हुमायूँ के गुजरात अभियान के दौरान बैरामखाँ का सितारा बुलंदी पर पहुँचा था और वह साधारण सिपाही से मुगलिया सल्तनत का खानखाना तथा अकबर के अतालीक के पद पर आसीन हुआ था। ईस्वी 1572 में अकबर ने गुजरात पर चढ़ाई की। इस अभियान में उसने मिर्जाखाँ अब्दुर्रहीम को भी अपने साथ लिया। रहीम उस समय 16 साल का कड़ियल जवान था और उसके भाग्योदय का समय आ पहुँचा था। यह एक विचित्र बात थी कि कुदरत ने पिता की तरह पुत्र के भाग्योदय का प्रहसन भी गुजरात की जमीन पर लिखा था।
जब अकबर पाटन पहुँचा तो उसे बैरामखाँ का स्मरण हो आया। उसने मिर्जाखाँ को अपने पास बुलाया। अकबर ने रहीम से फिर से वह सब पूछा कि कैसे बैरामखाँ की हत्या हुई। अपनी बाल्य स्मृतियों के पिटारे में से रहीम ने वह सब विवरण कह सुनाया जो जहरीले कांटे की तरह रहीम के हृदय में गड़ा रहता था। रहीम के मुँह से फिर से बैरामखाँ की हत्या का विवरण सुनकर अकबर रोने को हो आया। उसने उस पाटन का राज्य रहीम को दे दिया जिस पाटन में बैरामखाँ की लोथ गिरी थी।
रहीम भाग्य की इस करवट पर हैरान था। यह वही पाटन थी जिसकी जमीन पर उसके बाप बैरामखाँ का खून गिरा था। यह वही पाटन थी जहाँ से चार साल का रहीम बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीन दीवाना की गोद में बैठकर भाग खड़ा हुआ था। यह वही पाटन थी जहाँ उसके बाप की कब्र मौजूद थी और जिस कब्र को उसने कभी नहीं देखा था। आज मिर्जाखाँ रहीम उसी पाटन का गवर्नर था।
मिर्जाखाँ अकबर से अनुमति लेकर अपने बाप की कब्र पर आँसू बहाने के लिये गया। बाप जो पाटन की कब्र में सोया था। बाप जो बेटे के दिल में सोया था। बाप जो खून के एक-एक कतरे में समाया हुआ था। बाप जिसे पाटन ने छीन लिया था। बाप जो कवि था। बाप जो योद्धा था। बाप जो बादशाहों का बादशाह था। उस बाप की कब्र पर बैठकर रहीम बहुत देर तक आँसू बहाता रहा।
इस प्रकार गुजरात की जमीन पर रहीम के भाग्य ने पहला कदम धरा। उस समय रहीम नहीं जानता था कि यही गुजरात एक दिन उसे भी खानखाना के आसन पर बैठायेगा और एक दिन पूरा गुजरात ही रहीम को दे दिया जायेगा। पाटन की सूबेदारी मिलने के दो साल बाद अकबर ने खाने आजम कोका से गुजरात छीन कर रहीम को सौंप दिया।