्त किया तथा अब्दुल्ला के छोटे भाई सैयद हुसैन अली को अपनी सेना का प्रधान नियुक्त किया। जुल्फिकार खाँ तथा असद खाँ भी उच्च पदों पर आसीन किए गए।
इन सभी गद्दार अमीरों का अनुमान था कि तीस वर्षीय अनुभवहीन फर्रूखसियर में निर्णय लेने की क्षमता का अभाव है तथा अब तक किसी भी उच्च पद पर कार्य नहीं करने के कारण उसे शासन चलाने का अनुभव नहीं है।
इस कारण इन वजीरों ने सल्तनत की सम्पूर्ण शक्ति अपने हाथों में रखने के षड़यंत्र आरम्भ कर दिए। ये लोग मनमानी करने लगे तथा सैयद बन्धुओं ने शासन के सूत्र अपने हाथों में ले लिए। यही कारण है कि फर्रूखसियर के शासन काल के आरंभ अर्थात् ईस्वी 1713 से लेकर ईस्वी 1721 तक के काल को मुगलों के इतिहास में सैयद बन्धुओं का युग कहा जाता है। उधर फर्रूखसियर इतना नासमझ नहीं था, जितना कि उसके वजीर समझ रहे थे। फर्रूखसियर को आशा थी कि एक बार बादशाह बन जाने पर परिस्थितियां स्वतः उसके अनुकूल हो जाएंगी तथा सैयद बंधु एवं समस्त वजीर बादशाह का आदेश मानने लगेंगे किंतुु सैयदों ने बादशाह की जरा भी परवाह नहीं की तथा वे बादशाह के आदेशों की उपेक्षा करके अपनी मर्जी से शासन चलाने लगे।
इस कारण फर्रूखसियर एवं सैयद बंधुओं में शीघ्र ही ठन गई। बादशाह ने सैयदों का प्रभाव कम करने के लिये सबसे पहले ईरानी गुट के नेता जुल्फिकार खाँ की हत्या करवा दी तथा तूरानी गुट के नेताओं मीर जुमला, चिनकुलीज खाँ और मुहम्मद अमीन खाँ आदि को अपने पक्ष में करके सैयदों पर नकेल कसने का प्रयास किया।
फर्रूखसियर ने आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह तथा जोधपुर नरेश अजीतसिंह से भी इस कार्य में सहायता लेनी चाही किंतु ये दोनों हिन्दू राजा फिर से मुगल बादशाहों के हाथों की कठपुतली नहीं बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने फर्रूखसियर की कोई सहायता नहीं की।
इन दिनों चूड़ामन जाटों का नेतृत्व कर रहा था। उसने दिल्ली एवं आगरा के बीच के प्रदेशों में लूट मचा रखी थी। फर्रूखसियर ने आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह को निर्देश दिए कि वह जाटों के विरुद्ध कार्यवाही करे किंतु सवाई जयसिंह चूड़ामन को नहीं दबा सका। चूड़ामन के विरुद्ध अभियान जारी रखा गया। इस अभियान पर मुगलों के 2 करोड़ रुपये व्यय हुए। अंत में ईस्वी 1718 में फर्रूखसियर ने चूड़ामन से समझौता कर लिया।
मीर जुमला बादशाह के संवाद-वाहक विभाग का अध्यक्ष था किंतु वह फर्रूखसियर का अत्यंत विश्वसनीय बन गया। इसलिए बादशाह ने उसे शासन के समस्त बड़े निर्णय करने के अधिकार दे दिये। इस पर सैयद बंधुओं के कान खड़े हुए।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि जब बादशाह फर्रूखसियर ने हुसैन अली खाँ को मारवाड़ नरेश अजीतसिंह के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए भेजा तब बादशाह ने महाराजा अजीतसिंह को एक गोपनीय पत्र भिजवाया कि यदि महाराजा अजीतसिंह सैयद हुसैन अली को खत्म कर दे तो अजीतसिंह को पुरस्कृत किया जायेगा।
यह बात ऐतिहासिक एवं तार्किक रूप से सही जान नहीं पड़ती क्योंकि महाराजा अजीतसिंह तथा बादशाह फर्रूखसियर के बीच इस तरह के विश्वास का कोई सम्बन्ध ही नहीं था।
जोधपुर के विरुद्ध सफलतापूर्वक कार्यवाही हो जाने के बाद फर्रुखसियर ने सैयद हुसैन अली को दक्षिण का सूबेदार बनाकर दक्षिण भारत जाने के आदेश दिये। साथ ही दक्षिण के कार्यवाहक सूबेदार दाऊद खाँ को गुप्त रूप से लिखा कि वह सैयद को रास्ते में ही खत्म कर दे।
दाऊद खाँ ने सैयद हुसैन अली की हत्या करने का प्रयास किया किंतु इस प्रयास में वह स्वयं मारा गया। बादशाह द्वारा दाऊद खाँ को प्रेषित गोपनीय कागज सैयद हुसैन के हाथ लग गये। उधर दिल्ली में फर्रूखसियर ने बड़े सैयद अब्दुल्ला खाँ को कत्ल करने की योजना बनाई परन्तु अन्य षड्यन्त्रों की भाँति वह भी विफल रही।
इतिहासकार एलफिंस्टन ने फर्रूखसियर पर आरोप लगाया है कि- ‘फर्रूखसियर बड़ी योजनाओं को समझ नहीं सकता था और छोटी योजनाओं को अपनी आलसी प्रकृति के कारण दूसरों की सहायता के बिना पूरी नहीं कर सकता था।’
इस काल में बादशाह की राजनीतिक दुर्दशा के कारणों को बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। शहंशाह अकबर ने राजपूतों से मित्रता करके अपनी सल्तनत के चारों ओर जो मजबूत सुरक्षा चक्र तैयार किया था, उस सुरक्षा चक्र को मजहबी संकीर्णता के चलते औरंगजेब ने छिन्न-भिन्न कर दिया था।
अब औरंगजेब तो धरती से उठ चुका था किंतु उसके वंशज औरंगजेब की गलतियों का परिणाम भोगने के लिए अभिशप्त थे। फर्रूखसियर के दरबार में अब एक भी प्रबल हिन्दू राजा दिखाई नहीं देता था। वे तो स्वयं ही तलवारें खींचकर मुगलों का सत्यानाश करने पर तुल गए थे!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता