– ‘तुलसी बाबा! ई बूढ़ा विप्र तोहरे शरण में आइ बा। हमार रक्षा आप न करिहैं तो कवन करे?’ एक बूढ़ा ब्राह्मण गुसाईंजी के पैरों में लोट गया।
– ‘ई विप्र देवता का करथें? हमइ नरक का मार्ग सुझावत हये का? चला उठा अब बेर ना करा।’
– ‘आप नरक में जाब्य, चित्रकूटौ नरकइ भहई जाब्य बाबा। तोहरे लिए का नरक, का सरग! हमरे लिए त इअहि जनम नरक होई गबा।’
– ‘ऐसन काहें घिघियात हो बामन देवता? कछु काम होई तो कहा।’
– ‘हम का बताई बाबा। तू अपनइ आँखी से देखि ल, ई हमारी बिटिया विआहई लायक होई गई बा। एकर विहाह करावई के बा।’
– ‘हम त खुद गिरस्थीदार नाइ हइ त तोहार का मदद करिवई?’
– ‘बाबा! हँसी ना करा। गरीब बामन क बेटी हउ। एकर हाँथ पीला होइ जात त हम चैन से मरित।’
– ‘साफ-साफ बतावा विप्रवर। का चाहथ्य?’
– ‘कछु धन से मदद होइ जात त हम एकाह ब्याहि देइत।’
– ‘धन! हमरे पास महाराज धन कहाँ बा?’ धन बये तो केहू राजा महराजा क दुआर देखा। तुलसी की कुटिया में तो एक सेर अनाज न मिली।’
– ‘हमइ ई सब नाहिं पता बाबा। हम सुने रहे कि ताहरे हाँथ में बड़ी शक्ति बा। कछु मंतर फेरा और दुइ-चार सेर कंचन बनाइद।’
निर्धन ब्राह्मण का दुखड़ा सुनकर गुसाईंजी दुविधा में पड़ गये। बड़ी देर तक सोचते रहे कि क्या किया जाये। अंततः उन्हें एक उपाय सूझ ही गया। उन्होंने कागज कलम उठाई और एक चिट्ठी खानखाना के नाम लिख दी।
– ‘विप्र होऽऽ!’ गुसाईं जी ने कुटिया के बाहर ऊंघ रहे ब्राह्मण को जगाया।
– ‘हाँ महराज!’
– ‘ई ल चिठिया।’
– ‘ई चिठिया क का होये महराज?’
– ‘ई चिठिया से बहुत कुछ होये, तनिक जतन करइ पड़े।’
– ‘का महराज, कउन जतन करइ पड़े?
– ‘एका मंदाकिनी पार पर रहिइ वाले अब्दुर्रहीम खानखाना के पास लइजा। कहि दिह्य तुलसी दिये हैं।’
– ‘ लेकिन गुसाईंजी, ऐसे हमार का काम होये?’ बूढ़े ने विचलित होकर पूछा।
– ‘तनिक धैर्य रखा देवता। जा बिलम्ब जिनि करा।’
बूढ़ा ब्राह्मण गुसाईंजी को प्रणाम करके चला गया। जब वह किसी तरह पूछता-पूछता खानखाना की कुटिया तक पहुँचा तो संध्या होने में कुछ ही समय शेष रह गया था। खानखाना ने चिट्ठी हाथ में लेकर बांची-
”सुर तिय, नर तिय, नाग तिय, सब चाहत अस होय।”
बस केवल इतने ही अक्षर लिखे हुए थे उसमें। कुछ समझ में न आया। क्या चाहते हैं तुलसी बाबा? उसने दृष्टि ऊपर उठा कर कहा- ‘का हो देवता! ऊ बाहेर के बैठा बा?’
– ‘हमार बिटिया प्रभु।’
– ‘तनिक ओका इन्हाँ लिआवा।’
– ‘चला बिटिया। तनिक इहाँ आइके खानजू के परनाम करा।’
विप्र दुहिता ने धरती पर माथा टेक कर दूर से ही खानखाना को परनाम किया। खानखाना को अपने सवाल का जवाब मिल गया। उन्होंने रीवां नरेश के यहाँ से आई एक लाख रुपयों की पोटली निकाली और विप्र देवता के चरणों में धर दी- ‘ अऊर कछु सेवा होई ते कहा।’
– ‘अब कवनऊ साध बाकी नाइ बा खानजू। बिटिया क हाँथ पिअर होइ जाये त तोहरे साथ बैठिके माला जपब।’
– ‘एक काम हमरउ करा?’
– ‘एक काही के, दुई कहा न, सेवक सेवकाई न करे तो का करे?’ बूढ़े का रोम-रोम खानखाना के प्रति आभारी था।
– ‘ई चिट्ठिी तुलसी बाबा के दइ देह्य।’
बूढ़े ब्राह्मण ने उसी दिन गुसाईंजी की सेवा में उपस्थित हो सब विवरण कह सुनाया और खानजू की चिठिया उनके हाथ में रख दी। गुसाईंजी ने चिट्ठी को पढ़ा तो उनके नेत्रों से आंसुओं की धारा बह निकली। उसमें लिखा था- ”गोद लिये हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।”[1]
[1] इस पंक्ति के दो अर्थ हैं- पहला तो ये कि यह कन्या अपनी गोद में तुलसीदासजी जैसा गुणी बेटा लेकर प्रसन्नता पूर्वक विचरण करे। दूसरा अर्थ यह कि माता हुलसी, अपने पुत्र तुलसी को गोद में लिये घूमें। इसके तुलसीदास जैसा बेटा हो। (तुलसीदासजी की माता का नाम हुलसी था।)