Thursday, November 21, 2024
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27. जावा द्वीप पर पांच दिन

जावा द्वीप पर पहला दिन

जैसा कि मैं पहले ही लिख चुका हूं कि हमने एक वैबसाइट के माध्यम से योग्यकार्ता में एक सर्विस अपार्टमेंट बुक करवा रखा था। यह मासप्रियो नामक मुस्लिम शिक्षक का फ्लैट था। उसने हमें भरोसा दिलाया कि हम उसके द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे दो कमरों और एक रसोई के सर्विस अपार्टमेंट में अपना प्रवास आनंददायक रूप से व्यतीत कर सकेंगे। यहाँ तक कि मासप्रियो की पत्नी ने भरोसा दिलाया कि वे हमारे लिए शाकाहारी भोजन बना देंगी। इस परिवार से हमारी यह सारी बातचीत ऑनलाइन हुई थी। हमने उन्हें भोजन बनाने के लिए मना कर दिया था क्योंकि हमारी संतुष्टि भारतीय प्रकार के भोजन से ही होने वाली थी। इम इस बात से आशंकित भी थे कि हर देश में शाकाहारी होने की परिभाषा बिल्कुल अलग है। जो भी हो, वैबसाइट पर उपलब्ध चित्रों के आधार पर हमने यह सर्विस अपार्टमेंट बुक कर लिया। सर्विस अपार्टमेंट के मालिक मि. मासप्रियो ने हमारे लिए एक ड्राइवर का प्रबंध किया जो हमें योग्यकार्ता एयरपोर्ट पर लेने के लिए आने वाला था। एयरपोर्ट से सर्विस अपार्टमेंट तक की टैक्सी के लिए 750 भारतीय रुपए भाड़ा बताया गया था, जो हमें ठीक ही लगा।

मि. अन्तो से भेंट

हमारी आशा के अनुरुप मि. मासप्रियो द्वारा भेजा गया ड्राइवर एयरपोर्ट के बाहर विजय के नाम की कागज की पट्टी लेकर खड़ा था। यह एक गोरे रंग और मंझले कद का हंसमुख युवक था। उसने बड़ी आत्मीयता से हमारा स्वागत किया तथा भारतीयों की तरह दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते कहा। इस अभिवादन का जादू हमें विदेशी धरती पर जाकर ही ज्ञात हुआ। जैसे ही कोई इण्डोनेशियन व्यक्ति हाथ जोड़कर अभिवादन करता तो हमारे और उसके बीच की आधी दूरी उसी समय समाप्त हो जाती। ड्राइवर ने हमें अपना नाम अन्तो बताया तथा हम सबसे भी हमारे नाम पूछे। मुझे अनुमान है कि उसने उसी समय हमारे नाम याद भी कर लिए क्योंकि कुछ समय बाद उसने मुझे मि. मोहन कहकर सम्बोधित किया। उसके बाद मैंने भी उसे मि. अन्तो कहकर ही सम्बोधित किया। मैंने नोट किया कि जब भी मैं उसे मि. अन्तो कहता था तो उसके चेहरे पर विशेष प्रकार की मुस्कान आती थी। मि. अन्तो ने हमारे सामान को अपनी गाड़ी में जमाया। उसकी गाड़ी भी मि. पुतु की गाड़ी की तरह काफी बड़ी थी और हम अपने परिवार तथा सामान सहित मजे से उसमें बैठ गए।

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आई एम सॉरी

अभी गाड़ी कुछ मीटर ही सरकी होगी कि मि. अन्तो ने आगे की सीट पर बैठे पिताजी से कहा- ‘आई एम सॉरी, सीट बैल्ट प्लीज!’ पिताजी ने भी उससे क्षमा मांगते हुए सीट बैल्ट लगाई। बाद में ज्ञात हुआ कि कुछ भी बोलने से पहले ‘आईएम सॉरी’ तथा बात के अंत में थैंक्यू कहना उसकी आदत थी। आगे चलकर हमें उसकी कुछ और अच्छी आदतें मालू हुईं। गाड़ी रोकते ही वह नीचे उतर कर कार का दरवाजा खोलता था और गाड़ी चलाने से पहले वह स्वयं सारे दरवाजे जांचता था कि वे बंद हुए हैं या नहीं। इस कार्य में वह बहुत ही कम समय लगाता था। उसकी एक अच्छी आदत यह भी थी कि जहाँ कहीं जरूरी होता था, वह हमें मार्ग में पड़ने वाले स्थान के नाम अथवा उसकी विशेषता के बारे में संक्षेप में अवश्य बताता था।

योग्यकार्ता की चमचमाहट

जब मि. अन्तो की गाड़ी एयरपोर्ट से बाहर निकलकर योग्यकार्ता की सड़कों पर फर्राटे भरने लगी तो हम इस नगर की चमक-दमक देखकर दंग रह गए। यह पूना जैसा एक बड़ा एवं आधुनिक शहर है। सड़कंे काफी चौड़ी हैं जो डिवाइडर के  माध्यम से दो प्रमुख हिस्सों में बंटी हुई हैं। प्रत्येक हिस्सा पुनः दो हिस्सों में बंटा हुआ है, बाईं ओर का हिस्सा दो पहिया वाहनों के लिए और दायीं ओर का हिस्सा चार पहिया वाहनों के लिए। इस व्यवस्था से वाहन तेजी से चल पा रहे थे और सड़क पर हॉर्न बजाने की नौबत ही नहीं आती थी। बीच-बीच में लालबत्ती पर जेबरा क्रॉसिंग की व्यस्था थी जहाँ से पैदल यात्री आसानी से आ-जा रहे थे। पूरी सड़क एकदम साफ-सुथरी, कहीं कोई भिखारी नहीं। चौराहों पर खड़े होकर सामान बेचने वाले अवांछित वैण्डर्स तक नहीं। सड़क के दोनों ओर भव्य बाजार था जिसका सिलसिला काफी देर तक चलता रहा। इस क्षेत्र में बड़े मॉल और भव्य दुकानों की संख्या का कोई अंत नहीं था। लगभग आधा-पौन घण्टे तक योग्यकार्ता की सड़कों पर चलने के बाद हम समझ गए कि बाली और योग्यकार्ता में कोई समानता नहीं है। बाली की शांत और सीधी-सरल जिंदगी, योग्यकार्ता के चमक भरे आकर्षण से बिल्कुल अलग है। योग्यकार्ता की तुलना में बाली को साफ-सुथरा और सभ्य देहात ही कहा जा सकता है। हालांकि वहाँ भी कुता जैसे शहर हैं, किंतु वे योग्यकार्ता की तुलना में काफी छोटे हैं।

मॉल की चमक-दमक और लड़कियों का शानदार व्यवहार

हमने मि. अन्तो से अनुरोध किया कि किसी शॉप से हमें दूध एवं सब्जियां खरीदनी हैं तो वह हमें एक मॉल में ले गया। मैं और विजय मॉल के भीतर गए। परिवार के शेष सदस्य गाड़ी में बैठे रहे। इस मॉल की संसार के किसी भी भव्य मॉल से तुलना की जा सकती थी। कांच और प्रकाश के घालमेल से बना हुआ एक अनोखा और चमचमाता संसार ही था वह। हमने वहाँ कुछ लोगों से बात करने का प्रयास किया ताकि हम पता कर सकें कि हमें दूध और सब्जियां किस हिस्से में अथवा किस मंजिल पर मिलेंगी किंतु हमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो अंग्रेजी जानता हो। वहाँ रोमन लिपि में इण्डोनेशियाई भाषा लिखी हुई थी जिसे समझना संभव नहीं था। इसलिए हमने अपने विवेक से ही दूध और सब्जियां तलाशने का निर्णय लिया। हमें शीघ्र ही एक मंजिल पर फल एवं सब्जियां दिखाई दीं।

यहाँ दुनिया के बहुत से देशों से आई हुई सब्जियां रखी थीं। कितनी तरह की प्याज या कितने तरह के आलू या कितने तरह के सेब या कितने तरह के टमाटर थे, कहा नहीं जा सकता। केले, तरबूजे और खरबूजे भी कई प्रकार के थे। यहीं से हमें दूध के बंद डिब्बे भी मिल गए।

हम इन जिंसों का भुगतान करने के लिए पेमेंट काउंटर पर गए तो हमें हर काउण्टर पर 18-20 साल की लड़कियां काम करती हुई दिखाई दीं। सभी के कान और सिरों पर स्कार्फ बंधे हुए थे। सभी के हाथ तेजी से काम करते थे। वे आनन-फानन में ग्राहक से भुगतान लेकर उसे निबटा देती थीं ताकि उसका समय खराब न हो। उन्होंने हमें देखते ही पहचान लिया कि ये भारतीय हैं, अतः हाथ जोड़कर हमें नमस्ते कहा और मुस्कुराकर हमारा स्वागत किया। बड़ी फुर्ती से उन्होंने हमारे सामान का बिल बनाया और हमसे भुगतान लेकर बचे हुए रुपए लौटाए। क्या भारत में इस प्रकार की शालीनता और तेजी से काम नहीं हो सकता, मैंने स्वयं से प्रश्न किया!

यह एक विशाल मॉल था। चारों तरफ ग्राहक थे किंतु भीड़-भड़क्का कहीं भी नहीं था। किसी प्रकार की कोई चिल्ल-पौं, धक्का-मुक्की, बेचैनी, भागमभाग, बदतमीजी, काम में ढिलाई, कुछ भी तो ऐसा नहीं कि इन लड़कियों के काम में कोई कमी निकाली जा सके। बहुत कम स्टॉल्स पर हमने नौजवान लड़कों को खड़े हुए देखा, वहाँ 90 प्रतिशत अथवा उससे अधिक संख्या में लड़कियां ही काम कर रही थीं।

निश्चित रूप से इण्डोनेशिया एक मुस्लिम देश है, इस देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमान है। इस पर भी भारत संसार के समक्ष यह दावा बार-बार दोहराता है कि संसार के सर्वाधिक मुसलमान हमारे यहाँ रहते हैं किंतु दोनों देशों के मुसलमानों में कितना अंतर है! भारत के मुसलमान अपनी गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन और जनसंख्या वृद्धि के लिए जाने जाते हैं। भारत की मुस्लिम औरतें अभी तक बुरका और तीन तलाक में उलझी हुई हैं किंतु इण्डोनेशिया की मुस्लिम लड़कियों ने संसार के समक्ष सिद्ध कर दिया है कि उनके बराबर शालीन और सभ्य व्यवहार किसी देश की औरतें नहीं कर सकती हैं। वे हर कार्य को धैर्य, शांति और कौशलपूर्ण ढंग से निबटाती हैं।

आवासीय बस्तियों की चमक-दमक

मॉल से निकलकर हम पुनः पार्किंग में खड़ी मि. अन्तो की गाड़ी तक आए और गाड़ी फिर से चल पड़ी। एयरपोर्ट से लगभग एक घण्टा चलने के बाद बाजार का सिलसिला समाप्त हो गया और आवासीय बस्तियां आरम्भ हुई। यहाँ दुकानों की संख्या इक्का-दुक्का रह गई। आवासीय क्षेत्र में आलीशान कोठियों की कोई कमी नहीं थी। एक से बढ़कर एक भवन।

उजाड़ बस्ती में

हमें चलते हुए लगभग एक घण्टा हो गया था। अंत में आवासीय बस्तियों का यह चमकदार सिलसिला भी समाप्त हो गया और मि. अन्तो की गाड़ी एक ऐसी सड़क पर मुड़ गई जहाँ से एक उजाड़ सी बस्ती आरम्भ होती थी। गाड़ी को इस सड़क पर मुड़ते देखकर हमारा माथ ठनका। यहाँ हरे रंग के पुते हुए छोटे-छोटे घर थे जिनके सामने मुर्गे दौड़ लगाते हुए दिखाई दिए। एक मस्जिद से लाउड स्पीकर पर अजान की आवाज आ रही थी। शीघ्र ही मि. अंतो की गाड़ी लोहे के एक बंद गेट के सामने रुक गई। यह वही दरवाजा था जिसका चित्र हमने वैबसाईट पर देखा था। बाहर से हालात अच्छे नहीं लगे किंतु हमने गाड़ी से सामान उतारना आरम्भ किया।

सच्चाई से सामना होने पर हमारे होश उड़े

गेट के भीतर दस फुट लम्बा और तीन फुट चौड़ा एक संकरा सा प्लेटफार्म नुमा मार्ग, भवन मुख्य कक्षों तक जाता था। इस मार्ग के दोनों तरफ पानी का एक विशाल हौद था जिसमें काले रंग का गंदा पानी दिखाई दे रहा था। डेड़ वर्ष की दीपा इस हौद में कभी भी गिर सकती थी। हर समय-भागम-भाग मचाए रहने वाली दीपा को तो हर समय पकड़ कर भी नहीं रखा जा सकता। कभी तो आदमी का ध्यान चूकेगा ही!

कमरों की हालत और भी खराब थी। कमरों की छतों पर पंखे, एयरकण्डीशनर कुछ भी नहीं। दरवाजे टूटे हुए थे जिन पर लगी छोटी-छोटी कीलें, दरवाजों पर हाथ रखते ही चुभती थीं। दोनों कमरों में एक-एक टैबल फैन रखा था जिनमें से कठिनाई से ही हवा निकल रही थी। दोनों कमरों में एक-एक छोटी सीएफएल लटक रही थी जिनमें से बहुत कम उजाला फर्श तक पहुंच पा रहा था। वॉशबेसिन पर टोंटी नहीं थी और टॉयलेट की व्यवस्थाएं इतनी खराब थीं कि हमारा कलेजा कांप गया। दानों टॉयलेट में मल-त्याग के पश्चात् प्रक्षालन की व्यवस्था नहीं थी। एक कमरे के टॉयलेट में दरवाजे के स्थान पर पर्दा टंगा हुआ था। टॉयलेटों की दीवार में एक-एक घुण्डी लगी थी जिसे घुमाने पर छत के पास टंगे एक फव्वारे से पानी आता था। कैसे रहा जाएगा यहाँ, हममें से हर कोई अपने आप से यही सवाल कर रहा था।

रसोई का पता किया तो ज्ञात हुआ कि वह अगले घर में है जहाँ मकान मालिक का भी भोजन बनता था। रसोई का फ्रिज खोला तो उसमें कटी हुई मछलियां और चिकन रखा था। मधु ने हाथ खड़े कर दिये कि वह उस रसोईघर में जाकर भोजन नहीं बनाएगी जहाँ पहले से ही फिश और चिकन रखा हुआ है। हमारे लिए भी यह संभव नहीं था कि हम वहाँ तैयार किया गया भोजन ग्रहण कर लें!

इस व्यवस्था को देखते-समझते शाम के साढ़े पांच बजे से ऊपर का समय हो गया। हाथों-हाथ पदरेश में दूसरा सर्विस अपार्टमेंट ढूंढना संभव नहीं था। होटल में जाना इसलिए संभव नहीं था कि वहाँ भोजन तैयार करने की सुविधा नहीं होगी। हमने मकान मालिक से पूछा कि क्या आसपास और कोई दूसरा अपार्टमेंट मिल सकता है जो अधिक सुविधाजनक हो! मि. मासप्रियो ने स्पष्ट मना कर दिया। हमने मि. अन्तो से पूछा, उसने भी कहा कि वह किसी होटल में तो ले जा सकता है किंतु किसी सर्विस अपार्टमेंट के बारे में नहीं जानता।

चूंकि योग्यकार्ता का समय बाली के समय से एक घण्टा पीछे था जबकि वास्तविक दूरी केवल 502 किलोमीटर ही थी, इसिलिए यहाँ अंधेरा बहुत जल्दी हो गया था। अफरा-तफरी करने से कुछ नहीं होने वाला था। इसलिए हमने धैर्य से काम लेने का निश्चय किया। मि. मासप्रियो से अनुरोध किया गया कि वह एक गैस और चूल्हे का प्रबंध हमारे कक्षों के सामने के संकरे से बरामदे में कर दे, लकड़ी की एक टेबल लगा दे और बाजार से आरओ वाटर की बीस लीटर की बोतल मंगवा दे ताकि हम अपना भोजन इस बरामदे में तैयार कर सकें। हमारी दशा देखकर मि. मासप्रियो को हम पर दया आ गई। उसने हमारी ये मांगें पूरी कर दीं।

मुसीबत पर मुसीबत

इधर तो मधु और भानु चाय तथा भोजन तैयार करने में जुटीं और उधर मैं और विजय इण्टरनेट के माध्यम से अगले तीन दिनों के लिए कोई अन्य सर्विस अपार्टमेंट बुक करवाने में जुटे। यहाँ भी एक संकट खड़ा हो गया। कमरों के भीतर वाई-फाई की कनैक्टिविटी नहीं मिल रही थी और कमरे के बाहर लैपटॉप नहीं चल पा रहा था क्योंकि थोड़ी देर चलने के बाद लैपटॉप की बैटरी डिस्चार्ज हो गई। बरामदे में कोई इलेक्ट्रिक सॉकेट नहीं था जहाँ से लैपटॉप जुड़ सकता था। हम लगभग तीन घण्टे तक प्रयास करते रहे, जैसे-तैसे हमने एक सर्विस अपार्टमेंट चुन तो लिया किंतु उसकी बुकिंग नहीं हो पाई क्योंकि वाईफाई की लो-कनैक्टिविटी के कारण हमारे पासपोर्ट की स्कैन कॉपी वैबसाईट तक नहीं पहुंच पा रही थी।

सुषमा ने किया समाधान

विजय ने अपनी छोटी बहिन सुषमा से सम्पर्क कर उसे अपनी समस्या बताई। इन्फोसिस में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम कर रही सुषमा वैसे तो चण्डीगढ़ रहती है किंतु इस दिन वह अपने ससुराल नई दिल्ली आई हुई थी। सुषमा के पति अर्थात् मेरे जामता उस दिन अपनी कम्पनी के काम से कतर थे। सुषमा ने दिल्ली से हमारे लिए उसी सर्विस अपार्टमेंट की बुकिंग करवा दी जो हमने वैबसाइट पर देखकर चुना था। इसका चैक-इन टाइम दिन में दो बजे के बाद का था किंतु हम वहाँ प्रातःकाल में शिफ्ट हो जाना चाहते थे। इसलिए विजय ने सर्विस अपार्टमेंट की मालकिन मिस रोजोविता से सम्पर्क किया तथा उसे अपनी समस्या बताई। मिस रोजोविता ने कहा कि अपार्टमेंट की सफाई करवाने में समय लगेगा। इसलिए हम प्रातः 8 बजे नहीं अपितु प्रातः 11 बजे आ सकते हैं।

मुर्गे बोलते रहे, मुल्ले बांग देते रहे और मच्छर काटते रहे

जैसे-तैसे भोजन करके हम लोग सोए। रात निकालनी तो कठिन थी किंतु मन में इस बात से शांति भी थी कि केवल एक रात की ही बात है। हम तकलीफ सहन कर सकते थे किंतु गंदगी में बना भोजन, मांस-मछली की गंध और टॉयलेट में मलत्याग के पश्चात् शरीर को साफ करने की व्यवस्था के अभाव की स्थिति को सहन करने में सक्षम नहीं थे। दोनों कमरों के पंखों में से पूरी रात हवा नहीं निकली। गंदे पानी के हौद के कारण मच्छर बड़ी संख्या में मौजूद थे और पूरी रात हिन्दुस्तानी खून की दावत उड़ाते रहे। हर थोड़ी देर में गली में उपस्थित कोई न कोई मुर्गा बांग देता रहा और थोड़ी थोड़ी देर में पास की किसी मस्जिद से मुल्ला द्वारा दी जा रही अजान की आवाज गूंजती रही। नींद का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था। यह कैसी रात थी! मैंने कुछ रातें भारत-पाक सीमा पर पूरी-पूरी रात जीप में यात्रा करते हुए भी बिताई हैं, किंतु ऐसी खराब अनुभूति तो तब भी नहीं हुई।

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