Thursday, December 26, 2024
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11. वेनेजिया में पहला दिन – 25 मई 2019

सुबह 5.27 पर आंख खुली। शौचादि से निवृत्त होकर कल की यात्रा का विवरण लिखने बैठ गया। आज हमें प्रातः 11 बजे वेनिस के लिए निकलना है। दोपहर 12 बजे की ट्रेन है। वेनिस में जो सर्विस अपार्टमेंट विजय ने बुक करवाया था, उसके मालिक को विजय ने यहीं से मैसेज कर दिया कि हम दोपहर 2.30 बजे वेनिस पहुँचेंगे।

उसका जवाब आया कि नहीं आप 2.30 बजे नहीं आ सकते, आपका समय दोपहर बाद तीन बजे से है। विजय ने वापस लिखा कि हमारी ट्रेन 2.35 पर वेनिस पहुँचेगी। हम उसके बाद ही सर्विस अपार्टमेंट पहुँचेंगे। तब तक तीन बज ही जाएंगे!

अब तक हम इटली के तीन नगर देख चुके हैं। हमारी योजना में सम्मिलित चौथा और अंतिम नगर वेनिस है जो विश्व भर में श्रेष्ठ वाइन बनाने के लिए जाना जाता है। हम ठीक 11 बजे सर्विस अपार्टमेंट से बाहर आ गए।

यहाँ से 100 मीटर चलकर ट्राम का स्टेशन था तथा 750 मीटर चलकर शॉर्टकट से हम सीधे मुख्य रेल्वे स्टेशन पहुँच सकते थे। हमने 750 मीटर वाला रास्ता लिया ताकि 7.5 यूरो अर्थात् 600 भारतीय रुपए बचाए जा सकें। जब हम संकरी गलियों से होते हुए रेल्वे स्टेशन जा रहे थे तो हमने देखा कि ये गलियां भी इतनी साफ सुथरी थीं जिनकी भारत में कल्पना भी नहीं की जा सकती।

आई डोण्ट केयर

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हमारे जैसे बहुत से पर्यटक अपना सामान खींचते हुए रेल्वे स्टेशन की तरफ जा रहे थे। इसका अर्थ यह था कि केवल हम ही यूरो नहीं बचा रहे थे अपितु दुनिया भर से आए लोगों में से बहुत से हमारे जैसे ही थे। हम 11.20 पर रेल्वे स्टेशन पहुँचे जबकि हमारी गाड़ी 12.30 पर थी। यहाँ भी रोम रेल्वे स्टेशन की तरह बैठने की कोई सुविधा नहीं थी अतः हम लगभग सवा घण्टे तक खड़े ही रहे। 12.20 पर इलैक्ट्रोनिक पैनल पर गाड़ी का प्लेटफॉर्म नम्बर डिस्प्ले हुआ, 12.25 पर गाड़ी आई और जैसे ही हम गाड़ी में बैठे, ठीक 12.30 पर चल पड़ी। यह भी एक बुलेट ट्रेन थी तथा पूरे रास्ते में 250-300 किलोमीटर प्रति घण्टे की गति से चलती रही।

मार्ग में 2-3 स्टॉप ही थे किंतु वेनेसिया इटली के लगभग धुर उत्तरी क्षेत्र में एण्ड्रिाटिक समुद्र के तट पर स्थित है। इसलिए इस यात्रा में 2 घण्टे लग गए। ट्रेन ठीक 2.35 पर पहुँच गई। रेलवे स्टेशन पर उतरकर  विजय ने वेनेसिया के सर्विस अपार्टमेंट के मालिक को व्हाट्सैप पर सूचित किया कि हमारी ट्रेन पहुँच गई है।

हम लगभग आधे घण्टे में सर्विस अपार्टमेंट पहुँच जाएंगे। इस पर सर्विस अपार्टमेंट के मालिक का जवाब आया कि आई डोण्ट केयर, व्हेदर योअर ट्रेन ऑर यू रीचेज एट 2.35, योअर टाइम स्टार्ट्स एट थ्री!

हमें उसका संदेश पढ़कर कुछ चिंता हुई। यह झगड़ालू किस्म का आदमी लग रहा था। कहीं वह हमें अपना अपार्टमेंट देने से ही मना न कर दे। हमने उसे 55 हजार रुपए केवल तीन रात्रियों के लिए दिए थे। रेलवे स्टेशन से सर्विस अपार्टमेंट लगभग 400 मीटर था तथा यहाँ से केवल पैदल ही जाया जा सकता था। गूगल की सहायता से हम लगभग 10-12 मिनट में सर्विस अपार्टमेंट वाली गली में पहंच गए।

 यहाँ विजय के फोन पर मकान मालिक का फोन आया- ‘आयम वेटिंग फॉर यू गाइज फॉर ए लोंग टाइम! व्हेयर आर यू!’ विजय ने कहा- ‘वी हैव एण्टर्ड द स्ट्रीट एण्ड सर्चिंग योअर हाउस।’ इतना सुनते ही एक मकान के सैकण्ड फ्लोर की खिड़की से किसी की आवाज आई- ‘हे! लुक हीयर।’

हमने उस ओर देखा तो पाया कि कोई हमें अपनी ओर बुला रहा था। हम समझ गए कि यही मकान मालिक है। मैंने उसे हाथ हिलाते हुए देखकर राहत की सांस ली तथा सोचा कि अब यह हमें सर्विस अपार्टमेंट देने से मना नहीं करेगा।

इतना बुरा भी नहीं!

हम मकान का बाहरी दरवाजा खोलकर और दो मंजिल सीढ़ियां चढ़कर जब सर्विस अपार्टमेंट में पहुँचे तो वह सीढ़ियों पर ही खड़ा था। उसने हंसकर हमें वेलकम कहा और अपना नाम लॉरेंजो बताया। उसने हमारे हाथों से सामान ले लिया। हमने उससे मना किया किंतु वह नहीं माना। उसका यह एटीट्यूट देखकर मुझे और अधिक तसल्ली हो गई। पता नहीं उसे क्या कन्फ्यूजन हुआ था, आदमी तो बुरा नहीं था! या तो उसे विजय के द्वारा लिखी जा रही अंग्रेजी समझ में नहीं आ रही थी, या फिर वह हमारे पाँच-दस मिनट पहले पहुँचने की बात से परेशान था!

हे गाइज! यू डोण्ट टच!

उसने विजय, मधु और भानु को सर्विस अपार्टमेंट की सारी व्यवस्थाएं समझाई। पासपोर्ट स्कैन किए। सिटी टैक्स लिया और चाबियों के दो सैट दिए। इस दौरान मैं और पिताजी एक सोफे पर बैठे रहे। अंत में अपनी बात समाप्त करके जाते समय उसने विजय को डूज एण्ड डोण्ट्स की भी हिदायत दी। उसने विजय से हाथ मिलाया और फिर अपना हाथ मधु की तरफ बढ़ा दिया। मधु ने हंसकर दोनों हाथ जोड़ दिए। इस पर वह जोर से हंसा और बोला- ‘हे गाइज यू डोण्ट टच!’ और फिर मुझसे तथा पिताजी से हाथ मिलाकर चला गया।

भारत के नक्शे में नहीं है काश्मीर!

यह एक मध्ययुगीन वेनेजियन शैली का आलीशान बहुमंजिला घर है। हमारा फ्लैट दूसरी मंजिल पर है। फ्लैट काफी बड़ा है और इसमें दो कमरे, एक बड़ा हॉल, एक बहुत बड़ी किचन, दो लैट-बाथ, एक लॉबी है। फ्लैट में बढ़िया किस्म की सागवान के ऊँचे दरवाजे और खिड़कियां हैं जिन पर महंगे पर्दे पड़े हैं। हर कमरा महंगे फर्नीचर और इलैक्ट्रोनिक सामान से भरा हुआ है। हॉल के एक कोने में एक बड़ा सा पियानो भी रखा है।

पूरे मकान में इटैलियन मार्बल का फर्श है जिसकी पॉलिश इतनी चमकदार है कि शीशे को भी मात दे। घर के प्रत्येक कमरे में लकड़ी के लम्बे-लम्बे रैक लगे हुए हैं जिनमें जियोग्राफी की मोटी-मोटी किताबें और एटलस भरे पड़े हैं। कुछ फिक्शन भी है जो इटैलियन, स्पेनिश अंग्रेजी आदि भाषाओं में है। हमने अनुमान लगाया कि यह किसी भूगोल के प्रोफेसर का मकान है। संभवतः लॉरेंजो का पिता स्थानीय यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर होगा या रहा होगा क्योंकि लॉरेंज के व्यवहार से लगता नहीं कि वह अधिक पढ़ा-लिखा है।

मैंने एक एटलस खोल कर देखा, पहला पन्ना ही भारत का पॉलिटिकल मैप निकला। इसमें काश्मीर को चीन एवं पाकिस्तान में दिखा रखा था। यह देखकर मेरे मन में खिन्नता हुई। क्यों दुनिया भारत को समझ ही नहीं पाती! आखिर हमारी गलती क्या है! क्यों दुनिया भर के एटलसों में काश्मीर को पाकिस्तान में दिखाया जाता है?

संकरी गलियों का शहर

हम खाना खाकर सो गए। आज भी भानु और मधु फ्लारेंस से दोपहर का भोजन बनाकर लाईं थी। शाम 6.00 बजे हम चाय पीकर पैदल ही घूमने निकले। हमने जीवन में इतनी संकरी गलियों का शहर पहली बार देखा था। कुछ गलियां तो केवल तीन फुट चौड़ी हैं। कुछ गलियों के ऊपर मुश्किल से साढ़े-पाँच छः फुट की ऊंचाई पर छतें बनी हुई हैं।

थोड़ी-थोड़ी दूरी पर नहरें बनी हुई हैं जिसके पार जाने के लिए छोटी-छोटी पुलियाएं हैं। इटली के उत्तरी भाग में एण्ड्रियाटिक समुद्र के तट पर बसा हुआ वेनिस शहर संसार के अत्यंत पुराने शहरों में से एक है। इसकी कहानी आज से डेढ़ हजार साल पहले आरम्भ होती है।

पाँचवी शताब्दी ईस्वी में जब अतिला नामक हूण आक्रांता, इटली में मारकाट मचाता हुआ घूम रहा था तो उसके भय से हजारों लोग इटली के दक्षिणी भागों को छोड़कर उत्तर की तरफ भाग आए ताकि वे एल्प्स पर्वत के जंगलों में छिप सकें। मार्ग में उन्होंने बहुत से टापुओं को देखा जो एण्ड्रिायिटक समुद्र में दलदल के सूख जाने से उभर आए थे। बहुत से लोग इन्हीं टापुओं पर जाकर छिप गए। अतिला तो समय के साथ मारा गया किंतु बहुत से लोग यहीं बस गए। उन्होंने इन्हीं टापुओं पर अपने घर बना लिए।

कालांतर में ये टापू नहरों के माध्यम से जुड़कर कर एक बड़े शहर में बदल गए। आगे चलकर वेनिस एक बड़े बंदरगाह के रूप में विकसित हो गया तथा इस शहर के बड़े-बड़े मालवाहक जहाज, इटली के दक्षिण में स्थित राज्यों से लेकर उत्तरी अफ्रीकी तटों पर स्थित मिस्र आदि देशों तथा भारत जैसे दूरस्थ देशों से भी व्यापार करने लगे।

व्यापारिक जहाजों एवं शहर की रक्षा केे लिए वेनेशिया वासियों ने अपनी एक नौ-सेना भी खड़ी कर ली। यहाँ तक कि उन्होंने अपना एक गणराज्य स्थापित कर लिया। जब शहर में धन की आवक होने से विशाल भवनों का निर्माण होने लगा तो इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक पहुँचने लगी। वेनिसया के व्यापारी अपनी धन-सम्पदा के लिए पूरे यूरोप में प्रसिद्ध हो गए।

यहाँ तक कि धन के प्रति अपने लालच के लिए भी। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर ने वेनिस के व्यापारियों को लेकर एक नाटक लिखा था- ‘मर्चेण्ट ऑफ दी वेनिस।’ यह नाटक संसार भर के देशों में खेला एवं पढ़ा जाता है। इसमें इटली के एक लालची व्यापारी के माध्यम से वेनेसिया वासियों की उन दिनों की प्रवृत्ति का बहुत बारीक चित्रण किया गया है।

उत्तरी इटली में स्थित वेनिस अथवा वेनेजिया शहर सातवीं-आठवीं शताब्दियों में उत्तरी यूरोप के बर्बर कबीलों के आक्रमणों से त्रस्त था। वे इस शहर के धनी व्यापारियों को लूटने के लिए शहर पर भयानक आक्रमण करते थे। इन बर्बर सैनिकों के हमलों से नगर-वासियों की सुरक्षा करने के लिए इस शहर में पतली गलियां बनाने की परम्परा आरम्भ हुई।

 मध्य काल में इस शहर पर ऑस्ट्रिया, फ्रांस, इटली तथा जर्मनी की सेनाओं के हमले होते रहते थे। इन हमलावरों से बचने में इन पतली गलियों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। ये पतली गलियां निश्चित रूप से किसी दूसरी-तीसरी गलियों में खुलती हुई अंत में किसी बड़े चौक में खुलती हैं जहाँ बड़ी संख्या में वेनेसिया के सैनिक मौजूद रहते थे।

यदि कोई शत्रु सैनिक किसी गली में घुसकर उसके पार निकले की कोशिश करता तो गली के दूसरे मुंह पर खड़े वेनेसिया के सिपाही उसकी गर्दन उड़ा देते थे।

इस कारण शत्रु सेना इन गलियों में घुसने का साहस ही नहीं कर पाती थी। इस प्रकार युद्ध-काल में पूरा शहर एक खुले दुर्ग में बदल जाता था। घुड़सवार योद्धा के लिए इस शहर में दो कदम भी चल पाना संभव नहीं था। कुछ गलियां तो इतनी नीची और इतनी संकरी हैं कि अकेला सिपाही अपने हथियार लेकर भी उसमें से नहीं गुजर सकता था। आज भी ये गलियां ज्यों की त्यों हैं।

गलियों में बनी हुई सड़कों पर कोलतार नहीं बिछा हुआ है अपितु पत्थरों के टुकड़े समतल करके बिछाए गए हैं। शहर की गलियों के मिलन बिंदुओं पर बनने वाले सैंकड़ों चौक में प्रायः रेस्टोरेंट एवं बाजार चलते हैं। खुले आकाश के नीचे 8-10 कुर्सियों से लेकर 100-150 कुर्सियों तक वाले ओपन एयर रेस्टोरेंट इस शहर को अलग ही स्वरूप प्रदान करते हैं।

इन कुसियों पर बैठकर, देश-विदेश से आए स्त्री-पुरुषों की की भीड़ दिन-रात सिगरेट एवं शराब पीती रहती है। पूरे शहर में ये दृश्य हर गली, हर नुक्कड़ एवं हर चौक में दिखाई देते हैं। वैसे यह पिज्जा और पास्ता का देश है किंतु ओपन एयर रेस्टोरेंट इसे वाइन और सिगरेट का शहर होने की घोषणा करते हुए दिखाई देते हैं।

पूरे देश में जगह-जगह पिज्जेरियो खुले हुए हैं जिनमें रखी हुई शीशे की अलमारियों से बकरों, भेड़ों एवं सूअरों के कटे हुए सिर झांकते रहते हैं। किसी कटे हुए सिर की आंखों में देखने का साहस कर सकें तो आप उन आंखों में उस दर्द की फोटो देख सकते हैं जिसकी अनुभूति इस सिर को अपने धड़ से अलग होते हुए हुई थी।

यह शहर 100 से अधिक टापुओं से बना है जिनके बीच में समुद्र का जल भरा हुआ है। समुद्री जल का प्रवाह नियंत्रित करके उसे सैंकड़ों नहरों में बदल दिया गया है। ये नहरें कहीं पर विशाल नदी के समान चौड़ी हैं तो कहीं पर पतले से नाले के समान संकरी। इन नहरों की चौड़ाई के अनुसार इनमें जहाज, फैरी, स्टीमर, बोट, शिकारे आदि चलते हैं जिनके माध्यम से शहर की यात्री-परिवहन एवं माल-ढुलाई सम्बन्धी आवश्यकताएं पूरी होती हैं।

एक टापू पर स्थित बाजार एवं मोहल्ले आदि तक जाने के लिए पतली गलियों का प्रयोग करना होता है तथा विभिन्न टापुओं को जोड़ने के लिए नहरों के ऊपर पुलियाएं बनी हुई हैं। इस शहर में सड़कें लगभग नहीं के बराबर हैं और जो भी हैं उनमें पैदल चलकर किसी नाव या फैरी तक पहुँचना होता है।

यात्री-परिवहन एवं माल ढुलाई की दृष्टि से यह शहर संसार भर में अनूठा है और अपनी तरह का अकेला देश है। शहर के जल-मल निकासी के लिए भी कुछ पतली नहरें बनाई गई हैं जो सीवर के पानी को दूर समुद्र में ले जाकर छोड़ती हैं।

खारेपन और झगड़ालूपन का शहर

विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए शहर में कुली सेवा उपलब्ध है। ये कुली बहुत ही छोटे-छोटे हथ-ठेलों पर सामान लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाते हैं। बसावट की विचित्रता के कारण आज वेनेजिया अथवा वेनिस संसार के सुंदरतम शहरों में से एक माना जाता है किंतु मुझे यह शहर बसावट के हिसाब से अलग लगते हुए भी सुंदर तो कतई नहीं लगा!

इससे अधिक सुंदर तो रोम और फ्लोरेंस हैं। जाने क्यों मुझे यह अनुभव होता रहा था कि रोम की हवाओं में उदासी भरी हुई है और फ्लोरेंस की हवाओं में जिंदगी की खुशियां भरी हुई हैं जबकि वेनिस की हवाओं में समुद्र के खारेपन के साथ-साथ शहरवासियों का झगड़ालूपन भी मौजूद है। शहरवासियों के झगड़ालूपन का अनुभव हमें अगले तीन दिनों तक लगातार हुआ।

गनेश रेस्टोरेंट

अभी हम एक नहर को पार करके थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि हमें एक पुराना सा ढाबा दिखाई दिया जिस पर ‘गनेश रेस्टोरेंट’ लिखा हुआ था। अवश्य ही कोई भारतीय यहाँ आकर बस गया था।

दीपा की ड्राइंग

एक चौक में तीन-चार साल के छोटे-छोटे बच्चे चॉकस्टिक से फर्श पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर ड्रॉइंग बना रहे थे तथा रोमन एल्फाबैट्स लिख रहे थे। इनके साथ इनके माता-पिता भी थे जो उनकी सुरक्षा का ध्यान रख रहे थे। एकाध जगह 3-4 बच्चे गेंद खेलते हुए भी दिखाई दिए। ये भी बहुत छोटे बच्चे थे और उनके माता-पिता उनके लिए बार-बार गेंद उठाकर ला रहे थे।

उन बच्चों को देखकर दीपा भी उनके साथ खेलने की जिद करने लगी। मैंने मना किया किंतु मधु ने वहाँ खेल रहे बच्चों को इस बात के लिए सहमत कर लिया कि वे दीपा को भी अपने साथ बॉल खेलने देंगे और अपनी चॉक से ड्राइंग करने देंगे। मधु में संसार के किसी भी प्राणी से संवाद स्थापित कर लेने की अद्भुत क्षमता है।

वह गली के कुत्ते-बिल्लियों और गायों से लेकर संसार के किसी भी मनुष्य से बिना किसी संकोच के संवाद कर लेती है, फिर ये तो इटली के छोटे-छोटे बच्चे ही थे। न वे मधु की भाषा जानते थे और न मधु उन बच्चों की भाषा जानती थी किंतु वे कुछ क्षणों में मधु की हर बात मानने को तैयार थे।

संभवतः उन बच्चों के माता-पिता को भी यह देखकर अच्छा लग रहा था कि इण्डियन साड़ी पहने हुए कोई औरत उनके बच्चों को खिला रही थी और ड्राइंग बनाना सिखा रही थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस पूरे उपक्रम में दीपा की तो लॉटरी लग गई थी। थोड़ी ही देर में वहाँ मौजूद सारी गेंदें और सारे चॉकस्टिक दीपा के लिए उपलब्ध थे!

चीनी दम्पत्ति के चिंतातुर चेहरे!

थोड़ी देर में हम एक बहुत चौड़ी नहर के किनारे पहुँचे। यह शायद शहर की मुख्य नहरों में से एक थी। इसे पार करने के लिए यहाँ कोई पुलिया नहीं थी। केवल मोटर बोट चल रही थीं। हम एक मोटरबोट स्टैण्ड पर खड़े होकर टिकट आदि खरीदने की व्यवस्था समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि एक चीनी युवक हमारे पास आकर हमसे पूछने लगा कि मोटरबोट का टिकट कहाँ से मिलेगा?

उसके साथ एक चीनी युवती भी थी। दोनों के चेहरे घबराए हुए से लग रहे थे। मैंने एक साइन बोर्ड की तरफ संकेत करते हुए कहा कि देखिए यहाँ कुछ निर्देश लिखे हुए हैं। मेरे द्वारा उस साइन बोर्ड की तरफ 7-8 बार संकेत करने और अपनी बात बार-बार दोहराने के बाद भी वह चीनी युवक समझ नहीं पाया कि मैं क्या कह रहा हूँ!

चीनी युवती इस दौरान बिल्कुल चुप खड़ी रही। इस पर मैंने विजय से कहा कि वह उन्हें समझाए। विजय ने उसके हाथ से सैलफोन लेकर उसे गूगल के माध्यम से समझाने का प्रयास किया किंतु वह विजय को अपना सैलफोन देने को तैयार नहीं हुआ। युवक और युवती बुरी तरह घबराए हुए थे। हमें उनकी बातों से लगा कि वे अपने साथियों से बिछड़ गए हैं और गूगल के अनुसार उनके साथी नहर के दूसरी तरफ कहीं पर हैं और यह चीनी दम्पत्ति उन तक न तो पैदल पहुँच पा रहा है और न मोटरबोट का टिकट खरीद पा रहा है।

 मोटर बोट के स्टैण्ड तक जाने के लिए जो गेट था, उस पर इलैक्ट्रोनिक लॉक लगा था और वह बिना टिकट लिए खोला नहीं जा सकता था। वह चीनी दम्पत्ति हमारी बातों से निराश होकर वहाँ से चला गया। हम वहीं खड़े रहकर उनकी हालत पर तरस खाते रहे। लगभग 5-7 मिनट बाद वह चीनी दम्पत्ति फिर से लौट आया और मुझसे पूछने लगा कि इस नहर को पार करने का क्या तरीका है?

मैंने दुबारा मोर्चा संभाला और उसे बताया कि यहाँ दो तरह के रेट लिखे हुए हैं, डेढ़ यूरो और साढ़े सात यूरो। यह संभव है कि यहाँ के स्थानीय नागरिकों के लिए डेढ़ यूरो टिकट लगता हो और विदेशी पर्यटकों से सात यूरो लिए जाते हों। इसलिए वह चाहे तो दो यूरो का सिक्का इस बोर्ड के पास लगी मशीन में डालकर देख ले! यदि दो यूरो में टिकट नहीं निकले तो पाँच यूरो और डाल दे।

 एक टिकट खरीदने के बाद दूसरे टिकट के लिए भी यही प्रक्रिया करे। बड़ी मुश्किल से मैं उसे यह बात समझाने में सफल हुआ। इस बार उन्होंने हमारी बात ज्यादा ध्यान से सुनी क्योंकि वे भी समझ गए थे कि हम भले ही स्थानीय नहीं हों किंतु केवल हम ही वहाँ थे जिन्हें अंग्रेजी बोलनी आती थी और वे केवल हमारी बात ही समझ सकते थे।

नो क्रिकेट!

हमें नहीं मालूम कि बाद में क्या हुआ क्योंकि हम उसके बाद वहाँ से वापस अपने सर्विस अपार्टमेंट को लौट लिए। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पूरे शहर में एक भी जगह लड़कों का झुण्ड क्रिकेट नहीं खेल रहा था। दो-चार स्थानों पर हमने लड़कों को वॉलीबॉल, फुटबॉल और बैडमिण्टन खेलते हुए देखा। संभवतः इटली के लोग स्वयं को अंग्रेजों से अधिक श्रेष्ठ समझते थे इसलिए वे अंग्रेजों का खेल खेलना भी अपनी तौहीन समझते थे।

यहाँ आकर ही यह बात समझ में आती है कि क्रिकेट वास्तव में अंग्रेजों तथा उनके गुलाम रहे देशों का खेल है। हालांकि इटली भी सैंकड़ों साल तक फ्रांस, विएना, ग्रीस तथा ऑस्ट्रिया देशों के राजाओं के झण्डों के नीचे रहा था किंतु वह गुलामों जैसी स्थिति नहीं थी अपितु उन्होंने अपनी स्वेच्छा से उन देशों के राजाओं को इटली का सम्राट मान लिया था क्योंकि उस काल में पूरा यूरोप एक देश की ही तरह व्यवहार करता था!

यूँ तो रोम ने सैंकड़ों साल तक यूरोप के कई देशों पर शासन किया था किंतु वेनेजिया पर नहीं। यह कभी गणराज्य तो कभी राज्य रहा और कुछ समय के लिए ऑस्ट्रिया के अधीन भी रहा किंतु रोम से काफी दूर ही रहा। यही कारण था कि वेनेजिया की संस्कृति और रोम की संस्कृति में काफी अंतर देखने को मिलता है। इन शहरों में रहने वाले लोगों के स्वभाव भी अलग हैं, बहुत अलग!

नो हाफ पैण्ट!

मार्ग में हमें एक चर्च दिखाई दिया। इसका भवन बता रहा था कि यह गोथिक शैली का एक मध्यकालीन चर्च है। हम लोग उत्सुकतावश चर्च में घुस गए। चर्च के प्रवेश द्वार पर विजिटर्स के लिए एक नोटिस लगा हुआ था जिसमें चित्रों के माध्यम से समझाया गया था कि इस चर्च में कोई भी व्यक्ति घुटनों से ऊपर के कपड़े पहनकर प्रवेश नहीं कर सकता। अकेला पुरुष एढ़ी तक लम्बी पैण्ट पहनकर ही आ सकता है।

विजिटर्स को चर्च के एक हिस्से तक ही प्रवेश करने की अनुमति थी। उसके आगे का क्षेत्र प्रार्थना करने वालों के लिए सुरक्षित था। चर्च के आखिरी छोर पर एक मंच बना हुआ था जिस पर माता मरियम की गोद में शिशु ईसा की प्रतिमा बनी है।

मूर्ति के नीचे खड़े पादरी भी विजिटर्स को साफ दिखाई देते हैं। इस चर्च के भीतर बहुत पुराने फ्रैस्को बने हुए हैं। समुद्र के किनारे स्थित होने के उपरांत भी फ्रैस्को बहुत अच्छी स्थिति में हैं। यह चर्च बाहर से जितना विशाल दिखाई देता है, भीतर से उतना ही भव्य है।

हम कुछ देर तक एक चौक पर पड़ी बैंचों पर बैठे रहे। ये बेंचें एक पेड़ के नीचे रखी थीं। यहाँ से थोड़ी दूर खड़ा कोई व्यक्ति वायलिन बजा रहा था और पूरे परिवेश में अद्भुत शांति व्याप्त थी। इतनी शांति भरी जगहें भारत में तो ढूंढने से भी नहीं मिलती। ऐसा लगता है जैसे भारत का चप्पा-चप्पा आदमियों से भर गया है और सारा परिवेश मनुष्यों की चीख-चिल्लाहटों से भर गया है। जबकि रोम, फ्लोरेंस और वेनेजिया में शांति का साम्राज्य पसरा पड़ा है।

नाचती हुई लड़कियों का शहर

इस शहर के किसी भी चौक में युवतियों का कोई समूह नृत्य करता हुआ दिखाई दे जाता है। ये लड़कियां समाज के विभिन्न वर्गों से आती हैं तथा सार्वजनिक रूप से नृत्य करके पर्यटकों से रुपए मांगती हैं और थोड़ी ही देर में किसी पतली गली में गायब हो जाती हैं।

इसी प्रकार यहाँ के चौराहों, पुलियाओं एवं चौक आदि में कुछ लोग म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट बजाकर पैसे मांगते हुए दिख जाते हैं। इसी प्रकार चित्रकार भी चित्र बनाने के लिए गलियों में बैठे रहते हैं। ये लोग भिखारी नहीं हैं, आर्टिस्ट हैं। वे मानव समाज के समक्ष अपनी कला का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं तथा समाज से उसके बदले में प्रतिदान चाहते हैं।

भारत में ऐसे कलाकारों के गांव के गांव हैं तथा सैंकड़ों जातियां हैं। भारत के ये कलाकार भी भिखारी नहीं हैं, वे भी घर, गली, गांव या मौहल्ले में अपनी कलाओं का प्रदर्शन करके समाज से प्रतिदान मांगते हैं।

हम गलती से उन्हें भिखारी समझ लेते हैं लेकिन भोपे, लंगा, मांगणियार, ढाढ़ी, राणीमंगा जैसी सैंकड़ों कलाकार जातियां इसी तरह कला का प्रदर्शन करके अपना गुजर बसर करती हैं। इटली में यह परम्परा अधिक मुखर और अधिक स्पष्ट दिखाई देती है।

कला की प्रशंसा

एक गली में हमने कुछ चित्रकारों को मेज-कुर्सी लगाकर चित्र बनाते हुए देखा। हम लोग एक चित्रकार के पास रुक गए। वह चित्र बनाने में व्यस्त था फिर भी उसने अपने हाथ का ब्रुश रोककर हमसे हलो कहा। ऐसा लगता था जैसे वह हमें देखकर खुश है। मैंने एक चित्र का मूल्य पूछा।

यह चित्र ए-4 साइज के किसी कैनवास पर बना हुआ था तथा उसमें वाटरकलर का प्रयोग किया गया था। उसने कहा- फिफ्टी यूरो बिकॉज आई यूज वाटर कलर्स ओन्ली।’ सुनने में चार हजार रुपए भले ही अधिक लगते हैं किंतु वास्तविकता यह है कि उस चित्र को बनाने में 50 यूरो से कहीं अधिक की मेहनत और समय लगा होगा। इस चित्र को बनाने में व्यय हुई मानव प्रतिभा का मूल्य तो आंका ही नहीं जा सकता।

मैंने अंग्रेजी भाषा में उसके चित्रों की तारीफ की तो वह गदगद हो गया। उसकी आंखों से कृतज्ञता टपकती हुई साफ अनुभव की जा सकती थी। मुझे लगा कि वह अपनी कला की प्रशंसा सुनकर  इतना अधिक खुश था जितना कि चित्र खरीदने पर भी नहीं होता। जो कलाकार हैं, केवल वही इस बात को समझ सकते हैं कि कोई कलाकार अपनी कला की प्रशंसा सुनकर कितना खुश होता है।

यह ठीक वैसा ही अनुभव है जैसा कि यदि आप किसी के द्वारा बनाए गए पकौड़ों की तारीफ कर दें तो वह चाहता है कि अपने बनाए हुए सारे पकौड़े आपको खिला दे। जैसे उसका अपना पेट तो केवल तारीफ से भर जाता है!

गूगल बाबा!

एक जमाना था जब गांव में सबसे बूढ़े आदमी को सबसे अधिक ज्ञानी माना जाता था। हर बात उससे पूछी जाती थी और उम्मीद की जाती थी कि चूंकि इसने जीवन में बहुत अनुभव एकत्रित कर लिया है तो इसके पास सारे सवालों का जवाब है। आज उसे बूढ़े बाबा का स्थान गूगल ने ले लिया है। गूगल बाबा की कृपा से हम उन्हीं चौकों, गलियों, नहरों एवं पुलियाओं को पार करते हुए अपने सर्विस अपार्टमेंट में आ गए।

आज की दुनिया में गूगल पर लोगों की जासूसी करने का आरोप लगता है और कहा जाता है कि जितना आप स्वयं अपने बारे में नहीं जानते, उतना आपकी पत्नी आपके बारे में जानती है किंतु जितना आपकी पत्नी आपको जानती है उससे कहीं अधिक आपके बारे में गूगल जानता है। यहाँ तक कि गूगल तो आपकी पत्नी के बारे में भी जानता है, जो कि आप बिल्कुल भी नहीं जानते।

जासूसी के इस आरोप के बावजूद इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज गूगल मानव की सबसे अधिक सेवा कर रहा है, सचमुच बड़ी सेवा। यहाँ तक कि बहुत से लोगों की जान भी इसी गूगल के माध्यम से बच रही है, दुर्घटनाएं भी टल रही हैं और समय भी बच रहा है। यह अलग बात है कि कुछ तलाक भी इसी गूगल ने करवाए हैं। घर लौट कर हमने खाना खाया। मोबाइल फोन ही पर ही भारतीय टीवी चैनल देखे और दस बजते-बजते सो गए।

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