Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 28 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का चतुर्थ चरण (1901-19 ई.)

1901 ई. में लॉर्ड कर्जन के समय में भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का चौथा चरण आरम्भ हुआ। कर्जन ने 1 सितम्बर 1901 को शिमला में समस्त प्रांतों के उच्च शिक्षा अधिकारियों एवं विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधियों का एक गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जिसमें कर्जन ने भारतीय शिक्षा की प्रगति पर असंतोष व्यक्त किया। इस सम्मेलन में शिक्षा से जुड़े विविध मुद्दों के सम्बन्ध में लगभग 150 प्रस्ताव पारित किये गये जिन्हें यथा संभव शीघ्र लागू करने का संकल्प व्यक्त किया गया। 27 जनवरी 1902 को कर्जन ने अपनी कौंसिल के विधि सदस्य सर थॉमस रैले की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग का गठन किया जिसे विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने के लिये योजना प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया। रैले आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 पारित किया गया। इस अधिनियम में विश्वविद्यालयों के संचालन से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रावधान रखे गये-

(1.) विश्वविद्यालयों की प्रबंध अथवा कार्यकारी संस्थाओं में सीनेट को महत्त्व दिया गया। सीनेट के सदस्यों की न्यूनतम संख्या 50 तथा अधिकतम संख्या 100 निश्चित कर दी गई। सीनेट में चुने हुए सदस्यों की संख्या 20 रखी गई। अधिकांश सदस्यों को सरकार द्वारा नामित करने का प्रावधान रखा गया। सीनेट के सदस्यों का अधिकतम कार्यकाल आजीवन से घटाकर 6 साल कर दिया गया ।

(2.) विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया गया। सीनेट द्वारा पारित प्रस्तावों को सरकार की सहमति के पश्चात् ही लागू करने का नियम बनाया गया। सरकार को सीनेट द्वारा बनाये गये नियमों को बदलने तथा नये नियम बनाने का अधिकार दिया गया।

(3.) विश्वविद्यालयों के कार्यों का विस्तार किया गया। उन्हें अध्यापन एवं शोध करवाने का कार्य सौंपा गया। साथ ही प्रोफेसर एवं व्याख्याता नियुक्त करने, प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय स्थापित करने के लिये अधिकृत किया गया।

(4.) महाविद्यालयों को स्नातक स्तर की शिक्षा सौंपी गई। निजी महाविद्यालयों पर विश्वविद्यालयों का नियंत्रण स्थापित किया गया।

(5.) विश्वविद्यालयों की सीनेटों को परीक्षा, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक आदि का उचित स्तर बनाने का दायित्व दिया गया।

(6.) विश्वविद्यालयों की सिण्टीकेट्स को वैधानिक मान्यता दी गई एवं उनमें अध्यापकों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया।

(7.) विश्वविद्यालयों का अधिकार-क्षेत्र एवं महाविद्यालायों की विश्वविद्यालयों के साथ मान्यता व सम्बद्धता तय करने की शक्ति गवर्नर जनरल इन कौंसिल को दी गई।

विश्वविद्यालय अधिनियम की आलोचना

1904 ई. के विश्वविद्यालय अधिनियम की भारतीय नेताओं द्वारा भर्त्सना की गई। यह आरोप लगाया गया कि कर्जन ने विश्वविद्यालयों को सरकारी विभाग बना दिया। विश्वविद्यालयों का सरकारीकरण करके महाविद्यालयी शिक्षा में प्रयत्नशील निजी क्षेत्र के भारतीय प्रयासों को हतोत्साहित करने का षड़यंत्र किया गया।

1913 ई. का प्रस्ताव

आधुनिक शिक्षा के विस्तार की दिशा में 1913 ई. का सरकारी प्रस्ताव महत्वपूर्ण विकास था। 21 फरवरी 1913 को एक प्रस्ताव द्वारा भारत सरकार ने अशिक्षा को समाप्त करने की नीति स्वीकृत की। इसमें प्रांतीय सरकारों से, अधिक निर्धन, दलित एवं पिछड़ों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने हेतु शीघ्र कदम उठाने के निर्देश दिये गये। माध्यमिक शिक्षा के संदर्भ में इस प्रस्ताव में स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने पर जोर दिया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि प्रत्येक प्रांत में एक विश्वविद्यालय स्थापित किया करने; पटना, नागपुर एवं रंगून में सम्बद्धता विश्वविद्यालय तथा अलीगढ़, ढाका एवं बनारस में अध्यापन विश्वविद्यालय खोलने की अनुशंसा की गई।

सैडलर आयोग 1917

1917 ई. में भारत सरकार ने इंग्लैण्ड के लीड्स विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एम. ई. सैडलर की अध्यक्षता में कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओं के अध्ययन एवं निवारण हेतु सुझाव प्रस्तुत करने के लिये आयोग की स्थापना की। इसमें भारतीय सदस्य सर आशुतोष मुखर्जी एवं डॉ. जिआउद्दीन अहमद सम्मिलित किये गये। सैडलर आयोग ने विद्यालयी शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा पर विचार किया। सैडलर आयोग ने माना कि विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार के लिये माध्यमिक शिक्षा में सुधार लाना आवश्यक है। इस आयोग के सुझाव समस्त विश्वविद्यालयों पर लागू करने योग्य थे। आयोग द्वारा दी गई प्रमुख अनुशंसाएँ इस प्रकार से थीं-

(1.) इण्टरमीडियेट स्तर तक की शिक्षा, विद्यालयी शिक्षा का अंग हो तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश मैट्रिकुलेशन के स्थान पर इण्टरमीडियेट के पश्चात् मिले।

(2.) विश्वविद्यालयों को मैट्रिकुलेशन एवं इण्टरमीडियेट स्तर की परीक्षाओं के भार से मुक्त करके माध्यमिक एवं इण्टरमीडियेट शिक्षा बोर्ड गठित किया जाये।

(3.) इण्टरमीडियेट के पश्चात् स्नातक उपाधि का पाठ्यक्रम तीन वर्ष की अवधि का हो। मेधावी विद्यार्थियों के लिये पास-कोर्स से भिन्न ऑनर्स-कोर्स का प्रावधान किया जाये।

(4.) कलकत्ता विश्वविद्यालय को वास्तविक अध्यापन विश्वविद्यालय बनाने के लिये पूर्णकालिक प्रोफसरों एवं व्याख्याताओं की नियुक्ति की जाये।

(5.) विश्वविद्यालय स्तर पर स्त्री शिक्षा के विस्तार हेतु कलकत्ता विश्वविद्यालय में विशेष महिला शिक्षा बोर्ड स्थापित किया जाये।

(6.) कलकत्ता विश्वविद्यालय का नियंत्रण भारत सरकार के स्थान पर बंगाल सरकार को स्थानांतरित किया जाये।

पाश्चात्य शिक्षा के विकास का पांचवा चरण (1919-47 ई.)

द्वैध शासन के अंतर्गत शिक्षा (1919-1937 ई.)

1919 के मोंटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार एक्ट के अंतर्गत प्रांतीय सरकारों को शिक्षा विभाग हस्तांतरित किये गये। केन्द्र में शिक्षा का नियंत्रण केन्द्र सरकार के पास था। इस प्रकार शिक्षा का विषय, प्रांतीय सरकार एवं केन्द्रीय सरकार दोनों के पास होने से शिक्षा नीति में द्वैधता उत्पन्न हो गई। मोंटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार एक्ट लागू होने के बाद केन्द्र सरकार द्वारा प्रांतों को शिक्षा के लिये दिया जाने वाला अनुदान बंद कर दिया गया। इससे प्रांतीय सरकारों को आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। इस काल में स्वयं सेवी संस्थाओं ने प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा को आगे बढ़ाया। 1929 ई. में सरकार ने हार्टोंग समिति को शिक्षा पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये कहा। समिति ने अपने प्रतिवेदन में तीन प्रमुख बातें कहीं-

(1.) प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना महत्त्वपूर्ण है किंतु इसके विस्तार में जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिये। उसे अनिवार्य भी नहीं बनाया जाना चाहिये।

(2.) विश्वविद्यालयों में योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाये। इसलिये मिडिल के बाद अधिकांश छात्रों को रोजगारोन्मुख शिक्षा में भेजा जाना चाहिये।

(3.) विश्वविद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट का कारण विद्यार्थियों को बिना चयन प्रवेश देना है। विश्वविद्यालय में प्रवेश केवल योग्य छात्रों को दिया जाना चाहिये।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारतीय शिक्षा (1939-1945 ई.)

1939-1945 ई. तक द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। 1944 ई. में भारतीय असंतोष को शांत करने के उद्देश्य से सरकार ने अपने शैक्षणिक सलाहकार सर जॉन सरजेण्ट से एक शिक्षा योजना तैयार करवाई जिसे सरजेण्ट योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना में 6 से 11 वर्ष के बच्चों को सार्वभौम, व्यापक, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान किया गया। इस योजना में दो तरह के हाई-स्कूलों का प्रावधान रखा गया प्रथम सैद्धांतिक एवं साहित्यिक तथा दूसरे तकनीकी अथवा रोजगार परक। विद्यालयों का संचालन सरकारी धन से किये जाने की व्यवस्था का अनुमोदन किया गया। यह अनुमान लगाया गया कि इस कार्य पर प्रतिवर्ष लगभग 200 करोड़ रुपये व्यय होंगे एवं यह योजना 40 वर्षों में कार्यान्वित होगी। देश में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन के कारण यह योजना कार्यान्वित नहीं हो सकी।

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