‘धर्म’ का शाब्दिक अर्थ है- धारण करना। जो मनुष्य उत्तम विचार, उत्तम दर्शन और उत्तम आचरण को धारण करता है, वह मनुष्य धर्म से सम्पन्न है। संसार भर में मनुष्य मात्र का धर्म एक ही है। सभी मनुष्य एक ही धर्म से संचालित होते हैं किंतु सांसारिक स्तर पर धर्म के अगल-अलग नाम और स्वरूप दिखाई देते हैं। वस्तुतः ये नाम और स्वरूप, धर्म के नहीं, सम्प्रदायों के हैं। धर्म तो एक ही है। यही कारण है कि भारत के लोग प्रायः यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि ‘हिन्दू धर्म’ कोई धर्म नहीं है, यह तो जीवन-शैली है।
इस कथा से हम वैवस्वत मनु के पुत्र ईक्ष्वाकु तथा उसके वंशज राजाओं की कथाओं की चर्चा करेंगे। महाराज वैवस्वत-मनु के के दस पुत्र हुए जिनमें से एक का नाम ईक्ष्वाकु था। बहुत से ग्रंथों में इसी ईक्ष्वाकु से ईक्ष्वाकु वंश आरम्भ होना माना जाता है। जबकि कुछ ग्रंथों में ईक्ष्वाकु को मनु की आठवीं पीढ़ी का वंशज बताया गया है। यह संभव है कि इस वंश में ईक्ष्वाकु नाम के दो राजा हुए हों जिनमें से पहला ईक्ष्वाकु महाराज मनु का पुत्र था और दूसरा ईक्ष्वाकु मनु की आठवीं पीढ़ी का वंशज था।
मनु के पिता सूर्य के नाम पर मनु के वंशजों को सूर्यवंशी कहते थे। मनु के वंशज कई हजार सालों की अवधि में हिमालय के तराई क्षेत्र से होते हुए मध्य भारत और दक्षिण भारत तक की भूमि पर फैल गए। मनु के वंशजों ने स्वयं को आर्य कहा और उन्होंने भारत की विशाल भूमि को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त एवं दक्षिणापथ आदि भागों में विभक्त किया।
ऋग्वेद में इक्ष्वाकु शब्द का उल्लेख केवल एक बार हुआ है। कुछ विद्वानों के अनुसार इक्ष्वाकु किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं था अपितु यह आर्यों का एक समूह था। उनके वंशज उत्तरी भागीरथी घाटी में बसते थे। कुछ ग्रंथों के अनुसार ईक्ष्वाकु के वंशजों का सम्बन्ध उत्तर-पश्चिम के जनपदों से भी था।
बहुत से पुराणों की मान्यता है कि मनु के महान पुत्र इक्ष्वाकु के नाम पर सूर्यवंश को ईक्ष्वाकु वंश कहा गया। कुछ पौराणिक कथाएं राजा इक्ष्वाकु को अमैथुनी सृष्टि द्वारा मनु की छींक से उत्पन्न बताती हैं। इसीलिए इनका नाम इक्ष्वाकु पड़ा।
ईक्ष्वाकु को सूर्यवंशी राजाओं में पहला राजा माना जाता है। ईक्ष्वाकु ने कोसल नामक राज्य की स्थापना की तथा अपनी राजधानी अयोध्या बसाई। राजा ईक्ष्वाकु के 100 पुत्र हुए। इनमें से पचास पुत्रों ने उत्तरापथ में और पचास पुत्रों ने दक्षिणापथ में राज्य किया। ईक्ष्वाकु के ज्येष्ठ पुत्र का नाम विकुक्षि था। इक्ष्वाकु के दूसरे पुत्र निमि ने मिथिला का राजकुल स्थापित किया।
पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-
राजा ईक्ष्वाकु के सम्बन्ध में एक कथा इस प्रकार मिलती है-
महर्षि दधीचि का पुत्र पिप्पलाद घोर तपस्वी था। उसने पीपल के पत्ते खाकर जीवन यापन किया था। अथर्ववेद का प्रथम संकलन पिप्पलाद ऋषि ने ही तैयार किया था। महर्षि पिप्पलाद का पुत्र भी वेदों का परम ज्ञाता हुआ। उसके जप से प्रसन्न होकर देवी सावित्री ने उसे, अन्य ब्राह्मणों से ऊपर, शुद्ध ब्रह्मपद प्राप्त करने का वर दिया और उससे कहा कि समय आने पर यम, मृत्यु तथा काल भी उसके समक्ष उपस्थित होकर उससे धर्मानुकूल विचार-विमर्श करेंगे।
सावित्री के वरदान के अनुसार एक दिन धर्म ने पिप्पलाद के पुत्र के समक्ष प्रकट होकर उससे कहा कि वह शरीर त्याग कर पुण्य लोक प्राप्त करे।
ब्राह्मण-पुत्र उस शरीर का त्याग नहीं करना चाहता था जिस शरीर से उसने दीर्घकाल तक तपस्या की थी किंतु यम, मृत्यु तथा काल भी पिप्पलाद के समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने ब्राह्मण-पुत्र से कहा कि उसके पुण्यों का फल प्राप्त होने का समय आ गया है। अतः वह अपनी इच्छानुसार कोई भी लोक चुन ले किंतु पिप्पलाद का पुत्र कोई भी लोक ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हुआ। वह इसी लोक में और इसी शरीर में रहना चाहता था जिसमें उसने भगवान श्री हरि विष्णु की तपस्या की थी।
तभी राजा इक्ष्वाकु तीर्थाटन करते हुए वहाँ आ पहुंचे। ब्राह्मण-पुत्र ने उनका भी समुचित सत्कार किया तथा उनकी इच्छा जाननी चाही। इस पर राजा इक्ष्वाकु ने ब्राह्मण से कहा कि हम आपको विपुल धन-धान्य एवं अमूल्य रत्न देना चाहते हैं। ब्राह्मण-पुत्र ने धन-धान्य तथा रत्न आदि लेने से मना कर दिया और राजा से कहा कि आप ही मुझसे कुछ मांगें।
इस पर राजा इक्ष्वाकु ने ब्राह्मण-पुत्र की परीक्षा लेने के लिए कहा कि आपने सौ वर्ष तक जो घनघोर तपस्या की है उस तप का फल मुझे दे दें। ब्राह्मण-पुत्र ने उसी समय अपने तप का फल राजा को दे दिया।
इस पर राजा इक्ष्वाकु ने ब्राह्मण पुत्र से पूछा- ‘आपके द्वारा किए गए तप का फल क्या है?’
ब्राह्मण-पुत्र ने उत्तर दिया- ‘मैं निष्काम तपस्वी हूं, अतः मेरे द्वारा किए गए तप का फल क्या है, यह मैं नहीं जानता।’
राजा बोला- ‘जिस फल का स्वरूप ज्ञात नहीं, ऐसा फल मैं नहीं लूंगा। अतः आप मेरे पुण्य-फलों सहित उसे पुनः ग्रहण करें।’
इस पर ब्राह्मण-पुत्र ने एक बार दे दी गई वस्तु वापस लेने से मना कर दिया। इससे राजा के समक्ष भारी संकट खड़ा हो गया क्योंकि क्षत्रिय होने के कारण राजा दान नहीं ले सकता था।
ब्राह्मण ने कहा- ‘इस विषय में आपको पहले सोचना चाहिए था। आपने मुझसे मेरे तप का फल मांगा, मैंने दे दिया।’
उसी समय विकृत और विरूप नामक दो भयानक व्यक्ति एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था होकर वहाँ पहुंचे। वे दोनों राजा इक्ष्वाकु से न्याय करने का आग्रह करने लगे।
विरूप ने राजा को बताया- ‘पूर्व काल में विकृत ने एक गाय किसी ब्राह्मण को दान में दी थी। विरूप ने उस दान का फल विकृत से मांग लिया था। कालांतर में विरूप ने दो गाएं बछड़ों सहित ब्राह्मणों को दान दीं और विरूप को उस दान के कारण बड़ा फल प्राप्त हो गया। अतः विरूप, विकृत से लिया गया पुण्य-फल उसे वापस लौटा देना चाहता है किंतु विकृत उस दान का फल वापस लेने को तैयार नहीं है। वह कहता है कि उसने दान दिया था, ऋण नहीं दिया था।’
उन दोनों की बातें सुनकर राजा इक्ष्वाकु असमंजस में पड़ गया किंतु ब्राह्मण-पुत्र पिप्पलाद ने कहा- ‘विकृत ठीक कह रहा है, दान में दी गई वस्तु ऋण नहीं होती इसलिए उसे वापस नहीं लिया जाता। यदि तुम स्वयं ही मांगे हुए फल अब ग्रहण नहीं करोगे तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा।’
पिप्पलाद की बात सुनकर राजा इक्ष्वाकु चिंतातुर हो उठा क्योंकि जो विवाद विकृत और विरूप के बीच में हो रहा था, वही विवाद तो पिप्पलाद के पुत्र तथा राजा इक्ष्वाकु के बीच में भी चल रहा था। अतः राजा ने ब्राह्मण के श्राप से भयभीत होकर अपना हाथ पिप्पलाद के पुत्र के समक्ष पसार दिया। ब्राह्मण ने अपने तप तथा राजा के पुण्यकर्मों के समस्त फल राजा को प्रदान कर दिए।
राजा ने कहा- ‘मेरे हाथों में संकल्प-जल है। इस जल को साक्षी बनाकर मैं कहता हूं कि हम दोनों के पुण्यों का फल हम दोनों को एक समान प्राप्त हो।’
राजा की यह बात सुनकर विरूप और विकृत अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। उन्होंने कहा- ‘महाराज! हम काम और क्रोध हैं। हमने धर्म, काल, मृत्यु और यम के साथ मिलकर आप दोनों की परीक्षा ली थी। आप दोनों ही अत्यंत धर्मनिष्ठ हैं अतः आप दोनों को एक समान लोक प्राप्त होंगे।’
इसके बाद वह ब्राह्मण-कुमार तथा राजा इक्ष्वाकु अपने मनों को जीतकर तथा दृष्टि को एकाग्र करके समाधि में स्थित हो गए। कुछ काल बीत जाने पर एक ज्योति ब्राह्मण-पुत्र के ब्रह्मरंध्र का भेदन करके निकली और स्वर्ग की ओर बढ़ी। भगवान ब्रह्मा ने उस ज्योति का स्वागत किया। वह तेजपुंज ब्रह्माजी के मुखारविंद में प्रविष्ट हो गया। उसके पीछे-पीछे उसी प्रकार राजा ने भी ब्रह्माजी के मुखारविंद में प्रवेश किया।
महाराज इक्ष्वाकु के कुल में अनेक महान राजा हुए। उसका वंशज अम्बरीष सम्पूर्ण धरती का पहला चक्रवर्ती सम्राट हुआ। उसका वंशज पृथु इतना प्रतापी राजा हुआ कि उसके नाम पर धरती को पृथ्वी कहा जाने लगा। इसी कुल में राजा मान्धाता हुआ जिसने 100 राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञ किए। मान्धाता को लवणासुर ने धोखे से मारा था। इस कुल में अनरयण्य नाम के दो राजा हुए। इनमें से दूसरे अनरण्य को लंकापति रावण ने धोखे से मारा था। राजा त्रिशंकु और राजा नहुष भी इसी वंश में हुए। पौराणिक साहित्य का प्रसिद्ध राजा सगर भी इसी कुल में हुआ जिसके साठ हजार पुत्रों को तारने के लिए उसका वंशज भगीरथ स्वर्ग से गंगाजी को धरती पर लेकर आया था। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र भी इसी कुल का विख्यात राजा हुआ।
आगे चलकर इक्ष्वाकु कुल में राजा दिलीप, रघु, अज तथा दशरथ ने जन्म लिया। राजा रघु वचन-पालन के लिए इतने प्रसिद्ध हुए कि इस वंश को रघुवंश कहा जाने लगा। राजा दशरथ ने देवासुर संग्राम में भाग लेकर देवताओं को विजय दिलवाई। देवराज-इन्द्र अयोध्या नरेश दशरथ के लिए अपना आधा सिंहासन छोड़ता था। इन्हीं राजा दशरथ के पुत्र कौसल्या नंदन राम हुए जिन्होंने लंकापति रावण को मारकर अपने पूर्वज अनरण्य की हत्या का बदला लिया था। दशरथ नंदन शत्रुघ्नजी ने लवणासुर को मारकर अपने पूर्वज मान्धाता की हत्या का बदला लिया था। इक्ष्वाकु राजाओं की परम्परा भारत में तब तक चलती रही जब तक कि भारत सरकार ने देशी राज्यों को भारत में अंतिम रूप से सम्मिलित नहीं कर लिया। आजादी के समय भी भारतवर्ष में ऐसे अनेक राज्य अस्तित्व में थे जिनके राजा अपनी वंश परम्परा को सूर्यवंश, इक्ष्वाकु वंश अथवा रघुवंश से मानते थे। मेवाड़ के गुहिल तथा जयपुर के कच्छवाहे भी स्वयं को इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न मानते हैं।