पिछली कड़ी में हमने चर्चा की थी कि ईक्ष्वाकु वंशी राजाओं की उज्जवल परम्परा में अयोध्या नरेश राजा दशरथ के चार पुत्र हुए जिनमें सबसे बड़े रामचंद्र थे। इस कड़ी में हम उन राजकुमारों के त्याग और उच्च आदर्श के प्रतिमान स्थापित करने की चर्चा करेंगे।
राजा रदशरथ के बड़े पुत्र अपने शील, सौंदर्य एवं शक्ति के कारण सम्पूर्ण अयोध्यावासियों के प्रिय थे। रामचंद्र का विवाह मिथिला के राजा सीरध्वज की बड़ी पुत्री सीता से हुआ जो राजा सीरध्वज द्वारा खेत में हल चलाते समय भूमि को फाड़कर प्रकट हुई थी।
राजा दशरथ के पुत्र लक्ष्मण का विवाह राजा सीरध्वज की दूसरी पुत्री उर्मिला से हुआ था। दशरथ के पुत्र भरत का विवाह मिथिला के राजा सीरध्वज के छोटे भाई कुशध्वज की पुत्री माण्डवी से एवं शत्रुघ्न का विवाह कुशध्वज की छोटी पुत्री श्रुतकीर्ति से हुआ।
जब राजा दशरथ ने अपनी वृद्धावस्था का विचार करके अपने बड़े पुत्र रामचंद्र को राज्य देना चाहा तो रानी कैकेई ने देवासुर संग्राम में राजा दशरथ के प्राण बचाने के पुरस्कार के रूप में मिले दो वरदानों का उपयोग करते हुए अपने पुत्र भरत के लिए राजसिंहासन और कौसल्या नंदन रामचंद्र के लिए 14 वर्ष का वनवास मांग लिया।
राजकुमार रामचंद्र की रानी सीता एवं अनुज लक्ष्मण ने भी रामचंद्र के साथ वन में जाने का निर्णय लिया। रामचंद्र के वनवास के दौरान घटित घटनाओं से ईक्ष्वाकु वंशी राजाओं की शुभ्र परम्पराओं का इतिहास प्राप्त होता है। राजकुमार रामचंद्र ने 14 वर्ष की अवधि का उपयोग वनवासी ऋषियों एवं तपस्वियों का सानिध्य प्राप्त करने एवं ऋषियों को दुख देने वाले असुरों का संहार करने में किया।
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राम, लक्ष्मण एवं सीता अयोध्या से निकलकर गंगा-यमुना के संगम स्थल अर्थात् प्रयाग में स्थित भरद्वाज ऋषि के आश्रम पर गए तथा उनसे पूछा- ‘हमें वनवास की अवधि में कहाँ निवास करना चाहिए!’
ऋषि भरद्वाज ने उनसे अनुरोध किया- ‘आप यहीं रह जाइए। गंगा-यमुना के संगम पर स्थित तीर्थराज प्रयाग अत्यंत सुखकारी एवं पुण्य स्थल है।’
इस पर राम ने कहा- ‘यह स्थान अयोध्या के निकट है इसलिए अयोध्यावासी यहाँ आते रहेंगे और मेरे एकांतवास में विघ्न उत्पन्न करेंगे।’
इस पर महर्षि भरद्वाज ने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर जाकर निवास करने की सलाह दी। कुछ समय पश्चात् भरतजी अयोध्यावासियों को लेकर चित्रकूट पहुंचे तथा श्रीराम से अयोध्या लौट चलने का अनुरोध करने लगे तो राम ने पिता के वचनों का सम्मान रखने के लिए 14 वर्ष तक वन में ही रहने का संकल्प व्यक्त किया तथा अनुज भरत से कहा कि वह पिता के वचनों का पालन करते हुए अपना राज्याभिषेक करवा ले तथा अपने स्वर्गीय पिता दशरथ को, माता कैकेई को दिए हुए वचन रूपी ऋण से मुक्त करवाए।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि श्रीराम ने अपने अनुज भरत से कहा- ‘पुत्र अपने माता-पिता को पुत् नामक नर्क से मुक्ति दिलवाता है, इसलिए उसे पुत्र कहा जाता है। वही पुत्र है जो पितरों की सब ओर से रक्षा करता है। चूंकि हम राजा दशरथ के पुत्र हैं इसलिए हमें अपने पिता की मुक्ति के लिए उनके वचनों एवं आदेशों का पालन करना चाहिए। उन्होंने तुम्हें राज्य करने और मुझे वन में जाने का आदेश दिया था।’
राम ने कहा- ‘हे भरत! तुम शत्रुघ्नजी तथा समस्त ब्राह्मणों को साथ लेकर अयोध्या को लौट जाओ! मैं भी अब लक्ष्मण और सीता को लेकर दण्डकारण्य में प्रवेश करूंगा। भरत! तुम स्वयं मनुष्यों के राजा बनो और मैं जंगली पशुओं का सम्राट बूंगा। अतुलित बुद्धि वाले शत्रुघ्नजी तुम्हारी सहायता में रहें ओर सुविख्यात सुमित्राकुमार लक्ष्मण मेरे प्रधान मित्र हैं, हम चारों पुत्र अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा करें। तुम विषाद मत करो।’
जब श्रीराम ने भरत से यह कहा कि तुम मनुष्यों के राजा बनो और मैं जंगली पशुओं का सम्राट बनूंगा तो इस बात में कई गुप्त संदेश छिपे हुए थे। उनके कहने का आशय यह था कि अब मैं जंगल में घुसकर वहाँ निवास करने वाले नरभक्षी राक्षसों का अनुशासन करंगा अर्थात् उन्हें नष्ट करूंगा। आगे चलकर जब खर और दूषण श्रीराम पर आक्रमण करते हैं तो श्रीराम इस बात को दूसरे शब्दों में कहते हैं- ‘हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खोजत फिरही।’ अर्थात् हम क्षत्रिय राजकुमार हैं और इस वन में तुम्हारे जैसे पशुओं का ही वध करते फिर रहे हैं।
राजकुमार भरत ने श्रीराम के आदेश को स्वीकार लिया और उनसे कहा कि आपके आदेशानुसार मैं अयोध्या लौट जाउंगा तथा आप भी पिता के वचनों का सम्मान करते हुए चौदह वर्ष तक वन में रहें किंतु अयोध्या के राजा आप ही हैं।
मैं आपकी चरण पादुकाओं को शीश पर धरकर तथा उन पादुकाओं से आदेश लेकर राजकाज करूंगा एवं चौदह वर्ष बीतने पर जब आप अयोध्या लौटेंगे, तब आपका राज्यतिलक होगा तथा आप अयोध्यावासियों के राजा बनकर उन्हें सुख देंगे। इतना कहकर कैकेई नंदन भरत ने श्रीराम की पादुकाएं अपने शीश पर रख लीं और अयोध्यावासियों को साथ लेकर पुनः अयोध्या लौट गए।
अलग-अलग लेखकों द्वारा लिखी गई सम्पूर्ण रामकथाओं को यदि सार रूप में ग्रहण करें तो उनसे कुछ निश्चित प्रतिमान स्पष्ट होते हैं। इक्ष्वाकुवंशी चारों राजकुमारों ने अपने-अपने स्तर पर त्याग और उच्च आदर्श के प्रतिमान स्थापित किए। उन्होंने स्वयं के हित का चिंतन नहीं करके समाज के समक्ष राजाओं एवं राजकुमारों द्वारा किए जाने वाले आचरण को व्याख्यायित किया।
श्रीराम ने पिता दशरथ द्वारा श्रीराम की विमाता कैकेई को दिए गए वचनों का सम्मान करते हुए न केवल राज्य ही छोड़ा अपितु चौदह वर्ष तक वनवास में रहना उचित समझा। दूसरे पुत्र भरत ने राज्य पर ज्येष्ठ पुत्र के अधिकार को नैसर्गिक मानते हुए स्वयं राजा बनना स्वीकार नहीं किया तथा चौदह वर्ष तक अयोध्या के बाहर नंदीग्राम में रहना और वहीं से राज्यकार्य करना उचित समझा।
दशरथ के तीसरे पुत्र लक्ष्मण ने अपनी विमाता कौसल्या के पुत्र को अपना स्वामी मानकर उनके साथ वन में जाना स्वीकार किया। यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी अपने साथ नहीं लिया। राजा दशरथ के चौथे पुत्र शत्रुघ्नजी ने अपने तीनों भाइयों को चौदह साल तक अयोध्या से अनुपस्थित जानकर अयोध्यावासियों का रक्षण एवं पोषण किया।
उन्होंने राज्य की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा। इक्ष्वाकु राजाओं एवं राजकुमारों की इस उच्च परम्परा में अयोध्या के राजमहल की रानियों ने भी एक से बढ़कर एक उच्च आदर्श प्रस्तुत किए। रानी सीता महलों का सुख छोड़कर पति के साथ वनों में भटकती फिरीं किंतु उनके लिए यह कोई त्याग नहीं था, पति के साथ रहने का सुख था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भगवान श्रीराम के वनवास की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।’
अर्थात्- लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्री रामचन्द्र, पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयंत सहित बसता है। अर्थात् उनके लिए वन में निवास करना किसी महासुख से कम नहीं है। लक्ष्मणजी की रानी उर्मिला ने 14 साल की दीर्घ अवधि का पति वियोग सहना स्वीकार किया तथा अपनी तीनों विधवा सासों की सेवा-सुश्रुषा की। भरतजी 14 साल तक नंदीग्राम में रहते रहे किंतु रानी माण्डवी अयोध्या में अपनी सासों की सेवा करती रही।
श्रुतकीर्ति ने भी परिवार की मर्यादा और शील का अनुकरण किया। जब तक राम लौटकर नहीं आए, किसी भी भाई ने दाम्पत्य सुख नहीं भोगा। चौदह साल बाद जब राम-लक्ष्मण एवं सीता अयोध्या लौट आए तथा श्रीराम का राज्यतिलक हुआ, उसके बाद ही चारों भाईयों की रानियों ने दो-दो पुत्रों को जन्म दिया।