Thursday, November 7, 2024
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7. फ्लोरेंस में पहला दिन – 22 मई 2019

आज हमें फ्लोरेंस के लिए निकलना है। हमारी ट्रेन प्रातः 11.30 पर है। फिर भी दीपा सहित सभी सदस्य प्रातः पाँच बजे (रोम का समय) उठ कर चलने की तैयारी करने लगे। मैंने प्रातः चार बजे उठकर कल की यात्रा के नोट्स तैयार किए। यहाँ से रोम रेलवे स्टेशन तक पहुँचने के तीन साधन हैं। या तो डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर 64 नम्बर की बस पकड़ो जिसमें चलने का प्रीपेड टिकट हमारे पास है।

दूसरा साधन वहीं से सबअर्बन ट्रेन पकड़ने का है, उसके लिए भी डेढ़ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। तीसरा साधन टैक्सी बुलाने का है। छोटे-छोटे चार ट्रॉली बैग और चार हैण्ड बैग होने के कारण हम आसानी से अपना सामान डेढ़ किलोमीटर तक ले जा सकते थे किंतु हम हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। इसलिए हमने तीसरा साधन अर्थात् ‘कार-टैक्सी’ अपनाने का निश्चय किया।

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टैक्सी ड्राइवर की बदमाशी                             

 हम 9.40 पर सर्विस अपार्टमेंट से बाहर आ गए। विजय ने मकान-मालकिन को व्हाटसैप पर सूचना दे दी कि हम जा रहे हैं और घर की चाबियों के दोनों सैट डाइनिंग टेबल पर रखकर घर बाहर से ऑटो-लॉक कर दिया है। विजय ने एक टैक्सी एप से एक सिक्स सीटर टैक्सी बुक की। वह 20 मिनट में अपार्टमेंट के सामने आकर रुकी।

टैक्सी ड्राइवर ने आते ही असंतोष व्यक्त करना शुरु कर दिया कि एक टैक्सी में इतना सामान और इतने व्यक्ति कैसे आएंगे! हम उसकी बात सुनकर हैरान थे, उससे पहले किसी भी टैक्सी ड्राइवर ने ऐसा नहीं कहा था। वह चाहता था कि हम एक टैक्सी और करें। उसने हमसे बिना पूछे एक और टैक्सी मंगवा ली और हमसे कहा कि आधे सदस्य और आधा सामान उसमें रखें।

हम समझ गए कि टैक्सी वाले के मन में लालच है। अतः हमने टैक्सी ड्राइवर से कहा कि हमें केवल एक टैक्सी की आवश्यकता है। यदि आप नहीं चलना चाहते हैं तो आप दोनों चले जाएं। हम एयरपोर्ट से भी तो एक ही टैक्सी में आए थे। हमारे पास काफी समय था और हम यहाँ से पैदल चलकर भी सबअर्बन ट्रेन या 64 नम्बर की बस पकड़ सकते थे।

पहली टैक्सी के ड्राइवर ने दूसरी टैक्सी को वापस लौटा दिया तथा हमारा सामान अपनी टैक्सी में जमाने लगा। वह बोला कि आइए आपको एयर पोर्ट छोड़ देता हूँ। हमने उसे बताया कि हमने टैक्सी ‘रोमा टर्मिनी रेलवे स्टेशन’ के लिए बुक की है न कि एयरपोर्ट के लिए। इस पर वह बोला कि अभी तो आपने कहा कि हमें एयरपोर्ट जाना है। हम अपना सामान वापस उतारने लगे तो बोला कि अच्छा रेल्वे स्टेशन छोड़ देता हूँ।

यह टैक्सी वाला अंग्रेजी अच्छी तरह समझ रहा था किंतु नाटक कर रहा था कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। इसी बात की आड़ में वह बदमाशी करना चाहता था। हम फिर से टैक्सी में बैठ गए किंतु इस बहस में हमसे एक चूक हो गई।

टैक्सी के मीटर की रीडिंग देखना ही भूल गए। संभवतः मीटर में 14 यूरो की रीडिंग पहले से पड़ी थी जिसका अर्थ होता है भारतीय 1120 रुपए। पूरे रास्ते टैक्सी वाला अपने सैलफोन पर ऊँची आवाज में किसी से बात करता रहा। एक फोन खत्म करके दूसरा लगा लेता था। इससे हमें काफी असुविधा हुई।

जब विजय ने टैक्सी बुक की थी तो एप ने 12-13 यूरो ( 960-1040 भारतीय रुपए) का अनुमानित भाड़ा बताया था किंतु जब हम रेल्वे स्टेशन पर उतरे तो मीटर में 29.3 यूरो की रीडिंग थी। उसने टैक्सी रुकने से पहले ही हमें कह दिया कि 30 यूरो निकाल लो। हमने उसे 30 यूरो दिए जो भारतीय 2400 रुपए के बराबर होते हैं। ड्राइवर ने हमसे दो से ढाई गुने पैसे लिए थे।

हम समझ गए कि टैक्सी वाले ने जितनी अधिक बदमाशी हो सकती थी, कर ली है। हमारे पास कोई चारा नहीं था। हम यहाँ झगड़ा करने की स्थिति में नहीं थे। सच तो यह है कि हम तो भारत में भी किसी से झगड़ा करने की स्थिति में नहीं हैं! कुल मिलाकर यह एक खराब अनुभव था। ऐसा कोई खराब अनुभव हमें इण्डोनेशिया की यात्रा में नहीं हुआ था।

हमारे सर्विस अपार्टमेंट से रोमा टर्मिनी रेल्वे स्टेशन केवल 5 किलोमीटर दूर था जिसके लिए हमें 2400 भारतीय रुपए अर्थात् 480 रुपए प्रति किलोमीटर भाड़ा देना पड़ा था। 17 मई की रात्रि में भी हम लियोनार्डो दा विंची एयरपोर्ट से आए थे तब उस ड्राइवर ने हमसे 32 किलोमीटर के 60 यूरो अर्थात् 4800 भारतीय रुपए लिए थे अर्थात् डेढ़ सौ भारतीय रुपया प्रति किलोमीटर! हम समझ गए कि इटली में टैक्सी वालों पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता! अच्छा ही किया जो हम पिछले चार दिनों तक बसों एवं ट्राम में ही घूमते रहे थे।

रोमा टर्मिनी रेल्वे स्टेशन

रोमा टर्मिनी रेल्वे स्टेशन पर काफी भीड़ थी। पूरे प्लेटफॉर्म पर हजारों देशी-विदेशी पर्यटक खड़े थे। प्लेटफॉर्म पर न कोई वेटिंग रूम था, न कोई बेंच थी, न कोई प्याऊ थी, न कोई टॉयलेट था। हम 10.30 बजे स्टेशन पर पहुँच चुके थे और हमारी ट्रेन 11.50 बजे थी।

अतः हमारे पास अगले सवा घण्टे तक खड़े रहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। कुछ देर बाद लघुशंका की इच्छा हुई तो मैं और विजय टॉयलेट ढूंढने निकले। अंत में प्लेटफॉर्म के ऊपर बने हुए फर्स्ट फ्लोर पर एक पेड टॉयलेट मिला। हमने एक-एक यूरो अर्थात् 80-80 भारतीय रुपए देने की बजाय उल्टे पैर लौटना ही श्रेयस्कर समझा। इस फ्लोर पर बहुत से ओपन रेस्टोरेंट थे। विजय ने पिताजी को इन्हीं में से एक रेस्टोरेंट की चेयर पर लाकर बैठा दिया।

हम फिर से नीचे आ गए। जिसे हम प्लेटफॉर्म समझ रहे थे वास्तव में वह एक वेटिंग एरिया था, इससे लगते हुए लगभग 20 प्लेटफॉर्म आगे की तरफ बने हुए थे। चारों तरफ इलैक्ट्रोनिक पैनल डिस्प्ले हो रहे थे जिन पर बहुत सारी गाड़ियों के आने-जाने की सूचना प्रदर्शित की जा रही थी किंतु हमारी ट्रेन की सूचना के सामने प्लेटफॉर्म नम्बर अंकित नहीं था।

अंततः 11.40 पर इलैक्ट्रोनिक पैनल पर हमारी ट्रेन का प्लेटफॉर्म नम्बर 11 डिस्प्ले हुआ। अब तक विजय पिताजी को फिर से नीचे ले आया था। हम तुरंत 11 नम्बर प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़े। हमें वहाँ तक पहुँचने में 5 मिनट लग गए। गाड़ी ठीक 11.50 पर प्लेटफॉर्म पर आकर लगी। हमने अपना सामान चढ़ाया तब तक 11.54 हो चुके थे और 11.55 पर ट्रेन के ऑटोमेटिक दरवाजे बंद हो गए।

हमने स्वयं को असहज स्थिति में पाया। यदि हमें चढ़ने में दो मिनट का भी विलम्ब हुआ होता तो हम ट्रेन से बाहर ही रह जाते। सामान और बच्चों के साथ ट्रेन में चढ़ने के लिए कुछ समय तो चाहिए ही! दूसरे यात्रियों को भी चढ़ना होता है।

यह एक बुलेट ट्रेन थी जो रोम से चलकर इटली के धुर उत्तर में जाती थी। इस गाड़ी में भीड़ बहुत कम थी। ट्रेन 250 से 300 किलोमीटर प्रति घण्टा की गति से चल रही थी किंतु ट्रेन इतनी कम हिल रही थी कि भीतर बैठे हमें पता ही नहीं चल रहा था कि हम ट्रेन में हैं। हमारे सामने की टेबल पर रखी बोतलों का पानी हिलने एवं खिड़की से बाहर देखने पर ही ज्ञात होता था कि ट्रेन चल रही है।

हमें ट्रेन में वैज-स्नैक्स तथा चाय-काफी जूस आदि दिए गए। इस कारण यात्रा पिकनिक में बदल गई थी। 1.25 बजे ट्रेन फ्लोरेंस पहुँच गई। हमने प्लेटफॉर्म पर लगे साइन बोर्ड पढ़े जिन पर रोमन लिपि में ‘सांटा मारिया नोवेला फिरेंजे’ लिखा हुआ था। इसी को फ्लोरेंस कहते हैं। फिर भी हम दो सहयात्रियों से पूछ कर ही ट्रेन से उतरने की हिम्मत जुटा सके। हमने 300 किलोमीटर से अधिक की दूरी 80 मिनट में पूरी की थी।

स्टेशन से बाहर निकलते ही ट्राम का स्टॉप बना हुआ था। विजय ने स्टॉप पर लगी एक मशीन में यूरो डालकर ट्राम के टिकट खरीदे। इसी समय ट्राम आ गई। हम बहुत आसानी से इसमें चढ़ पाए जैसे कि हम इसके अभ्यस्त हों।

यह सब गूगल के द्वारा दी जा रही सूचनाओं के बल पर हो रहा था। यह दो डिब्बों की ट्राम थी और लगभग पूरी तरह खाली थी। इस समय इक्का-दुक्का यात्री ही ट्राम में होता है, विशेषकर वे वृद्ध लोग जो दैनंदिनी के उपयोग की वस्तुओं की खरीददारी करने घरों से निकलते हैं।

लगभग तीन मिनट में ही हमारा स्टॉप ‘प्रातो अल प्रातो’ आ गया। हम यहाँ तक पैदल भी आ सकते थे किंतु ट्राम में आने के लिए हमने 10 यूरो अर्थात् 800 रुपए व्यय किए। हमने जैसे ही ट्राम से उतरकर एक साफ-सुथरी गली में प्रवेश किया। चौथी या पाँचवी बिल्ंिडग में ही दूसरी मंजिल पर हमारा सर्विस अपार्टमेंट था।

विजय ने रोम से चलते समय ही फ्लोरेंस में सर्विस अपार्टमेंट की मालकिन को सूचित कर दिया था कि हम लगभग दोपहर डेढ़ बजे फ्लोरेंस पहुँचेंगे। विजय ने जैसे ही बिल्डिंग के बाहर पहुँच कर सर्विस अपार्टमेंट की मालकिन को फोन किया, वह तुरंत बिल्डिंग का मुख्य दरवाजा खोलकर बाहर आ गई मानो दरवाजे के पीछे खड़ी रहकर हमारी प्रतीक्षा ही कर रही हो!

उसने हम सबसे हाथ मिलाए और फिर हमारा सामान उठाकर लिफ्ट में रखना शुरु कर दिया। हमने उसे सामान उठाने के लिए मना किया किंतु वह नहीं मानी!

सर्विस अपार्टमेंट की मालकिन 26-27 साल की सुंदर इटैलियन महिला थी। उसका शरीर थोड़ा मोटापा लिए हुए था किंतु उसमें गजब की फुर्ती थी। उत्साह तो जैसे उसके मन में कूट-कूट कर भरा हुआ था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वह जीवन में हमसे पहली बार मिल रही है।

उसकी हर बात से, हर चेष्टा से खुशी फूट पड़ रही थी। वह प्रत्येक वाक्य के बाद हंसना नहीं भूलती थी। उसने बड़े चाव से हमारा स्वागगत किया। वह अपार्टमेंट की सुविधाओं के बारे में जानकारी देने लगी तो मैं और पिताजी एक सोफे पर बैठ गए। भानु, मधु और विजय मकान मालकिन के साथ सर्विस अपार्टमेंट देखने लगे।

मैं इस दौरान यही सोचकर हैरान होता रहा कि क्या कोई अनजान व्यक्ति हमें देखकर इतना खुश भी हो सकता है! इससे पहले मैंने अपने जीवन में केवल तीन महिलाओं को ही इतनी खुश होते हुए देखा था, मेरी माँ, मेरी नानी और मेरी सास! मुझे ये तीनों एक साथ याद आ गईं।

मकान मालकिन ने हमसे पासपोर्ट लेकर अपने मोबाइल से स्कैन किए और हमसे सिटी टैक्स की नगद राशि लेकर चली गई। शेष राशि का भुगतान हम पहले ही ऑनलाइन कर चुके थे। जाने से पहले उसने फ्लैट की चाबियों के दो सैट हमें सुपुर्द किए।

 हमने अनुभव किया कि यह एक पैलेशियल स्टाइल का फ्लैट है जिसे सामंती परिवेश देने की चेष्टा की गई है। विशाल हॉल, वुडन फ्लोर, बड़े-बड़े कमरे, महंगा डिजाइनदार फर्नीचर, कई सोफा सैट, हर कार्य के लिए अलग टेबल-कुर्सी, स्टाइलिश पर्दे, टेबल लैम्प, पेंटिंग्स, लक्जरी बाथरूम्स, वाशिंग मशीन, ड्रायर, शॉवर, महंगे यूटेन्सिल्स सहज ही मकान मालकिन की सुरुचि एवं समृद्धि की कहानी कह रहे थे। हालांकि हमें इनमें से बहुत कम चीजों की आवश्यकता थी।

ये बाथरूम हमारे किसी काम के नहीं थे। न उनके टब, न शॉवर, न यूरोपियन स्टाइल के टॉयलेट! जो सुख हमें बाल्टी में पानी भरकर लोटे से नहाने में मिलता है, वैसा सुख तो ये यूरोपियन लोग जानते भी नहीं होंगे। मल त्याग के बाद कागज का प्रयोग करना तो हमारे लिए किसी सजा से कम होता ही नहीं। इसलिए हमने हर टॉयलेट में पानी की एक-एक बोतल रख ली। किसी भी बाथरूम में एक भी बाल्टी नहीं थी। कोई भी टॉयलेट या बाथरूम भीतर से बंद नहीं होता था। ऐसा संभवतः पर्यटकों के साथ आने वाले बच्चों के कारण किया गया था जो भीतर से दरवाजा लॉक करके फिर उसे खोल नहीं पाते थे!

हमारे लिए यह भी किसी सजा से कम नहीं था। हमने प्रत्येक दरवाजे के बाहर एक सफेद नैपिकिन लटकाने की व्यवस्था की ताकि इस नैपकिन को देखकर कोई दूसरा व्यक्ति बाथरूम या टॉयलेट का दरवाजा न खोले। वैसे भी प्रत्येक कमरे, हॉल और डाइनिंग रूम के साथ एक-एक लैट्रिन और बाथरूम बना हुआ था, इसलिए सभी को एक-एक लैट-बाथ अलॉट कर दिए गए।

भानु और मधु दोपहर का भोजन रोम में ही बनाकर अपने साथ लाई थीं। इसलिए इस समय भोजन तैयार नहीं करना था। मकान मालकिन के जाने के बाद हमने भोजन किया और सो गए। लगभग तीन बजे बरसात आरम्भ हो गई। देखते ही देखते वह काफी तेज हो गई। हमें लगा कि यदि यही स्थिति रही तो हम फ्लोरेंस में कुछ भी नहीं देख सकेंगे किंतु एक घण्टे में ही बरसात पूरी तरह रुक गई।

मधु और भानु ने शाम का खाना तैयार किया और हम सायं 6.40 पर फ्लोरेंस शहर देखने के लिए बाहर निकले। पिताजी घर में ही रहे। हमारे सर्विस अपार्टमेंट से लगभग चार सौ मीटर की दूरी पर इटली की दूसरी महत्वपूर्ण नदी ‘अर्नो’ बहती थी। हम उसी के किनारे टहलने के लिए चल दिए। जिस मौहल्ले में हम ठहरे थे यह कोई धनी सेठों की बस्ती जैसा दिख रहा था।

यह शहर रोम से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ा। यहाँ केवल बूढ़े लोग नहीं थे, यहाँ हमने युवा दम्पत्तियों को अपने बच्चों के साथ देखा। माता-पिता बच्चों के हाथ पकड़कर चल रहे थे और वे बच्चों की सुरक्षा को लेकर पूरी तरह सतर्क थे। कुछ दम्पत्ति बच्चों को बेबी-कार्ट में लेकर घूम रहे थे। रोम में ऐसे दृश्य शायद ही देखने को मिले हों!

हम लगभग एक घण्टे तक घूमते रहे। विजय ने बताया कि जिस स्थान पर हम घूम रहे हैं, वहाँ से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर यूरोप का सबसे पुराना फार्मेसी है। क्या हमें वह स्थान देखना चाहिए? सभी लोग तुरंत ही वहाँ जाने पर सहमत हो गए। बहुत सी पतली गलियों से गुजरने के बाद गूगल ने हमें एक विशाल चौक में लाकर छोड़ दिया।

यहीं कहीं उस फार्मेसी को होना चाहिए था। हम लगभग एक घण्टे तक आास-पास की गलियों एवं उस विशाल चौक में बने भवनों के बीच उस फार्मेसी को ढूंढते रहे तथा स्थानीय लोगों से पूछते रहे, बार-बार गूगल टटोलते रहे किंतु उस ओल्ड फार्मेसी की बिल्डिंग के बारे में कोई नहीं बता सका।

वहाँ कोई सरकारी कार्यालय भी चल रहा था जिसमें शाम के आठ बजे भी कुछ लड़कियां काम कर रही थीं। मैंने उनसे ओल्ड फार्मेसी के बारे में पूछा तो उनमें से एक लड़की ने इटेलियन भाषा में बोलते हुए, अपने हाथों से कुछ संकेत किए किंतु मैं नहीं समझ सका कि वह किस भवन की ओर संकेत कर रही है। अंत में हम थक कर उस चौक में लगी पत्थर की बैंचों पर बैठ गए।

 यह एक भव्य और विशाल चौक था जिसके चारों तरफ बड़े-बड़े भवन बने हुए थे। एक तरफ एक विशाल चर्च भी दिखाई पड़ रहा था निःसंदेह यह बहुत पुराना रहा होगा किंतु रंग-रोगन के कारण साफ-सुथरा और आकर्षक दिखाई दे रहा था, हमने सोचा कि भीतर जाकर देखें किंतु चर्च का मुख्य दरवाजा बंद था।

इस समय रात्रि के साढ़े आठ बज रहे थे किंतु अभी भी दिन बाकी था। अचानक हमारी दृष्टि चौक के एक तरफ बने एक विशाल भवन पर गई। इसका बाहरी डिजाइन और खम्भे वैसे ही थे जैसे रोम में पेंथिऑन के थे। लगभग ऐसे ही खम्भे रोम में सेंट पीटर्स स्क्वैयर पर भी लगे हुए थे।

इस भवन के ऊपरी भाग में  कुछ पुरानी मूर्तियां दिखाई दे रही थीं जिनसे उनके यूनानी चिकित्सक अथवा कीमियागर होने का आभास मिलता था। अंतर केवल इतना था कि इस भवन के खंभे तो बहुत प्राचीन काल का दिखाई देते थे किंतु इस पर लगी मूर्तियां अपेक्षाकृत नई थीं।

हमारे सामने सारी स्थिति स्वतः ही स्पष्ट हो गई। उस सरकारी कार्यालय में काम कर रही लड़की ने भी ठीक इसी तरफ संकेत किया था। आज से सौ-दो सौ साल पहले या उससे भी दो-चार सौ साल पहले इस भवन में फार्मेसी का कारखाना खुला होगा जहाँ यूनानी दवाएं बनती होंगी। तब इसे फार्मेसिया कहा जाता होगा किंतु अब यह भवन किसी और काम आता होगा इसलिए स्थानीय लोग इसके बारे में बताने में असमर्थ थे।

गूगल पर किसी इतिहासकार ने इसकी जानकारी डाली होगी! फिर भी कुछ लोग अवश्य ही उस फार्मेसिया के बारे में जानते थे अन्यथा उस लड़की ने इस भवन की दिशा में संकेत नहीं किया होता! इस समय यह भवन पूरी तरह बंद था। हम अपने सर्विस अपार्टमेंट की ओर लौट पड़े।

 इस समय शहर की गलियों में बनी सड़कों के आधे हिस्से में मेज-कुर्सियां बिछ चुकी थीं जिन पर बैठकर देशी-विदेशी पर्यटक वाइन पी रहे थे। एक सुनसान गली में लगभग बीस-बाईस कुर्सियां बिछी हुई थीं। मेरी दृष्टि वहाँ बैठी एक यूरोपियन लड़की पर पड़ी। वह अकेली बैठी वाइन पी रही थी। मैं हैरान रह गया। यह गली पूरी तरह सुनसान थी। रात के लगभग नौ बजने वाले थे और वह अकेली बैठकर शराब पी रही थी! क्या भारत के एक भी शहर में ऐसा किया जाना संभव है, मैंने स्वयं से प्रश्न किया।

घर पहुँचे तो सवा नौ बज रहे थे, दिन का उजाला अभी बाकी था। पिताजी इटेलियन टीवी चैनल देख-देखकर थक गए थे और हम तो निरंतर चलते रहने के कारण थके हुए थे ही। अतः चाय तो बननी ही थी। यदि हम चाय का सामान भी नोएडा से लेकर नहीं चले होते तो हमारी हालत खराब हो जाती।

दूध की चाय यहाँ कौन बनाकर देता! भारत में चाय का कितना आराम है किसी भी धर्मशाला में ठहरो, बाहर से इलायची और अदरक वाली बढ़िया चाय बनवाकर ले आओ! भारत जैसे आनंद यूरोप में कहाँ! यह अलग बात है कि जब यूरोपियन्स भारत जाते होंगे तो ब्लैक कॉफी के लिए तरस जाते होंगे! भारत में वह मिलती तो है किंतु हर जगह तो नहीं न मिलती!

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