प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने से पहले ही इटली भयानक आर्थिक संकट में फंसा हुआ था। ई.1911-12 में तुर्की-युद्ध का अंत इटली की विजय के साथ हुआ था और उत्तरी अफ्रीका में त्रिपोली पर उसका अधिकार होने से इटली के साम्राज्यवादी नागरिकों ने प्रसन्नता का अनुभव किया था किंतु इस विजय से इटली की आर्थिक स्थितियों में कोई सुधार नहीं हुआ।
ई.1914 में जब यूरोप प्रथम विश्व-युद्ध के मुहाने पर खड़ा हुआ था, तब इटली में आंतरिक क्रांति की चिन्गारियां सुलग रही थीं। कारखानों में हड़तालें चल रही थीं। मजदूर वर्ग के नर्म-दलीय समाजवादी नेता किसी तरह मजदूरों को काम पर लाने में सफल हुए। इसके साथ ही महायुद्ध छिड़ गया।
जर्मनी ने इटली से पुरानी मित्रता का हवाला देकर युद्ध में साथ देने के अनुरोध किया किंतु इटली ने मना कर दिया तथा युद्ध में तटस्थ रहने की नीति अपनाई ताकि इसके बदले में दोनों पक्षों को ललचाकर उनसे कुछ आर्थिक रियायतें प्राप्त कर सके। मित्र-राष्ट्रों अर्थात् इंग्लैण्ड एवं फ्रांस के गुट ने इटली को आर्थिक सहायता देकर उसे अपने पक्ष में लड़ने के लिए सहमत कर लिया।
इस प्रकार अगस्त 1916 में इटली अपने पुराने मित्र एवं अपने पुराने शासक जर्मनी के विरुद्ध विश्व-युद्ध में सम्मिलित हुआ। इटली को कुछ राशि नगद रूप में दी गई तथा स्मर्ना एवं तुर्की के कुछ क्षेत्र भी दे दिए गए जिन पर इटली अपना दावा जताता था किंतु उसी समय रूस में बोल्शेविक क्रांति हो गई जिससे इटली उन क्षेत्रों पर अधिकार नहीं कर सका।
युद्ध समाप्ति के बाद ‘पेरिस शांति सम्मेलन’ आयोजित हुआ जिसमें मित्र-राष्ट्र ब्रिटेन और फ्राँस ने इटली के साथ विश्वासघात किया और उन्होंने इटली को वे क्षेत्र नहीं दिए जो इटली को देने तय हुए थे। इटली को आशा थी कि वह इन क्षेत्रों पर अधिकार करके कुछ आर्थिक कमाई करेगा किंतु यह संभव नहीं हो सका।
इसलिए इटली के भीतर मित्र-राष्ट्रों के विरुद्ध असंतोष ने जन्म लिया। इटली का आरोप था कि मित्र-राष्ट्र जानबूझ कर इटली के हितों की उपेक्षा कर रहे थे। प्रथम विश्व-युद्ध में इटली के छः लाख सैनिक काम आए और लगभग 10 लाख सैनिक घायल हुए। युद्ध समाप्त होने के बाद इटली की आर्थिक स्थिति और अधिक खराब हो गई तथा बहुत से सैनिकों को नौकरी से हटा दिया गया।
इस प्रकार इटली में किसान, मजदूर एवं नौकरी से हटाए गए सिपाही सड़कों पर दंगे करने लगे। ई.1920 में धातु का काम करने वालू मजदूरों ने बढ़ी हुई तन्खाहों की मांग की। इससे इटली में ‘काम रोको हड़ताल’ आरम्भ हो गई। कारखाने के मालिकों ने कारखानों में तालाबंदी कर दी।
इस पर मजदूरों ने कारखानों के ताले तोड़कर उन पर अधिकार कर लिया तथा उन्हें समाजवादी ढंग से चलाने का प्रयत्न किया। इस समय इटली में समाजवादी दल का जोर था।
मजदूर-संघों के साथ-साथ तीन हजार म्युनिसिपल कमेटियों की बागडोर भी समाजवादियों के हाथों में थी। पार्लियामेंट में इस समय लगभग डेढ़ सौ अर्थात् एक तिहाई सदस्य समाजववादी थे। फिर भी समाजवादी नेता सिवाय भाषणों के और कुछ नहीं कर सके तथा देखते ही देखते कारखानों के मालिकों ने मिलों एवं कारखानों पर फिर से अधिकार कर लिए।
अब कारखाने के मालिकों ने देश में चल रही कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने पक्ष में किया तथा उन्हें मजदूरों एवं समाजवादी नेताओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया। इन संगठनों में बैनितो मुसोलिनी का ई.1910 से चल रहा संगठन प्रमुख था जिसमें उसने पहले किसानों और कारखाना मजदूरों को भर्ती किया था तथा बाद में सेना से निकाले गए सैनिकों को बड़ी संख्या में सम्मिलित कर लिया था।
सैनिकों की भर्ती के बाद इस संगठन का स्वरूप ‘लड़ाकू गिरोह’ जैसा हो गया था। ये किसी पर भी हमला कर सकते थे। पूंजीपतियों एवं कारखाने के मालिकों ने इन्हें समाजवादियों एवं वामपंथियों पर हमले करने के काम पर लगा दिया।
लड़ाकू गिरोहों के सदस्य किसी भी समाजवादी अखबार के कार्यालय पर हमला करके उसे नष्ट कर देते थे, किसी भी वामपंथी कार्यालय को आग लगाकर उसके सदस्यों के घायल कर देते थे। इसी प्रकार जो म्युनिसिपल कार्पोरेशन तथा सहकारी समितियाँ वामपंथियों के प्रभाव में थीं, उन पर भी इन लोगों ने हमले करके उन्हें तहस-नहस कर दिया। इन सब कामों के बदले में पूंजीपति लोग इन लड़ाकू गिरोहों को धन दिया करते थे।
धीरे-धीरे इटली में इन गिरोहों को ‘फासिदि कॉम्बैतिमैन्ति’ कहा जाना लगा। अंग्रेजी भाषा का ‘फासिज्म’ तथा हिन्दी भाषा का ‘फासीवाद’ इसी इटेलियन शब्द ‘फासिदि’ से बने हैं। सरकार ने पूंजपतियों एवं इन लड़ाकू गिरोहों की ओर से आंखें मूंद लीं। सरकार चाहती थी कि ये लोग समाजवादियों एवं वामपंथियों से सड़कों पर ही निबट लें।
बैनितो मुसोलिनी का जन्म ई.1883 में एक लोहार के घर में हुआ था जो कि समाजवादी कार्यकर्ता था। इसलिए मुसोलिनी का लालन-पालन समाजवादी विचारों के बीच हुआ। जब मुसोलिनी बड़ा हुआ तो वह भी समाजवादी नेता बन गया। वह नर्म विचारों वाले समाजवादियों को उनकी नर्म-नीति के लिए धिक्कारा करता था।
मुसोलिनी सरकार एवं अपने विरोधियों के विरुद्ध बमों के प्रयोग का समर्थन करता था। तुर्की-युद्ध में इटली के समाजवादियों ने सरकार का समर्थन किया किंतु मुसोलिनी ने इस युद्ध का विरोध किया तथा कई जगहों पर हिंसक कार्यवाहियां की जिनके कारण सरकार ने मुसलोलिनी को पकड़कर जेल में बंद कर दिया।
जब वह जेल से छूटा तो उसने समाजवादी दल से उन नेताओं को बाहर निकलवा दिया जो युद्ध का समर्थन करते थे। इसके बाद मुसोलिनी मीलान से प्रकाशित होने वाले एक समाचार पत्र ‘अवन्ती’ का सम्पादक बन गया। इस समाचार पत्र के माध्यम से मुसोलिनी अपने मजदूरों को सलाह देता था कि- ‘वे हिंसा का मुकाबला हिंसा’से करें।’ इटली के नर्म-समाजवादी नेताओं ने मुसोलिनी द्वारा भड़काई जा रही हिंसा का विरोध किया।
जब प्रथम विश्व-युद्ध आरम्भ हुआ तो मुसोलिनी ने युद्ध का विरोध किया तथा इस बात का प्रचार किया कि इटली को युद्ध से तटस्थ रहना चाहिए। इस दौर में सरकार भी इसी नीति पर चल रही थी। अचानक मुसोलिनी ने अपने विचार बदल दिए तथा यह प्रचार करना आरम्भ किया कि इटली को मित्र-राष्ट्रों की तरफ से युद्ध में भाग लेना चाहिए।
उसने समाजवादी समाचार-पत्र के सम्पादन का काम भी बंद कर दिया तथा एक नया समाचार पत्र आरम्भ किया जिसमें उसने मित्र-राष्ट्रों के समर्थन में जनमत तैयार करना आरम्भ किया।
इस पर समाजवादियों ने मुसोलिनी को समाजवादी दल से निकाल दिया। अब मुसोलिनी इटली की सेना में साधारण सिपाही के रूप में भर्ती हो गया तथा प्रथम विश्व-युद्ध के मोर्चे पर लड़ने गया। युद्ध में वह गंभीर रूप से घायल हो गया। जब युद्ध समाप्त हो गया तो मुसोलिनी ने स्वयं को बड़ी विचित्र स्थिति में पाया।
अब वह न तो समाजवादियों के काम का था, न सरकार के काम का था, न मजदूरों में उसका प्रभाव रह गया था। ऐसा हारा हुआ और कुण्ठित व्यक्ति प्रायः या तो अवसाद में चला जाता है, या फिर ‘अराजकतावादी’ हो जाता है। मुसोलिनी अराजकतावादी हो गया।
ई.1920 में उसने अपने संगठन में, युद्ध में बेकार हो गए तथा सेना से निकाले गए सैनिकों की दुबारा से भर्ती आरम्भ की तथा इटली में फासीवाद की नए सिरे से नींव डाली। इस अवसर पर उसने कहा- ‘चूंकि वे किसी तरह के निर्धारित कार्यक्रमों से बंधे हुए नहीं हैं, इसलिए वे बिना रुके हुए एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ते जाते हैं, और वह लक्ष्य है इटली की जनता की भावी भलाई।’
कहने को तो मुसोलिनी जनता की भलाई की बात कह रहा था किंतु वास्तविकता यह थी कि उसके संगठन का हिंसा के अलावा और किसी सिद्धांत में विश्वास नहीं था। बहुत से शहरों में मजदूर संगठनों ने मुसोलिनी के संगठन के साथ हिंसक झड़पें कीं जिससे मुसोलिनी कठिनाई में पड़ गया किंतु तभी नर्मपंथी समाजवादी नेताओं ने मजदूरों को सलाह दी कि वे हिंसा का सामना हिंसा से न करके शांति एवं धैर्य से काम लें।
मजदूरों ने अपने नेताओं की सलाह मान ली और उन्होंने मुसोलिनी के गुण्डों का हिंसक विरोध करना बंद कर दिया। इससे मुसोलिनी का काम आसान हो गया और देश में फासीवादी गिरोह पनप गए जिनका सर्वमान्य नेता मुसोलिनी था। प्रत्येक गिरोह को किसी न किसी धनी मिल मालिक का संरक्षण मिल गया था। सरकार ने इनके मामलों में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया क्योंकि ये गिरोह मिलों में हड़ताल नहीं होने देते थे।
मुसोलिनी ने एक नीति और अपनाई, उसके गिरोह काम तो धनी लोगों के लिए करते थे किंतु नारे हमेशा गरीबों, शोषितों, वंचितों, पीड़ितों, किसानों, मजदूरों आदि के समर्थन में लगाते थे। यह साम्यवादियों की पुरानी चाल थी, वे पीड़ितों की लड़ाई लड़ने की आड़ में अपनी जेबें भरा करते थे। मुसोलिनी ने भी यही किया।
इस प्रकार फासीवाद एक खिचड़ी जैसी चीज बन गया। वह प्रकट रूप से अमीरों के हितों के लिए कार्य करता था और प्रकट रूप से ही गरीबों के पक्ष में भाषण देता था। इस प्रकार अमीर उससे डरे हुए रहते थे और गरीब यह सोचते थे कि मुसोलिनी तो उनका अपना ही नेता है।
वास्तव में मुसोलिनी का फासिज्म एक ऐसा पूंजीवादी आंदोलन था जो पूंजीवादियों के खिलाफ डरावनी बातें करता था। एक दिन वह गरीबों के पक्ष में भाषण देता था तो अगले ही दिन कारखाना मालिकों, पूंजीपतियों एवं बड़े उद्योगों को बनाए रखने की वकालात करता हुआ दिखाई देता था ताकि गरीबों की नौकरियां खतरे में न पड़ें।
मुसोलिनी ने समाज का ऐसा कोई वर्ग नहीं छोड़ा था जिसके पक्ष में एवं जिसके विरोध में मुसोलिनी ने भाषण नहीं दिए हों। जब वह अमीरों के विरोध में भाषण देता था तो निर्धन वर्ग के लोग खुश होते थे और जब वह अगली बार अमीरों के पक्ष में भाषण करता था तो निर्धन वर्ग के लोग सोचते थे कि यह तो केवल अमीरों को खुश करने के लिए बोला जा रहा है, वास्तव में मुसोलिनी गरीबों का नेता है। ठीक ऐसा ही अमीर वर्ग के लोग सोचते थे।
मध्यम वर्ग के बेकार एवं बेरोजगार नौजवान इस आंदोलन का बड़ा हथियार बन गए जिन्हें मुसोलिनी पेट भरने के लिए रोटी के पैसे उपलब्ध कराने लगा और मारपीट एवं गुण्डागर्दी के कामों में उन्हें अपनी सेना के रूप में काम में लेने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि असंगठित क्षेत्र के मजदूर लोग भी मुसोलिनी की छतरी के नीचे आकर जमा होने लगे ताकि मिल मालिकों से लड़कर उनकी नौकरियां सुरक्षित रखी जा सकें।
इस प्रकार फासीवाद एक रंग-बिरंगी वस्तु बन गया जिसमें इटली की जनता के सभी रंग एक साथ दिखाई देते थे। चूंकि सरकार के पास ऐसा कोई उपाय नहीं था जिससे वह बेरोजगारों को रोजगार दे सके, पूंजीपतियों की शोषणकारी एवं दमनकारी नीतियों पर अंकुश स्थापित कर सके, मुसोलिनी के गुण्डों का दमन कर सके, इसलिए सरकार ने इस आंदोलन के समक्ष घुटने टेक दिए। अब देश का वास्तविक शासन यही गुण्डे चलाने लगे। कम से कम जनता के बीच तो इन्हीं गुण्डों का शासन था।
फासीवादियों ने अपनी ओर से चीजों के मूल्य तय कर दिए तथा व्यापारी वर्ग को विवश किया कि वे इन्हीं दामों पर दैनिक उपभोग की चीजें बेचें। इससे गरीबों को बड़ी राहत मिल गई और वे फासीवादियों के साथ हो लिए। मुसोलिनी चूंकि फौज में रहकर लड़ा था, इसलिए वह बड़ी आसानी से सैन्य अधिकारियों से मित्रता गांठ लेता था। इस कारण इटली की सेना में मुसोलिनी के सम्पर्क सूत्र स्थापित हो गए।
धीरे-धीरे मुसोलिनी ने सेना के कुछ बड़े सेनापतियों को अपने पक्ष में कर लिया। यह कैसी विचित्र बात थी कि इटली का धनी वर्ग मुसोलिनी को अपनी सम्पत्ति का रक्षक समझता था, मजदूर वर्ग उसे अपनी नौकरियों का संरक्षक समझता था, समाजवादी नेता उससे भय खाते थे और सरकार के मंत्री उसे न सुलझने वाली पहेली समझकर सहन करते थे जबकि सैन्य अधिकारी उसे अपना मित्र मानते थे।
इस प्रकार वह सबको किसी न किसी तरह से चकमा दे रहा था और उन्हें अपने पक्ष में रखे हुए था। ऐसे आदमी के लिए देश पर कब्जा कर लेना अधिक कठिन नहीं था। उसने रोम पर चढ़ाई करने का कार्यक्रम बनाया। इटली के राजा को उसका यह कार्यक्रम अच्छा लगा और राजा से सहायता लेकर अक्टूबर 1922 में फासीवादी दस्तों ने रोम पर चढ़ाई कर दी।
रोम के लिए कूच करने से पहले उसने अपने सैनिक-दस्तों का आह्वान इन शब्दों में किया- ‘हमारा कार्यक्रम बहुत सीधा-सादा है। हम इटली पर राज करना चाहते हैं।’
इटली का प्रधानमंत्री ‘नित्ती’ जो अब तक मुसोलिनी के विरुद्ध कार्यवाही करने से बच रहा था, उसे देश में सैनिक शासन लागू करना पड़ा किंतु तब तक देर हो चुकी थी, स्वयं राजा भी मुसोलिनी के पक्ष में हो गया था। उसने प्रधानमंत्री के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसके द्वारा देश में सैनिक शासन लागू किया गया था।
प्रधानमंत्री ने नाराज होकर त्यागपत्र दे दिया और इटली के राजा विक्टर एमानुएल (तृतीय) ने मुसोलिनी को मीलान में आमंत्रित किया ताकि मुसोलिनी को नया प्रधानमंत्री बनाया जा सके। 30 अक्टूबर 1922 को फासीवादी सेना रोम पहुँच गई और उसी दिन मुसोलिनी प्रधानमंत्री बनने के लिए रेल में बैठकर मीलान चला आया।
बिना किसी विरोध और बाधा के मुसोलिनी इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री बन गया। उसका ‘फासीवाद’ सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा किंतु उसकी आगे की डगर बहुत कठिन थी। मुसोलिनी के सामने न कोई लक्ष्य था, न आदर्श था, न योजना थी, न किसी तरह का कार्यक्रम था। वह तो केवल देश की सत्ता छीनना चाहता था, जिसमें वह सफल हो गया था किंतु आगे क्या करना था, इसके बारे में उसने कुछ भी नहीं सोचा था।
मुसोलिनी ने इटालवी भाषा के विश्वकोश में फासीवाद पर लिखे एक लेख में लिखा है– ‘जब वह रोम पर चढ़ाई करने के लिए रवाना हुआ तब भविष्य के बारे में उसके दिमाग में कोई योजना नहीं थी। राजनीतिक संकट के समय कुछ करने की जोरदार इच्छा ने ही उसे इस युद्ध पर कूच करने के लिए प्रेरित किया था, और यह उसकी पिछली समाजवादी साधना का परिणाम था।’
मुसोलिनी के दल का प्रतीक चिह्न रोम का एक पुराना साम्राज्यशाही राज्यचिह्न था जो रोम के सम्राटों और मजिस्ट्रेटों के आगे-आगे चला करता था। यह छड़ियों का एक बण्डल होता था जिसके बीच में कुल्हाड़ी लगी रहती थी। ये छड़ियां फेसेज कहलाती थीं, इन्हीं से फासिमो शब्द बना है। फासीवादी लोगों के अभिवादन का तरीका भी पुराने रोमन ढंग का था जिसमें एक बाजू को उठाकर एक तरफ फैला दिया जाता है।
इसलिए कहा जा सकता है कि फासीवादी स्वयं को राष्ट्रवादी प्रदर्शित करने के लिए प्राचीन रोमन साम्राज्य के प्रतीकों को काम में ले रहे थे। फासीवादियों का काम करने का तरीका भी साम्राज्यशाही ढंग का था जिसमें ‘कोई तर्क नहीं, केवल आज्ञापालन’ का सिद्धांत निहित था। उनका नेता मुसोलिनी ‘इल द्यूचे’ अर्थात् तानाशाह कहलाता था। उनकी वर्दी में काली-कुर्ती सम्मिलित थी। इसलिए उन्हें ‘ब्लैक शर्ट्स’ अथवा ‘काली कुर्ती’ कहा जाता था।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मुसोलिनी ने इटली में एक सूत्री कार्यक्रम चलाया, और वह था विरोधियों को ठिकाने लगाना। बहुत से मार्क्सवादी एवं समाजववादी नेताओं और उनके समर्थकों की हत्या कर दी गई। पार्लियामेंट के सदस्यों को जान से नहीं मारा गया किंतु उन्हें सड़कों, गलियों एवं उनके घरों में घुस कर लात-घूंसों और जूतों से पीटा गया ताकि वे पार्लियामेंट में मुसोलिनी का समर्थन करें। इसके बाद मुसोलिनी पार्लियामेंट में शाही प्रतिनिधि के चुनाव के सम्बन्ध में एक विधेयक लाया।
इस विधेयक में कहा गया कि शाही उत्तराधिकारी की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जाए। यह राजा का घोर अपमना था किंतु जूतों के बल पर यह नया कानून प्रबल बहुमत से पारित करा लिया गया। इस तरह मुसोलिनी के पक्ष में भारी बहुमत हासिल कर लिया गया। मुसोलिनी ने राजाज्ञाओं का पालन बंद कर दिया तथा सार्वजनिक रूप से दिए गए एक भाषण में कहा- ‘यह घोषणा-पत्र इमानुएल की राजगद्दी का अंत करने के लिए यथेष्ट है।’
मुसोलिनी के गुण्डों ने पुलिस को निष्क्रिय करके स्वयं मोर्चा संभाल लिया। वे जिसकी हत्या करना चाहते थे, उसे बलपूर्वक अरण्डी का ढेर सारा तेल पिला देते थे। देश की समस्त सरकारी नौकरियां फासीवादी दल के कार्यकताओं को दे दी गईं। ई.1224 में गायाकोमो मैतिओती की हत्या से सारा यूरोप थर्रा गया।
यह एक विख्यात समाजवादी था और पार्लियामेंट का सदस्य था। उन दिनों इटली में चुनाव होकर ही चुका था। गायाकोमो ने पार्लियामेंट में एक भाषण दिया जिसमें उसने फासीवादी तरीकों की निंदा की। कुछ ही दिन बाद गायाकोमो की हत्या कर दी गई। लोगों को दिखाने के लिए कुछ लोगों को पकड़कर उन पर मुकदमा चलाया गया किंतु अंत में उन सभी को छोड़ दिया गया।
अभी यह घटना होकर ही चुकी थी कि अमेन्दोला नामक एक नर्म-दली नेता को पीटा गया जिससे उसकी भी मृत्यु हो गई। पिछला प्रधानमंत्री ‘नित्ती‘ भी इसी दल का नेता था, वह जान बचाने के लिए चुपचाप इटली छोड़कर भाग गया। मुसोलिनी के कार्यकर्ताओं ने उसका घर जलाकर नष्ट कर दिया। ये समस्त कार्यवाहियां किसी उन्मत्त भीड़ द्वारा नहीं की गई थीं अपितु सोच-समझकर खुलेआम की गई थीं।
मुसोलिनी इटली का तानाशाह बन गया। वह केवल प्रधानमंत्री ही नहीं था अपितु पर-राष्ट्र विभाग (विदेश), स्वराष्ट्र विभाग (गृह), उपनिवेश विभाग, युद्ध विभाग, नौसेना विभाग, हवाई सेना विभाग और मजदूर विभाग का भी मंत्री था। एक तरह से वह पूरा मंत्रिमण्डल था। इटली का बूढ़ा राजा चुप होकर कौने में बैठ गया। उसके पास अब कोई शक्ति नहीं बची थी। यही काफी था कि उसके महल उसके पास थे जिनमें अब भी नौकर-चाकर काम करते थे। मुसोलिनी ने उन्हें नहीं हटाया था।
मुसोलिनी जब भाषण देता था तो आग उगलता था। उसे हर समय कोई शत्रु चाहिए था जिस पर वह गालियों एवं धमकियों की बौछार कर सके। वह यूरोप के किसी भी देश को धमका देता था जिससे यूरोप के देशों में बेचैन फैल गई। कौन जाने यह तानाशाह कब क्या कर बैठे?
उसने फ्रांस को धमकाया कि वह अपनी हद में रहे अन्यथा उसके आकाश में इटली के असंख्य हवाई जहाज छा जाएंगे। फ्रांस के सामने इटली की सामरिक शक्ति नगण्य सी थी किंतु फ्रांस इस पागल तानाशाह से लड़कर अपनी शक्ति खराब नहीं करना चाहता था। इसलिए फ्रांस ने कोई जवाब नहीं दिया। इटली राष्ट्रसंघ का सदस्य था किंतु मुसोलिनी अपने भाषणों में राष्ट्रसंघ के लिए असभ्य शब्दों एवं धमकियों का प्रयोग करता था।
राष्ट्रसंघ ने भी उन असभ्य टिप्पणियों को चुपचाप सुन लिया। वे जानते थे कि मुसोलिनी अपने देश में जनता एवं सेना पर पकड़ बनाए रखने के लिए इस तरह की असभ्य भाषा का प्रयोग करता है, इससे आगे न तो उसे कुछ करना है और न कुछ करने की उसकी सामर्थ्य है।
ई.1929 में पोप एवं इटली की सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसके बाद, दोनों के बीच ई.1871 से चला आ रहा विवाद सुलझ गया। पाठकों को स्मरण होगा कि ई.1861 में इटली के एकीकरण के बाद पीडमाँट का राजा इमेनुएल सम्पूर्ण इटली का शासक हो गया था। ई.1871 में राजा इमेनुएल ने रोम पर अधिकार कर लिया था तथा रोम को अपनी राजधानी घोषित कर दिया था।
इसके बाद उसने रोम में ही अपने महल एवं कार्यालय स्थापित कर लिए थे। पोप ने राजा इमेनुएल की इस कार्यवाही को मान्यता नहीं दी क्योंकि पोप तो स्वयं पापल स्टेट का राजा था।
इसलिए तभी से पोप, वेटिकन स्थित अपने महलों तथा सेंट पीटर्स चर्च के अतिरिक्त, रोम एवं इटली की अन्य भूमि पर पैर नहीं रखता था। पोप ने अपनी इच्छा से स्वयं को वेटिकन में बंदी बना रखा था। ई.2929 के समझौते में रोम शहर में स्थित वेटिकन क्षेत्र को सम्पूर्ण-प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य बना दिया गया तथा पोप को उसका राजा घोषित किया गया।
उस समय इस राज्य की जनसंख्या कुछ सौ ही थी किंतु पोप ने अपनी अदालत, अपनी डाक व्यवस्था, अपने डाक टिकट, अपना टकसाल, अपनी मुद्रा स्थापित की जो इटली में भी मान्य की गई। पोप के सम्मान को बहाल करने के लिए इटली के कैथोलिक नागरिकों ने मुसोलिनी के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया।
इटली एवं रोम को वश में करने के बाद मुसोलिनी ने यूरोप के अन्य देशों में आग लगाने का कार्यक्रम बनाया। उसने कहा कि- ‘यूरोप के हर देश में राजगद्दियाँ इस प्रतीक्षा में खाली पड़ी हैं कि कोई योग्य व्यक्ति उन पर बैठ जाए।’
उसके इस विचार से बहुत से देशों में उद्दण्ड किस्म के लोग राजसत्ताएं हड़पने के लिए बलवे करने लगे। पार्लियामेंटों के सदस्यों को ठोका-पीटा जाने लगा तथा उनसे मन-माफिक कानून पारित करवाए जाने लगे।
स्पेन इसका सबसे बड़ा उदाहरण था। स्पेन की पार्लियामेंट को ‘कोर्ते’ कहा जाता था। पार्लियामेंट में रोमन पादरियों का बड़ा प्रभाव था। स्पेन अपनी खराब आर्थिक स्थिति के कारण प्रथम विश्वयुद्ध से दूर रहा था किंतु स्पेन में औद्योगिकीकरण नहीं होने से जनता में गरीबी और बेरोजगारी अधिक थी।
इसलिए स्पेन की जनता ने न तो जर्मनी की तरह से ठोस मार्क्सवाद अपनाया और न इंग्लैण्ड की तरह नर्म समाजवाद अपनाया, स्पेन ने इटली की तरह फासीवाद अपना लिया जिससे स्पेन में अराजकता का बोलबाला हो गया। ऐसा बुरा हाल और भी कई देशों का हुआ। पौलेण्ड, यूगोस्लाविया, यूनान, बुलगारिया, पुर्तगाल, हंगरी और ऑस्ट्रिया में भी गुण्डा तत्वों ने तानाशाहियाँ स्थापित कर लीं।
यूरोप से लगते हुए तुर्की में भी कमाल पाशा नामक तानाशाह सत्ता पर कब्जा करके बैठ गया। दक्षिण-अमरीकी देशों में भी तानाशाहियों ने सरकारें हथिया लीं। इस प्रकार मुसोलिनी का जादू आधी से अधिक दुनिया के सिर चढ़कर बोलने लगा।
अबीसीनिया पर आक्रमण
ई.1935 में मुसोलिनी ने अबीसीनिया पर आक्रमण किया। यद्यपि द्वितीय विश्व-युद्ध अभी दूर था तथा उसे ई.1939 में आरम्भ होकर ई.1945 में समाप्त होना था किंतु व्यावहारिक रूप से कहा जा सकता है कि अबीसीनिया पर आक्रमण करके मुसोलिनी ने द्वितीय विश्व-युद्ध का पहला पटाखा फोड़ दिया।