कांग्रेस सहित समस्त राष्ट्रीय संस्थाओं ने 1919 ई. के सुधारों को अपर्याप्त, असन्तोषजनक और निराशापूर्ण घोषित किया। 1919 के सुधारों की जांच करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1927 ई. में साइमन कमीशन को भारत भेजा। भारतीयों ने इस कमीशन का तीव्र विरोध किया। कांग्रेस ने साइमन रिपोर्ट के प्रत्युत्तर में नेहरू रिपोर्ट तैयार की किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस रिपोर्ट की उपेक्षा की। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन तीव्र हो उठा। ब्रिटिश सरकार ने भावी सुधारों के बारे में विचार विमर्श करने के लिए लन्दन में तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये। इन गोलमेज सम्मेलनों में हुए विचार-विमर्श के आधार पर मार्च 1933 में ब्रिटिश सरकार ने भारत के भावी सुधारों का एक श्वेत-पत्र प्रकाशित किया। श्वेत-पत्र में दिये गये सरकारी निर्णयों एवं प्रस्तावों पर विचार करने के लिए एक संयुक्त संसदीय-समिति बनाई गई। 11 नवम्बर 1934 को इस समिति का प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ। इस प्रतिवेदन में थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित किया। अगस्त 1935 में इसे ब्रिटिश क्राउन की स्वीकृति प्राप्त हो गई। इस अधिनियम को भारत सरकार अधिनियम 1935 कहा जाता है। इस अधिनियम में 321 धाराएं और 10 परिशिष्ट हैं। इस अधिनियम में भी अनेक कमियां थीं फिर भी यह अधिनियम अत्यन्त महत्त्व का था। इसमें पहली बार ब्रिटिश प्रान्तों एवं देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ स्थापित करने, प्रान्तों में द्वैध शासन के स्थान पर प्रान्तीय स्वराज्य प्रारम्भ करने और केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना किये जाने की व्यवस्था की गई थी।
अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ
भारत सरकार अधिनियम-1935 की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-
(1.) गृह-सरकार के नियन्त्रण में ढील
इस अधिनियम के माध्यम से प्रान्तों में स्वायत्त शासन तथा केन्द्र में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की व्यवस्था की गई। इसलिए भारत सचिव के उन अधिकारों में कमी की गई जिनके द्वारा वह भारत सरकार पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखता था किन्तु गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि कर दी गई। इससे भारत सचिव पहले की तरह ही शक्तिशाली हो गया क्योंकि गवर्नर जनरल और गवर्नर उसी के अधीन थे। इस प्रकार 1935 के अधिनियम से भारत सचिव के प्रत्यक्ष नियंत्रण में कमी अवश्य हुई परंतु उसकी वास्तविक सत्ता पूर्ववत् बनी रही।
1935 के अधिनियम द्वारा भारत परिषद् (इंडिया कौंसिल) को समाप्त करके सलाहकार परिषद् की स्थापना की गई। सलाहकारों की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक छः निश्चित की गई। इन सलाहकारों में से आधे ऐसे होने चाहिए थे जो भारत में 10 वर्ष तक ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी रह चुके हों तथा अपनी नियुक्ति के समय उन्हें भारत छोड़े हुए दो वर्ष से अधिक नहीं हुए हों। सलाहकारों का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया। कुछ निश्चित बातों को छोड़कर यह भारत मंत्री (सचिव) की इच्छा पर निर्भर था कि वह उनसे परामर्श करे अथवा नहीं। यदि परामर्श करे तो सामूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत रूप से? इस प्रकार यह सलाहकार परिषद पहले की भारत परिषद् से कहीं अधिक व्यर्थ और शक्तिहीन थी।
1935 के अधिनियम के द्वारा हाई कमिश्नर का पद बना रहा। अब उसकी नियुक्ति गर्वनर जनरल के व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ दी गई। गवर्नर जनरल उसे पद से हटा भी सकता था, अतः वह ब्रिटिश हितों को ही संरक्षण देता था। भारत सचिव का हस्तान्तरित विषयों पर नियंत्रण लगभग समाप्त कर दिया गया तथा उसका शासन पूर्णतः, भारतीय मन्त्रियों को सौंप दिया गया परंतु जिन विषयों में गवर्नर जनरल और गवर्नर अपनी व्यक्तिगत इच्छा से काम करते थे, वहाँ भारत सचिव का नियंत्रण पूर्ववत बना रहा। व्यावहारिक रूप में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा, क्योंकि 1935 के अधिनियम का संघीय पक्ष कभी लागू ही नहीं हुआ तथा केन्द्र का प्रशासन 1919 के अधिनियम के अनुसार चलता रहा। केवल प्रान्तों में जहाँ पूर्ण स्वायत्तता दी गई, वहाँ गृह सरकार के नियंत्रण में कमी आ गई थी।
(2.) अखिल भारतीय संघ की स्थापना
इस अधिनियम के अन्तर्गत एक अखिल भारतीय संघ स्थापित करने की व्यवस्था की गई जिसमें 11 गवर्नरों के प्रान्त , 6 चीफ कमिश्नरों के प्रान्त और भारत की 566 देशी रियासतों को सम्मिलित करने की व्यवस्था की गई। ब्रिटिश भारत के प्रान्तों के लिए संघ में सम्मिलित होना अनिवार्य था परन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। इसलिए प्रस्तावित संघ दो शर्तें पूरी होने के पश्चात् ही स्थापित किया जा सकता था-
(क.) संघीय संसद के दोनों सदन ब्रिटिश सम्राट से प्रार्थना करें कि संघ की स्थापना की जाये।
(ख.) कम से कम इतनी देशी रियासतें संघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति दें कि उनकी जनसंख्या कुल रियासती जनसंख्या की आधी से अधिक हो तथा जो संघीय सभा में 53 स्थानों से अधिक स्थानों के अधिकारी हों।
संघ के दोनों सदनों में देशी राज्यों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया था। संघीय विधान सभा में 375 सदस्यों में से 125 सदस्य तथा संघीय राज्य सभा में 260 सदस्यों में से 140 सदस्य देशी रियासतों के प्रतिनिधि होनेे थे। चूंकि देशी रियासतों ने निर्धारित संख्या में संघ में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया, अतः इस अधिनियम की संघीय योजना कार्यान्वित ही नहीं हो सकी।
(3.) केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना
1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन का अन्त कर दिया गया तथा केन्द्र में द्वैध शासन लागू कर दिया गया। संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया- रक्षित विषय तथा हस्तान्तरित विषय। रक्षित विषयों में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, चर्च सम्बन्धी मामले और कबाइली क्षेत्र के मामले सम्मिलित थे। इनका शासन गवर्नर जनरल अपनी इच्छानुसार चला सकता था। रक्षित विषयों के प्रशासन में गवर्नर जनरल एक कार्यकारिणी परिषद् की सहायता लेता था, जिसमें सदस्यों की संख्या तीन से अधिक नहीं हो सकती थी। उनकी नियुक्ति सम्राट करता था और वे गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी होते थे। ये केन्द्रीय विधान मण्डल के दोनों सदनों के पदेन सदस्य होते थे और उनकी बैठकों में भाग लेते थे किन्तु उनके प्रति उत्तरदायी नहीं थे।
हस्तान्तरित विषयों का शासन चलाने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होती थी जो संघीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी थी। मन्त्रियों की नियुक्ति और पदमुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा होती थी। इनकी अधिकतम संख्या 10 हो सकती थी। मन्त्रियों के लिए यह आवश्यक था कि वे संघीय विधान मण्डल के किसी भी सदन के सदस्य हों। न होने की स्थिति में 6 माह में सदन का सदस्य बनें या पद-त्याग करें। हस्तान्तरित विषयों के बारे में यह आशा की गई थी कि गवर्नर जनरल मन्त्रियों की सलाह से उनका शासन चलायेगा किंतु हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में गवर्नर जनरल को विशेषाधिकार दिये जाने से स्थिति पहले जैसी ही हो गई।
(4.) संघीय विधान मण्डल की निर्बलता
संघीय विधान मण्डल के दो सदन थे- संघीय विधान सभा और संघीय राज्य सभा। संघीय विधान सभा में 375 सदस्य थे जिनमें 125 स्थान देशी रियासतों को दिये गये। इनका मनोनयन देशी रियासतों के नरेशों को करना था। प्रान्तों के प्रतिनिधियों का चुनाव सामान्य स्थानों, मुसलमानों व सिक्खों के सुरक्षित स्थानों पर अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा होना था। इनमें 82 स्थान मुसलमानों को प्राप्त थे। इस प्रकार, देशी रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों और मुस्लिम प्रतिनिधियों को मिलाकर सरकार बड़ी सरलता से अपना स्थायी बहुमत स्थापित कर सकती थी। इसी प्रकार, संघीय राज्य सभा में कुल 260 स्थानों में से 140 स्थान देशी रियासतों को दिये गये और 6 स्थानों पर महिलाओं, अल्पमतों तथा दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिए गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाने थे। शेष सदस्यों का चुनाव साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली के आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से होना था। अतः संघीय राज्य सभा में भी सरकार सरलता से अपना बहुमत स्थापित कर सकती थी।
संघीय विधान मण्डल की शक्तियों को सीमित करके उसे निर्बल बना दिया गया। विधान मण्डल 1935 के अधिनियम में संशोधन नहीं कर सकता था और न ब्रिटिश संसद के कानूनों के विरुद्ध कोई कानून पारित कर सकता था। विधान मण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को गवर्नर जनरल अस्वीकृत कर सकता था और गवर्नर जनरल द्वारा स्वीकृत विधेयक को इंग्लैण्ड की संसद रद्द कर सकती थी। विधान मण्डल की वित्तीय शक्तियाँ अत्यंन्त सीमित थीं। बजट के दो भाग थे- (1.) भारत के राजस्व से किया जाने वाला व्यय (2.) शेष व्यय। भारत के राजस्व से किया जाने वाला व्यय सम्पूर्ण बजट का लगभग 80 प्रतिशत होता था, जिस पर विधान मण्डल बहस तो कर सकता था किन्तु उसमें कोई कटौती नहीं कर सकता था। कोई भी वित्त विधेयक गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के बिना विधान मण्डल में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। विधान मण्डल के अधिवेशन के दौरान भी गवर्नर जनरल को आपात-कालीन अधिकार थे। वह अधिनियम भी पारित कर सकता था। गवर्नर जनरल के आपात-कालीन अधिकार भी व्यापक थे। वह इस अधिनियम को स्थगित करके, न्यायालय के अतिरिक्त अन्य समस्त अधिकार अपने हाथ में ले सकता था।
विधान मण्डल को निर्बल बनाना, अँग्रेजों की सोची-समझी चाल थी। क्योंकि वे भारतीयों को वास्तविक शक्ति देना ही नहीं चाहते थे। प्रो. कीथ ने लिखा है- ‘इस अधिनियम द्वारा एक ओर तो भारतीयों को यह विश्वास दिलाने की चेष्टा की गई कि उन्हें सब कुछ दे दिया गया है और दूसरी ओर संरक्षणों और आरक्षणों की व्यवस्था कर अँग्रेजों को यह विश्वास दिलाया गया कि उन्होंने कुछ भी नहीं खोया है।’
(5.) अधिकारों के विभाजन की नई पद्धति
इस अधिनियम द्वारा विषयों का विभाजन किया गया। संघीय सूची में संघीय सरकार से सम्बन्धित 59 विषय थे। प्रान्तीय सूची में प्रान्तीय हितों के 54 विषय थे। जिन 36 विषयों के सम्बन्ध में संघ और प्रान्त, दोनों कानून बना सकते थे, उन्हें समवर्ती सूची में रखा गया। इस सूची में यदि प्रान्त और केन्द्रीय विधान मण्डल के कानून में किसी प्रकार का विरोध उत्पन्न हो जाये तो केन्द्रीय विधान मण्डल का कानून मान्य था। अवशिष्ट शक्तियों के बारे में यह व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से केन्द्रीय विधान मण्डल अथवा प्रान्तीय विधान मण्डल को इन विषयों पर कानून बनाने की शक्ति दे सकता था।
विश्व के किसी भी संविधान में अधिकारों के विभाजन की ऐसी पद्धति नहीं थी। विश्व के संघीय संविधानों में दो पद्धतियां प्रचलित थीं- (1.) संघ के अधिकार क्षेत्रों की स्पष्ट व्याख्या करके अवशिष्ट शक्तियां संघीय इकाइयों को सौंप दी गई थीं। (2.) संघीय इकाईयों के अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या करके अवशिष्ट शक्तियां संघ को सौप दी गई थीं।
1935 के अधिनियम में समवर्ती सूची के सम्बन्ध में संघ को उच्चता दे दी गई और अवशिष्ट शक्तियों के सम्बन्ध में गवर्नर जनरल को अधिकार दे दिया गया।
संघीय व्यवस्थापिका में साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था प्रजातंत्रीय भावना के प्रतिकूल थी। मताधिकार भी धनी तथा विशेष प्रकार के पदों पर आसीन व्यक्तियों को दिया गया था। शक्तियों के उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि व्यवस्थापिका की शक्तियां नाम-मात्र की थीं। गवर्नर जनरल तथा ब्रिटिश क्राउन के प्रतिबन्धों का क्षेत्र बहुत व्यापक था। व्यवस्थापिका के पास कार्यकारिणी पर नियंत्रण लगाने की शक्तियां भी नाममात्र की थीं। गवर्नर जनरल व्यवस्थापिका की इच्छा के विरुद्ध भी कानून और मांगों को स्वीकृत कर सकता था। ऐसी परिस्थितियों में मन्त्री, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी न रहकर गवर्नर जनरल के प्रति ही उत्तरदायी थे।
(6.) संघीय न्यायालय की स्थापना
प्रस्तावित भारत संघ की विभिन्न इकाइयों के मध्य उठने वाले तथा संघ और उसकी इकाइयों के मध्य उठने वाले विवादों पर निर्णय पर निर्णय देने के लिये 1935 के अधिनियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से किसी भी कानूनी मामले पर संघीय न्यायालय से राय मांग सकता था। संघीय न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय नहीं था तथा उसके द्वारा की गई अधिनियम की व्याख्या अन्तिम नहीं थी। संघीय न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध कई मामलों में प्रिवी कौंसिल की न्याय-समिति को अपील की जा सकती थी-
(1.) ऐसे मामले जिनमें 1935 के अधिनियम की व्याख्या अथवा इस अधिनियम के अधीन जारी किये गये सपरिषद् आदेश की व्याख्या का प्रश्न उत्पन्न होता हो और संघीय न्यायालय द्वारा प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत निर्णय दिया गया हो।
(2.) ऐसे मामले जिनमें किसी रियासत के प्रवेश पत्र (इन्स्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) द्वारा संघीय सरकार को दी गई कानूनी और कार्यकारिणी शक्ति के विस्तार का प्रश्न उत्पन्न होता हो।
(3.) संघ में सम्मिलित होने वाली देशी रियासतों में संघीय विधान मण्डल द्वारा बनाये हुए कानूनों को लागू करने से जो विवाद उत्पन्न हों।
उपर्युक्त मामलों को छोड़कर शेष मामलों में प्रिवी काउंसिल की न्याय समिति की अपीलें केवल संघीय न्यायालय की आज्ञा से ही की जा सकती थीं।
(7.) प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना
1935 के अधिनियम की समस्त व्यवस्थाओं में भारतीयों की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था प्रान्तीय शासन से सम्बन्धित थी। इन व्यवस्थाओं के अन्तर्गत जिस प्रकार के शासनतंत्र की स्थापना की जानी थी, उसे प्रान्तीय स्वायत्तता कहा गया। भारतीयों ने समझा कि उन्हें अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में शासन व्यवस्था चलाने में काफी स्वतंत्रता होगी परन्तु इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त प्रान्तीय स्वायत्तता कल्पना मात्र थी। प्रान्तीय स्वशासन मन्त्रियों की अपेक्षा गवर्नरों के लिए अधिक था। इस अधिनियम के अन्तर्गत दिखावे के तौर पर प्रान्तों को अपने आन्तरिक मामलों में काफी हद तक स्वतंत्रता दे दी गई। प्रान्तों में द्वैध शासन का अन्त कर दिया गया। जो विषय प्रान्तीय सूची में दिये गये, उनके प्रशासन के सम्बन्ध में प्रान्तों को स्वशासन दे दिया गया और केन्द्रीय नियंत्रण को सीमित कर दिया गया। अब प्रान्तीय शासन के संचालन का भार मन्त्रियों पर आ पड़ा, जो विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी होते थे। इस प्रकार, सतही तौर पर प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई।
1935 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर को कानूनी और समस्त वास्तविक शक्तियां प्रदान की गईं। गवर्नर को कानून निर्माण के क्षेत्र में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त थीं। प्रत्येक विधेयक गवर्नर की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता था। गवर्नर अपने विवेक से ब्रिटिश क्राउन की ओर से उस पर स्वीकृति प्रदान कर सकता था, उसे गवर्नर जनरल के पास भेज सकता था या विधान मण्डल को वापस भेज सकता था। गवर्नर को व्यवस्थापिका से स्वतंत्र कानून निर्माण के अधिकार भी प्राप्त थे। गवर्नर को दो प्रकार के अध्यादेश जारी करने के भी अधिकार थे-
(1.) उस समय जब प्रान्तीय विधान मण्डल का अधिवेशन हो रहा हो और आपात-कालीन परिस्थिति उत्पन्न हो जाए जिसमें तुरन्त कार्यवाही की आवश्यकता हो।
(2.) उस समय जब विधान मण्डल का सत्र चालू न हो। गवर्नर को आपातकालीन परिस्थितियों में प्रान्तीय शासन व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का भी अधिकार था।
गवर्नर को वित्तीय क्षेत्र में भी कई अधिकार प्राप्त थे। गवर्नर की स्वीकृति के बिना कोई भी आर्थिक प्रस्ताव विधान मण्डल में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता था। बजट के सुरक्षित भाग पर विधान मण्डल का कोई नियंत्रण नहीं था। बजट के शेष भाग पर विधान मण्डल स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकते थे। गवर्नर को शासन के क्षेत्र में विशेष उत्तरदायित्व तथा व्यक्तिगत निर्णय सम्बन्धी अधिकार भी प्राप्त थे। 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत मन्त्रियों की जो दशा थी वह द्वैध शासन की व्यवस्था के अन्तर्गत मन्त्रियों की दशा से अच्छी नहीं कही जा सकती। किसी भी वस्तु और किसी भी कार्य पर मन्त्रियों का पूर्ण अधिकार नहीं था। गवर्नर व्यक्तिगत निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत मन्त्रियों की सलाह को अमान्य कर सकता था।
1935 के अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नरों को बहुत शक्तियां दी गई थीं। इसलिए भारत के समस्त प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसे अस्वीकार कर दिया किन्तु जब इस अधिनियम को प्रान्तों में 1 अप्रैल 1937 से लागू करने की घोषणा की गई तब समस्त दल चुनावों में भाग लेने को तैयार हो गये। चुनावों के बाद उस समय तक मन्त्रिमण्डल बनाना व्यर्थ था, जब तक गवर्नर जनरल द्वारा यह आश्वासन न दे दिया जाये कि गवर्नर, प्रान्तों के दैनिक प्रशासन में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं करेगा।
(8.) गवर्नरों और गवर्नर जनरल की मनमानी शक्यिाँ
इस अधिनियम ने देश में राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रबल दबाव होते हुए भी गवर्नरों और गवर्नर जनरल को मनमानी शक्तियां प्रदान करके उत्तरदायी सरकारों की स्थापना निरर्थक कर दी। इस अधिनियम द्वारा भारतीय विधान मण्डलों को आर्थिक मामलों में नियंत्रण देकर भी अन्तिम वास्तविक नियंत्रण अँग्रेजों ने अपने पास रख लिया। यद्यपि कानून और व्यवस्था विभाग, उत्तरदायी मन्त्रियों को सौंप दिया गया तथापि शान्ति स्थापित रखने का विशेष उत्तरदायित्व गवर्नर का था। इस विशेष उत्तरदायित्व का बहाना लेकर गवर्नर राष्ट्रीय आन्दोलन का दमन कर सकते थे।
भारत सरकार अधिनियम 1935 की आलोचना
अँग्रेज विद्वानों ने इस अधिनियम की अत्यधिक प्रशंसा की है। प्रो. कूपलैंण्ड ने इस अधिनियम को रचनात्मक तथा राजनैतिक विचार की एक महान् सफलता बताया है। उसके मत में, इस अधिनियम ने भारत के भाग्य को अँग्रेजों के हाथों से भारतीयों के हाथों में बदल दिया। कूपलैण्ड के इस विचार से भारतीय विद्वान सहमत नहीं हैं। इस अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित संघीय व्यवस्था में निम्नलिखित दोष थे-
(1.) संघ का निर्माण भारतीयों की स्वतंत्र इच्छा से नहीं किया गया था।
(2.) इस अधिनियम में औपचारिक स्वराज्य की चर्चा तक नहीं की गई।
(3.) भारतीय संघ में सम्मिलित होने वाली इकाइयों में किसी प्रकार की समानता नहीं थी। ब्रिटिश प्रान्त, चीफ कमिश्नरों के प्रान्त और देशी रियासतों में क्षेत्रफल, शासन-पद्धति, जनसंख्या आदि की दृष्टि से बहुत अधिक असमानता थी।
(4.) संघीय सरकार का इकाइयों पर असमान अधिकार रखा गया था।
(5.) प्रांतों के लिए संघ में सम्मिलत होना अनिवार्य था परन्तु देशी रियासतों की इच्छा पर था कि वे संघ में सम्मिलित हों या नहीं।
(6.) देशी रियासतों की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या की 33 प्रतिशत थी परन्तु देशी रियासतों को संघीय विधान मण्डल के दोनों सदनों में अधिक स्थान दिये गये।
(7.) गृह सरकार सम्बन्धी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन नाममात्र का था। भारत सचिव के प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखने के अधिकारों में कमी की गई थी परन्तु गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों के माध्यम से वह भारतीय शासन पर अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखता था। इस प्रकार भारत सचिव की वास्तविक सत्ता पूर्ववत् ही रही।
(8.) भारत परिषद् की समाप्ति का कोई औचित्य नहीं था, उसके स्थान पर कमजोर सलाहकार परिषद आ गई।
(9.) केन्द्र में द्वैध शासन प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया था। प्रान्तों में 1919 के अधिनियम द्वारा स्थापित द्वैध शासन में जो कठिनाई पैदा हुई उसका केन्द्र में पैदा होना स्वाभाविक था। इस बात को जानते हुए भी कि भारतीय जनता द्वैध शासन से घृणा करती है; केन्द्र में द्वैध शासन लागू की गई।
(10.) इस अधिनियम में गवर्नर जनरल को विवेक से कार्य करने के अधिकार के साथ अनेक स्वेच्छाचारी शक्तियां प्रदान कर दी गईं। इस कारण, भारतीयों को जो थोड़े बहुत अधिकार मिले थे वे भी नगण्य-प्रायः हो गये।
(11.) संघीय विधान मण्डल का संगठन भी दोषपूर्ण था। साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली राष्ट्रवाद के लिए अहितकारी थी, फिर भी उसका विस्तार किया गया। हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करके देश के राजनीतिक वातावरण को विषैला बना दिया गया।
(12.) अप्रत्यक्ष निर्वाचन की पद्धति प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध थी। राज्यसभा को धनिकों, जमींदारों आदि उच्च वर्गों का सदन बना दिया गया।
(13.) इस अधिनियम के अन्तर्गत विधान मण्डल को स्वतंत्र संविधान बनाने अथवा 1935 के अधिनियम में संशोधन करने का अधिकार नहीं दिया गया।
(14.) प्रान्तीय गवर्नर के स्वेच्छापूर्ण अधिकारों के कारण प्रान्तीय स्वायत्तता प्रदर्शन मात्र, बनकर रह गई। गवर्नर के अधिकार तथा उत्तरदायित्व इतने अधिक थे कि प्रान्तीय विधान मण्डल एवं कार्यकारिणी के अधिकार पूर्णतः संकुचित हो गये।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1935 के अधिनियम की आलोचना करते हुए लिखा है- ‘नया संविधान एक ऐसा यन्त्र था जिसकी ब्रेक तो दृढ़ थी परन्तु जिसका कोई इंजन नहीं था।’ जिन्ना ने लिखा है– ‘1935 की योजना पूर्ण रूप से स्वीकार न करने योग्य है।’ पं. मदनमोहन मालवीय ने लिखा है- ‘1935 का अधिनियम हमारे ऊपर जबरदस्ती लाद दिया गया था। यद्यपि बाहर से यह लोकतन्त्रीय दिखायी देता था परन्तु अन्दर से खोखला था।’ इंग्लैण्ड में मजदूर दल के नेता एटली ने कहा- ‘इस अधिनियम से संघीय स्तर पर रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी तत्त्वों को इतनी अधिक प्रधानता दी गई कि किसी भी प्रकार का प्रजातन्त्रीय विकास सम्भव नहीं है।’
निस्सन्देह भारत जैसे विशाल देश के लिए संघ की नितान्त आवश्यकता थी और इसलिए भारतीयों द्वारा संघ योजना का स्वागत किया जाना चाहिए था किन्तु इसकी कमियों के कारण इसकी सर्वत्र आलोचना की गई। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा आदि समस्त दलों ने इसे अस्वीकार कर दिया। देशी रियासतों के शासकों ने भी इसका विरोध किया। अतः 11 सितम्बर 1940 को गवर्नर जनरल ने घोषणा की कि इस अधिनियम का संघ सम्बन्धी भाग निलम्बित तथा निष्क्रिय कर दिया गया है।