घटनायें इतनी अप्रत्याशित गति से घटित हुईं कि निर्ऋति प्रतनु के प्रतिज्ञाबद्ध होने तथा सैंधव नृत्यांगना के प्रति अनुरक्त होने की सूचना रानी मृगमंदा को नहीं दे पायी। जब गुल्मपतियों के समक्ष रानी मृगमंदा को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा तो निऋति के पश्चाताप का पार न रहा। क्यों चूक गयी वह रानी मृगमंदा को समय रहते सूचित करने से कि अतिथि सैंधव हम नागकन्यओं से नहीं वरन् किसी सैंधव नृत्यांगना के प्रति अनुरक्त है! यदि रानी मृगमंदा को समय रहते यह सूचना मिल गयी होती तो उन्हें लज्जित नहीं होना पड़ता, रानी मृगमंदा गुल्मपतियों के समक्ष यह प्रस्ताव ही नहीं रखतीं।
निऋति को इस बात पर भी आश्चर्य और क्षोभ था कि कैसे रानी मृगमंदा ने निऋति और हिन्तालिका से विमर्श किये बिना गुल्मपतियों के समक्ष विवाह करने की घोषणा कर दी! और तो और रानी मृगमंदा ने शिल्पी प्रतनु से भी विमर्श नहीं किया। यह एक लज्जाजनक अध्याय था जो नाग-राजकुल के साथ सदा-सर्वदा के लिये जुड़ गया था।
कहीं इस स्थिति के लिये स्वयं निऋति ही तो उत्तरदायी नहीं! उसने ही कहाँ हिन्तालिका द्वारा दी गयी सूचना पर विश्वास किया था कि शिल्पी प्रतनु सैंधव नृत्यांगना से विवाह करने के लिये फिर से लौट कर सैंधव पुर मोहेन-जो-दड़ो जायेगा! निऋति ने तो सोचा था कि अपने पुर से निष्कासित शिल्पी कुछ भी क्यों न कहे, अब वह लौट कर कहीं नहीं जा सकेगा और प्रस्ताव करने पर नागकुमारियों के साथ विवाह करने के लिये अपनी स्वीकृति दे ही देगा।
जाने कितने समय तक निऋति विचारों के प्रवाह में डूबती-उतरती रही,। उसे तो यह भी पता नहीं चला कि कब सूर्यदेव दक्षिण दिशा को त्यागकर दुर्ग की पश्चिमी प्राचीर पर आ बैठे! एक बार दृष्टि ऊपर उठी तो देखा, कक्ष का प्रकाश धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है। एक अंधेरा है जो न जाने कहाँ-कहाँ से निकल कर कक्ष में समाता जा रहा है। निऋति ने अनुभव किया कि धुएँ जैसा अंधेरा उसकी नसों में भी भरता जा रहा है। जिससे उसका चिंतन प्रवाह रुद्ध होकर एक ही स्थान पर ठहर सा गया है। क्या सोच रही है वह ? क्या सोचना चाहती है ? उसने अपने आप से प्रश्न किये किंतु उत्तर में केवल धुआँ ही धुआँ दिखाई दिया उसे। सेविका ने दीपाधार पर रखे दीप में स्नेहक भर कर वर्तिका को प्रज्वलित कर दिया किंतु निऋति उसी प्रकार विचारों की अवरुद्ध तरंगों के साथ हिचकोले खाती रही।
जाने कितनी देर तक और यही स्थिति रहती किंतु अचानक रानी मृगमंदा ने निऋति के कक्ष में प्रवेश किया। रानी मृगमंदा काफी उत्तेजित थी और लगभग हांफती हुई चली आ रही थी। अतः कक्ष में प्रवेश करते ही बोलीं- ‘ सुना तुमने निऋति! वह जा रहा है। ऐसे कैसे जा सकता है वह ? क्या हमें कोई अधिकार नहीं उसे रोक सकने का?’
निऋति अपने विचारों में इतनी गहरी उतरी हुई थी कि उसने न तो रानी मृगमंदा का कक्ष में आना लक्ष्य किया और न रानी मृगमंदा के शब्द उसके कानों तक पहुँचे।
निऋति को निश्चल बैठे देखकर रानी मृगमंदा ठिठकी।
– ‘अब तुम्हें क्या हुआ निऋति ?’
निऋति की ओर से फिर भी कोई उत्तर नहीं आया देखकर रानी मृगमंदा ने उसका स्कंध हिलाया।
– ‘क्या सोच रही हो निऋति ?’
– ‘अरे आप कब आयीं ? मुझे तो ज्ञात ही नहीं हुआ।’ निऋति रानी मृगमंदा का स्पर्श पाकर आसन से उठ खड़ी हुई। उसने रानी मृगमंदा का अभिवादन किया और आसन ग्रहण करने का अनुरोध किया।
– ‘लगता है सूचना तुम तक पहले ही पहुँच गयी है, इसीलिये उदास होकर बैठी हो।’
– ‘कौनसी सूचना ?’ निऋति ने चैंक कर पूछा।
– ‘शिल्पी प्रतनु के जाने की सूचना।’
– ‘क्या! शिल्पी चला गया ?’
– ‘नहीं अभी गया नहीं किंतु जाना चाहता है।’
– ‘ कब ? अभी ?’
– ‘अभी नहीं, कल प्र्रातः होते ही चले जाना चाहता है। तुम रोको उसे निऋति। हिन्तालिका कह रही थी कि वह केवल तुम्हारी ही बात मानता है।’ रानी मृगमंदा ने कातर होकर निऋति के हाथ पकड़ लिये।
– ‘जाते हुए को कौन रोक सकता है बहिन! फिर वह हमारा लगता ही क्या है ? किस अधिकार से हम उसे यहाँ रोक सकते हैं ?’
– ‘किस अधिकार से रोक सकते हैं ? किसी भी अधिकार से रोको उसे! हिन्तालिका कह रही थी कि तुम रोक सकती हो उसे।’
– ‘इस समय कहाँ है वह ?’
– ‘अतिथि शाला में है। हिन्तालिका उसके पास है।’
– ‘आप यहाँ बैठें। मैं उसे और हिन्तालिका को यहीं बुलाकर लाती हूँ। हम तीनों मिलकर उसे समझाते हैं।’ निऋति रानी मृगमंदा को वहीं छोड़कर अतिथिशाला की तरफ दौड़ती सी चली गयी। विचारों का एक तीव्र आवेग उसके हृदय में उमड़ आया।
क्या सचमुच वह जा रहा है! क्या किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता उसे! अनायास एक दिन वन प्रांतर में विचरण करते हुए मिल जाने वाला अनजान अतिथि क्या इतने दिनों के सानिध्य के पश्चात भी सचमुच अतिथि ही रहा! बात ही बात में रानी मृगमंदा के प्रश्नों के रहस्य को तोड़ कर रख देने वाला यह विलक्षण शिल्पी क्या अपने हृदय पर अनुराग भरी छैनी की एक भी चोट का अनुभव नहीं कर पाया! रानी मृगमंदा की रक्षा के लिये अपने प्राणों पर खेलकर गरुड़ों का प्रवाह रोक देने वाला दृढ़ सैंधव क्या आज स्वयं ही हमारे प्राणों का हरण करके चला जायेगा! निऋति और हिन्तालिका को शिल्पकला के अनूठे प्रयोगों से परिचित करके क्या आज वह स्वयं ही जीवन से समस्त कलाओं का हरण करके चले जाना चाहता है ?
निऋति को अपनी गति पर नियंत्रण पाना पड़ा। उसने देखा कि हिन्तालिका और शिल्पी प्रतनु इसी ओर आ रहे हैं।
– ‘कहाँ जा रही हो निऋति ?’ प्रतनु ने पूछा।
– ‘आपही की सेवा में उपस्थित होने जा रही थी अतिथि महाशय।’ निऋति ने कतिपय रूक्ष स्वर में उत्तर दिया।
– ‘ किस प्रयोजन से ?’
– ‘रानी मृगमंदा आपको स्मरण कर रही हैं।’
– ‘हम तो स्वयं ही रानी मृगमंदा की सेवा में जा रहे हैं।’ हिन्तालिका ने उत्तर दिया।
निऋति उन्हें साथ लेकर अपने कक्ष में पहुँची। रानी मृगमंदा ने अपने स्थान पर खड़े होकर अतिथि का स्वागत किया। बहुत देर तक चारों प्राणी बिल्कुल मौन बैठे रहे। कोई कुछ नहीं बोला। आश्चर्य चकित था प्रतनु भी अपने मौन पर। क्यों नहीं वह कुछ बोल पाता! इतना तो पूछ ही सकता है कि रानी मृगमंदा किस आशय से उसे स्मरण कर रही थीं! किंतु नहीं प्रतनु की जिह्वा जैसे शब्दों का उच्चारण करना ही भूल गयी। अंत में निऋति ने मौन भंग किया- ‘ हमारी रानी मृगमंदा जानना चाहती हैं कि क्या आपका लौट जाना अत्यंत आवश्यक है ?’
– ‘हाँ, मेरा जाना अत्यंत आवश्यक है।’ प्रतनु की जिह्वा में जैसे शब्द पुनः लौट आये।
– ‘हम क्या करें कि आप अपना निर्णय बदल लें ?’
– ‘आपको ऐसा करने की आवश्यकता ही क्या है ?’
– ‘प्रश्न आवश्यकता का नहीं इच्छा का है।’
– ‘आपके लिये यह केवल इच्छा का प्रश्न है जबकि मेरे लिये यह प्रश्न किसी के जीवन मरण से जुड़ा हुआ है।’
– ‘क्या यह निश्चित है कि आप सैंधव नृत्यांगना रोमा की रक्षा करने में सफल हो जायेंगे ? आप असफल भी तो हो सकते हैं ?’
– ‘मैं मानता हूँ कि मेरा संकल्प इतना बड़ा है कि संभवतः मैं उसमें सफल नहीं होऊं किंतु क्या मुझे प्रयास भी नहीं करना चाहिये ?’ प्रतनु ने उलट कर प्रश्न किया।
– ‘क्या लाभ ऐसे प्रयास का जबकि असफलता निश्चित जान पड़ती है।’ निऋति ने हार नहीं मानी।
– ‘जिस प्रकार सफलता निश्चित नहीं है, उसी प्रकार असफलता भी निश्चित नहीं है किंतु मुख्य बात सफलता और असफलता की नहीं, मुख्य बात है देवी रोमा के दिये गये वचन की, वह मेरी प्रतीक्षा करेंगी। मुझे जाना ही होगा।’
– ‘मुख्य बात है देवी रोमा को दिये गये वचन की।’ निऋति ने मुँह बिगाड़ कर प्रतनु की नकल की, ‘और हमारे प्रति तुम्हारी कोई मुख्य बात है ही नहीं!’ एक तो वह है जिसके कारण तुम्हें मोहेन-जो-दड़ो से निष्कासित किया गया और एक हम हैं जिन्होंने तुम्हें सिर आँखों पर बिठाया। एक तरफ वो है जो केवल दो घड़ी तुम्हारे साथ रही और एक हम हैं जो इतने दिन से तुम्हारी सेवा कर रही हैं। फिर भी तुम्हारी मुख्य बात नृत्यांगना रोमा के साथ ही रही। तब हमें क्या लाभ हुआ तुमको अपना अतिथि बनाकर ?’
– ‘मैं मानता हूँ कि मुझे अतिथि बनाकर तुम्हें कोई लाभ नहीं हुआ किंतु निऋति! संसार में लाभ हानि की गणना ही तो मनुष्य को सुख नहीं देती! मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं केवल तुम्हारे साथ ही नहीं अपितु रानी मृगमंदा और हिन्तालिका के साथ भी अन्याय कर रहा हूँ किंतु मेरे सामने और कोई उपाय भी तो नहीं है। मैंने देवी रोमा को जो वचन दिया था, वह यहाँ आने से पहले दिया था। यदि मुझे पता होता कि आगे चलकर ऐसी परिस्थितियाँ मेरे सामने आयेंगी तो मैं देवी रोमा को कोई आश्वासन नहीं देता। इस पर भी यदि तुम कहो कि मुझे यहीं रुक जाना चाहिये और देवी रोमा को अनंत काल तक के लिये प्रतीक्षा करने के लिये छोड़ देना चाहिये तो मैं यहीं रुकने को प्रस्तुत हूँ।’ प्रतनु ने समर्पण कर दिया।
– ‘नहीं-नहीं! निऋति तुम्हें यह कदापि नहीं कहना चाहिये कि शिल्पी प्रतनु को अतिथि बनाकर हमें कोई लाभ नहीं हुआ। हमने इन्हें किसी लाभ की प्रत्याशा में अतिथि नहीं बनाया था। इसके उपरांत भी शिल्पी प्रतनु ने विपत्ति काल में हम पर कितना बड़ा उपकार किया है, हमें यह भी तो नहीं भूलना चाहिये। मेरा पूरा विश्वास है कि शिल्पी प्रतनु हम से भी उतना ही अनुराग रखते हैं जितना देवी रोमा से। यदि वे यहाँ से चले जाना चाहते हैं तो वह भी कत्र्तव्य के वशीभूत होकर। हमें उनके मार्ग की बाधा नहीं बनना चाहिये।’
इसके बाद कोई कुछ नहीं बोला। मानो रानी मृगमंदा ने निर्णय सुना दिया। हिन्तालिका की आँखों में पानी भर आया। उसने रानी मृगमंदा और अतिथि प्रतनु को प्रणाम किया और वह कक्ष से बाहर चली गयी। निऋति ने भी रोष से पैर पटकते हुए उसका अनुसरण किया। कक्ष में केवल दो प्राणी रह गये। एक तो शिल्पी प्रतनु और दूसरी रानी मृगमंदा। थोड़ी देर तक दोनों मौन रहे। चुप्पी का एक-एक पल पहाड़ जितना भारी हो जाता है। कई बार मनुष्य को लगता है कि इस पहाड़ को तिल भर सरका देना भी उसके वश में नहीं है।
समय कम था, रानी मृगमंदा को लगा कि चुप्पी का यह पहाड़ यदि आज नहीं खिसका तो फिर कभी नहीं खिसकेगा। अतः किंचित् संकोच के साथ क्षमा याचना करते हुए बोली- ‘ यदि निऋति ने अतिथि की मर्यादा का उल्लंघन किया हो तो मैं उसकी ओर से क्षमा याचना करती हूँ ।’
– ‘नहीं-नहीं। उसने किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। जो कुछ भी वह कह गयी है, प्रेम और राग के वशीभूत होकर ही तो! मैं इतना हृदयहीन तो नहीं जो शब्दों में छिपे प्रेम की ऊष्मा का अनुभव नहीं कर सकूँ! ‘
– ‘अतिथि यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि हम आपका प्रेम न पा सके।’ रानी मृगमंदा के शब्दों में घनघोर निराशा थी।
– ‘यह आपका नहीं, मेरा दुर्भाग्य है। मैं ही आप तीनों को न अपना सका।’
– ‘हमें आप सदैव स्मरण रहेंगे अतिथि।’
– ‘ मैं भी प्राण रहते आप तीनों की स्मृति अपने से विलग न कर सकूंगा।’
– ‘सैंधव नृत्यांगना देवी रोमा को हमारा प्रणाम………।’ रानी मृगमंदा का गला रुंध गया, वह अपनी बात पूरी नहीं कर सकी।