मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के बाद राज्य के प्रधानमंत्री ख्वाजाजहाँ ने मुहम्मद के अवयस्क भांजे को मुहम्मद का दत्तक पुत्र घोषित करके उसे सुल्तान बना दिया किंतु सल्तनत के अमीरों ने मुहम्मद के 42 वर्षीय चचेरे भाई फीरोज तुगलक को सुल्तान मनोनीत किया। इस पर फीरोज तुगलक ने प्रधानमंत्री ख्वाजाजहाँ तथा उसके द्वारा घोषित अवयस्क सुल्तान की हत्या कर दी तथा असंतुष्ट मुल्ला-मौलवियों पर धन की बरसात करके उन्हें अपने पक्ष में कर लिया।
फीरोज तुगलक का खजाना खाली था फिर भी उसने बचे-खुचे खजाने को अंसतुष्ट लोगों पर लुटाकर सल्तनत में शांति स्थापित करने का प्रयास किया। उसने जनता पर लगाये जा रहे ढेर सारे करों में से 24 करों को हटा दिया।
फीरोज ने अमीरों तथा उलेमाओं से परामर्श और सहायता लेकर शासन करना आरम्भ किया। फीरोज इस्लाम में दृढ़ आस्था रखता था इसलिए उसने इस्लाम आधारित शासन का संचालन किया। इससे अमीर एवं उलेमा सुल्तान से संतुष्ट रहने लगे किंतु इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि फीरोज तुगलक कुछ ही दिनों में उलेमाओं के हाथों की कठपुतली बन गया।
फीरोज कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इसलिए उसने न्याय व्यवस्था कुरान के नियमों के आधार पर की। वह अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता था परन्तु उसने दण्ड विधान की कठोरता को हटा दिया और अंग-भंग करने के दण्ड पर रोक लगा दी। प्राणदण्ड भी बहुत कम दिया जाता था।
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फीरोज ने उन 24 करों को हटा लिया जिनसे प्रजा को कष्ट होता था। उसने कुरान के नियमानुसार जनता पर खिराज, जकात, जजिया तथा खाम नामक चार कर जारी रखे। युद्ध में मिला लूट का सामान सेना तथा राज्य में फिर उसी अनुपात में बंटने लगा जैसे कुरान द्वारा निश्चित किया गया है, अर्थात् बीस प्रतिशत सुल्तान को और अस्सी प्रतिशत सेना को।
सुल्तान की इस नीति का अच्छा परिणाम हुआ। व्यापार तथा कृषि दोनों की उन्नति हुई। वस्तुओं के मूल्य कम हो गए और लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति होने लगी। सुल्तान की आय में वृद्धि हो गई और सुल्तान के पास फिर से धन एकत्रित हो गया।
सुल्तान की उदारता के कारण कई बार दण्ड के भागी लोग भी दण्ड पाने से बच जाते थे। शरीयत के नियमों के अनुसार न्याय किया जाता था। मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था। फीरोज तुगलक के काल में न्याय उतना पक्षपात पूर्ण तथा कठोर नहीं था जितना मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में था।
सल्तनत के शासन को सुचारू रीति से संचालित करने के लिए फीरोज ने योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों की नियुक्तियाँ की। उसने मलिक-ए-मकबूल को सुल्तान के नायब अर्थात् प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया और उसे ‘खान-ए-जहाँ’ की उपाधि प्रदान की। मलिक-ए-मकबूल तेलंगाना का ब्राह्मण था तथा उसने कुछ ही दिनों पहले इस्लाम स्वीकार किया था। उसने जीवन भर फीरोज के प्रति वफादारी का प्रदर्शन किया जिसके कारण फीरोज को शासन चलाने में कभी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा।
सल्तनत में भूमि-कर की समुचित व्यवस्था करने के लिए फीरोज तुगलक ने ख्वाजा निजामुद्दीन जुनैद को नियुक्त किया। सुल्तान ने मलिक गाजी को ‘नायब आरिज’ के पद पर नियुक्त करके सेना के संगठन के कार्य सौंपा। मलिक गाजी शहना को सार्वजनिक निर्माण विभाग का कार्य दिया गया। इस प्रकार फरोज तुगलक ने शासन को सुचारू रीति से संचालित करने का प्रयास किया।
सुल्तान फीरोज तुगलक ने दिल्ली के तख्त पर अपने अधिकार को पुष्ट बनाने के लिए स्वयं को खलीफा का नायब घोषित कर दिया। उसने खुतबे तथा मुद्राओं में खलीफा के नाम के साथ-साथ अपना नाम भी खुदवाया। दिल्ली के सुल्तानों में फीरोज पहला सुल्तान था जिसने खलीफा से सनद प्राप्त किए बिना ही खलीफा का नाम खुतबे में लिखवाया तथा स्वयं को खलीफा का नायब घोषित किया।
फीरोज में उच्च कोटि की धार्मिक कट्टरता थी। चूंकि उलेमाआंे के अनुरोध पर वह तख्त पर बैठा था, इसलिए वह समस्त कार्य उनकी सहायता तथा परामर्श से करता था। इस प्रकार फीरोज ने इस्लाम आधारित शासन की स्थापना की। उसके शासन में हिन्दुओं की स्थिति वैसी ही दयनीय बनी रही तथा मुसलमानों को न्याय एवं भूराजस्व आदि में मिलने वाली रियायतें उसी प्रकार मिलती रहीं।
श्रीराम शर्मा ने लिखा है- ‘फीरोज न तो अशोक था न अकबर जिन्होंने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया था, वरन् वह औरंगजेब की भांति कट्टरपंथी था।’
फीरोज तुगलक की शासननीति का एक मुखौटा यह भी था कि विरोधी तत्वों को संतुष्ट रखने के लिए वह अमीरों एवं मुल्ला-मौलवियों से सलाह लेने का दिखावा करता था किंतु वास्तविकता यह थी कि अन्य मध्यकालीन मुसलमान शासकों की भांति फीरोज का शासन भी स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था। वह मुल्ला-मौलवियों के कहने से ऐसे आदेश देता था जिससे हिन्दू जनता पर अत्याचार होते थे और मुल्ला-मौलवी संतुष्ट होते थे किंतु अन्य नीतिगत मामलों में सुल्तान सभी निर्णय स्वयं करता था। वह अकेला ही राज्य की सर्वोच्च शक्तियों का स्वामी था और वही प्रधान सेनापति भी।
सुल्तान के नीचे उसका नायब (प्रधानमन्त्री) था जो सुल्तान को महत्त्वपूर्ण कार्यों में परामर्श देता था। फीरोज का नायब खान-ए-जहाँ मकबूल योग्य व्यक्ति था। वह सुल्तान के साथ युद्धस्थल में जाता था और कभी-कभी सुल्तान की अनुपस्थिति में दिल्ली के शासन का भार उसी के ऊपर रहता था। महत्त्वपूर्ण विषयों में सलाह लेने के लिए सुल्तान दरबार का आयोजन करता था तथा अमीरों से परामर्श लेता था।
अब तक के सुल्तान राजकोष की पूर्ति जनता पर कर बढ़ाकर करते थे जिनके कारण कर इतने अधिक बढ़ाए जा चुके थे कि उन्हें और नहीं बढ़ाया जा सकता था। इसलिए फीरोज ने कर बढ़ाने के स्थान पर व्यापार, कृषि एवं जागीरदारी व्यवस्था को चुस्त बनाने का प्रयास किया जिससे राजस्व में वृद्धि हो तथा सुल्तान के प्रति असंतोष भी नहीं बढ़े। उसके प्रयासों से लोगों की आय बढ़ी जिससे सरकार के कोष में भी धन की पर्याप्त आमदनी हुई।
मुद्रा की समस्या सुलझाने का कार्य मुहम्मद तुगलक के काल में ही आरम्भ हो गया था परन्तु पूरा नहीं हो सका था। फीरोज ने इस अधूरे कार्य को पूर्ण करने का प्रयत्न किया। उसने छोटे-छोटे मूल्य की मुद्राएं चलाईं जिनका प्रयोग छोटे व्यवसायों में हो सकता था। फीरोज धातु की शुद्धता पर विशेष रूप से ध्यान देता था परन्तु अधिकारियों की बेइमानी के कारण मुद्रा सम्बन्धी सुधार में विशेष सफलता नहीं मिली।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता