अलवर जिले में देवती माचेड़ी नाम के दो गाँव हैं। इन्हीं में से एक गाँव में साधारण बनियों के घर में हेमू का जन्म हुआ था। जिस समय वह विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर अपने सिर पर चंवर ढुलवाता हुआ पानीपत की लड़ाई लड़ने गया तो वह अपना सारा धन अपने वृद्ध पिता के पास माचेड़ी के दुर्ग में छोड़ गया। जिस दिल्लीधीश्वर के पास अपने समय की सबसे बड़ी हस्तिसेना थी, अपने समय का सबसे बड़ा तोपखाना था, जो अपने हाथियों को मक्खना खिलाता हुआ युद्ध के मैदान में पहुँचा था, उस राजा की सम्पत्ति का अनुमान लगा पाना सहज संभव नहीं है। यदि यह कहा जाये कि यक्षराज कुबेर का खजाना भी महाराज हेमचंद्र के खजाने के समक्ष क्या रहा होगा तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बैरामखाँ ने सुना था कि हेमू की रानी भी युद्ध क्षेत्र में उपस्थित है और हेमू का सारा खजाना उसके पास है। जब महाराज हेमचंद्र पकडे़ गये तो उसने अपने आदमी रानी के पीछे भेजे किंतु लाख पैर पटकने पर भी रानी हाथ नहीं लगी। वह जाने किन पर्वतों में गुम हो गयी। बैरामखाँ जानता था कि यदि हेमू का खजाना उसके हाथ लग जाये तो वह जीवन भर के लिये धन की तंगी से छुटकारा पा जायेगा। इसलिये उसने रानी का पीछा नहीं छोड़ा और नासिरुलमुल्क को देवती माचेड़ी पर आक्रमण करने भेजा। बैरामखाँ का अनुमान था कि रानी देवती माचेड़ी अवश्य जायेगी।
बैरामखाँ का अनुमान सही निकला। रानी पानीपत के मैदान से सीधी देवती माचेड़ी अपने श्वसुर के पास आयी और युद्ध के सब हाल उन्हें सुनाये। वृद्ध पिता को अपने प्रतिभाशाली पुत्र के इस भयानक अंत पर दुःख तो हुआ किंतु भाग्य का विधान समझ कर सिर पर हाथ धर कर बैठ गया। उसकी आँख से एक आँसू तक न निकला। उसकी निश्चलता को देखकर भ्रम होता था कि वह जीवित आदमी न होकर पत्थर की मूर्ति है। यहाँ तक कि वह अपनी शोक संतप्त पुत्रवधू को सांत्वना भी न दे सका।
रानी वीर भारतीय नारी थी। विपत्ति में धैर्य रखना जानती थी। काफी देर तक वह चुपचाप अपने निश्चल हो गये श्वसुर को देखती रही। जब उसे किसी अनिष्ट की आशंका हुई तो उसने वृद्ध श्वसुर को हिलाकर कहा- ‘पिताजी!’
वृद्ध ने सिर से हाथ हटा कर पुत्रवधू की ओर देखा।
– ‘पिताजी! महाराज का सारा कोष मुझे दे दें।’
– ‘जब राजा ही नहीं रहा तो रानी उस खजाने का क्या करेगी? क्या अब भी कोश में ममता शेष है?’ वृद्ध श्वसुर ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा।
– ‘आप जानते हैं पिताजी कि कोष के प्रति मेरे मन में कभी भी ममता नहीं रही।’
– ‘तो फिर क्या बात है?’
– ‘मैं इस कोष को सुरक्षित रूप से कहीं छिपा देना चाहती हूँ।’
– ‘ क्यों?’
– ‘पिताजी! समझने का प्रयास करें। बैरामखाँ हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। वह शीघ्र ही माचेड़ी पर आक्रमण करेगा। यदि महाराज का खजाना दुष्ट बैरामखाँ के हाथ लग गया तो हिन्दू जाति पर भयानक कहर टूट पड़ेगा। जिस प्रकार उसने हमारे ही तोपखाने से हमें मार डाला है, उसी प्रकार वह हमारे ही धन से अजेय बनकर सम्पूर्ण हिन्दू जाति को रौंद डालेगा।
– ‘किंतु पुत्री! तू इसे लेजाकर रखेगी कहाँ? एक न एक दिन तो बैरामखाँ इस कोष तक पहुँच ही जायेगा। इतनी सामर्थ्य आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में किस के पास है जो बैरामखाँ का मार्ग रोक सके?’
– ‘मैं इसे ऐसे स्थान पर ले जाकर छिपाऊंगी कि बैरामखाँ कभी उस तक पहुँच ही न सके।’
– ‘इससे तो अधिक अच्छा होगा कि प्रजा से प्राप्त की गयी सम्पत्ति पुनः प्रजा को लौटा दी जाये। क्यों न इसे निर्धन लोगों में बाँट दिया जाये?’ वृद्ध आँखों में चमक लौट आयी।
– ‘यह ठीक है पिताजी कि राजा की सम्पत्ति प्रजा की ही होती है और जब राजा न रहा तो प्रजा को इसे पुनः प्राप्त करने का अधिकार है किंतु यदि हम इसे निर्धन लोगों में बांटेंगे तो उनकी विपत्ति और अधिक बढ़ जायेगी। बैरामखाँ उन पर भी आक्रमण करेगा और उनसे छीन लेगा।’
– ‘तो फिर तुम इसे कहाँ ले जाकर रखोगी?
– ‘मैं इसे घने जंगलों में छिपा दूंगी जहाँ से इसे कोई भी प्राप्त न कर सके।’
वृद्ध ने वीर पुत्रवधू की बात मान ली और कोशागार की तालिका उसे सौंप दी। रानी ने इससे पूर्व इस कोश को एक साथ नहीं देखा था। इस विपुल स्वर्ण भण्डार को देखकर उसकी आँखें चौंधिया गयीं। कोश में इतना सोना था कि उससे ठोस सोने का एक पूरा हाथी निर्मित किया जा सकता था। कोश से स्वर्ण को बाहर निकालते हुए क्षण भर के लिये उसे शोक अवश्य हुआ होगा कि यह विपुल स्वर्ण उसके लिये किसी काम का न था।
रानी ने समस्त स्वर्ण अपने हाथियों पर रखवाया और एक रात श्वसुर के चरणों की धूल माथे से लगाकर दुर्ग के गुप्त मार्ग से बाहर हो गयी। कोई न जान सका कि रानी कहाँ गयी।
कहते हैं कि रानी अलवर जिले में स्थित बीजवाड़े की पहाड़ियों में जाकर छिप गयी। उसने कई दिनों तक जंगलों में घूम-घूम कर स्वर्ण-आभूषण धरती में अलग-अलग स्थानों पर दबा दिये ताकि यदि बैरामखाँ सोने का पीछा करता हुआ बीजवाड़े की पहाड़ियों में आ भी पहुँचे तो भी उसे एक साथ सम्पूर्ण कोष कभी भी प्राप्त न हो।[1]
जब नासिरुलमुल्क ने देवती माचेड़ी के चारों ओर घेरा डाला तब तक रानी सारा स्वर्ण लेकर जा चुकी थी किंतु यह सारी कार्यवाही इतने गोपनीय ढंग से की गयी थी कि इस बात की खबर किसी को कानों कान भी नहीं हुई। नासिरुलमुल्क ने माचेड़ी की गढै़या पर जम कर बारूद बरसाया। महाराज हेमचंद्र के आदमी यहाँ भी बहादुरी से लड़े किंतु हजारों मुगल सैनिकों के सामने इन मुट्ठी भर आदमियों की सामर्थ्य ही क्या थी!
महाराज हेमचंद्र के पिता अस्सी साल की वृद्धावस्था में भी हथियार उठा कर लड़े। वे एक ऐसी सेना के नायक थे जिसका राजा पहले ही युद्ध में मारा जा चुका था किंतु फिर भी लड़ना उनका धर्म था, उसलिये वे तब तक लड़ते रहे जब तक कि नासिरुलमुल्क के सिपाहियों ने उन्हें पकड़ नहीं लिया। नासिरुलमुल्क वृद्ध को जंजीरों में जकड़कर दिल्ली ले आया जहाँ बैरामखाँ ने उन्हें अकबर के समक्ष पेश किया- ‘बादशाह सलामत! यह बूढ़ा-शैतान काफिर हेमू का बाप है। लाख समझाने पर भी मुसलमान होने से इन्कार करता है। इसका क्या किया जाये?’ बैरामखाँ ने सिर झुकाकर पूछा।
– ‘जब पिता का राज्य पुत्र भोगता है तो पिता को भी पुत्र के अच्छे-बुरे का दण्ड भोगना चाहिये। हेमू हमारा दुश्मन था उस नाते से यह भी हमारा दुश्मन है। उचित तो यही है कि इस काफिर की गर्दन उड़ा दी जाये किंतु यदि यह अब भी इस्लाम कुबूल करता है तो इसे छोड़ दिया जाये।’ अकबर ने कहा।
– ‘बोल काफिर क्या कहता है?’ बैरामखाँ ने वृद्ध को ललकारा।
– ‘मैं अस्सी वर्ष से अपने धर्म में हूँ और अपने ईश्वर की पूजा करता हूँ। क्या केवल इसलिये मुसलमान बन जाऊं कि मुझे अपने प्राण संकट में दिखायी दे रहे हैं? तू यदि मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दे तब भी मैं अपना धर्म नहीं छोड़ूंगा। हमारे ऋषियों ने कहा है, स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मौ भयावह।’ वृद्ध ने जंजीर से जकड़ी हुई अपनी गर्दन ऊपर की।
बैरामखाँ ने संकेत किया। मौलाना पीर मुहम्मद ने वृद्ध की गर्दन एक ही वार में उड़ा दी। इस अवसर पर बैरामखाँ ने अलवर और माचेड़ी से लूटा गया बहुत सा सोना और माचेड़ी से पकड़े गये पचास हाथी बादशाह की नजर किये। इसी के साथ महाराज हेमचंद्र का सम्पूर्ण वैभव, शौर्य और पराक्रम इतिहास के पन्नों में सदा-सदा के लिये खो गया।
[1] कई सालों तक राहगीरों को बीजवाड़ा की पहाड़ियों में सोने की ईंटें तथा मोहरें मिला करती थीं।