समाचार पत्रों के भारतीय प्रयास
19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से भारतीय समाचार पत्रों के इतिहास का दूसरा अध्याय आरम्भ होता है जब अँग्रेजी समाचार पत्रों के साथ-साथ देशी भाषा में भी समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1818 ई. तक देशी भाषा में प्रकाशित होने वाले किसी समाचार पत्र का उल्लेख नहीं मिलता। बौद्धिक जागरण का प्रभाव प्रत्रकारिता के क्षेत्र में पड़ा और भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। राजा राममोहन राय की प्रेरणा, समर्थन और निर्भीक नेतृत्व पाकर भारतीय पत्रकारिता का विकास हुआ। आत्मीय सभा के दो सदस्यों हरिशचन्द्र राय और गंगाकिशोर भट्टाचार्य के सहयोग से बंगाल में पहला भारतीय पत्र 15 मई 1818 को बंगाल गजट के नाम से प्रकाशित हुआ। यह भारतीय समाचार पत्र, प्रगतिवादी हिन्दू धर्म की विचारधारा का प्रतिपादन करता था। इसी समय भारत में ईसाईयत का प्रचार करने वाली संस्थाओं ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण किया। 1818 ई. में मार्शमेन के नेतृत्व में सीरामपुर के बैपटिस्ट मिशनरियों ने बंगाली भाषा में मासिक पत्र दिग्दर्शन तथा साप्ताहिक पत्र समाचार दर्पण प्रकाशित किये। राजा राममोहन राय ने 1822 ई. में फारसी भाषा में मिरात-उल-अखबार और अँग्रेजी भाषा में ब्राह्मनिकल मैगजीन प्रकाशित किये। राजा राममोहन राय के प्रगतिशील विचारों के विरुद्ध सनातनी एवं रूढ़िवादी लोगों ने बंगला भाषा में चंद्रिका समाचार निकाला। दो और फारसी भाषा के पत्र- जामे-ए-जहनुमा तथा शम-उल-अखबार भी प्रकाशित किये गये। 1822 ई. में ही बम्बई से गुजराती भाषा का मुम्बई समाचार प्रकाशित हुआ। उन्हीं दिनों ईसाई धर्म प्रचारकों ने फ्रेण्ड ऑफ इण्डिया नामक अँग्रेजी पत्र प्रकाशित किया।
कलकत्ता का पहला दैनिक समाचार पत्र- कलकत्ता जर्नल
जेम्स बंकिघम सिल्क एक जहाज का कप्तान था। एक बार उसने मेडागास्कर से खरीदे हुए कुछ गुलामों को ले जाने से इन्कार कर दिया और नौकरी छोड़ दी। इस कारण उसकी ख्याति एक सैद्धान्तिक व्यक्ति के रूप में हो गई। 2 अक्टूबर 1818 को उसने कलकत्ता से आठ पृष्ठ का कलकत्ता जर्नल प्रकाशित करना आरम्भ किया। यह सप्ताह में दो बार छपता था। इस पत्र ने अपने निर्भीक तथा उदारवादी विचारों से भारतीय पत्रकारिता को नई दिशा दी। इस पत्र में सरकारी कार्यों की आलोचना के साथ-साथ एक नया स्तम्भ भी आरम्भ किया गया जिसमें जनता की शिकायतें और सुझाव छापे जाते थे। बंकिघम सिल्क ने अपने समाचार पत्र में स्पष्ट कहा कि सम्पादक के कार्य सरकार को उसकी भूलें बताकर कर्त्तव्य की ओर प्रेरित करना है। इस कारण कुछ अरुचिकर सत्य कहना अनिवार्य है। तीन वर्षों में ही यह समाचार पत्र प्रतिदिन छपने लगा। यह कलकत्ता का प्रथम दैनिक पत्र था। बंकिघम के पत्र ने उस समय के एंग्लो-इण्डियन पत्रों को निस्तेज कर दिया। दो वर्षों में इसकी सदस्य संख्या एक हजार से अधिक हो गई। बंकिघम की ख्याति और उसकी लेखनी से ब्रिटिश नौकरशाही में ईर्ष्या जागृत हुई। कुछ अधिकारियों ने लॉर्ड हेस्टिंग्ज से आग्रह किया कि वह समाचार पत्रों पर सेंसर के नियम लागू करे किंतु लॉर्ड हेस्टिंग्ज की उदार नीति के कारण बंकिघम को कोई हानि नहीं हुई। कलकत्ता जर्नल के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कट्टरपंथी लोगों ने बुल इन द् ईस्ट नामक पत्र आरम्भ किया। यह पत्र जनता में लोकप्रिय नहीं हो सका, क्योंकि इसके पक्षपातपूर्ण समाचारों और सरकारी पक्ष के समर्थन के कारण संदेह की दृष्टि से देखा जाता था। लॉर्ड हेस्टिंग्ज के भारत से चले जाने के बाद जॉन एडम कार्यवाहक गवर्नर जनरल बना। वह प्रेस की स्वतन्त्रता का विरोधी था। 1823 ई. में बंकिघम को देश से निकाल दिया गया। इस प्रकार एक बहुत ही साहसी, स्पष्ट वक्ता तथा भारतीय पत्रकारिता का मसीहा भारत से चला गया। यद्यपि बंकिघम भारत में नहीं रहा किन्तु उसने इंग्लैण्ड जाकर ओरियन्टल हेराल्ड नामक समाचार पत्र निकाला जिसमें वह भारतीय समस्याओं और कम्पनी के हाथों में भारत का शासन बनाये रखने के विरुद्ध लगातार लिखता रहा और इंग्लैण्ड में जनमत बनाने का प्रयत्न करता रहा।
राजा राममोहन राय का योगदान
राजा राममोहन को भारतीय पत्रकारिता का जनक कहा जाता है। उन्होंने सत्य का प्रचार करने तथा विविध विषयों पर तर्क करके जनमानस का निर्माण करने के उद्देश्य से संवाद कौमुदी, मिरात-उल-अखबार तथा ब्राह्मनिकल मैगजीन नामक तीन पत्रों की स्थापना की। उस समय ईसाई पादरी अपने धर्म-प्रचार के लिए हिन्दू धर्म पर आक्षेप कर रहे थे। राजा राममोहन राय ने अपने तर्कों से ईसाई पादरियों के दुष्प्रचार को निष्प्रभावी कर दिया। बंकिघम ने खुले हृदय से राजा राममोहन राय की सराहना की। कार्यवाहक गवर्नर जनरल जॉन एडम, प्रेस की स्वतन्त्रता को कम्पनी शासन के लिए अत्यधिक हानिकारक समझता था। मुनरो का कहना था कि विदेशी शासन और प्रेस की स्वतन्त्रता दोनों आपस में विरोधी हैं। ये अधिक समय तक साथ-साथ नहीं रह सकते। 1823 ई. में एडम ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की अनुमति से प्रेस पर प्रतिबन्धों की घोषणा की। इन प्रतिबन्धों का उद्देश्य भारतीय भाषाओं के पत्रों पर अंकुश लगाना था। सरकार ने मिरात्-उल-अखबार पर कई आरोप लगाकर उस पर प्रतिबंध लगा दिये। राजा राममोहन राय ने अखबार का प्रकाशन बन्द कर दिया। 1825 ई. में एक और प्रेस कानून लागू किया गया जिसके अनुसार किसी सरकारी अधिकारी का सम्बन्ध किसी भी समाचार पत्र से नहीं हो सकता था।
एडम का प्रेस नियन्त्रण
जॉन एडम द्वारा पारित प्रेस सम्बन्धी कानूनों को 1878 ई. में लॉर्ड लिटन द्वारा पारित वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट का पूर्वगामी कहा जा सकता है। बंकिघम के चले जाने के बाद सरकार ने कलकत्ता जर्नल को जब्त कर लिया। यद्यपि एडम के कानूनों के अन्तर्गत कलकत्ता जर्नल तथा विलियम एडम द्वारा सम्पादित कलकत्ता क्रोनिकल, दो ही ऐसे समाचार पत्र थे जिनके अनुमति पत्र रद्द किये गये थे किन्तु लगभग 6 वर्षों तक किसी भी समाचार पत्र ने सरकार की आलोचना करने का साहस नहीं किया।
जॉन एडम द्वारा प्रेस पर लगाये गये प्रतिबन्धांे के साथ ही समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष का इतिहास भी प्रारम्भ हो जाता है। इस संघर्ष का नेतृत्व राजा राममोहन राय ने किया। उन्होंने पाँच व्यक्तियों के हस्ताक्षर कराके इन कानूनों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में वाद दायर किया किन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। इस पर उन्होंने लंदन की प्रिवी कौंसिल के समक्ष वाद प्रस्तुत करवाया किन्तु वहाँ भी असफलता मिली। इन प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि अँग्रेज सरकार किसी भी कीमत पर भारत में स्वतंत्र प्रेस नहीं पनपने देना चाहती थी। इस दृष्टि से राजा राममोहन राय को भारत में स्वतन्त्र पत्रकारिता का अग्रदूत कहना उचित होगा।
भारतीय समाचार पत्र एडम के कानूनों से भयभीत होकर सतर्कता की नीति पर चलने लगे। इस कारण भारत में अँग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों का प्रकाशन बढ़ने लगा। हिन्दी भाषा का सबसे पहला समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड कलकत्ता से युगल किशोर शुक्ल ने सम्पादित किया जिसका पहला अंक 30 मई 1826 को प्रकाशित हुआ। 1829 ई. में राजा राममोहन राय ने अँग्रेजी भाषा में बंगाल हेराल्ड साप्ताहिक पत्र निकला। इसी समय नीलरत्न हालदार ने बंगदूत प्रकाशित किया। इस पत्र का प्रकाशन बंगला, हिन्दी और फारसी भाषा में होता था। इस अवधि में सरकार ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रकाशित पत्रों को आवश्यक सुविधाएँ दे रही थी किन्तु किन्तु अँग्रेजी पत्रों के प्रति सरकारी नीति भिन्न थी। अँग्रेजी भाषा के पत्रों को चेतावनी अवश्य दी जाती थी, किन्तु उनकी बड़ी-बड़ी गलतियों को माफ कर दिया जाता था, जबकि भारतीय भाषा के समाचार पत्रों का अनुमति पत्र रद्द कर दिया जाता था। राजा राममोहन राय ने सरकार की इस नीति का प्रतिवाद किया तथा भारतीय पत्रकारिता को बढ़ावा देने के प्रयास किये। राजा राम मोहन राय का प्रभाव टैगोर परिवार के प्रबुद्ध सदस्यों पर था। इस परिवार ने राजा राममोहन राय के सहयोग से तत्कालीन पत्रकारिता की सहायता की। राजा राममोहन राय की प्रेरणा से द्वारिकानाथ टैगोर ने बंगाल से प्रकाशित होने वाले कुछ अँग्रेजो के समाचार पत्रों को खरीद लिया। इस कारण बंगाल हरकारू तथा कट्टरपन्थी यूरोपियनों का बुल इन द ईस्ट, टैगोर परिवार के पास आ गये। नये संचालकों द्वारा बुल इन द् ईस्ट को इंग्लिशमैन के नाम से प्रकाशित किया गया।
बैण्टिक के समय में पत्रकारिता
लॉर्ड विलियम बैण्टिक (1828-1833 ई.) के काल में भारतीय पत्रकारिता ने बहुत उन्नति की। उस समय देश में एडम के कानूनों के विरुद्ध वातावरण बन रहा था। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य चार्ल्स मैटकॉफ ने इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि समाचार पत्रों को स्वतन्त्रता देने से सरकार की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी किन्तु स्वतन्त्रता से साम्राज्य का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ जाये तो सरकार को उचित सुरक्षा के अधिकार होना चाहिए। वर्तमान में समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता से किसी भी विपत्ति के चिन्ह नहीं हैं।
1831 ई. में ईश्वरचन्द्र गुप्त का संवाद प्रभाकर प्रकाशित हुआ। 1836 ई. में यह दैनिक पत्र में परिवर्तित हो गया तथा बंगाल के प्रथम दैनिक होने का गौरव प्राप्त कर सका। 6 फरवरी 1835 को पत्रकारों का एक शिष्ट मण्डल, जिसमें 3 भारतीय व 8 विदेशी थे, गवर्नर जनरल से मिला। इन पत्रकारों ने एडम कानूनों को सरकार और समाचार पत्र दोनों की प्रतिष्ठा के लिए घातक बताया। बैण्टिक इस सम्बन्ध में कुछ कार्यवाही करता, उससे पूर्व ही उसका भारत से स्थानांतरण हो गया।
चार्ल्स मैटकाफ की उदार नीति
बैण्टिक के बाद सर चार्ल्स मेटकॉफ (1835-36 ई.) कार्यवाहक गवर्नर जनरल बना। उसने लॉर्ड मैकाले से एक कानून बनाने का आग्रह किया। मैकाले ने एडम कानूनों को अनावश्यक बताकर उन्हें रद्द करने की अनुशंसा की। उसके विचार में प्रेस को स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिये। इसमें हस्तक्षेप तथा अंकुश केवल विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिये। कम्पनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने मेटकॉफ के कानून का समर्थन नहीं किया, फिर भी मेटकॉफ ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की परवाह नहीं की और अपनी नीति पर दृढ़ रहा। इस प्रकार मेटकॉफ के समय से भारत में समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता का युग आरम्भ हुआ।
महाराष्ट्र की पत्रकारिता
बंगाल के साथ-साथ भारत के अन्य प्रदेशों में भी पत्रकारिता तेजी से आगे बढ़ रही थी। 1830 ई. में बम्बई प्रेसीडेन्सी से गुजराती भाषा के समाचार पत्र प्रकाशित होते थे, इनमें से मुम्बई वर्तमान तथा जामे जमशेद का उल्लेख किया जा सकता है। उर्दू का सबसे पहला अखबार सैयद-उल-अखबार दिल्ली से 1837 ई. में निकला। मराठी भाषा का पहला पत्र मुम्बई समाचार 1840 ई. में निकला जिसके सम्पादक सूर्याजी कृष्णाजी थे। 1849 ई. में कृष्णाजी, तिम्बकजी, रानाडे ने पूना से ज्ञान-प्रकाश निकाला। इस अवधि में समाचार पत्रों की संख्या तथा पाठकों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। कुछ पत्रों की बिक्री हजारों तक होने लगी।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पत्रकारिता के उद्देश्य
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विभिन्न विषयों पर केन्द्रित पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित हुईं। भारत की पुरातन सभ्यता, संस्कृति और साहित्य की जानकारी के लिए 1784 ई. में सर विलियम जॉन्स ने कलकत्ते में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। 1832 ई. में जेम्स प्रिंसेप के सम्पादकत्व में जर्नल ऑफ द् रायल सोसायटी ऑफ बंगाल प्रकाशित होने लगा। इसमें वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक विषयों से सम्बन्धित लेख छपा करते थे। मद्रास में भी एशियाटिक सोसायटी की शाखा मद्रास लिट्रेरी सोसायटी के अन्तर्गत जर्नल ऑफ लिटरेचर एण्ड साइन्स का प्रकाशन हुआ। इसी प्रकार 1843 ई. में देवेन्द्रनाथ टैगौर द्वारा प्रकाशित तत्त्वबोधिनी-पत्रिका आरम्भ हुई। यह पहली पत्रिका थी जिसमें भारतीय भाषा और देवनागरी लिपि में वैज्ञानिक तथा अन्य विषयों पर लेख प्रकाशित होते थे।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के समाचार पत्रों का उद्देश्य पढ़े-लिखे लोगों को नई बातों की जानकारी देना तथा जनहित के समाचार देना था। वे राजनीतिक जागृति अथवा जन-अधिकार की बातों दूर रहे। नयी चेतना के अग्रदूत राजा राममोहन राय ने भी अपने पत्र मिरात्-उल-अखबार में यह विचार प्रकट किया कि उनका उद्देश्य ऐसे लेखों को प्रकाशित करना है जिससे लोगों का अनुमान बढ़ सके तथा समाज सुधार किया जा सके। शासक वर्ग के सामने ऐसी जानकारी रखी जा सके जिससे वे जनता को सरंक्षण तथा राहत दे सकें। भारतीय समाचार पत्रों ने आरम्भ से ही ऐसी भूमिका तैयार कर दी जिसके आधार पर भारतीयों की समस्याओं को समाचार पत्रों में प्रमुख स्थान मिलने लगा। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इन समस्याओं में राजनीतिक अधिकार और संवैधनिक सुधारों की मांगें भी सम्मिलित हो गईं।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय पत्रकारिता में दो वर्ग थे- (1.) प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा संचालित पत्र और (2.) एंग्लो-इण्डियन अथवा अँग्रेजों द्वारा चलाये जाने वाले समचार पत्र।
(1.) भारतीयों द्वारा संचालित पत्र: उस युग में प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले समाचार पत्र शिक्षित जनता में आदर पाते रहे। उस समय साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम था तथा समाचार पत्रों के प्रकाशन में कई बाधाएं होती थीं। कुछ ही धनी भारतीय व्यक्तियों की रुचि समाचार पत्रों के प्रकाशनों की ओर थी। इस कारण बहुत कम संख्या में समाचार पत्र प्रकाशित होते थे। उनकी प्रतियाँ भी बहुत कम होती थीं। फिर भी, इन समाचार पत्रों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया।
(2.) एंग्लो-इण्डियन अथवा अँग्रेजों द्वारा चलाये जाने वाले समचार पत्र: उस युग के अधिकांश समाचार पत्र अँग्रेजों द्वारा संचालित थे, वे सामान्यतः भारत-विरोधी विचारों के प्रतीक बने रहे। उनकी दृष्टि में भारतीयों को किसी प्रकार के अधिकार एवं सुविधा देना उचित नहीं था। इन पत्रों ने उन अँग्रेज शासकों की कटु आलोचना की जिन्होंने भारतीयों के न्याय सम्मत अधिकारों का समर्थन किया। जब लॉर्ड विलियम बैटिंक ने सुझाव दिया कि भारतीयों को भी कम्पनी प्रशासन में उच्च पदांे पर नियुक्त किया जाना चाहिए तो इस वर्ग के समाचार पत्रों ने गवर्नर जनरल की कटु आलोचना की। अधिकांश अँग्रेज अधिकारी इस प्रकार के समाचार पत्रों में व्यक्त विचारों से प्रभावित होते रहे।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पत्रकारिता के उद्देश्य
उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में भारतीय पत्रकारिता ने राजनीति को अपना मुख्य विषय बना लिया और उनका ध्यान संवैधानिक विकास पर केन्द्रित होने लगा। 1853 ई. में हिन्दू पैट्रियट के सम्पादक हरिशचन्द्र मुकर्जी ने अपने समाचार पत्र के उद्देश्यों के बारे में लिखा- ‘लोग अब 1853 ई. के चार्टर एक्ट के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने लगे हैं। अतः एक ऐसे माध्यम की अत्यन्त आवश्यकता है, जो भारतीयों द्वारा संचालित हो और जिसके द्वारा उदार तथा प्रबुद्ध सिद्धान्तों का प्रचार किया जा सके। इस दिशा में हिन्दू पैट्रियट अग्रणी हो सकेगा और जनता के अधिकारों तथा संवैधानिक सुधारों की दिशा में भविष्य में कार्य कर सकेगा।’
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का सोम प्रकाश भी उसी अवधि में प्रकाशित हुआ जो जन अधिकारों का प्रबल समर्थक था।