बांस के कण्डील
अभी हम कुता शहर में कुछ दूर चले थे कि हमें महिलाओं का एक जुलूस सड़क पर चलता हुआ दिखाई दिया। हमारे अनुरोध पर पुतु ने गाड़ी सड़क पर एक तरफ लगा दी और हम जुलूस देखने के लिए नीचे उतर गए। यह एक शानदार जुलूस था जिसमें मुख्यतः महिलाएं ही भाग ले रही थीं। इन महिलाओं ने अनिवार्य रूप से लम्बी सफेद कमीज तथा काले रंग की तहमद पहन रखी थी। सभी महिलाओं ने अनिवार्य रूप से सफेद शर्ट पर लाल रंग के कपड़े का फेंटा बांध रखा था।
सभी महिलाओं के सिर पर बांस की खपच्चियों से बने हुए कंदील थे जिनके ऊपरी हिस्से में दीपक का प्रकाश जगमगा रहा था। ताजा बांस से निर्मित होने के कारण ये कंदीलें पीले रंग की दिखाई देती थीं तथा इन पर फूलों से सजावट भी की गई थी। ऐसा प्रतीत होता था कि ये कंदील किसी देवता के देवालय थे तथा इन देवताओं की शोभायात्रा निकाली जा रही थी।
शोभा यात्रा में सम्मिलित समस्त महिलाओं का शरीर सधा हुआ, कमर सीधी, गर्दन तनी हुई तथा चाल मंद थी। जुलूस के अगले हिस्से में एक महिला सफेद कमीज के नीचे सफेद तहमद धारण करके आई थी। उसके साथ एक पुरुष भी चल रहा था, उसने भी सफेद कमीज तथा सफेद तहमद धारण कर रखी थी। ये दोनों इस शोभायात्रा में धार्मिक महत्व रखने वाले पुजारी अथवा ओझा जैसे प्रतीत हो रहे थे।
इस शोभायात्रा के साथ कुछ ऐसी महिलाएं भी चल रही थीं जिन्होंने अपने सिर पर कंदील-नुमा देवालय नहीं उठा रखे थे। उनकी पोषाक की शैली तो वही थी किंतु उनकी कमीज, तहमद तथा फेंटे के रंग अलग थे। शोभायात्रा के अग्रभाग में कुछ पुरुष लाल रंग के दो छत्र उठाए चल रहे थे जैसे कि भारत में रामनवमी, अग्रसेन जयंती एवं चेटीचंड के जुलूसों में देखने को मिलते हैं।
शानदार संगीतमय जुलूस
कंदील वाली महिलाओं की शोभायात्रा जैसे ही हमारे सामने से आगे बढ़ गई, हमें कुछ दूरी पर सड़क पर चलता हुआ एक शानदार संगीतमय जुलूस आता हुआ दिखाई दिया। इसमें केवल पुरुष और बच्चे सम्मिलित थे। कुछ छोटी लड़कियां भी अपने पिताओं की अंगुली पकड़ कर इस जुलूस में चल रही थीं। पुरुषों और लड़कों ने अनिवार्य रूप से सफेद शर्ट तथा सफेद रंग की ठीक वैसी ही टोपी पहन रखी थी जैसी टोपी सुबह से पुतु धारण किये हुए था और जिसके स्थान पर भारतीय कौआ बैठे हुए होने का आभास होता था।
पुरुषों तथा लड़कों ने एक विशेष शैली में तहमद बांध रखी थी। यह तहमद दो लड़ी थी। अर्थात् एक तहमद के ऊपर दूसरी तहमद बांधी हुई थी। नीचे वाली तहमद अधिक लम्बी थी तथा ऊपर वाली तहमद कम लम्बी थी। इस कारण दोनों तहमदें आसानी से दिखाई दे रही थीं। इनमें से एक तहमद प्रायः सफेद रंग की थी तथा दूसरी तहमद पीले अथवा लाल-पीले और सफेद-काली चौकड़ियों के कपड़े से बनी हुई थी। बाली के हिन्दुओं के लिए सफेद-काली चौकड़ी के कपड़े की तहमद का अवश्य ही कोई धार्मिक महत्व है क्योंकि इस तरह की तहमद नगर में बने हुए विभिन्न तोरणद्वारों के बाहर बनी मूर्तियों, स्तम्भनुमा देवालयों पर भी बंधी हुई हैं।
जुलूस में सबसे आगे चल रहे युवक मृंदग, झांझ तथा कुछ विचित्र से वाद्ययंत्र बजाते हुए चल रहे थे। इनमें से कुछ वाद्ययंत्र भारतीय प्राचीन मंदिरों में अप्सराओं और गंधर्वों के हाथों में दिखाई देते हैं। इन वाद्ययंत्रों से निकल रही संगीतमय ध्वनि यद्यपि हमने जीवन में प्रथम बार सुनी थी किंतु यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता था कि यह एक धार्मिक आयोजन का संगीत है। इस जुलूस को, साथ चल रहे युवक ही नियंत्रित कर रहे थे। चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस का एकाध कर्मचारी शायद ही कहीं दिखाई देता था किंतु इसके उपरांत भी कहीं कोई भागम-भाग, धक्का-मुक्की, चिल्ल-पौं जैसी स्थिति नहीं थी।
सभी लोग बहुत शांत भाव से कदम से कदम मिलाते हुए आधी सड़क खाली छोड़कर चल रहे थे। छोटे बच्चों ने अपने पिताओं के हाथ अनिवार्य रूप से पकड़े हुए थे। इस जुलूस को देखकर वाहन स्वतः ही रुक जाते थे ताकि जुलूस निर्बाध रूप से चलता रहे।
बाली के नागरिकों का आत्मानुशासन देखकर मुझ जैसे व्यक्ति को अचंभित होना स्वाभाविक था जिसने अपना पूरा जीवन भारत के भीड़-भड़ाके और शोर-शराबे में व्यतीत किया हो। जहाँ लोग अनिवार्य रूप से एक-दूसरे को धक्का देते हुए, एक दूसरे का कंधा छीलते हुए, जोर-जोर से चिल्लाते और बतियाते हुए सड़कों पर निकलते हैं। भारत में जुलूस का अर्थ ही सड़क पर फैली अफरा-तफरी से है। भारत की सड़कों पर निकलने वाले धार्मिक जुलूसों में आधी सड़क खाली कौन छोड़ता है!
बारोंग के समक्ष बलि
हम इन जुलूसों का आनंद लेकर फिर से पुतु की कार में सवार हो गए। अभी लगभग दो किलोमीटर चले थे कि पुतु ने गाड़ी को ब्रेक लगाये। हमने देखा कि सामने से एक और जुलूस चला आ रहा है। एक बड़ी सी खुली गाड़ी पर एक विशालाकाय बारोंग की प्रतिमा रखी हुई है। यह एक विशालयाकाय एवं भयानक दिखने वाली आकृति का वाराह था। लोग उसके सामने नृत्य कर रहे हैं।
ठीक इसी समय दूसरी दिशा से सैंकड़ों स्त्री-पुरुषों का एक और जुलूस आया। ये लोग बहुत सजे-धजे थे और इन्होंने नये वस्त्र धारण कर रखे थे। अधिकांश महिलाओं ने सफेद अथवा पीले रंग के जालीदार कपड़े की लम्बी कमीजें पहन रखी थीं जिन पर लाल अथवा गुलाबी रंग के फेंटे बंधे थे। इन महिलाओं ने अपने सिरों पर बांस की टोकरियां उठा रखी थीं जिनमें फल-फूल रखे थे। कुछ लोगों ने अपने हाथों में केले के पत्ते लिए हुए थे।
ये दोनों जुलूस एक चौरोहे की दो विपरीत दिशाओं से आए और चौराहे पर आकर ठहर गए। इसका अर्थ यह था कि एक जुलूस बारोंग के साथ आया था और दूसरा जुलूस बारोंग की पूजा करने के लिए आया था। बारोंग की आकृति अब शांत खड़ी थी तथा उसके समक्ष नृत्य बंद हो गया था। दूसरी तरफ से जो स्त्रियां टोकरियों में पूजन सामग्री लाई थीं, वह पूजन सामग्री टोकरियों सहित बारोंग के समक्ष रख दी गईं।
बारोंग के साथ चल रहे ओझा जैसे दिखने वाले एक मनुष्य ने बारोंग की स्तुति में मंत्र बोलने आरम्भ किये। ये बाली की स्थानीय भाषा में थे, इसलिए हमारी समझ में नहीं आए। लगभग 15 मिनट तक मंत्रोच्चार एवं पूजन चलता रहा। इसके बाद ओझा को मुर्गी का एक छोटा चूजा दिया गया। एक व्यक्ति ने ओझा को बड़ी सी छुरी पकड़ाई। छोटा सा चूजा भय से कांप रहा था। ऐसा लगता था, वह समझ गया था कि उसके साथ क्या होने वाला है!
मैं भी समझ चुका था कि यहाँ क्या होने वाला है! इसलिए इससे आगे देख पाना मेरे लिए संभव नहीं था। मैं तस्वीरें उतारना छोड़कर पुतु की गाड़ी में आकर बैठ गया। मैंने कुछ क्षणों के लिए आंखें बंद करके ईश्वर से प्रार्थना की कि चूजे को इस प्रक्रिया में कष्ट न हो। पता नहीं इससे चूजे का कष्ट कम हुआ या नहीं, किंतु इससे मेरे मन को शांति अवश्य मिली थी।
मैंने आंखें खोलकर पुतु से पूछा कि क्या उसकी बलि दी गई? पुतु ने बुझे स्वर से कहा कि हाँ बारोंग को चिकन की बलि दी गई ताकि वह प्रसन्न हो और इस नगर से समस्त बुराइयों को नष्ट करके यहाँ के लोगों की रक्षा करे। उसकी आवाज बता रही थी कि उसे भी इससे कष्ट हुआ है। हो भी क्यों नहीं, इन दिनों वह शाकाहारी बनने का अभ्यास जो कर रहा था और सप्ताह में दो दिन केवल शाकाहार कर रहा था। चौराहे पर सार्वजनिक बलि का आयोजन बहुत अटपटी लगने वाली बात है किंतु यह बाली के हिन्दू समाज में प्रचलित महत्वपूर्ण प्रथाओं में ऐ एक है जो सर्वजनहिताय- सर्वजनसुखाय की भावना से प्रेरित है। वैष्णव धर्म के प्रसार से पहले भारत के हिन्दुओं में भी यह कुप्रथा भिन्न-भिन्न रूपों में प्रचलित थी। मुझे स्मरण हो आया कि 27 जून 2002 को नेपाल के हिन्दू राजा ज्ञानेन्द्र वीर विक्रम शाह ने भारत के कामाख्या मंदिर में देवी के समक्ष भैंसा, बकरा, भेड़, कबूतर तथा बत्तख की पंचबलि करवाई थी। इस घटना के पश्चात् छः साल से भी कम समय में नेपाल की जनता ने राजा ज्ञानेन्द्र शाह को गद्दी से उतारकर, नेपाल से राजशाही का समपापन कर दिया था। मुर्गी के बच्चे की बलि के बाद समस्त मनुष्य उठकर चले गए किंतु जाने से पहले वहाँ उपस्थित प्रत्येक वस्तु को उठाकर अपने साथ ले गए। सड़क और चौराहा ऐसे साफ हो गए जैसे कुछ देर पहले वहाँ कुछ हुआ ही नहीं था।
पपीते की सब्जी
जब मैंगवी गांव के बाहर चावल के खेतों में बने हुए अपने सर्विस अपार्टमेंट में पहुंचे तो संध्या के छः बजे थे। सूर्य देवता पश्चिम में काफी नीचे आ गए थे किंतु दिन का उजाला अभी भी बना हुआ था। पिताजी की दृष्टि सर्विस अपार्टमेंट से कुछ दूरी पर सड़क के किनारे खड़े पपीते के एक लम्बे पेड़ पर गई। पूरा पेड़ लम्बी आकृति के बड़े फलों से लदा हुआ था। पिताजी ने पुतु से पूछा कि क्या हम एक पपीता तोड़ सकते हैं! पुतु ने कहा कि ये पपीते पूरे मौहल्ले के हैं, इन्हें कोई भी तोड़कर अपने उपयोग में ले सकता है किंतु उसे बाजार में बेच नहीं सकता। पुतु को यह जानकार सुखद आश्चर्य हुआ कि हम कच्चे पपीते की सब्जी बनाकर खाने वाले थे। पिताजी ने ही वह पपीता तोड़ा। पपीता तोड़ने के प्रयास में पपीता उनकी नाक पर आ गिरा और उन्हें हल्की सी चोट भी लगी किंतु पपीते की सब्जी इतनी स्वादिष्ट बनी कि उसके लिए यह चोट सहन की जा सकती थी।
चावल के खेतों में चाय पीते और सूर्यास्त देखते हुए बीती संध्या
हिन्दुस्तानी आदमी की सबसे बड़ी विलासिता है, सामूहिक रूप से बैठकर चाय पीना। हमारे पास दूध पर्याप्त मात्रा में आ चुका था। हमने सर्विस अपार्टमेंट में घुसते ही चाय बनाई और चावल के खेतों में खुलने वाले उसी लॉन में बैठकर पी जहाँ से धरती स्वर्ग जैसी दीख पड़ती थी। वह संध्या चावल के खेतों के बीच सूर्यास्त देखते हुए बीती। चाय का एक चरण पूरा होने पर दूसरा चरण भी आयोजित किया गया।