Sunday, December 22, 2024
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27. गरुड़ों का आक्रमण

प्रातः होने में अभी पर्याप्त समय शेष था, जब प्रतनु की निद्रा विचित्र कोलाहल के कारण भंग हो गयी। प्रतनु ने अनुभव किया कि उसके कक्ष के बाहर बहुत सारे व्यक्ति कोलाहल करते हुए इधर-उधर दौड़े चले जा रहे हैं। उनके स्वर में उत्तेजना है तथा उनके भागते चले जाने से उनके शस्त्रों का भी शब्द उत्पन्न हो रहा है। प्रतनु अपनी शैय्या त्याग कर उठ खड़ा हुआ। दीपाधार में स्नेहक की अत्यल्प मात्रा देखकर उसने अनुमान लगाया कि सूर्योदय होने में अधिक का विलम्ब नहीं है। उसने कक्ष से बाहर आकर देखा कि सैंकड़ों नाग विभिन्न दिशाओं से प्रकट होकर दुर्ग के मध्य में स्थित रानी मृगमंदा के प्रासाद को घेर रहे हैं।

  – ‘क्या हुआ प्रहरी ?’ प्रतनु ने कक्ष से बाहर खड़े नाग से पूछा। प्रतनु ने देखा कि इस समय प्रहरी के स्थान पर पाँच नाग सैनिकों का गुल्मपति कंकोल पहरे पर खड़ा है।

  – ‘गरुड़ सैन्य ने रात्रि के अंधकार में दुर्ग तोड़ लिया है। सैंकड़ों गरुड़ दुर्ग में प्रवेश कर गये है। जाने कैसे उन्हें दुर्ग के गुप्त मार्ग का ज्ञान हुआ।’ गुल्मपति कंकोल ने उत्तर दिया।

आश्चर्य से जड़ रह गया प्रतनु। इतने दुर्गम और गुप्त दुर्ग को तोड़ लेने वाला शत्रु सचमुच ही कितना प्रबल होगा!

  – ‘नागों के पास इस संकट से निकलने का क्या उपाय है ?’ प्रतनु ने पुनः कंकोल से प्रश्न किया।

  – ‘ऐसी स्थिति में रानी को सुरक्षित रूप से दुर्ग से बाहर ले जाने का प्रयास करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।’

  – ‘क्यों ? क्या नाग सैन्य गरुड़ सैन्य का प्रतिरोध करने में सक्षम नहीं है ?’

  – ‘इस समय प्रश्न सक्षमता का नहीं स्थिति का है। युद्ध के मैदान में सन्नद्ध अथवा दुर्ग को घेर कर खड़े शत्रु से लड़ना उतना कठिन नहीं होता जितना दुर्ग में अचानक घुस आये शत्रु से निबटने में। इस समय शत्रु का बल बहुत बढ़ा हुआ है। वह अचानक चढ़ कर आया है। हमें उसके वास्तविक बल और शक्ति के केन्द्र का अनुमान नहीं है।’

एक बार फिर आश्चर्य से जड़ होकर रह गया प्रतनु। केवल पाँच सैनिकों के साधारण गुल्मपति को भी सामरिक नीति का इतना अच्छा ज्ञान है। सचमुच ही नागों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

  – ‘तो क्या रानी मृगमंदा को दुर्ग से बाहर ले जाया जा चुका है ?’

  – ‘नहीं! रानी ने दुर्ग छोड़ने से मना कर दिया है।’

  – ‘क्यों ?’

  – ‘रानी ने सैनिकों को आदेश दिया है कि प्राण रहते दुर्ग शत्रु को अर्पित नहीं किया जाये। वे स्वयं भी खड्ग लेकर नाग सैनिकों का नेतृत्व एवं उत्साहवर्धन कर रही हैं।’

प्रतनु के विस्मय का कोई पार नहीं है। पुष्पों से भी अधिक कोमलांगी रानी मृगमंदा हाथ में खड्ग लेकर शत्रु का सामना कर रही है! सचमुच नागों और सैंधवों में कितना अंतर है! धन्य है रानी मृगमंदा! सौंदर्य ऐसा कि धरती भर की प्रजाओं की रमणियों के सौंदर्य को फीका कर दे! कोमलता ऐसी कि पुष्प-पांखुरियों को भी पीछे छोड़ दे और संकल्प ऐसा कि खड्ग हाथ में लेकर समरांगण में उतर पड़े!

  – ‘संकट की इस विकट घड़ी में तुम अपनी रानी की रक्षा के लिये नहीं जाओगे ?’ प्रतनु ने पुनः गुल्मपति से प्रश्न किया।

  – ‘मैं जाना तो अवश्य चाहता हूँ किंतु आप हमारे अतिथि हैं। आपको अकेला छोड़कर नहीं जा सकता। हमारी रानी की ऐसी ही आज्ञा है।’

  – ‘क्या आज्ञा है तुम्हारी रानी की ?’

  – ‘जैसे ही रानी मृगमंदा को सूचना दी गयी कि शत्रु ने दुर्ग का गुप्त मार्ग भेद कर अंदर प्रवेश कर लिया है, वैसे ही वे खड्ग हाथ में लेकर शत्रु से निबटने के लिये उद्धत हो गयीं तथा तत्काल अपनी अनुचरियों को यहाँ भेजकर कहलावाया कि यदि अतिथि जाग रहे हों तो उन्हें समय रहते सुरक्षित मार्ग से दुर्ग से बाहर पहुँचा दिया जाये किंतु यदि निद्रालीन हों तो अत्यंत आवश्यक होने से पहले उन्हें जगाया न जाये किंतु किसी भी स्थिति में अतिथि को अकेला और असुरक्षित न छोड़ा जाये।’

  – ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कंकोल कि मैं इस समय नागों के कुछ काम आ सकूँ!’

  – ‘आपात् काल में अतिथि का रक्षण करना हमारा कत्र्तव्य है, न कि अतिथि के प्राण खतरे में डालकर उनसे अपना रक्षण करवाना। आप चाहें तो मैं तथा मेरे सैनिक आपको दुर्ग से बाहर सुरक्षित स्थान पर छोड़ आयें।’

  – ‘नहीं-नहीं। मैं इतना कृतघ्न नहीं कि अपने शरण दाता को आपात् काल में जानकर स्वयं प्राणों का मोह लेकर भाग खड़ा होऊँ। मैं भी नागों के आतिथ्य का प्रतिमूल्य चुकाऊँगा सैनिक। तुम मेरे लिये खड्ग का प्रबंध करो।’

  – ‘अविनय क्षमा करें श्रीमन्! रक्षण कला में प्रवीण हुए बिना शत्रु के सम्मुख जाना आत्मघात से अधिक कुछ नहीं है।’

  – ‘तो फिर मैं क्या करूँ ? कैसे सहायता करूँ नागों की!’

  – ‘यदि आप कुछ करना ही चाहते हैं तो जिस कार्य में आप प्रवीण हैं, उसी कार्य से  हमारा हित साधन करें।’

  – ‘क्या छैनी और हथौड़ी इस समय नागों की कोई सहायता कर सकती है ?’

  – ‘क्यों नहीं कर सकती! यदि क्षतिग्रस्त गुप्त मार्ग को फिर से बंद कर दिया जाये तो और अधिक संख्या में शत्रु के आगमन को रोका जा सकता है। इस समय दुर्ग में शिल्पी नहीं हैं इसलिये हमारे सैनिक ध्वस्त मार्ग पर भित्ति बनकर खड़े हैं। जैसे ही गरुड़ों के आघात से आगे के नाग सैनिक गिरते हैं, उनका स्थान नये सैनिक ले लेते हैं इस कारण हमारे सैनिकों की संख्या लगातार कम होती जा रही है।’

प्रतनु ने कंकोल के शब्दों का अर्थ लगाया। कंकोल का प्रस्ताव ऐसा था जैसे बहती हुई नदी में रेत का पुल बनाना। समक्ष युद्ध में सन्नद्ध गरुड़ सैनिकों एवं उनके प्रबल आघात से जूझ रहे नाग सैनिकों के मध्य भित्ति खड़ी करना क्या कोई सरल बात है!

  – ‘तुम्हारे कहने का अर्थ है कि आगे की पंक्ति में लड़ रहे नाग सैनिकों के पीछे एक भित्ति खड़ी करके दुर्ग का मार्ग बंद कर दिया जाये! इससे तो आगे की पंक्ति में लड़ रहे नाग सैनिकों का सम्पर्क पीछे खड़े सैनिकों से टूट जायेगा! ‘

  – ‘बिल्कुल ठीक समझे आप! ‘

  – ‘किन्तु इससे तो प्रथम पंक्ति में लड़ रहे सैनिकों को हम जीवित ही मृत्यु के मुख में धकेल देंगे!’

  – ‘मृत्यु के मुख में तो वे वैसे भी हैं किंतु इस प्रयास से हम अन्य नाग सैनिकों को मृत्यु के मुख में जाने से रोक सकते हैं। इस कार्य मे चरिष्णु  [1]आपकी सहायता कर सकते हैं।’

  – ‘चरिष्णु क्या ?’

  – ‘ चरिष्णु यंत्र की सहायता से हम दूर रहकर शत्रु पर प्रस्तरों की वर्षा कर सकते हैं। जैसे ही चरिष्णु प्रस्तरों की वर्षा आरंभ करेगा वैसे ही शत्रु चरिष्णु की प्रहारक परिधि से बाहर जाने के लिये पीछे हटेगा। हमारे सैनिक उन्हें धकेलते हुए और आगे जाकर खड़े हो जायेंगे। इससे इस समय जो संघर्ष दुर्ग की प्राचीर पर हो रहा है, वह कुछ समय के लिये दुर्ग की प्राचीर से दूर होने लगेगा। यही वह समय होगा जब हम दुर्ग के ध्वस्त मार्ग पर फिर से भित्ति बनाकर शत्रु के प्रवेश को रोक सकते हैं। यदि एक बार शत्रु सैन्य का प्रवाह टूट जाये तो भीतर घुस आये शत्रु को खोजकर मारा जा सकता है।’ गुल्मपति कंकोल ने अपनी बात पूरी की।

प्रतनु को लगा कि योजना दुष्कर होने पर भी असंभव नहीं है। प्रयास तो किया ही जा सकता है। प्रयास करने के अतिरिक्त और उपाय भी क्या है! ऐसे विषम क्षण में वह अपने आश्रयदाता को छोड़कर पलायन तो नहीं कर सकता! प्रतनु ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया और कंकोल से तत्काल कतिपय शिल्प उपकरणों एवं सहायता हेतु सैनिकों का प्रबंध करने को कहा।

तुरंत रानी मृगमंदा तक सूचना भिजवाई गयी। रानी मृगमंदा अतिथि प्रतनु को किसी प्रकार के खतरे में नहीं डालना चाहती थी किंतु प्रतनु के आग्रह को देखते हुए वह इस योजना पर कार्य करने को तैयार हो गयी। वह स्वयं तलवार लेकर दुर्ग की प्राचीर के क्षतिग्रस्त भाग पर आकर खड़ी हो गयी और अपने सैनिकों का मार्गदर्शन करने लगी।

तत्काल चार चरिष्णु दुर्ग की क्षतिग्रस्त भित्ति पर चढ़ाये गये और वहाँ से शत्रु सैन्य पर प्रस्तरों की वर्षा होने लगी। प्रस्तरों की प्रहारक परिधि में न केवल शत्रु सैन्य अपितु कुछ नाग सैनिक भी आ गये किंतु नाग सैनिकों ने इसकी चिंता नही की और वे शत्रु को धकेलते हुए आगे हटा ले गये। प्रतनु के लिये यह परीक्षा की घड़ी थी। उसने सैनिकों की सहायता से विशाल प्रस्तर खण्ड एक दूसरे के ऊपर रखते हुए भित्ति बनानी आरंभ की। गरुड़ों को धकेल कर आगे ले गये नाग सैनिकों का सम्पर्क पीछे खड़े नागों से टूट गया। चरिष्णु की प्रहारक परिधि के भीतर सुरक्षित भाग को चिन्हित करने तथा दुर्ग से बाहर निकल कर संघर्ष कर रहे नाग सैनिकों से निबटने में गरुड़ों को अधिक समय नहीं लगने वाला था। इससे पहले कि गरुड़ फिर से दुर्ग की सीमा तक आ धमकें प्रतनु को भित्ती खींच देनी थी।

गरुड़ों को नागों की योजना समझ में आ गयी। अब वे भित्ति के पूर्ण होने से पूर्व पुनः दुर्ग में प्रवेश करने के लिये तेजी से चरिष्णु की प्रहारक परिधि के मध्य सुरक्षित भाग को चिह्नित करते हुए आगे बढ़ रहे थे। उधर नाग सैनिकों के हाथों में खड्ग तीव्रता से संचालित हो रहे थे और इधर प्रतनु के हाथों में शिल्प उपकरण। आज ही तो प्रतनु के समस्त कौशल का परीक्षण होना था।

संघर्ष के इन अपरिचित क्षणों में शिल्पी प्रतनु ने जैसे कला की नयी परिभाषा प्राप्त की। उसे लगा कि रोमा जैसी रमणीय बाला के अंग लास्य एवं सौंदर्य का प्रस्तरों में उत्कीर्णन शिल्पविद्या का सर्वोच्च बिन्दु नहीं था। रानी मृगमंदा, हिन्तालिका और निर्ऋति के जलविहार के छद्म शिल्पांकन का रहस्य तोड़ देना भी शिल्पविद्या के ज्ञान का चरम नहीं था। शिल्पविद्या का चरम बिन्दु तो आज ही खोजा और पाया जाना है। छाती पर चढ़कर आये शत्रु से अपनी और अपने हितैषियों के रक्षण की सामथ्र्य ही तो कला की सार्थकता का प्रमाण है। इसी कारण वह कला की चरम बिंदु भी है। प्रतनु की कला में यह सामथ्र्य है अथवा नहीं, आज इसी का तो परीक्षण है। जैसे भी हो, प्रतनु को इस परीक्षण में सफल होकर ही दिखाना है। रानी मृगमंदा के आतिथ्य का इससे अधिक श्रेष्ठ प्रतिदान और क्या हो सकता है!

प्रतनु ने देखा कि उसके निकट ही सैनिक वेश में उपस्थित रानी मृगमंदा अत्यंत गंभीर मुद्रा में अपने सैनिकों को समरांगण में जूझता हुआ और एक-एक करके मृत्यु के मुख में समाता हुआ देख रही है। वह  चिंतित भाव से एक दृष्टि अपने सैनिकों पर डालती है तो दूसरी दृष्टि तीव्रता से चलते हुए प्रतनु के हाथों पर डालती है। यदि गरुड़ सैन्य भित्ति के पूर्ण होने से पूर्व दुर्ग तक आ जाता है तो उसे रोकने के लिये कुछ नाग सैनिक और बाहर भेजने पड़ेंगे। प्रतनु नहीं चाहता कि अब और नाग सैनिक मारे जायें। उसने एक विशाल प्रस्तर शिला की ओर देखा तथा अपनी सहायता कर रहे नाग सैनिकों को संकेत किया। लगभग पचास सैनिक उस प्रस्तर को भित्ति की तरफ धकेलने लगे।

नागों को तीव्र गति से नष्ट करता हुआ गरुड़ सैन्य दुर्ग के अत्यंत समीप आ पहुँचा। ऐसा नहीं था कि नाग सैन्य कमजोर सिद्ध हो रहे थे किंतु यह ऐसा युद्ध था जिसमें उन्हें कम से कम संख्या में रहकर ही अपने शत्रु की गति को रोकना था। वे संख्या में बहुत कम थे और गरुड़ों की संख्या बहुत अधिक थी।

गरुड़ सैनिक किसी भी क्षण दुर्ग में प्रवेश करने की स्थिति में आ गये। अब भित्ति उस ऊँचाई तक पहुँच गयी थी जहाँ से दुर्ग के भीतर के नागों को बाहर नहीं भेजा जा सकता था। प्रतनु ने अनुमान लगाया कि यदि गरुड़ों के पहुँचने से पूर्व यह विशाल प्रस्तर शिला वांछित स्थल तक पहुँच गयी तो प्रतनु का समस्त उद्योग सफल हो जायेगा अन्यथा गरुड़ सैन्य का दुर्ग में धंस जाना निश्चित है। यदि एक बार गरुड़ सैन्य फिर से दुर्ग में धंस गया तो उसे बाहर धकेलना लगभग असंभव हो जायेगा। गरुड़ सैन्य समुद्र की लहरों के समान लहरा रहा था।

प्रतनु को लगा कि इस समय समस्त संघर्ष का केन्द्र वही बन गया है। उसने सैनिकों को ललकारा, बस थोड़ी सी शक्ति और लगाओ! शीघ्रता करो! रानी मृगमंदा और स्वयं प्रतनु भी प्रस्तर शिला को धकेलने में सहायता करने लगे। पचास के लगभग गरुड़ सैनिक दौड़ते हुए दुर्ग की परिधि तक आ पहुँचे। प्रतनु को लगा कि यह उद्यम व्यर्थ हो गया किंतु जैसे ही गरुड़ों ने दुर्ग की भित्ति के रिक्त भाग में अपने आप को धंसाया ठीक उसी समय नाग सैनिकों द्वारा धकेली जाती हुयी विशाल प्रस्तर शिला ढलान पाकर स्वयं ही तेजी से लुढ़ककर भित्ति के खाली स्थान पर पहुँच गयी। प्रस्तर शिला के नीचे आकर गरुड़ सैनिक पिस कर चूर्ण बन गये। ठीक समय पर दैवीय सहायता प्राप्त हो जाने से प्रतनु ने राहत की सांस ली। अब भित्ति को शिलाखण्डों से भरकर अभेद्य बना देना प्रतनु जैसे चतुर शिल्पी के लिये अधिक कठिन कार्य नहीं था।

नाग सैनिकों ने उत्साह से भरकर जयघोष किया- ‘रानी मृगमंदा की जय! शिल्पी प्रतनु की जय! दुर्ग में घुस चुके गरुड़ सैनिकों को संध्या होने से पूर्व ही खोज-खोजकर मार दिया गया।


[1] ऋग्वेद में शत्रु पर पत्थरों की वर्षा करने के यंत्र के रूप में चरिष्णु का उल्लेख हुआ है।

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