पिछली कथा में हमने चंद्रवंशी राजा कुरु की चर्चा की थी जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी तथा जिसने अत्यंत परिश्रम करके कुरुभूमि को पुण्य तीर्थ में बदल दिया था। उसी की वंश परम्परा में आगे चलकर राजा शांतनु का जन्म हुआ। राजा शांतनु चंद्रवंशी राजााओं में अड़तालीसवें क्रम का राजा था।
मान्यता है कि राजा शांतनु का विवाह गंगा से हुआ था। कुछ ग्रंथ शांतनु की पत्नी देवी गंगा को गंगा नदी मान लेते हैं किंतु वास्तव में शांतनु का विवाह गंगा नदी से नहीं हुआ था, अपितु गंगा नामक एक अप्सरा से हुआ था। स्वर्ग की अप्सरा गंगा का विवाह राजा शांतनु के साथ होने के पीछे दो पौराणिक कथाएं मिलती हैं।
पहली कथा के अनुसार एक बार स्वर्ग लोक में बहुत से देवी-देवता एवं महर्षि एवं राजर्षि ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए जिनमें महाभिष नामक राजा भी थे। उसी समय गंगा भी ब्रह्माजी के दर्शनों के लिए आई। संयोगवश उसी समय गंगा के श्वेत वस्त्र वायु के झौंके के कारण गंगा के शरीर से खिसक गए। यह देखकर समस्त देवताओं एवं राजर्षियों ने अपने नेत्र नीचे कर लिए किंतु राजा महाभिष अपलक गंगाजी को देखते रहे।
यह देखकर ब्रह्माजी ने राजा महाभिष से कहा- ‘राजन् अब तुम मृत्युलोक में जाओ। जिस गंगा को तुम देखते रहे, वही गंगा धरती पर आकर तुम्हारा अप्रिय करेगी। इस कारण जब तुम उस पर क्रोध करोगे, तब तुम शापमुक्त होकर पुनः स्वर्ग लोक में लौट आओगे!’
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गंगा भी ब्रह्माजी को प्रणाम करके वहाँ से लौट गईं। मार्ग में गंगा की भेंट वसुओं से हुई जो महर्षि वसिष्ठ के श्राप से श्रीहीन हो रहे थे। गंगा ने वसुओं से उनकी श्रीहीनता का कारण पूछा। इस पर वसुओं ने महर्षि वसिष्ठ द्वारा दिए गए श्राप के बारे में बताया।
पौराणिक धर्मग्रंथों एवं श्रीमद्भागवत् पुराण के अनुसार दक्ष प्रजापति की एक पुत्री का नाम वसु था जिसका विवाह धर्म से हुआ था। वसु के गर्भ से आठ पुत्र उत्पन्न हुए जिन्हें वसु कहा जाता था। बृहदारण्यकोपनिषद में तैंतीस देवताओं का विस्तार से परिचय मिलता है। इनमें आठ वसुओं को पृथ्वी का देवता कहा गया है।
महाभारत के अनुसार आठ वसुओं के नाम इस प्रकार हैं- धर ध्रुव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल, प्रत्यूष एवं प्रभास। श्रीमद्भागवत में इन वसुओं के नाम द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, श्वसु और विभावसु बताए गए हैं। कुछ ग्रंथों में अग्नि को प्रथम वसु बताया गया है क्योंकि अग्नि में किए गए हवन के माध्यम से ही देवी-देवताओं को उनका भाग मिलता है। वाल्मीकि रामायण में वसुओं को अदिति-पुत्र कहा गया है।
आठ वसुओं में सबसे छोटे वसु प्रभास ने एक दिन महर्षि वशिष्ठ की गाय नंदिनी को चुरा लिया। महर्षि वशिष्ठ ने ध्यान लगाकर देखा तो उन्होंने नंदनी को वसुओं के बीच खड़े हुए देखा। इस पर महर्षि वसिष्ठ ने वसुओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब वसुओं को महर्षि द्वारा श्राप दिए जाने का पता चला तो आठों वसुओं ने महर्षि से क्षमा माँगी।
इस पर महर्षि वसिष्ठ ने कहा- ‘बड़े सात वसु पृथ्वी पर जन्म लेने के कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त करके पुनः स्वर्ग लौट आएंगे किंतु प्रभास लंबे समय तक पृथ्वी लोक पर ही रहेगा।’
इस श्राप के कारण वसु बहुत दुःखी थे। इसलिए जब गंगा ने उनकी श्रीहीनता का कारण पूछा तो वसुओं ने महर्षि वसिष्ठ द्वारा श्राप दिए जाने की कथा बता दी।
इस पर गंगा ने द्रवित होकर कहा- ‘ब्रह्मदेव द्वारा राजा महाभिष को श्राप दिया गया है जिसके कारण मुझे भी धरती पर जाना पड़ेगा। मैं धरती पर रहते हुए, तुम्हें श्राप से शीघ्र मुक्ति दिलवाने का उपाय करूंगी। जब मैं धरती पर जाकर, शांतनु के रूप में उत्पन्न हुए महाभिष की पत्नी बनूं, तब तुम एक-एक करके मेरे गर्भ में आना, मैं तुम्हारे धरती पर जन्म लेते ही तुम्हें जीवन से मुक्त कर दूंगी। इस प्रकार बहुत कम समय में तुम्हें श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।’
वसुओं ने गंगा का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। महाभारत में उल्लेख मिलता है कि वसुओं ने गंगा से कहा- ‘जब आप हमें श्राप से मुक्त करेंगी तब हम सभी अपने अष्टमांश से निर्मित एक वसु को धरती पर छोड़ देंगे जो अपुत्र ही रहेगा। अर्थात्! धरती पर हमारा अष्टमांश लम्बे समय तक जीवित रहेगा किंतु हमारा वंश धरती पर नहीं चलेगा।’
उधर ब्रह्माजी के श्राप से राजर्षि महाभिष ने धरती पर आकर चंद्रवंशी राजा प्रतीप के पुत्र के रूप में जन्म लिया। शांतनु के युवा होने पर राजा प्रतीप अपना राज्य शांतनु को सौंपकर वन में तपस्या करने चले गए।
अपने पूर्वजों की तरह शांतनु भी बड़े धर्मनिष्ठ राजा हुए। एक दिन जब राजा शांतनु गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे तब उनकी भेंट एक अत्यंत सुंदर स्त्री से हुई जिसके शरीर पर दिव्य आभूषण सुशोभित थे। उसे देखकर ऐसा लगता था मानो देवी लक्ष्मी ही साक्षात आ गई हों! राजा शांतनु उस स्त्री पर आसक्त हो गए तथा उसके साथ विवाह करने का अनुरोध करने लगे।
राजा ने कहा- ‘हे देवी! आप स्वर्ग की देवी हैं, दानवी हैं, गन्धर्वी हैं, अप्सरा, यक्षी, नागकन्या अथवा मानवी हैं। देवकन्याओं के समान सुशोभित होने वाली सुन्दरी! मैं आपसे याचना करता हूँ कि आप मेरी पत्नी हो जाएं।’
महाराज शांतनु के ऐसा कहने पर गंगा ने कहा- ‘हे भूपाल! मैं आपकी महारानी बनूंगी एवं आपके अधीन रहूँगी परन्तु मेरी कुछ शर्तें हैं कि आप कभी मेरे बारे में मुझसे कभी प्रश्न नहीं करेंगे। मैं कहीं भी जाऊं मेरा पीछा नहीं करेंगे तथा मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूं, उसके लिए मुझे कभी नहीं रोकेंगे। आप मुझसे कभी अप्रिय वचन नहीं कहेंगे। पृथ्वीपति! जब तक आप ऐसा बर्ताव करेंगे तब तक ही मैं आपके समीप रहूँगी। यदि आपने कभी मुझे किसी कार्य से रोका या अप्रिय वचन कहा तो मैं निश्चय ही आपको छोड़ दूंगी।’
गंगा के रूप-सौंदर्य से बेसुध हुए राजा शांतनु ने गंगा की यह शर्त मान ली। इस पर राजा शान्तनु देवी गंगा को रथ पर बिठाकर अपनी राजधानी ले आए। कुछ समय पश्चात् गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह उस शिशु को महल से ले गई और उसे गंगा नदी में बहा दिया। इस प्रकार एक-एक करके गंगा के सात पुत्र हुए और उसने उन सभी को गंगा नदी में बहा दिया।
जब गंगा अपने आठवें पुत्र को नदी में बहाने के लिए गई तो राजा शांतनु ने उसका पीछा किया तथा जब वह अपने पुत्र को नदी में बहा ही रही थी तभी शांतनु ने उस बालक को पकड़ लिया तथा गंगा को इस क्रूर कर्म के लिए धिक्कारा।
राजा के कठोर वचन सुनकर गंगा ने राजा को अपनी तथा अपने पुत्रों की वास्तविकता बताई तथा उसी समय अदृश्य हो गई। महाराज शांतनु उस शिशु को लेकर अपने महल में आ गए। गंगा और शांतनु का यह आठवां पुत्र वास्तव में प्रभास नामक आठवां वसु था जो श्राप के कारण धरती पर ही रह गया। उसका नाम देवव्रत रखा गया किंतु भीषण प्रतिज्ञा करने के कारण वह बालक आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता