पिछली कुछ कथाओं में हमने चंद्रवंशी राजा ययाति की चर्चा की है। राजा ययाति से पूर्व के चंद्रवंशी राजाओं को अंतरिक्षीय शक्तियों के प्रतीक एवं स्वर्गलोक से सम्बन्धित माना जाता है। बहुत से पुराणों में उन राजाओं के साथ ऐसे कथानक भी जोड़ दिए गए हैं जिनसे वे धरती के राजा लगने लगते हैं।
इस स्थिति से ठीक उलट, राजा ययाति की कथा में ऐसे कथानक जोड़ दिए गए हैं जिनसे ययाति का सम्बन्ध स्वर्ग से होने का आभास होने लगता है जबकि ययाति धरती का राजा था, इसलिए बहुत से पुराणों में कहा गया है कि राजा ययाति धरती का पहला चक्रवर्ती राजा था।
हम चर्चा कर चुके हैं कि राजा ययाति अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को अपना उत्तराधिकारी बनाकर तथा अपने शेष चारों ज्येष्ठ पुत्रों को पुरु के अधीन सीमांत प्रदेशों का राजा बनाकर अपनी रानियों सहित तपस्या करने के लिए वन में चला गया।
ययाति ने यद्यपि अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को श्राप दिया था कि तेरे वंशजों को कभी राज्य न मिले किंतु ययाति ने यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती अर्थात् चम्बल नदी, वेतवती अर्थात् बेतवा नदी और शुक्तिमती अर्थात् केन नदी के प्रदेश दिए।
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वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि ययाति ने यदु को श्राप दिया था कि तुम मेरा अपमान करते हो इसलिए तुम्हारी संतान भी तुम्हारी तरह उद्दण्ड होगी। तुम भयंकर राक्षसों और यातुधानों को जन्म दोगे। राजकुल से बहिष्कृत यदु दुर्गम क्रौंचवन में चला गया। वहाँ उसने हजारों राक्षसों को जन्म दिया।
मत्स्य पुराण आदि पुराणों के अनुसार यदु अपने समस्त भाइयों मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ। इन रानियों से यदु का यादव वंश चला जो वीरता और धर्म परायणता के लिए जाना गया। इसी वंश में भगवान श्रीकृष्ण एवं बलराम प्रकट हुए तथा इसी वंश में कंस जैसा राक्षस उत्पन्न हुआ।
मत्स्य पुराण में लिखा है कि यदु के पांच पुत्र हुए जो सभी देवपुत्र सदृश तेजस्वी, महारथी और महान् धनुर्धर थे। उनके नाम सहस्रजि, कोष्टु, नील, अंतिक और लघु थे। सहस्रजि का पुत्र शतजि हुआ। शतजि के हैहय, हय और वेणुहय नामक तीन यशस्वी पुत्र हुए। हैहय के वंश में उत्पन्न रुद्रश्रेण्य वाराणसी नगरी का राजा हुआ।
इसी रुद्रश्रेण्य के वंश में आगे चलकर कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म हुआ। उसने दस हजार वर्षों तक भगवान दत्तात्रेय की आराधना करके चार वरदान प्राप्त किए। इनमें से पहला वरदान यह था कि मेरी एक हजार भुजाएं हों। दूसरा वरदान यह था कि जो लोग सत्पुरुषों के साथ अधर्म करते हैं, मैं उनका निवारण करूं। तीसरा वरदान यह था कि मैं सम्पूर्ण धरती को युद्ध में जीतकर उसका पालन करूं। चौथा वरदान यह था कि रणभूमि में युद्ध करते समय केवल वही व्यक्ति मेरा वध करे जो मुझसे अधिक बलवान हो।
वह जब भी युद्ध क्षेत्र में उतरता था, तब उसकी सहस्र भुजाएं प्रकट हो जाती थीं। उसी के अनुरूप उसके रथ, अस्त्र-शस्त्र एवं ध्वजा आदि भी प्रकट हो जाते थे। इस वरदान के कारण कार्तवीर्य अर्जुन सहस्रार्जुन कहलाने लगा। कार्तवीर्य अर्जुन ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए सातों द्वीपों को जीत लिया और उनका अधीश्वर बन गया। उसने सातों द्वीपों में दस हजार यज्ञों का आयोजन करवाया तथा प्रत्येक यज्ञ में ब्राह्मणों को यथोचित दक्षिणा प्रदान की।
उन यज्ञभूमियों में गड़े हुए यूप तथा यज्ञवेदिकाएं स्वर्ण-निर्मित थे। समस्त यज्ञकुण्ड विमानारूढ़ देवताओं द्वारा सुशोभित थे जो यज्ञ में अपना भाग लेने के लिए आए थे। गंधर्व और अप्सराएं भी नित्य आकर उन यज्ञों की शोभा बढ़ाती थीं। राजा सहस्रार्जुन रथ पर आरूढ़ होकर, हाथ में तलवार, चक्र और धनुष धारण करके सातों द्वीपों में भ्रमण करता हुआ चोर-डाकुओं को दण्डित करता था। वह पिच्यासी हजार वर्षों तक भूतल पर शासन करके समस्त रत्नों से परिपूर्ण होकर चक्रवर्ती सम्राट बना रहा।
राजा अर्जुन ही अपने योगबल से धरती भर के पशुओं का पालक था, वही खेतों का रक्षक था और वही समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था। उसने कर्कोटक नाग के पुत्र को जीतकर उसे अपनी माहिष्मती पुरी में बांध रखा था। जब वह जलक्रीड़ा करता था, तब अपनी एक हजार भुजाओं से समुद्र को मथ देता था जिससे पाताल में रहने वाले नाग एवं दैत्य व्यथित हो जाते थे। सहस्रार्जुन की भृकुटि से भयभीत होकर नर्मदा स्वतः उसके निकट आ जाती थी।
एक बार अर्जुन ने लंका नगरी में जाकर पुलस्त्य के पौत्र रावण को अपने धनुष की प्रत्यंचा से बांध लिया तथा अपनी राजधानी माहिष्मती में ले आया। जब महर्षि पुलस्त्य को इस बात का पता लगा तो उन्होंने माहिष्मती जाकर अर्जुन को बहुत समझाया। इस पर सहस्रार्जुन ने रावण को मुक्त कर दिया।
एक बार सहस्रार्जुन ने सूर्य देव के कहने पर एक वन को जलाकर राख कर दिया। उस वन में आपव नामक ऋषि की कुटिया थी, वह भी उस वन के साथ जल गई। आपव ऋषि एक हजार वर्ष से एक सरोवर में बैठकर तपस्या कर रहे थे। उन्होंने जब समाधि टूटने पर देखा कि सहस्रार्जुन ने उनकी कुटिया जला दी है तो आपव ऋषि ने अर्जुन को श्राप दिया कि भृगुकुल में उत्पन्न परशुराम तेरी एक हजार भुजाएं काटकर तेरा वध करेंगे। समय आने पर भगवान परशुराम ने सहस्रार्जुन की एक हजार भुजाएं काट दीं तथा उसका वध कर दिया। इसी सहस्रार्जुन के वंश में तालजंघ नामक क्षत्रियों का कुल उत्पन्न हुआ। उनकी कहानी फिर कभी कहेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता