Friday, November 22, 2024
spot_img

अध्याय – 12 (ब) : फीरोजशाह तुगलक

फीरोज की धार्मिक नीति

फीरोजशाह तुगलक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इस्लाम तथा कुरान में पूरा विश्वास होने के कारण उसने इस्लाम आधारित शासन का संचालन किया। उसकी धार्मिक नीति का परिचय उसकी पुस्तक फतुहाते फिरोजशाही से मिलता है-

(1.) अमीरों तथा उलेमाओं की सलाह से शासन: फीरोजशाह तुगलक ने उलेमाओं के समर्थन से राज्य प्राप्त किया था इसलिये उसने उलेमाओं को संतुष्ट रखने की नीति अपनाई तथा उलेमाओं के हाथ की कठपुतली बन गया। वह उलेमाओं से परामर्श लिये बिना कोई कार्य नहीं करता था।

(2.) स्वयं को खलीफा का नायब घोषित करना: वह दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने स्वयं को खलीफा का नायब घोषित किया।

(3.) कुरान के अनुसार लूट का बंटवारा: फीरोज तुगलक ने युद्ध में मिला लूट का सामान सेना तथा राज्य में उसी अनुपात में बांटने की व्यवस्था लागू की जैसे कुरान द्वारा निश्चित किया गया है, अर्थात् पांचवां भाग राज्य को और शेष सेना को।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

(4.) धार्मिक असहिष्णुता की नीति: फीरोजशाह तुगलक ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसके शासन काल में हिन्दुओं के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता था। एक ब्राह्मण को सुल्तान के महल के सामने जिन्दा जलवा दिया गया। उस पर यह आरोप लगाया गया कि वह मुसलमानों को इस्लाम त्यागने के लिए उकसाता है।

(5.) हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन: फीरोजशाह तुगलक अपनी हिन्दू प्रजा को मुसलमान बनने के लिए प्रोत्साहित करता था और जो हिन्दू मुसलमान हो जाते थे उन्हें जजिया कर से मुक्त कर देता था। फतुहाते फिरोजशाही में वह लिखता है- मैंने अपनी काफिर प्रजा को पैगम्बर का धर्म स्वीकार करने के लिये उत्साहित किया और मैंने यह घोषित किया कि जो मुसलमान हो जावेगा उसे जजिया से मुक्त कर दिया जावेगा।

(6.) मंदिरों को तोड़ने एवं लूटने की नीति: फीरोज तुगलक ने मध्यकालीन मुस्लिम सुल्तानों की तरह हिन्दू मंदिरों एवं मूर्तियों को तोड़ने एवं लूटने की नीति जारी रखी। उसने जाजनगर में जगन्नाथपुरी तथा नगरकोट में ज्वाला देवी मंदिर के आक्रमण के समय हिन्दुओं के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। उसने पुरी के जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियां तुड़वाकर समुद्र में फिंकवा दीं। उसने नगर ज्वालादेवी मंदिर की सम्पदा लूटने के लिये नगर कोट पर आक्रमण किया तथा मंदिर को नष्ट करके वहाँ से भारी सम्पदा प्राप्त की।

(7.) ध्वस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण पर रोक: फीरोज तुगलक के शासन में जो मंदिर तोड़ दिये जाते थे उनके पुनर्निर्माण पर रोक लगा दी गई थी।

(8.) हिन्दू मेलों पर प्रतिबंध: फीरोजशाह तुगलक ने हिन्दू मेलों पर प्रतिबंध लगा दिया।

(9.) मस्जिदों का निर्माण: फीरोजशाह ने इस्लाम के उन्नयन के लिये मस्जिदों का निर्माण करवाया। बरनी के अनुसार फीरोजशाह ने 40 मस्जिदों का निर्माण करवाया।

(10.) दीवाने खैरात का गठन: फीरोजशाह ने मुसलमानों की पुत्रियों के विवाह में सहायता देने के लिए ‘दीवाने खैरात’ खोला। कोई भी मुसलमान इस कार्यालय में अर्जी देकर पुत्री के विवाह के लिये आर्थिक सहायता प्राप्त कर सकता था। प्रथम श्रेणी के लोगों को 50 टंक, द्वितीय श्रेणी के लोगों को 30 टंक और तृतीय श्रेणी के लोगों को 20 टंक दिया जाता था। मुस्लिम विधवाओं तथा अनाथों को भी इस विभाग से आर्थिक सहायता मिलती थी।

(11.) मदरसों एवं मकतबों का निर्माण: फीरोजशाह तुगलक ने इस्लाम की शिक्षा के प्रसार के लिए कई मदरसे तथा मकतब खुलवाये। वह इस्लामिक शिक्षा पर विशेष ध्यान देता था। प्रत्येक विद्यालय में मस्जिद की व्यवस्था की गई थी। इन संस्थाओं को राज्य से सहायता मिलती थी। विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति तथा अध्यापकों को पेंशन दी जाती थी। मकतबों को राज्य की ओर से भूमि भी मिलती थी।

(12.) हिन्दू जनता पर धार्मिक कर: उसने कुरान के नियमानुसार जनता पर केवल चार कर- खिराज, जकात, जजिया तथा खाम को जारी रखे। शेष समस्त कर हटा दिये गये।

(13.) ब्राह्मणों पर जजिया कर: अरब आक्रमण के समय से ही ब्राह्मण जजिया कर से मुक्त थे किंतु फीरोज ने उलेमाओं के कहने पर ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगा दिया। शाक्त सम्प्रदाय के हिन्दुओं का उसने विशेष रूप से दमन किया।

(14.) शियाओं के साथ दुर्व्यवहार: न केवल हिन्दुओं, वरन् शिया सम्प्रदाय के मुसलमानों के साथ भी फीरोज का व्यवहार अच्छा नहीं था। शिया मुसलमानों के सम्बन्ध में वह लिखता है- मैंने उन समस्त को पकड़ा और उन पर गुमराही का दोष लगाया। जो बहुत उत्साही थे, उन्हें मैंने प्राणदण्ड दिया। मैंने उनकी पुस्तकों को आम जनता के बीच जला दिया। अल्लाह की मेहरबानी से शिया सम्प्रदाय का प्रभाव दब गया।

(15.) सूफियों के प्रति घृणा: फीरोजशाह तुगलक सूफियों को भी घृणा की दृष्टि से देखता था क्योंकि सूफियों के विचार वेदान्त दर्शन से साम्य रखते थे।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि फीरोज ने एक कट्टर सुन्नी मुसलमान की भांति शासन किया। उसकी धार्मिक नीतियों के कारण उसके राज्य में हिन्दुओं का जीवन बहुत कष्टमय हो गया था। शियाओं एवं सूफियों के लिये भी सल्तनत की ओर से कोई संरक्षण उपलब्ध नहीं था। इसी कारण बरनी तथा अफीफ ने उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘फीरोज में उस विशाल हृदय तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले बादशाह (अकबर) की प्रतिभा का शतांश भी नहीं था जिसने सार्वजनिक हितों का उच्च मंच से समस्त सम्प्रदायों तथा धर्मों के प्रति शान्ति, सद्भावना तथा सहिष्णुता का सन्देश दिया।’

फीरोज के अन्तिम दिवस

फीरोज के अन्तिम दिन सुख तथा शांति से नहीं बीते। उसने शहजादे फतेह खाँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया किंतु 1374 ई. में शहजादे की मृत्यु हो गई। इससे सुल्तान को भीषण आघात पहुंचा। शासन में शिथिलता आने लगी और राज्य दलबन्दी का शिकार हो गया। फीरोज ने अपने दूसरे शहजादे जफर खाँ को अपना उत्तराधिकारी बनाया किंतु उसकी भी मृत्यु हो गई। वृद्ध हो जाने के कारण फीरोज शासन को नहीं सम्भाल सका। शासन की सारी शक्ति खान-ए-जहाँ के हाथों में चली गई। फीरोज ने अपने तीसरे शहजादे मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी चुना किंतु खान-ए-जहाँ तख्त प्राप्त करने के लिये शाहजादे मुहम्मद को अपने मार्ग से हटाने का उपाय खोजने लगा। उसने सुल्तान को समझाया कि शाहजादा कुछ असंतुष्ट अमीरों से मिलकर सुल्तान को मारने का षड्यन्त्र रच रहा है। सुल्तान ने षड्यंत्र करने वालों को कैद करने की आज्ञा दे दी परन्तु शाहजादा राजवंश की स्त्रियों के साथ चुपके से पालकी में बैठकर सुल्तान के सामने राजप्रासाद में उपस्थित हुआ और सुल्तान के चरणों में गिरकर उसे समझाया कि खान-ए-जहाँ स्वयं तख्त पाना चाहता है इसलिये उसने शहजादे पर षड्यंत्र का आरोप लगाया है। फीरोज के मन में यह बात बैठ गई। उसने खान-ए-जहाँ को पदच्युत करके बंदी बना लेने की आज्ञा दे दी। जब खान-ए-जहाँ को इसकी सूचना मिली तब वह मेवाड़ की ओर भाग गया।

शाहजादा फिर से सुल्तान का कृपापात्र बन गया और विलासिता का जीवन व्यतीत करने लगा। उसने कई अयोग्य मित्रों को नौकरियां दे दीं। इससे योग्य तथा अनुभवी अफसरों में असंतोष फैलने लगा और धीरे-धीरे शाहजादे का विरोध होने लगा। अंत में गृहयुद्ध की स्थिति आ गई। इस युद्ध से घबराकर शाहजादा सिरमूर की पहाड़ियों की ओर भाग गया। वृद्ध फीरोज ने फिर से शासन अपने हाथों में ले लिया। अत्यंत वृद्ध हो जाने के कारण वह शासन को नहीं संभाल सका। उसने अपने सारे अधिकार अपने पोते तुगलक शाहबीन फतह खाँ को दे दिये। थोड़े दिन बाद 20 सितम्बर 1388 को 80 वर्ष की आयु में फीरोज तुगलक की मृत्यु हो गई।

फीरोजशाह के कार्यों का मूल्यांकन

(1.) शासक के रूप में: सुन्नी प्रजा के लिये फीरोजशाह का शासन बड़ा उदार था। धार्मिक संकीर्णता के कारण वह अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के अधिकारियों के साथ दया तथा सहानुभूति दिखलाता था और अनुचित साधनों का प्रयोग करने वालों की भी सहायता करता था। उसमें राजनीतिज्ञता का अभाव था। इस कारण वह राजनीति को धर्म से अलग नहीं कर सका। वह उलेमाओं तथा मौलवियों के परामर्श के बिना कोई काम नहीं करता था। वह कुरान के नियमों के अनुसार शासन करता था। इससे हिन्दू प्रजा का अन्याय होता था। समस्त इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि फीरोज में उच्च कोटि की धर्मिक असहिष्णुता थी और हिन्दुओं के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता था।

(2.) सुधारक के रूप में: यद्यपि फीरोजशाह अपने सुधारों के लिए प्रसिद्ध है, परन्तु उसके सुधारों में दूरदर्शिता का अभाव था। जागीर प्रथा, गुलामों संख्या में वृद्धि, सैनिकों के पदों को आनुवांशिक बनाना आदि ऐसे सुधार थे जिनका राज्य के स्थायित्व पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

(3.) सेनानायक के रूप में: फीरोजशाह बड़ी ही साधारण योग्यता का व्यक्ति था। न उसमें महात्वाकांक्षा थी और न दृढ़ संकल्प। सामरिक दृष्टिकोण से उसका व्यक्तित्वि बड़ा ही छोटा था। उसमें संगठन तथा संचालन शक्ति का सर्वथा अभाव था। न वह साम्राज्य की वृद्धि कर सका और न उसे छिन्न-भिन्न होने से रोक सका। उसकी सेना का संगठन दोषपूर्ण था। जागीरदारी प्रथा तथा सैनिकों के पद को वंशानुगत बनाकर उसने शासन में एसे दोष उत्पन्न कर दिये जिनसे तुगलक-वंश का पतन आरम्भ हो गया।

(4.) फीरोज की सफलताएँ: फीरोजशाह के कार्यों की चाहे जितनी आलोचना की जाय किंतु मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल की अशान्ति, अराजकता तथा विद्रोह को शान्त करने में फीरोज को अपार सफलता प्राप्त हुई। इसमें सन्देह नहीं कि फीरोज अपनी प्रजा को सुख तथा शन्ति प्रदान कर सका। दीन दुखियों, बेरोजगारों तथा किसानों के हितों के लिए उसने कई उल्लेखनीय कार्य किये।

(5.) फीरोज की विफलताएँ: इतनी सफलता होते हुए भी फीरोजशाह के कार्यों में न कोई मौलिकता थी और न दूरदृष्टि। सुल्तान का स्वभाव उसका सबसे बड़ा शत्रु था। उसकी उदारता तथा दयालुता उसके अच्छे कार्यों को चौपट कर देती थी। चौदहवीं शताब्दी में सफलता पूर्वक शासन करने के लिए सुल्तान में जिस कठोरता का समावेश होना चाहिए था, उसका फीरोज में अभाव था। सारांश यह है कि यद्यपि फीरोज के कृत्यों से उसकी मुस्लिमम प्रजा को सुख पहुँचा, परन्तु उसकी नीति के अन्तिम परिणाम बुरे हुए और सल्तनत कमजोर हो गई।

फीरोज तुगलक के सम्बन्ध में इतिहासकारों की धारणा

(1.) बरनी तथा अफीफ का मत: फीरोजशाह तुगलक के समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी तथा शम्से सिराज अफीफ ने फीरोज के शासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उसे उदार, न्याय प्रिय तथा दयालु शासक बताया है। बरनी तथा अफीफ द्वारा की गई यह प्रशंसा स्वाभाविक है। वे दोनों ही उलेमा थे। सुल्तान उलेमाओं का बड़ा आदर करता था और उन्हीं के परामर्श से सब कार्य करता था। यही कारण है कि फीरोज के समकालीन इतिहासकारों ने उसे एक आदर्श सुल्तान बताया है। उन्होंने लिखा है कि नासिरूद्दीन महमूद के उपरांत इतना उदार, दयालु, न्यायप्रिय, शिष्ट तथा ईश्वर से डरने वाला कोई सुल्तान नहीं हुआ।

(2.) मोरलैण्ड की धारणा: डब्ल्यू. एच. मोरलैण्ड ने फीरोजशाह के सम्बन्ध में लिखा है- ‘उसका शासन काल संक्षिप्त स्वर्ण युग था जिसका धुंधला स्वरूप अब भी उत्तरी भारत के गांवों में परिलक्षित होता है।’

(3.) हैवेल के विचार: हैवेल ने लिखा है कि वह एक बुद्धिमान तथा उदार शासक था। क्रूरता, निर्दयता तथा भ्रष्टाचार की लम्बी श्ंृखला जो तुर्की वंश के अन्धकारपूर्ण इतिहास का निर्माण करती है, उसमें उसका शासन काल एक स्वागतीय विशृंखलता है।

(4.) सर हेग की धारणा: सर हेग के विचार में फीरोजशाह के राज्य काल की समाप्ति के साथ एक अत्यंत उज्जवल युग का अवसान होता है।

(5.) हेनरी इलियट तथा एल्फिन्स्टन का मत: हेनरी इलियट तथा एल्फिन्स्टन ने फीरोजशाह को अकबर का समकक्षी कहने में संकोच नहीं किया है। हेनरी इलियट ने लिखा है कि वह चौदहवीं शताब्दी का अकबर था।

(6.) डॉ. ईश्वरी प्रसाद की धारणा: डॉ. ईश्वरी प्रसाद उपरोक्त इतिहासकारों से सहमत नहीं हैं। उन्होंने लिखा है- ‘फीरोज में उस विशाल हृदय तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले बादशाह (अकबर) की प्रतिभा का शतांश भी नहीं था जिसने सार्वजनिक हितों का उच्च मंच से समस्त सम्प्रदायों तथा धर्मों के प्रति शान्ति सद्भावना तथा सहिष्णुता का सन्देश दिया।’

(7.) स्मिथ का मत: विन्सेंट स्मिथ ने हेनरी इलियट के मत का विरोध किया है और इसे मूर्खतापूर्ण बतलाया है। स्मिथ ने लिखा है- ‘फिरोज के लिये अपने युग में इतना ऊँचा उठना सम्भव नहीं था जितना अकबर उठा सका था।’

इतिहासकारों के उपर्युक्त विभिन्न मतों से फीरोज के सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा बनाना कठिन है। वास्तविकता का अन्वेषण फीरोज के कृत्यों का मूल्यांकन, आलोचनात्मक तथा तर्कपूर्ण विवेचन द्वारा किया जा सकता है।

फीरोज तुगलक अच्छाइयों एवं बुराइयों का अद्भुत सम्मिश्रण था!

फीरोज तुगलक में कई अच्छाईयां थीं जिनके कारण उसका शासन काल मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल की अशान्ति, अराजकता तथा विद्रोह से मुक्त रहा। फीरोज के समकालीन इतिहासकारों ने उसे एक आदर्श सुल्तान बताया है और लिखा है कि नासिरूद्दीन महमूद के उपरांत इतना उदार, दयालु, न्यायप्रिय, शिष्ट तथा ईश्वर से डरने वाला कोई सुल्तान नहीं हुआ। जियाउद्दीन बरनी तथा शम्से सिराज अफीफ ने फीरोज के शासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उसे उदार, न्याय प्रिय तथा दयालु शासक बताया है। उसने अपनी प्रजा को सुख तथा शान्ति प्रदान करने, दीन दुखियों, बेरोजगारों तथा किसानों के हितों के लिए कई उल्लेखनीय कार्य किये। फिर भी उसमें कई कमजोरियां एवं बुराईयां थीं जिनके कारण उसे अच्छाइयों एवं बुराइयों का अद्भुत सम्मिश्रण कहा जा सकता है। उसके सम्पूर्ण शासन काल, चरित्र एवं स्वभाव को देखने से सहज ही अनुमान हो जाता है कि उसमें एक ही समय में अच्छाई और बुराई का प्राबल्य रहता था। सुल्तान का स्वभाव उसका सबसे बड़ा शत्रु था। उसकी उदारता तथा दयालुता उसके अच्छे कार्यों को चौपट कर देती थी।

(1.) सुल्तान बनने की इच्छा नहीं होते हुए भी सुल्तान बनना

फीरोज तुगलक धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था उसे राज्य की बिल्कुल आकांक्षा नहीं थी। इसलिये उसने अमीरों के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जो उसे सुल्तान बनाना चाहते थे और मक्का जाने की इच्छा प्रकट की परन्तु अमीरों के दबाव के कारण उसने राज्य की बागडोर ग्रहण करना स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, उसने तख्त पर अपना अधिकार पक्का करने के लिये विद्रोही प्रधान मंत्री ख्वाजाजहाँ की हत्या करवा दी और विगत सुल्तान के कथित पुत्र को भी अपने मार्ग से हटा दिया। फीरोज तुगलक ने दिल्ली के तख्त पर अपने अधिकार को पुष्ट बनाने के लिये अपने को खलीफा का नायब घोषित कर दिया। उसने खुतबे तथा मुद्राओं में खलीफा के नाम के साथ-साथ अपना नाम भी खुदवाया। इस प्रकार उसमें एक ओर यह अच्छाई थी कि वह सुल्तान बनने के स्थान पर धार्मिक यात्रा पर जाना चाहता था किंतु दूसरी ओर यह बुराई थी कि वह सुल्तान बना रहने के लिये अपने विरोधियों की हत्या करवा रहा था।

(2.) माता के हिन्दू होने पर भी हिन्दुओं से घृणा

फीरोज तुगलक का पिता मुलसलमान तथा मात्रा हिन्दू थी। स्वाभाविक रूप से उसे हिन्दुओं से भी सहानुभूति होनी चाहिये थी किंतु राजपूत स्त्री का पुत्र होते हुए भी फीरोज कट्टर मुसलमान था और उसे हिन्दुओं से घोर घृणा थी। उसने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। वह हिन्दू प्रजा को मुसलमान बनने के लिए प्रोत्साहित करता था और जो हिन्दू, मुसलमान हो जाते थे उन्हें जजिया कर से मुक्त कर देता था। उसके शासन काल में हिन्दुओं के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता था। एक ब्राह्मण को महल के सामने यह आरोप लगाकर जिन्दा जलवा दिया गया कि वह मुसलमानों को इस्लाम त्यागने के लिए उकसाता है। जाजनगर तथा नगरकोट के आक्रमण के समय उसने हिन्दुओं के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगा दिया जो अरब आक्रमण के समय से ही इस कर से मुक्त थे। शाक्त सम्प्रदाय के हिन्दुओं का उसने विशेष रूप से दमन किया। इस प्रकार उसमें एक ओर यह अच्छाई थी कि उसने अपनी प्रजा पर 23 प्रकार के कर हटा दिये किंतु दूसरी ओर यह बुराई थी कि उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया लगा दिया।

(3.) मुसलमान होने पर भी मुसलमानों से घृणा

एक ओर फीरोज तुगलक मुस्लिम प्रजा को सुखी बनाने का प्रयास कर रहा था किंतु दूसरी ओर वह शिया सम्प्रदाय के मुसलमानों के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं करता था। सूफियों को भी वह घृणा की दृष्टि से देखता था क्योंकि उनके विचार वेदान्त-दर्शन से साम्य रखते थे। इस प्रकार फीरोज ने एक कट्टर सुन्नी मुसलमान की भांति शासन किया। इसी से बरनी तथा अफीफ ने उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। इस प्रकार उसमें एक ओर यह अच्छाई थी कि वह सुन्नी प्रजा को सुखी बना रहा था किंतु दूसरी ओर यह बुराई थी कि वह शियाओं और सूफियों को घृणा से देखता था।

(4.) मुस्लिम प्रजा के प्रति करुणा किंतु हिन्दू प्रजा पर अत्याचार

जिस व्यक्ति में राज्य की आकांक्षा नहीं हो उस व्यक्ति द्वारा अपनी हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों प्रजाओं से अच्छा व्यवहार किये जाने की आशा थी किंतु वह भी अन्य मध्यकालीन कट्टर मुस्लिम शासकों की तरह संकीर्ण धार्मिक विचारों का था। उसने अपनी हिन्दू प्रजा का अत्यधिक उत्पीड़न किया। वह बंगाल में मुस्लिम औरतों का क्रंदन सुनकर जीती हुई बाजी हारकर लौट पड़ा किंतु मार्ग में उसने जाजनगर तथा जगन्नाथ पुरी पर आक्रमण करके हिन्दू सैनिकों का वध करने में संकोच नहीं किया। जाजनगर के राजा ने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली और प्रतिवर्ष कुछ हाथी कर के रूप में भेजने का वचन दिया। फिर भी सुल्तान ने धार्मिक कट्टरता तथा असहिष्णुता का परिचय दिया। उसने पुरी में जगन्नाथ मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया और मूर्तियों को समुद्र में फिंकवा दिया। जाजनगर को जीतने के बाद मार्ग में बहुत से सामन्तों तथा भूमिपतियों पर विजय प्राप्त करता हुआ फीरोज दिल्ली लौटा। उसने नगर कोट में भी हिन्दुओं को बड़ी संख्या में मारा तथा वहाँ के राजा से विपुल धन लेकर वहाँ से घेरा हटाया। इसीलिये इतिहासकारों ने लिखा है कि ‘फीरोज न तो अशोक था न अकबर जिन्होंने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया था, वरन् वह औरंगजेब की भांति कट्टरपंथी था।’

(5.) मुहम्मद बिन तुगलक से प्रेम होते हुए भी उसकी नीतियों से दूरी

फीरोज तुगलक, अपने पूर्ववर्ती सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से बहुत प्रेम करता था। मुहम्मद बिन तुगलक की गलतियों की क्षमा दिलवाने हेतु उसने जनता से क्षमा पत्र प्राप्त करके मुहम्मद बिन तुगलक की कब्र में गढ़वाये। अतः आशा की जानी चाहिये थी कि वह सल्तनत का प्रबंध उन्हीं नियमों पर करता जिन नियमों पर मुहम्मद बिन तुगलक ने किया था किंतु फीरोज तुगलक ने मुहम्मद बिन तुगलक के शासन की समस्त नीतियों को त्याग दिया। मुहम्मद बिन तुगलक ने शासन में उलेमाओं के परामर्श एवं उनकी भूमिका समाप्त कर दी थी किंतु फीरोज तुगलक ने उलेमाओं से परामर्श लिये बिना कोई कार्य नहीं किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने भारतीय अमीरों की अयोग्यता को देखते हुए विदेशी अमीरों को शासन में उच्च अधिकार दिये थे किंतु फीरोज ने भारत के तुर्की अमीरों तथा उलेमाओं को ही उच्च पदों पर नियुक्त किया तथा कुछ ही दिनों में उलेमाओं के हाथ की कठपुतली बन गया।  इस प्रकार उसमें एक ओर यह अच्छाई थी कि वह अपने पूर्ववर्ती सुल्तान से प्रेम करता था किंतु दूसरी ओर यह बुराई थी कि उसने पूर्ववर्ती सुल्तान की नीतियों को त्याग दिया।

(6.) मुहम्मद तुगलक की नीतियां छोड़ने पर भी जागीर प्रथा का सुदृढ़ीकरण

अलाउद्दीन खिलजी ने राज्याधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले में जागीर देने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। वह अधिकारियों को नकद वेतन देता था किंतु मुहम्मद बिन तुगलक को यह प्रथा फिर से चलानी पड़ी थी। फीरोज तुगलक ने एक ओर तो मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियों को छोड़कर हर क्षेत्र में नई व्यवस्थायें लागू कीं किंतु दूसरी ओर उसने जागीर प्रथा को नियमित रूप से स्थापित कर दिया। इसका परिणाम सल्तनत के लिए बुरा हुआ। जब तुगलक वंश डगमगाने लगा तब ये जागीरदार अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयत्न करने लगे।

(7.) राजकोष खाली होने पर भी कर्जों की माफी तथा धन की बर्बादी

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाओं की विफलताओं एवं विद्रोहों के कारण राज्य की आर्थिक दशा खराब हो चुकी थी। ख्वाजाजहाँ ने भी अमीरों का समर्थन प्राप्त करने के लिये काफी धन लुटा दिया था। अतः सुल्तान होने के नाते फीरोज तुगलक का कर्त्तव्य था कि वह सरकारी खजाने को भरने के लिये उपाय करे किंतु उसने इसके विपरीत कार्य किया। उसने किसानों पर चढ़े हुए सरकारी कर्ज को माफ कर दिया तथा लोगों से पूर्ववर्ती सुल्तान के लिये क्षमादान पत्र लिखवाने में बहुत सा धन बांट दिया। इससे सरकारी कोष लगभग पूरी तरह खाली हो गया। उसने युद्ध में मिला लूट का सामान सेना तथा राज्य में उसी अनुपात में बांटने की व्यवस्था की जैसे कुरान द्वारा निश्चित किया गया है, अर्थात् पांचवां भाग राज्य को और शेष सेना को। इस प्रकार उसमें यह अच्छाई थी कि वह प्रजा की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये हर तरह के उपाय कर रहा था किंतु दूसरी ओर यह बुराई थी कि शासन को मजबूत बनाने के लिये वह राजकोष की पूर्ति नहीं कर रहा था।

(8.) आर्थिक आधार पर कर हटाकर धार्मिक आधार पर करों का आरोपाण

अब तक के सुल्तान राजकोष की पूर्ति जनता पर कर बढ़ाकर करते थे किंतु फीरोज ने कर बढ़ाने के स्थान पर व्यापार, कृषि एवं जागीरदारी व्यवस्था को चुस्त बनाने का प्रयास किया जिससे राजस्व में वृद्धि हो। उसके प्रयासों से जनता में खुशहाली आई, लोगों की आय बढ़ी तथा सरकार के कोष में भी धन की पर्याप्त आमदनी हुई। इसी प्रकार एक ओर तो फीरोज तुगलक हिन्दू प्रजा के उत्पीड़न में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था और दूसरी तरफ उसने जनता पर से 23 प्रकार के कर समाप्त कर दिये। हिन्दू प्रजा पर केवल खिराज, जकात, जजिया तथा खाम कुल चार कर रखे गये। सरकारी मालगुजारी कम कर दी। किसानों का बोझ घटाने के लिए प्रान्तीय तथा स्थानीय अधिकारियों से धन के रूप में भेंट लेना बन्द कर दिया। कृषि की रक्षा करने के लिए फीरोज तुगलक ने चार नहरें बनवाईं तथा कई कुएं खुदवाये। इस प्रकार फीरोज में यह अच्छाई थी कि वह जनता पर आर्थिक आधार पर कर हटा रहा था किंतु दूसरी ओर यह बुराई थी कि वह धार्मिक आधार पर कर लगा रहा था।

(9.) सैनिक क्षमता होते हुए भी विद्रोही प्रांतों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही नहीं

सुल्तान होने के नाते फीरोज का कर्त्तव्य था कि जिन प्रान्तों ने मुहम्मद बिन तुगलक के समय विद्रोह कर दिया था, उन्हें फिर से सल्तनत के अधीन लाये किंतु फीरोज तुगलक ने इस कार्य में कोई रुचि नहीं दिखाई। उसने अमीरों के कहने से बंगाल पर आक्रमण करके उस पर विजय प्राप्त की किंतु उस पर अधिकार किये बिना ही उसे छोड़ दिया। उसने जाजनगर, नगरकोट तथा सिंध पर आक्रमण करके उन्हें फिर से दिल्ली सल्तनत के अधीन किया। इस प्रकार उसमें यह अच्छाई थी कि वह बंगाल जैसे दूरस्थ प्रांत पर भी सफल सैनिक अभियान कर सकता था किंतु दूसरी ओर यह बुराई भी थी कि वह जीती हुई बाजी को भी धार्मिक उदारता के कारण छोड़ रहा रहा था।

(10.) यातनाओं के क्षमा पत्र लिखवाने में नई यातनाएँ

जिन लोगों को मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में यातनाएँ सहनी पड़ी थीं तथा क्षति उठानी पड़ी थी, उन्हें धन देकर संतुष्ट किया गया और उनसे क्षमा-पत्र लिखवा कर मुहम्मद बिन तुगलक की कब्र में गड़वाया गया जिससे उसका परलोक सुधर जाय। जिन लोगों ने क्षमा-पत्र लिखने से मना कर दिया गया, उन लोगों को सेना की तरफ से उत्पीड़ित किया गया। इस प्रकार एक गलती को सुधारने के लिये फिर वही गलती दोहराई गई। इस प्रकार वह चाहता था कि हिन्दू जनता पुराने सुल्तान के अत्याचारों को माफ कर दे किंतु दूसरी ओर स्वयं भी हिन्दू जनता पर अत्याचार कर रहा था।

(11.) कटट्टर मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू ग्रंथों का फारसी में अनुवाद

वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इस्लाम की मान्यता के अनुसार उसने हिन्दू प्रजा पर समस्त धार्मिक कर लगाये तथा जगन्नाथपुरी के मंदिर की मूर्तियों को तोड़कर समुद्र में फिंकवा दिया किंतु दूसरी ओर वह इतना उदार था कि उसने ज्वालामुखी मन्दिर से प्राप्त संस्कृत की पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया।

(12.) दण्ड विधान की कठोरता समाप्त किंतु न्याय में पक्षपात

फीरोज ने इस्लाम आधारित शासन की स्थापना की। वह अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता था परन्तु उसने दण्ड विधान की कठोरता को हटा दिया। अंग भंग करने के दण्ड पर रोक लगा दी। प्राणदण्ड भी बहुत कम दिया जाता था। सुल्तान की उदारता के कारण कई बार दण्ड के भागी लोग भी दण्ड पाने से बच जाते थे। शरीयत के नियमों के अनुसार न्याय किया जाता था। मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था फिर भी फीरोज तुगलक के काल में न्याय उतना पक्षपात रहित तथा कठोर नहीं था जितना मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में।

(13.) वृद्ध सैनिकों के स्थान पर उनके परिवार के सदस्यों को ही नौकरी

एक ओर तो फीरोज तुगलक सेना को चुस्त बनाने का प्रयास कर रहा था जिस कारण उसने घुड़सवारों को आदेश दिया कि वे उत्तम घोड़ों को सैनिक दफ्तर में लाकर रजिस्ट्री कराएं। घोड़ों के निरीक्षण के लिए उसने नायब अर्जे मुमालिक की नियुक्ति की किंतु दूसरी ओर उसने सैनिकों के साथ इतनी दया दिखाई कि वृद्ध, रुग्ण तथा अक्षम सैनिकों को भी सेना से अलग नहीं किया। फीरोज ने एक नया नियम बनवाया कि जब कोई सैनिक वृद्धावस्था के कारण असमर्थ हो जाए तो उसके स्थान पर उसके पुत्र, दामाद या उसके गुलाम को रख लिया जाए। इस नियम के कारण बहुत से योग्य सैनिकों का स्थान कमजोर सैनिकों ने ले लिया। इस प्रकार एक ओर वह सेना को चुस्त बनाना चाहता था और दूसरी ओर उसकी नीतियों ने कमजोर सैनिकों को सेना में स्थान दे दिया।

(14.) गुलामों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि

फीरोज तुगलक एक ओर जनता की आय बढ़ाने के लिये उपाय कर रहा था किंतु दूसरी ओर उसके शासन काल में बेकारी बढ़ती जा रही थी। इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिये उसने राज्य में लोगों को गुलामों की नौकरी दिलवाने के लिये दीवाने बन्दगान की अध्यक्षता में अलग से गुलाम विभाग खोला। उसने 40,000 गुलामों को विभिन्न विभागों में नियुक्त किया। कुछ गुलामांे को सुल्तान के अंग-रक्षकों में भर्ती कर लिया गया। शेष 1,60,000 गुलाम साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में भेज दिये गये और प्रांतीय गवर्नरों तथा अधिकारियों के संरक्षण में रखे गये। उन दिनों मध्यम श्रेणी के लोगों में भी बेकारी की समस्या विकराल रूप धारण कर रही थी। नगरों में बेकार लोगों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उनकी समस्या सुलझाने के लिये सुल्तान ने बेकारी का अलग विभाग खोला। कोतवाल को आदेश दिया गया कि वह बेकार लोगों की सूची बनाये। बेकार लोगों को दीवान के पास आवेदन भेजना पड़ता था और योग्यतानुसार लोगों को काम दिया जाता था। शिक्षित व्यक्तियों को महल में नौकर रख लिया जाता था। जो लोग किसी अमीर का गुलाम बनना चाहते थे, उन्हें सिफारिशी चिट्ठियां दी जाती थीं। इस निर्णय से सल्तनत में गुलामों की संख्या तेजी से बढ़ गई। मध्यम वर्ग के लोग भी गुलाम हो गये। ये गुलाम दिल्ली सल्तनत के लिये भारी बोझ बन गये।

(15.) राजकोष खाली होने पर भी लोक सेवा के विपुल कार्य

फीरोज तुगलक के शासन काल में लोक सेवा के इतने कार्य किये गये जितने उससे पहले के किसी भी सुल्तान के समय में नहीं किये गये थे। निर्माण कार्यों में उसकी विशेष रुचि थी। उसने फीरोजाबाद, जौनपुर, फतेहाबाद तथा हिसार नामक नगरों का निर्माण करवाया। बरनी के कथनानुसार फीरोज ने 50 बांधों, 40 मस्जिदों, 30 कॉलेजों, 20 महलों, 100 सरायों, 200 नगरों, 30 झीलों, 100 औषधालयों, 5 मकबरों, 100 स्नानागारों, 10 स्तंभों, 40 सार्वजनिक कुओं तथा 150 पुलों का निर्माण करवाया। उसने दिल्ली के निकट लगभग 1,200 बाग लगवाये। अन्य कई स्थानों पर भी बाग लगवाये। उसने अलाउद्दीन द्वारा बनवाये गये 30 उपवनों का जीर्णोद्धार करवाया। एक ओर कर माफ कर देने से उसका खजाना खाली था तथा वह साम्राज्य विस्तार करके धन एकत्रित नहीं कर रहा था, किंतु दूसरी ओर वह स्थायी निर्माण कार्यों पर विपुल धन खर्च कर रहा था।

(16.) उत्तराधिकारियों को सशक्त बनाने में विफलता

फीरोज के अन्तिम दिनों में उसका राज्य दलबन्दी का शिकार हो गया। वृद्ध हो जाने के कारण के कारण सुल्तान शासन को नहीं सम्भाल सका। शासन की सारी शक्ति खान-ए-जहाँ के हाथों में चली गई। खान-ए-जहाँ तख्त प्राप्त करने के लिये शाहजादे मुहम्मद को अपने मार्ग से हटाने का उपाय खोजने लगा। उसने सुल्तान को समझाया कि शाहजादा कुछ असंतुष्ट अमीरों से मिलकर सुल्तान को मारने का षड्यन्त्र रच रहा है। सुल्तान ने उसकी बात का विश्वास करके शहजादे को कैद करने की आज्ञा दे दी परन्तु शाहजादा राजवंश की स्त्रियों के साथ चुपके से पालकी में बैठकर सुल्तान के सामने उपस्थित हुआ और सुल्तान के चरणों में गिरकर उसे समझाया कि खान-ए-जहाँ स्वयं तख्त पाना चाहता है इसलिये उसने शहजादे पर षड्यंत्र का आरोप लगाया है। इस पर फीरोज ने शहजादे की बात का विश्वास कर लिया और खान-ए-जहाँ को पदच्युत करके बंदी बना लेने की आज्ञा दे दी। जब खान-ए-जहाँ को इसकी सूचना मिली तब वह मेवाड़ की ओर भाग गया। शासन सूत्र शहजादे के हाथों में आ गया। कुछ दिनों बाद जब शाहजादे का विरोध हुआ तथा गृहयुद्ध की स्थिति आ गई तो शाहजादा सिरमूर की पहाड़ियों की ओर भाग गया। तब फीरोज ने फिर से शासन अपने हाथों में ले लिया। अत्यंत वृद्ध हो जाने के कारण वह शासन को नहीं संभाल सका। उसने अपने सारे अधिकार अपने पोते तुगलक शाहबीन फतह खाँ को दे दिये। इस प्रकार उसमें एक ओर यह अच्छाई थी कि वह अपने विरुद्ध कार्य करने वालों को क्षमा कर देता था दूसरी ओर उसमें यह बुराई थी कि दृढ़ निश्चय के अभाव के कारण अपनी तथा अपने उत्तराधिकारियों की स्थिति कमजोर बना दी।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि फीरोज तुगलक दयालु शासक था तथा प्रजा को सुखी बनाना चाहता था किंतु उसका धार्मिक दृष्टिकोण इतना संकीर्ण था कि उसके हर कार्य में राजनीतिज्ञता का अभाव हो गया। इससे हिन्दू प्रजा पर अत्याचार और अन्याय होता था। फीरोज का शासन उदार था किंतु केवल मुस्लिम प्रजा के लिये। उसके शासन में कठोरता थी तो केवल हिन्दू प्रजा के लिये। वह दोषी मुस्लिमों को दण्ड नहीं दे पाता था तथा हिन्दुओं को क्षमा नहीं कर पाता था। वह अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के मुस्लिम अधिकारियों के साथ दया तथा सहानुभूति दिखाता था। शासन के दोषों को सुधारने की बजाय वह स्वयं अनुचित साधनों के प्रयोग करने वालों की यदा-कदा सहायता करता था।

इतना होने पर भी फीरोज की शासन व्यवस्था ठीक तरह से चलती रही। न तो उसके समय में कोई बड़ा विद्रोह हुआ और न उसके समय में कोई भयानक अकाल पड़ा किंतु उसकी उदार नीतियों के कारण उसकी शासन-व्यवस्था शिथिल पड़ गई किंतु फीरोज की उदारता और धार्मिक संकीर्णता से मुसलमानों का नैतिक पतन आरम्भ हो गया और उनकी आकांक्षा तथा उनका उत्साह मन्द पड़ गया। यद्यपि फीरोज के कृत्यों से उसकी प्रजा को सुख पहुँचा, परन्तु उसकी नीति के अन्तिम परिणाम बहुत बुरे हुए और सल्तनत कमजोर हो गई। यद्यपि फीरोज अपने सुधारों के लिए प्रसिद्ध है, परन्तु उसके सुधारों में दूरदर्शिता का अभाव था। जागीर प्रथा, गुलामों की संख्या में वृद्धि, सैनिकों के पदों को आनुवांशिक बनाना आदि ऐसे सुधार थे जिनका राज्य के स्थायित्व पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

अतः निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि फीरोज में अच्छाइयाँ और बुराइयां दोनों थीं किंतु अच्छाइयों की अधिक मात्रा मुस्लिम जनता के लिये थी और बुराइयों की अधिक मात्रा हिन्दू प्रजा के लिये थी। उसके द्वारा किये गये कृषि सुधार एवं कर सुधार कोई अत्यंत श्रेष्ठ शासक ही कर सकता था किंतु उसने इस बात का पूरा प्रयास किया कि सुधारों का लाभ मुस्लिम जनता को मिले न कि हिन्दू जनता को। इसलिये डॉ. ईश्वरी प्रसाद की यह उक्ति ठीक ही प्रतीत होती है कि फीरोज में उस विशाल हृदय तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले बादशाह (अकबर) की प्रतिभा का शतांश भी नहीं था जिसने सार्वजनिक हितों का उच्च मंच से समस्त सम्प्रदायों तथा धर्मों के प्रति शान्ति सद्भावना तथा सहिष्णुता का सन्देश दिया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source