प्रथम गोल मेज सम्मेलन
लॉर्ड इरविन की घोषणा के परिप्रेक्ष्य में ई.1930 में ब्रिटिश सरकार ने लन्दन में पहला गोलमेज सम्मेलन बुलाया। 12 नवम्बर 1930 को ब्रिटिश सम्राट ने इसका उद्घाटन किया। सम्मेलन की वास्तविक कार्यवाही 17 नवम्बर से आरम्भ हुई। सम्मेलन की अध्यक्षता इंगलैण्ड के प्रधानमंत्री रेम्जे मैक्डोनल्ड ने की। सम्मेलन में 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिनमें से 16 प्रतिनिधि भारत की देशी रियासतों से तथा 57 प्रतिनिधि ब्रिटिश भारत से थे जिन्हें गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किया गया था। शेष 16 प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार तथा इंगलैण्ड के दोनों सदनों में विपक्ष के सदस्य थे। भारतीय प्रतिनिधियों में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, हरिजन, व्यापारी, जमींदार, श्रमिक आदि समस्त वर्गों का प्रतिनिधित्व था किंतु भारत के सर्वप्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया क्योंकि कांग्रेस 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित कर चुकी थी इसलिये वह ब्रिटिश सरकार द्वारा बुलाये गये ऐसे किसी भी सम्मेलन में भाग कैसे ले सकती थी जिसमें केवल औपनिवेशिक राज्य की बात की जाने वाली हो!
सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रमुख नेताओं में सर तेजबहादुर सप्रू, एम. ए. जयकर, श्रीनिवास शास्त्री, सी. वाई. चिंतामणि, मुहम्मद अली जिन्ना तथा भीमराव अम्बेडकर थे। भारतीय रियासतों से 16 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए जिनमें बीकानेर नरेश गंगासिंह, अलवर नरेश जयसिंह, बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ (तृतीय) के साथ-साथ धौलपुर, पटियाला, कश्मीर, इंदौर, रीवा, नवानगर, कोड़िया, सांगली तथा सारिली के राजा, भोपाल के नवाब तथा हैदराबाद, ग्वालिअर व मैसूर राज्यों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। सम्मेलन 19 जनवरी 1931 तक चला। सम्मेलन में सर तेज बहादुर सप्रू ने भारतीय संघ के निर्माण का प्रस्ताव किया। सप्रू ने कहा कि मैं संघीय प्रकार वाली सरकार में अत्यंत मजबूती से विश्वास करता हूँ। मेरा विश्वास है कि इसमें भारत की समस्याओं का हल तथा भारत की मुक्ति विद्यमान है। उन्होंने ब्रिटिश भारत के साथ भारतीय राज्यों के सहबंधन की वकालात करते हुए कहा कि इससे भारत की एकता तथा स्थायित्व की प्राप्ति होगी।
मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि मुहम्मद अली जिन्ना तथा मुहम्मद शफी ने सप्रू द्वारा प्रस्तावित संघीय भारत ;थ्मकमतंस प्दकपंद्ध के निर्माण की मांग का स्वागत किया। बीकानेर नरेश गंगासिंह द्वारा इस प्रस्ताव का बड़े उत्साह से समर्थन किया गया। उन्होंने मांग की कि भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासित राज्य का दर्जा दिया जाये तथा ब्रिटिश भारत व भारतीय रियासतों का एक संघ बनाया जाये किंतु उन्होंने कुछ शर्तें भी रखीं। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त यह थी कि सम्राट के साथ राजाओं के समझौते के अधिकारों को माना जाये और उनकी इच्छा के बिना उन्हें बदला न जाये। भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ ने कहा कि हम केवल स्वयं शासित संघीय ब्रिटिश भारत के साथ संघ बना सकते हैं। सम्मेलन में मुहम्मद अली जिन्ना और डॉ. भीमराव अम्बेडकर में तीव्र मतभेद हो गये इस कारण भारत में संघीय सरकार के निर्माण के विषय पर कोई निर्णय नहीं हो सका।
गांधी इरविन पैक्ट
प्रथम गोल मेज सम्मेलन में वायसराय इरविन को अनुभव हो गया कि भारत की समस्या को कांग्रेस के सहयोग के बिना हल नहीं किया जा सकता। अतः 26 जनवरी 1931 को गांधीजी और कांग्रेस कार्यसमिति के समस्त सदस्य रिहा कर दिये गये। तेजबहादुर सप्रू और जयकर के प्रयत्नों से 17 फरवरी 1931 को दिल्ली में गांधीजी एवं वायसराय इरविन के बीच वार्त्ता आरम्भ हुई। 5 मार्च 1931 को दोनों पक्षों में एक समझौता हुआ जिसे गांधी-इरविन पैक्ट अथवा दिल्ली पैक्ट कहा जाता है। इस पैक्ट की मुख्य बातें इस प्रकार से थीं-
(1.) कांग्रेस सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापिस लेगी। आंदोलन के अंतर्गत किये जा रहे समस्त कार्यक्रम यथा- मालगुजारी न देने के लिए चलाया जा रहा आन्दोलन, सरकारी कार्यक्रमों के बहिष्कार आदि रोक दिये जायेंगे।
(2.) कांग्रेस द्वारा ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार, राजनीतिक हथियार के रूप में नहीं किया जायेगा।
(3.) मद्यपान रोकने हेतु धरना जारी रह सकेगा किंतु इसके माध्यम से सरकार पर दबाव नहीं डाला जायेगा।
(4.) कांग्रेस के प्रतिनिधि, संवैधानिक प्रगति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेंगे।
(5.) देश में संवैधानिक सम्बन्धों की संस्थापना हेतु गोलमेज सम्मेलन में विचार किया जायेगा और उसमें सुरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध, अल्पसंख्यकों की स्थिति आदि पर विचार होगा।
(6.) यह समझौता सविनय अवज्ञा आन्दोलन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित कार्यवाही पर लागू होगा।
(7.) पुलिस द्वारा अब तक की गई कार्यवाही व उसकी मंशा की जांच नहीं होगी क्योंकि इससे परस्पर तर्क-वितर्क बढ़ेगा।
(8.) सविनय अवज्ञा आन्दोलन से सम्बन्धित आर्डिनेंस वापस ले लिये जायेंगे।
(9.) क्रिमिनल लॉ संशोधन कानून 1908 वापस ले लिया जायेगा।
(10.) 1931 ई. में लाया गया आर्डिनेंस नं. 1 अप्रभावी हो जायेगा।
(11.) सविनय अवज्ञा आन्दोलन में गिरफ्तार लोगों पर चल रहे मुकदमे वापस ले लिये जायेंगे।
(12.) सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बंदी बनाये गये उन कैदियों को छोड़ दिया जायेगा, जिन्होंने हिंसक कार्य नहीं किये हैं।
(13.) यदि अभी तक जमानतें या जुर्माना अदा न हुआ हो तो अब जमानतों की आवश्यकता नहीं रहेगी और न जुर्माना अदा करना पडे़गा।
(14.) अतिरिक्त पुलिस वापस बुला ली जायेगी।
(15.) जब्त चल सम्पत्ति जो सरकार के कब्जे में है, लौटा दी जायेगी। यदि चल सम्पत्ति बेच दी गई है, तो उसका मुआवजा नहीं दिया जायेगा।
(16.) यदि सरकार ने आर्डिनेंस 1930 के अन्तर्गत अचल सम्पत्ति जब्त की है तो वह लौटा दी जायेगी।
(17.) यदि सरकार यह अनुभव करेगी कि वसूली अनुचित हुई है तो सरकार उसकी क्षतिपूर्ति करेगी।
(18.) उन राज्य कर्मचारियों को जिन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय में नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया था, नौकरी में पुनः लेने पर उदारता से विचार किया जायेगा।
(19.) सरकार नमक-कानून को समाप्त नहीं करेगी। न ही, उसमें संशोधन करेगी किंतु सरकार कुछ गरीब वर्गों को यह सुविधा दे सकेगी कि वे अपने उपभोग के लिए नमक बना सकें परन्तु वे नमक बेच नहीं सकेंगे।
(20.) कांग्रेस द्वारा समझौते की शर्तों की पालना नहीं किये जाने पर सरकार शान्ति व व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक कार्यवाही कर सकेगी।
पैक्ट का समर्थन
गांधी-इरविन पैक्ट पर देश में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसे महत्त्वपूर्ण माना क्योंकि ब्रिटिश सरकार पहली बार जनता की प्रतिनिधि संस्था से समझौते की बातचीत करने को राजी हुई थी। जिस सरकार ने कांग्रेस और उसके समस्त संगठनों को असंवैधानिक घोषित कर दिया था, उस सरकार ने जन-आन्दोलन के कारण उन्हें फिर से संवैधिानिक घोषित किया तथा कांग्रेस के नेताओं से समझौता किया। इस दृष्टि से यह भारतीयों की बड़ी विजय थी। जन-साधारण ने इस समझौते को अपनी विजय के रूप में लिया।
पैक्ट का विरोध
कांग्रेस के प्रमुख युवा नेताओं ने गांधी-इरविन पैक्ट का जोरदार विरोध किया। उनकी दृष्टि में यह समझौता एक शिथिल और हारे हुए मन का सूचक था। सुभाषचन्द्र बोस और वी. पटेल जो उसे समय विदेश में थे, ने एक घोषणा-पत्र जारी किया जिसमें उन्होंने कहा- ‘गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित करने का जो कदम उठाया है, उसमें हमारी यह स्पष्ट राय है कि राजनेता के रूप में गांधी असफल हो चुके हैं।’ कई अन्य नेताओं ने इस समझौते का इसलिये विरोध किया कि जहाँ एक तरफ कांग्रेस के समक्ष पूर्ण स्वाधीनता का लक्ष्य था, वहीं दूसरी ओर गांधीजी ने महत्त्वपूर्ण विषयों को अँग्रेजों के हाथों में रखना स्वीकार करके कांग्रेस के लक्ष्य के विरुद्ध कार्य किया था।
क्रांतिकारियों की रिहाई का प्रश्न
कांग्रेस का युवा वर्ग गांधी-इरविन पैक्ट में क्रांतिकारियों के प्रति गांधीजी के रुख से बहुत नाराज हुआ। गांधीजी ने जेल में बंद तीनों प्रसिद्ध क्रांतिकारियों- भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को न तो कैद से छुड़वाने और न उनकी फांसी की सजा को कम करवाने का प्रयास किया। गांधीजी ने जन आंकाक्षाओं की परवाह किये बिना, अपने अहिंसावादी सिद्धांतों के कारण क्रांतिकारियों के विरुद्ध सरकार द्वारा की जा रही कार्यवाही का समर्थन किया। मार्च 1931 के कराची अधिवेशन से पहले, तीनों क्रांतिकारियों को फांसी हो चुकी थी, इसलिए नवयुवकों ने गांधीजी के विरुद्ध काले झण्डों के साथ जोरदार विरोध प्रदर्शन किया। गांधीजी बड़ी कठिनता से इस समझौते को कांग्रेस से स्वीकार करा सके।
अयोध्यासिंह ने गांधी-इरविन समझौते के सन्दर्भ में लिखा है- ‘कांग्रेस ने जिन मांगों के लिए आन्दोलन चलाया था, क्या उनमें से एक भी मांग पूरी हुई? नहीं। गांधीजी ने जो ग्यारह सूत्री मांग पत्र पेश किया था, क्या उनमें से एक भी बात मानी गई? नहीं। यहाँ तक कि नमक कर भी नहीं हटाया गया। क्या लगानबन्दी और करबन्दी आन्दोलन के दौरान कुड़क की गई किसानों की चल-अचल सम्पत्ति वापस की गई? नहीं। क्या स्वराज की तरफ ले जाने वाली एक भी बात मंजूर की गई? नहीं।’
कराची अधिवेशन के अवसर पर कांग्रेस के एक प्रमुख प्रतिनिधि ने कहा- ‘यदि गांधजी की जगह किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसा समझौता किया होता तो उसे उठाकर समुद्र में फेंक दिया जाता।’
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन
17 अप्रैल 1931 को लॉर्ड विलिंगडन वायसराय बनकर भारत आया। नये वायसराय ने आते ही समझौता तोड़ना आरम्भ कर दिया। कांग्रेस ने जन आन्दोलन बन्द कर दिया था परन्तु पुलिस की गोलियां और लाठियां बन्द नहीं हुईं। गांधीजी ने चेतावनी दी कि यदि सरकारी दमन बन्द नहीं किया गया तो वे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने लन्दन नहीं जायेंगे। मध्यस्थों ने एक बार पुनः वायसराय और गांधीजी की भेंट करवाई। अंततः दोनों पक्षों में सुलह हो गई। 29 अगस्त 1931 को गांधीजी राजपूताना नामक जहाज से बम्बई से लन्दन के लिए रवाना हो गये। घनश्यामदास बिड़ला, मदनमोहन मालवीय तथा भोपाल नवाब हमीदुल्लाखाँ आदि भी उसी जहाज से गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिये लंदन गये। गांधीजी की लंदन यात्रा का समस्त व्यय बीकानेर नरेश गंगासिंह ने वहन किया।
7 सितम्बर 1931 को लंदन में दूसरा गोलमेज सम्मेलन आरम्भ हुआ। इसमें गांधीजी कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि थे। सम्मेलन में सरोजनी नायडू, पं. मदनमोहन मालवीय, सर अली इमाम, सर मुहम्मद इकबाल तथा घनश्यामदास बिड़ला ने भी भाग लिया किंतु वे विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए। शेष सदस्य लगभग वही थे जो प्रथम सम्मेलन में थे। ब्रिटिश सरकार ने चुन-चुनकर अपने वफादार लोगों को सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया था। सरकार उन लोगों के बीच गांधीजी को बैठाकर सम्मेलन को असफल बनाना चाहती थी और असफलता का दोष भारतीयों के माथे मंढ़ना चाहती थी। इस सम्मेलन में राजाओं ने भारत संघ में प्रवेश को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं दिखाया। डॉ. अम्बेडकर द्वारा दलित वर्गों के लिए स्थान आरक्षित करने की जिद तथा साम्प्रदायिक समस्या उठ खड़ी होने के कारण 1 दिसम्बर 1931 को यह सम्मेलन, बिना किसी समाधान के समाप्त हो गया। ब्रिटिश सरकार सम्मेलन को सफल बनाना ही नहीं चाहती थी। वह तो जन-आन्दोलन को कुचलने की तैयारी के लिए थोड़ा समय चाहती थी, जो उसे मिल गया। गांधीजी निराश होकर खाली हाथ भारत लौट आये।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का दूसरा चरण
जब देश के प्रमुख नेता द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिये देश से बाहर थे तब लॉर्ड विलिंगडन ने सरकारी दमन चक्र तेज कर दिया। जब गांधीजी भारत लौटे तो संयुक्त प्रदेश के कृषि सम्बन्धी झगड़ों के सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया था। खान अब्दुल गफ्फार खाँ तथा उनके भाई को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। बंगाल में सैनिक शासन लागू कर दिया गया था। संयुक्त प्रदेश एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में अध्यादेशों द्वारा शासन चलाया जा रहा था। ऐसी गम्भीर परिस्थितियों को हल करने के लिए गांधीजी ने वायसराय से भेंट करनी चाही किन्तु वायसराय ने मिलने से मना कर दिया। अतः गांधीजी ने 3 जनवरी 1932 को सविनय अवज्ञा आन्दोलन पुनः आरम्भ करने की घोषणा की। ब्रिटिश सरकार इस बार आंदोलनकारियों को कुचलने के लिये कृत-संकल्प थी। 4 जनवरी 1932 को सरकार ने एक साथ कई आध्यादेश लागू किये। गांधीजी गिरफ्तार कर लिये गये। कांग्रेस के छोटे-बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं की भी गिरफ्तारियाँ आरम्भ हो गईं। कांग्रेस तथा उसके समस्त संगठन पुनः असंवैधानिक घोषित कर दिये गये। उन संस्थाओं के समाचार पत्र बन्द करके उनके भवन, कोष आदि जब्त कर लिये गये।
1930 ई. के सविनय अवज्ञा आन्दोलन और 1932 ई. के आन्दोलन में पर्याप्त अन्तर था। 1930 के आंदोलन के लिये कांग्रेस ने पूरी तैयारी की थी और सरकार बचाव की मुद्रा में थी। 1932 ई. के आंदोलन के लिये कांग्रेस की कोई पूर्व तैयारी नहीं थी तथा सरकार आक्रमण की मुद्रा में थी। इसलिये सरकार ने इस बार अधिक कठोरता एवं क्रूरता से काम लिया। 1933 ई. के अन्त तक 1,20,000 लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। सरकार ने स्थान-स्थान पर लाठी चार्ज किये। आंदोलनकारियों पर गोली चलाना भी साधारण बात थी। सम्पत्तियों की कुड़की, गांवों पर सामूहिक जुर्माने, भूमि की जब्ती आदि कार्यवाहियां बड़े पैमाने पर हुईं। सरकार का विचार था कि वे इस दमन के सहारे शीघ्र ही आंदोलन को कुचल देंगे किन्तु निहत्थे भारतीय, ढाई साल तक तक पुलिस और सेना का सामना करते रहे।
20 सितम्बर 1932 से गांधीजी ने दलित वर्गों के लिये अलग प्रतिनिधित्व की योजना को रोकने के लिए आमरण अनशन आरम्भ किया। इसके बाद पूना पैक्ट हुआ। इस समझौते के अन्तर्गत हरिजनों के पृथक् मतदान की बात समाप्त हो गई और सामान्य सीटों में ही उनके लिए सीटों के संरक्षण की व्यवस्था की गई। इस पैक्ट से हरिजनों को बहुत लाभ मिला। उन्हें पहले की तुलना में दो-गुनी सीटें मिल गईं।
8 मई 1933 से गांधीजी ने फिर से 21 दिन का उपवास आरम्भ किया। यह उपवास भारतवासियों के हृदय परिवर्तन के लिए था। सरकार ने उसी दिन शाम को गांधीजी को रिहा कर दिया। गांधीजी की सलाह पर कांग्रेस ने 6 सप्ताह के लिए आन्दोलन स्थगित कर दिया। इसके बाद गांधीजी ने वायसराय से पुनः भेंट करने का प्रयास किया परन्तु वायसराय ने कहा कि जब तक आन्दोलन पूरी तरह समाप्त नहीं होगा, वायसराय से भेंट नहीं होगी। इस पर जुलाई 1933 में सामूहिक सविनय अवज्ञा आन्दोलन बन्द कर उसकी जगह व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन जारी रखने का निर्णय किया गया परन्तु सरकार को इससे संतोष नहीं हुआ। 1 अगस्त 1933 को गांधीजी को पुनः बंदी बना लिया गया। 4 अगस्त को उन्हें रिहा किया गया और यरवदा छोड़कर पूना में रहने का आदेश दिया गया। इस आदेश का उल्लंघन करने पर उन्हें पुनः बंदी बनाया गया और एक साल के लिये जेल में डाल दिया गया। गांधीजी ने जेल में पुनः अनशन आरम्भ कर दिया। जब उनकी शारीरिक स्थिति बिगड़ने लगी तो 23 अगस्त 1933 को उन्हें बिना शर्त रिहा किया गया। इसके बाद गांधीजी कुछ समय के लिए राजनीति से दूर रहे और हरिजनों की भलाई के काम में लग गये। मई 1934 में कांग्रेस कार्य समिति ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन, बिना शर्त पूरी तरह समाप्त कर दिया। यह सरकार की बहुत बड़ी जीत थी तथा कांग्रेस नेतृत्व की शर्मनाक पराजय।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का महत्त्व और प्रभाव
सविनय अवज्ञा आन्दोलन अपने लक्ष्य की प्राप्ति में पूरी तरह असफल रहा तथा राजनीतिक स्तर पर कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ फिर भी सामाजिक स्तर पर इस आन्दोलन के कुछ परिणाम अवश्य निकले-
(1.) सरकार द्वारा चलाये गये दमन चक्र से देश के नागरिकों में गोरी सरकार के प्रति रही-सही सहानुभूति भी समाप्त हो गई।
(2.) समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा एक साथ मिलकर संघर्ष किये जाने से उनमें राष्ट्रीयता एवं भावनात्मक एकता का प्रसार हुआ।
(3.) भारतीयों को अपनी पराधीनता का अहसास गहराई से हुआ और वे स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु आतुर हो उठे।
(4.) इस आंदोलन के माध्यम से स्वदेशी का प्रचार हुआ जिससे भारत में आत्म-निर्भरता के लिये चलाये जा रहे दूसरे कार्यक्रमों को भी बल मिला।
(5.) इस आन्दोलन के दौरान किये गये पूना पैक्ट से हरिजनों एवं समाज के अन्य वर्गों के बीच राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिये चल रही रस्साकशी कुछ कम हुई।
(6.) इस आन्दोलन से छुआछूत, सामाजिक भेद-भाव, साम्प्रदायिकता, पर्दा-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार हुआ जिससे लोगों को इन सामाजिक कुरीतियों के दुष्परिणामों को समझने का अवसर मिला।
(7.) इस आन्दोलन से राष्ट्रीय शिक्षा को भी बल मिला तथा राष्ट्रीय महत्त्व की कई शिक्षण संस्थायें स्थापित हुईं।
(7.) भारतीयों के अहिंसक आंदोलन तथा सरकार के अमानवीय दमन चक्र को देखकर अमरीका तथा इंग्लैण्ड आदि देशों में, भारत की समस्या के प्रति नैतिक सहानुभूति उत्पन्न हुई। ब्रिटेन के उदारवादी दल ने अपनी सरकार पर दबाव डाला कि वह भारत की समस्या का निराकरण करे।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रति अन्य संगठनों का रुख
सविनय अवज्ञा आन्दोलन कांग्रेस द्वारा चलाया गया था। कांग्रेस के आह्वान पर लाखों की संख्या में जन साधारण ने इस आंदोलन में भाग लिया। उस समय भारत की राजनीति में सक्रिय, विभिन्न तत्त्वों का इस आंदोलन के प्रति रुख इस प्रकार था-
(1.) हिन्दू-महासभा: हिन्दू-महासभा का मानना था कि विनय सहित किये गये आंदोलन से सरकार के सिर पर जूँ तक रेंगने वाली नहीं है। अतः उन्होंने इस आंदोलन को कांग्रेस का कायरता पूर्ण प्रयास बताया तथा स्वयं को इससे दूर रखा।
(2.) क्रांतिकारी संगठन: क्रांतिकारी संगठन शक्ति के बल पर अँग्रेजों को भारत से बाहर निकालना चाहते थे। इसलिये उन्होंने भी इस आंदोलन को कायरता पूर्ण प्रयास बताते हुए स्वयं को इससे दूर रखा।
(3.) मुस्लिम लीग: मुस्लिम लीग इस आन्दोलन से पूरी तरह दूर रही। उसने इस आन्दोलन को असफल बनाने के लिए अँग्रेजों का साथ दिया तथा अपनी ओर से हर सम्भव प्रयास किये। मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना ने खुले आम घोषणा की- ‘हम गांधीजी के साथ सम्मिलित होने से इन्कार करते हैं, क्योंकि उनका यह आन्दोलन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए नहीं अपितु 7 करोड़ मुसलमानों को हिन्दू-महासभा के आश्रित बना देने के लिए है।’
(4.) राष्ट्रवादी मुसलमानों की भूमिका: राष्ट्रवादी मुसलमानों ने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
(5.) प्रवासी भारतीय: प्रवासी भारतीयों ने इस आन्दोलन के प्रति सहानुभूति प्रकट की और विदेशों में भारत के समर्थन में प्रदर्शनों तथा हड़तालों का आयोजन किया।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन
17 नवम्बर 1932 को लंदन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया। अवैध संस्था घोषित हो जाने के कारण कांग्रेस इसमें भाग नहीं ले सकी। सम्मेलन में कुल 46 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। ब्रिटेन के विरोधी मजदूर दल के सदस्यों ने सम्मेलन में भाग लेने से मना कर दिया। भारत के देशी राज्यों की ओर से अधिकतर नरेशों के स्थान पर राज्यों के वरिष्ठ मंत्रियों ने भाग लिया। इस संक्षिप्त सत्र में संघीय संविधान के संगठन तथा संघ में सम्मिलन के लिये राज्यों की ओर से निष्पादित किये जाने वाले प्रविष्ठ संलेख (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) पर विचार विमर्श किया गया।